Wednesday, March 21, 2018

चर्चा प्लस ... विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष : जल रहेगा तो जीवन रहेगा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष :
जल रहेगा तो जीवन रहेगा
- डॉ. शरद सिंह

जल ही जीवन है वर्ष 2018 के लिए जल दिवस की थीम रखी गई है -‘नेचर फॉर वाटर’’ यानी ‘‘जल के लिए प्रकृति’’। यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी और प्राकृतिक तत्वों में संतुलन बना रहेगा तो जल भी बचा रहेगा। हमें याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में आगामी अप्रैल माह से 4 लाख लोगों को नल बंद करने की योजना बना रहा है। और वह दिन होगा -‘जीरो डे’। कहीं हम भी इसी भविष्य की ओर तो नहीं बढ़ रहे? जो जल रहेगा तो जीवन रहेगा, वरना बिन पानी सब सून.....
विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष : जल रहेगा तो जीवन रहेगा - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस  - Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

वर्ष 2018 के लिए जल दिवस की थीम रखी गई है -‘नेचर फॉर वाटर’’ यानी ‘‘जल के लिए प्रकृति’’। यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी और प्राकृतिक तत्वों में संतुलन बना रहेगा तो जल भी बचा रहेगा। हमें याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में आगामी अप्रैल माह से 4 लाख लोगों को नल बंद करने की योजना बना रहा है। और वह दिन होगा -‘जीरो डे’। मेरी पीढ़ी तक के वे लोग जिन्होंने हिन्दी माध्यम सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा पाई होगी उन्होंने ककहरा के अभ्यास में यह पाठ अवश्य पढ़ा होगा-‘घर चल, जल भर‘। हमें जल का महत्व हर कदम पर सिखाया और समझाया गया लेकिन मानो हमने अपने तमाम पाठ बहुत जल्दी भुला दिए। हमारी लापरवाहियों के कारण जल का संकट आज एक वैश्विक संकट का रूप लेता जा रहा है। इस संकट को महसूस करते ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने जल संरक्षण की ओर सारी दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने का निश्चय किया और वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के द्वारा प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को विश्व जल संरक्षण दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। जल का महत्व, आवश्यकता और संरक्षण के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिये इसे पहली बार वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में “पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन” की अनुसूची 21 में आधिकारिक रुप से जोड़ा गया था और वर्ष 1993 से इस उत्सव को मनाना शुरु किया। वर्ष 2017 के लिए थीम थी “अपशिष्ट जल प्रबंधन“। जिसे हम आत्मसात नहीं कर सके। सच तो यह है कि हमारी योजनाओं और उन योजनाओं के अमल होने में दो ध्रुवों जितनी दूरी होती है। केन्द्र, राज्य, निकाय आदि हर स्तर पर बड़ी-बड़ी बातें करते हुए हमने अपशिष्ट जल के प्रबंधन की योजनाओं पर हवाई मंथन किया। क्रियान्वयन के मामले में हमेशा की तरह फिसड्डी रहे। जबकि देश के लगभग हर शहर और हर गांव में पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। किसान नहरों और बांधों से, यहां तक कि पेयजल की सप्लाई लाईनों को तोड़ कर, पंक्चर कर के पानी चुराने को विवश हैं। जो पानी पीने के लिए काम में लाया जाना चाहिए उससे खेत सिंचते हैं या फिर उसका अपव्यय कर के उसे नालियों में बहा दिया जाता है। यह सारी अव्यवस्थाएं और अपव्यय इसलिए है कि हम जल प्रबंधन की बातें करना भर जानते हैं, जल प्रबंधन करना नहीं।
हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जल के अनेक स्रोत कुओं, बावड़ियों और तालाबों के रूप में हमारे लिए छोड़े लेकिन हम इतने लापरवाह निकले कि उन्हें ढंग से सहेज भी नहीं पा रहे हैं। देश भर में हज़ारों कुए, तालाब और बावड़ियां सूख गईं सिर्फ़ हमारी लापरवाही के कारण। आज भी अनेक कुए ऐसे हैं जो तिल-तिल कर मर रहे हैं। उनका पानी प्रदूषित हो चुका है। हम उस पानी का प्रदूषण दूर कर उसे उपयोगी बना सकें इसके बदले मानो प्रतीक्षा करते हैं कि कब वह कुआ मर जाए और उस ज़मीन पर कोई रिहाइशी बिल्डिंग या शॅापिंग काम्प्लेक्स बना सकें। दुख की बात है कि हम अपनी भावी पीढी के लिए कितने और कैसे जलस्रोत छोड़ जाएंगे, यह भी नहीं सोच रहे हैं। मुझे आज के इस हालात पर राजा मिडास की कहानी याद आती है। यूनानी राजा मिडास को धन-संपत्ति की इतनी अधिक भूख थी कि उसने देवताओं से यह वरदान मांग लिया कि वह जो भी छुए वह सोने में बदल जाए। मिडास वरदान पा कर बेहद खुश हुआ। उसका महल, उसका बिस्तर, उसकी सारी वस्तुएं उसके छूते ही सोने की बन गईं। लेकिन जल्दी ही उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा। क्यों कि उसका भोजन-पानी भी उसके छूते ही सोने में बदल गया। यहां तक कि जब उसने अपनी बेटी को दुआ तो वह भी सोने की गुड़िया में बदल गई। तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह रो-रो कर देवताओं से माफी मांगने लगा। काल्पनिक कथाओं में देवता प्रसन्न हो कर माफ कर देते हैं लेकिन यदि हम जलस्रोतों को सुखा कर पर्यावरण से खिलवाड़ करते रहेंगे तो हम स्वयं को माफ करने के योग्य भी नहीं रहेंगे। आखिर प्रत्येक प्राणी के लिए जल का होना जरूरी है। पानी के बिना कोई भी प्राणी अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता है। अब तो इस बात की भी संभावना व्यक्त की जाने लगी है कि यदि तृतीय विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही होगा। दरअसल, पानी किसी भी प्राणधारी की बुनियादी आवयकता होती है।
