Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस
भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष :
बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ
- डॉ. शरद सिंह
भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष :
बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ
- डॉ. शरद सिंह
14 मार्च का दिन भारतीय सिनेमा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन लगभग 87 साल पहले भरतीय फिल्मों को अवाज़ मिली थी। मूक फिल्मों की कड़ी को तोड़ते हुए भरतीय फिल्मों ने पहली बार सावाक् यानी बोलती हुई फिल्मों की दुनिया में अपना पहला क़दम रखा था। सन् 1931 की मार्च की 14 तारीख को दिन शनिवार था जब मुंबई (तत्कालीन बम्बई) के मैजेस्टिक सिनेमाघर में ’आलम आरा’ नामक बोलती फिल्म का प्रथम प्रदर्शन हुआ। फिल्म के निर्देशक थे आर्देशिर ईरानी। इस पहली सावाक फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण को एक नया मोड़ देते हुए एक नया इतिहास रचा।
भारतीय सावाक फिल्म दिवस (14 मार्च) पर विशेष : बोलती फिल्मों का सफ़र जो ‘आलम आरा’ से शुरू हुआ - डॉ. शरद सिंह - चर्चा प्लस - Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
आज जब सिनेमाघरों में डिज़िटल और सराउण्ड साउण्ड
सिस्टम भी फीका लगने लगा है और हाई डेफिनेशन की जेनरेशन पर जेनरेशन पीछे
छूटते चले जा रहे, ऐसे समय में उस फिल्म की कल्पना करना बहुत कठिन है
जिसमें पात्र बोलते नहीं थे, सिर्फ़ अभिनय करते थे। मूक फिल्में कहलाती थीं
वे। लेकिन जुनून उस समय भी वैसा ही होता था उन फिल्मों को देखने का जैसा
कि आज होता मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखने का जुनून। भले ही तब दर्शक
सीमित हुआ करते थे। महिला दर्शकों की संख्या तो और भी कम हुआ करती थी क्यों
कि फिल्म देखना उन दिनों अच्छा नहीं माना जाता था। फिर भी भारतीय फिल्म
निर्माता इस माहौल से निराश नहीं थे। वे जानते थे कि जो आज चाह कर भी
सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं वे कल किसी न किसी तरह सिनेमाघरों तक
पहुंच ही जाएंगे। इसीलिए भारतीय फिल्म निर्देशकों ने अपनी पूंजी का एक बड़ा
हिस्सा दांव पर लगाते हुए वह छलांग लगाई जो भारतीय दर्शकों को सिनेमाघरों
के दरवाज़े तक खींचने में सफल रही।
14 मार्च का दिन भारतीय सिनेमा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन लगभग 87 साल पहले भरतीय फिल्मों को अवाज़ मिली थी। मूक फिल्मों की कड़ी को तोड़ते हुए भरतीय फिल्मों ने पहली बार सावाक् यानी बोलती हुई फिल्मों की दुनिया में अपना पहला क़दम रखा था। सन् 1931 की मार्च की 14 तारीख को दिन शनिवार था जब मुंबई (तत्कालीन बम्बई) के मैजेस्टिक सिनेमाघर में ’आलम आरा’ नामक बोलती फिल्म का प्रथम प्रदर्शन हुआ। फिल्म के निर्देशक थे आर्देशिर ईरानी। इससे पहले भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के ने भी फ़िल्मों में आवाज़ डालने के कई प्रयास किए थे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। दरअसल, दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। वह फिल्म ल्युमेरे ब्रदर्स की फिल्मों की तरह लघु चलचित्र न होकर लंबी फिल्म थी। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फिल्म थी और सन् 1913 में प्रदर्शित हुई यद्यपि यह मूक फिल्म थी।
‘आलम आरा’ मूलतः जोसेफ़ डेविड निर्देशित एक पारसी नाटक था। आर्देशिर इसे देखकर बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने तय किया कि वो गाने डालकर इस पर फ़िल्म बनाएंगे। जिस समय आर्देशिर ईरानी आलम आरा बना रहे थे, उसी समय कृष्णा मूवीटोन, मदन थिएटर्स जैसी कंपनियां भी बोलती फ़िल्म बनाने के प्रयास में लगी थीं। ईरानी ’आलम आरा’ की शूटिंग जल्द से जल्द ख़त्म करना चाहते थे ताकि उनकी फ़िल्म भारत की पहली बोलती फ़िल्म बन जाए। ‘आलम आरा’ को देखने के लिए दर्शकों ने अपने पूर्व के सारे रिकार्ड तोड दिए थे। यहां तक कि दर्शकों को काबू में रखने के लिए पुलिस को लाठियां चलानी पड़ी थीं।
