Thursday, September 29, 2022

पुस्तक समीक्षा |जीवन की कहानी कहती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा
जीवन की कहानी कहती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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(प्रस्तुत है आज 29.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के काव्य  संग्रह  "हम्म" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏)

काव्य संग्रह  - हम्म्म...
कवयित्री   - ज्योति विश्वकर्मा
प्रकाशक  - कमलकार मंच, 3 विष्णु विहार, अर्जुन नगर, दुर्गापुरा, जयपुर - 302018
मूल्य     - 150/-
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युवा कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा का संग्रह ‘‘हम्म्म...!" अपने नाम से ही विशिष्टता का बोध कराता है। विचार बोधक शब्द ‘‘हम्म्म" के साथ विविध परिस्थितियां हो सकती हैं। जैसे - तनी हुई भृकुटि, विचार मुद्रा या फिर सब कुछ समझ जाने का भाव। ‘‘हम्म्म" शब्द अपने आप में प्रतिक्रिया सूचक ध्वंयात्मक शब्द है जिसका स्वयं में कोई अर्थ नहीं है लेकिन स्वराघात के साथ वह विशिष्ट अर्थ देने लगता है।  

संग्रह की पहली कविता समाज से प्रश्न करती है ‘‘क्यों?" समाज में क्यों है इतनी अव्यवस्थाएं? क्यों है इतनी संवेदनहीनता? यह कविता एक ऐसी स्त्री पर केंद्रित है जो शहर की सड़कों पर घूमती हैं। पगली है। लोग उससे नफरत करते हैं। लेकिन रात के अंधेरे में उसका फायदा उठाते हैं। जब वह किसी वासनापूरित व्यक्ति के कारण प्रसव पीड़ा से गुजरती है, उस समय भी उसकी पीड़ा लोगों के मनोरंजन का साधन बनती है। यह संवेदनहीनता नहीं तो और क्या है? कवयित्री व्यथित है यह सब देख कर, इसलिए पगली की पीड़ा को अपनी कविता में उतारती है और समाज से प्रश्न करती है कि यह अमानवीयता क्यों? ये पंक्तियां देखिए-
और हम समझदार बनने का ढोंग करते हैं
कितनी गिरी हुई मानसिकता होगी
उसकी, जिसे दिन के उजाले में
उससे बास आती थी/ घिन आती थी
रात होते ही इत्र बन गई
अप्सरा बन गई
कौन पागल है
समझ में नहीं आता /क्यों?

     यह पहली कविता कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा के संवेदनात्मक आग्रह से परिचित करा देती है। संग्रह में एक लम्बी कविता है ‘‘छोटा परिवार"। यह एक संदेशपरक कविता है जो एक सुखी छोटे परिवार के विवरण से शुरू होती है और वृद्धविमर्श करती हुई उस बिन्दु पर पहुंचती है, जहां कवयित्री कहती है कि दूसरे की सहायता हेतु कभी-कभी ग़ैरजरूरी चीजें भी खरीद लेनी चाहिए। -
कभी-कभी बेवज़ह भी
यूं कुछ खरीद लिया करो
किसी को भीख देने से अच्छा है
उसके हिस्से की एक रोटी में
उसके स्वाभिमान के हिस्सेदार
बन जाया करो।

एक और लम्बी कविता है ‘‘द्वंद्व"। इस कविता में कवयित्री सेल्फ हेडोनिज्म यानी आत्म सुखवाद की बात करती हैं। वह अपने लिए जीना चाहती हैं और अपने प्रिय से भी इसी का आग्रह करती हुई लिखती है-
मुझे जीना है /तुम्हारे साथ
ऐसे जैसे /फूलों में खुशबू
सावन में हरियाली
वह सोचा हुआ लम्हा /जो मेरे तक है
उसे कभी ज़ाहिर /नहीं किया तुम पर
शायद तुम्हें भी एहसास है
मेरे इस हसीन ख़्वाब का
इतनी शिद्दत से चाहूंगी तुम्हें
कि खुद के होने के एहसास से
संवर जाएगा /तेरा तन मन
मुझे जीना है तुम्हारे साथ।
                      