क्या कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन देश ऐसी भी स्थिति आएगी कि पानी के लिए धारा 144 लगाई जाएगी अथवा पेयजल के स्रोतों पर बंदूक ले कर चौबीसों घंटे का पहरा बिठाया जाएगा? किसी ने नहीं सोचा। लेकिन वर्ष 2016 की गर्मियों में ऐसा ही हुआ। पिछले दशकों में पानी की किल्लत पर गंभीरता से नहीं सोचे जाने का ही यह परिणाम है कि शहर, गांव, कस्बे सभी पानी की कमी से जूझते दिखाई पड़े। देश के कई हिस्सों में पानी की समस्या अत्यंत भयावह रही। विगत वर्ष महाराष्ट्र में कृषि के लिए पानी तो दूर, पीने के पानी के लाले पड़ गए थे। जलस्रोत सूख गए थे। जो थे भी उन पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव था। सबसे शोचनीय स्थिति लातूर की थी। पीने के पानी के लिए हिंसा और मार-पीट की इतनी अधिक घटनाएं सामने आईं। कलेक्टर ने लातूर में 20 पानी की टंकियों के पास प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी। मध्यप्रदेश में भी पानी का भीषण संकट मुंह बाए खड़ा रहा। प्रदेश की करीब 200 तहसीलों सूखाग्रस्त और 82 नगरीय निकायों में भी गम्भीर पेयजल संकट का सामना करते रहे। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में और भी अजीब स्थिति रही। वहां की नगर पालिका के चेयरमैन के अनुसार किसान पानी न चुरा पाएं, इसलिए नगरपालिका की ओर से लाइसेंसी हथियार शुदा 10 गार्ड तैनात किए। गर्मी का मौसम फिर दस्तक दे रहा है और यह दौर फिर आने वाला है।
इंसान जल की महत्ता को लगातार भूलता गया और उसे बर्बाद करता रहा, जिसके फलस्वरूप आज जल संकट सबके सामने है। आंकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। प्रकृति इंसान को जीवनदायी संपदा जल एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, इंसान भी इस चक्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना प्रत्येक व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है, जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से जितना पानी हम लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। धरातल पर तीन चौथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। पेयजल की अनुपलब्धता वाले क्षेत्रों में पीने के पानी के लिए प्रत्येक महिला को लगभग औसतन 6 कि.मी. की पदयात्रा करनी पड़ती है।
प्रत्येक क्षेत्रीय संस्कृति में प्रकृति के महत्व को जीवन से बड़ी सहजता और सुंदरता से जोड़ा गया है। बुन्देली संस्कृति में ही देखें तो हम पाएंगे कि प्रकृति के प्रत्येक तत्वों से किस प्रकार मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। मकरसंक्रांति के अवसर पर गाए जाने वाले ‘बाम्बुलिया’ नामक लोकगीतों में नर्मदा तथा अन्य नदियों से जिस प्रकार रिश्तों को जताया जाता है वह उल्लेखनीय है। नर्मदा नदी के दर्शन करने पहुंचने वाली टोली नर्मदा के पास पहुंचती है तो गा उठती है-
नरमदा मैया ऐसे तौ मिलीं रे
ऐसे तौ मिलीं के जैसे मिले मताई औ बाप रे
नरबदा मैया हो.....
नरबदा मोरी माता लगें रे
अरे, माता तौ लगें रे, तिरबेनी लगें मोरी बैन रे
नरबदा मैया हो.....
हमने अपने अतीत में प्रकृति को अपने जीवन के हर सुख-दुख से जोड़ा और उसे अपने संस्कारों को साथी बनाया। जैसे, विवाह के अवसर पर विभिन्न पूजा-संस्कारों के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। यह जल नदी, तालाब अथवा कुए से लाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में प्रसव के बाद प्रसवा के दूध की कुछ बूंदें कुए के जल में डाली जाती हैं जो एक जननी का दूसरी जननी के प्रति आभार प्रदर्शन और बहनापे का प्रतीक होता है। सरकारी योजनाओं से कहीं अधिक हमें जरूरत है अपने जल स्रोतों से इसी प्रकार के आत्मिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की। जब हम प्रकृति के तत्वों को अपना सगा-संबंधी समझेंगे तभी हम उनके क्षरण को रोक सकेंगे और प्रकृतिक तत्वों के क्षरण को रोक कर जल की उपलब्धता भी बढ़ा सकेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जल संरक्षण के लिए जरुरत है उस जागरुकता की, जिसमें हर आयुवर्ग का व्यक्ति पानी को बचाना अपना धर्म या अपना बुनियादी कर्त्तव्य समझे।
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(दैनिक सागर दिनकर, 21.03.2018 )
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2 comments:

  1. शरद सिंह जी आपका लेख प्रेरणादायी है, मैं एक शिक्षक हू और प्रत्येक वर्ष इस दिवस को अपने स्कूल के बच्चों व ग्रामीणों के साथ जागरूकता रैली के रूप में निकालकर नदी तट पर स्वच्छता अभियान चलाता हू। आपके लेख से काफी अच्छी जानकारी मिली, धन्यवाद

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  2. मेम बहुत ही सुन्दर जल पर लेख प्रस्तुत किया. यह सच है कि यदि हम आज जल के प्रति संवेदनशील नहीं हुए तो भविष्य में परिणााम बहुत ही उलट होंगे

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