 समाज एवं परिवार में बेटियों की आज भी द्वंद्वात्मक स्थिति है। उनकी सबसे अधिक उपेक्षा की जाती है जबकि सबसे अधिक अपेक्षाएं भी उन्हीं से रखी जाती हैं। विवाह के समय लड़के के माता-पिता उससे यह वचन कभी नहीं लेते हैं कि तुम्हें दोनों कुल की लाज रखनी है। यह वचन लड़की के माता-पिता सिर्फ लड़की से लेते हैं। गोया एक लड़का बिना वचन लिए भी दोनों कुल के मान-सम्मान की रक्षा कर लेगा, लेकिन एक लड़की वचन लिए बिना ऐसा नहीं कर सकेगी। यह संदेह क्यों रहता है? जबकि सबसे ज्यादा बेटियां ही निभाती हैं। आज भी ऐसे परिवार बहुत कम हैं, जहां बहुओं को बेटियों का दर्जा दिया जाता है। कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की इसी विषय पर एक कविता है ‘‘बेटियां पराई"। अपनी कविता में वे लिखती हैं-
कहते हैं विवाह दो दिलों
और दो परिवारों का
आपसी तालमेल होता है
पर इसके बस मान लेने से
कभी हिम्मत हुई कि तुम
उस परिवार के सामने
दो घड़ी चैन से बैठ,
तुम उसका हाल चाल पूछ लो।

जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि चारों ओर भीड़ ही भीड़ नज़र आती है। यह भीड़ आपसी पहचान और भाईचारा खोती जा रही है। लोग एक दूसरे को सिर्फ स्वार्थ के आधार पर पहचानते हैं। ऐसी  दिखावटी भीड़  से वही लोग किनारा कर पाते हैं जो एकांत में जीने की इच्छा रखते हैं और दुनियादारी की झंझटों से ऊब चुके होते हैं। भीड़ पर केंद्रित अपनी कविता में कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा जिस प्रकार मनोदशा को लक्षित करती हैं उसका एक अंश देखिए उनकी ‘‘भीड़" शीर्षक कविता में-
हर तरफ की भीड़ से
अब दम घुटने लगा है
चाहे जहां चले जाओ/एक सवाल
सामने आ जाता है कि
इतनी भीड़ कहां से/आती है
बाजार से श्मशान तक
अपनी-अपनी ख्वाहिशों की भीड़

       इसी संग्रह में एक और कविता है ‘‘मेरे बस में नहीं"। यह कविता समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगति को रेखांकित करती है, जिसमें कटाक्ष किया गया है उन लोगों पर जो धर्म के नाम पर बेतहाशा खर्च करते हैं लेकिन ज़रूरतमंदों की मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं। यह एक बहुत ही संवेदनशील कविता है। एक अंश देखिए इसका-
मज़ारों पर बेहिसाब
चादरों का चढ़ना
बाहर ठंड में 
फ़क़ीर का ठिठुरना
वह मज़ार की चादर
 मैं उस तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
मंदिरों में
छप्पन भोगों का लगना
और बाहर भूख के
हाथों का फैलना
वह एक भोग का थाल
उस पालनहार से छीन कर
उन तक पहुंचा दूं
यह मेरे बस में नहीं।
    ‘‘क्या यहां पाया किसी ने", ‘‘उम्मीदों के बाजार में", ‘‘केन्द्रबिन्दु", ‘‘मैं" आदि कविताएं  इस बात की द्योतक हैं कि कवयित्री के पास अंतर्दृष्टि है जिससे वह जीवन की तमाम विसंगतियों को देख सकती है।  वह प्रेम को अनुभव कर सकती है तथा व्याख्या भी कर सकती है। ‘‘हम्म्म" काव्य संग्रह में संग्रहीत कवयित्री ज्योति विश्वकर्मा की  लगभग सभी कविताएं  उनकी काव्य प्रतिभा  के प्रति विश्वास पैदा करती है। बस, इन कविताओं में यदि कोई कमी महसूस होती है तो वह है शिल्पगत कमी। कई कविताएं अत्यंत गद्यात्मक हो गई हैं। इस प्रकार का जोखिम अतुकांत नई कविताओं में बहुत अधिक होता है। अतः इस जोखिम को समझते हुए अतुकांत कविताओं में भी लयात्मकता और प्रवाह बनाए रखना चाहिए।  यदि अतुकांत कविताओं में तथ्यात्मक कहन साथ ही लय और प्रवाह हो  तो  वे कविताएं  अपने सही स्वरूप को प्राप्त करती हैं। कवयित्री द्वारा अभी अपनी कविताओं के शिल्प पक्ष को साधना  शेष है। यद्यपि इस काव्य संग्रह की कविताएं कहन के आधार पर  पठनीय है तथा कवयित्री का सृजनकार्य निःसंदेह स्वागत योग्य है।    
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