लेकिन सबकुछ इतना आसान भी नहीं था। ‘आलम आरा’ को अपने निर्माण के दौरान अनेक मानवीय और तकनीकी कठिनाइयों को सामना करना पड़ा था। सबसे बड़ी कठिनाई फिल्म के नायक के चयन को ले कर हुई। मास्टर विट्ठल शिक्षित नहीं थे अतः ईरानी को लगा कि वे संवाद नहीं बोल पाएंगे। लेकिन मास्टर विट्ठल फिल्म कम्पनी के वैतनिक अभिनेता के रूप में अनुबंधित थे। फिल्म में नायक के रूप् में न चुने जाने पर उन्होंने कम्पनी पर मुकदमा ठांक दिया। उल्लेखनीय है कि जो बम्बई के जाने माने बैरिस्टर मिस्टर जिन्ना (आगे चलकर पाकिस्तान के जनक) ने मास्टर विट्ठल का मुकद्दमा लड़ा और विजय दिलाई। कम्पनी को मास्टर विट्ठल को ‘आलम आरा’ का हीरो बनाना पड़ा। इस प्रकार फ़िल्म के नायक की भूमिका निभाई मास्टर विट्ठल ने और नायिका थीं ज़ुबैदा। फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित थी। वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने इस फ़िल्म में फ़क़ीर की भूमिका की थी। फ़िल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार की कहानी थी। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फ़कीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। ग़ुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार का निवेदन करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। ग़ुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलम आरा को देशनिकाला दे देती है। आलम आरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलम आरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सज़ा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है । इसी के साथ आदिल को जेल से रिहा कर दिया जाता है।
उन दिनों ‘‘आलम आरा’’ पूरे एशिया में नाम कमाया। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ सप्ताह तक चली थी। लोगों ने सिर्फ़ गाने सुनने के लिए इस फ़िल्म को देखा। दुर्भाग्यवश इस पहली सवाक फ़िल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं मिलता है और इस फ़िल्म के गाने भी संरक्षित नहीं किए जा सके। कहा जाता है कि फ़िल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फ़क़ीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था। उसके बोल थे- “दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे, ताक़त है ग़र देने की।“ एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद के संस्मरण से पता चला कि उसे गायिका अलकनंदा ने गाया था। बोल थे-‘‘बलमा कहीं होंगे’’। इस बात की जानकारी नहीं है कि शेष पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया था। फ़िल्म के संगीत में केवल तीन वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
’आलम आरा’ के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। ईरानी और उनकी यूनिट इंपीरियल स्टूडियो ने टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरा विदेश से आयात किया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फ़िल्म की रिकॉर्डिंग स्वयं की। टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरे से शूट करने में बड़ी परेशानी होती। एक ही ट्रैक पर साउंड और पिक्चर की रिकॉर्डिंग होती, इसलिए कलाकारों को एक ही टेक में शॉट देना पड़ता। डबिंग के बारे में तो उस समय कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। कैमरे के प्रिंट के साथ समस्या ये थी कि उसे संरक्षित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो नाइट्रेट प्रिंट था जो बड़ी जल्दी आग पकड़ लेता था। फ़िल्म की शूटिंग में और भी बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आस-पास बहुत आवाज़ें आती थीं जो साथ में रिकॉर्ड हो जाती थीं। ऐसे में दिन में शूटिंग करना बड़ा मुश्किल होता था. फ़िल्म के ज़्यादातर कलाकार मूक फ़िल्मों के दौर के थे। ऐसे में उन्हें टॉकी फ़िल्म में काम करने की तकनीक के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। उन्हें घंटों तक सिखाया जाता कि माइक पर कैसे बोलना है. उन्हें ज़बान साफ़ करने के तरीक़े बताए जाते।
पुणे में जन्मे ख़ान बहादुर अर्देशिर एम. ईरानी अध्यापक से मिट्टी तेल इंस्पेक्टर, फिर पुलिस इंस्पेक्टर की नौकरी के बाद संगीत और फ़ोटाग्राफी के उपकरण बेचने का काम करने लगे। छात्र-जीवन से ही फोटोग्राफी के प्रति दीवानगी ने उन्हें सिनेमा की तरफ प्रेरित किया। पहले वे हॉलीवुड की प्रख्यात निर्माण संस्था ‘यूनीवर्सल पिक्चर्स’ के भारत में (मुंबई) प्रतिनिधि बने, फिर मुंबई में ही मैजेस्टिक सिनेमाघर का निर्माण किया और एलैक्जैंडर सिनेमाघर में भागीदारी भी की। सन् 1926 में उन्होंने इंपीरियल सिनेमा की स्थापना की और इस बैनर के अंतर्गत् पहली सवाक फ़िल्म में गानों का भी फ़िल्मांकन किया। सन् 1939 में उन्होंने ज्योति स्टूडियो की स्थापना की जहां अनेक फिल्मों की शूटिंग हुई।
मैजेस्टिक सिनेमा में जब फ़िल्म का प्रीमियर हुआ तो ख़ुद आर्देशिर ईरानी एक-एक मेहमान का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे। उस समय फ़िल्म के नेगेटिव बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलते थे। आलम आरा के बहुत लिमिटेड प्रिंट्स बने थे। उस वक़्त फ़िल्म-आर्काइव जैसी कोई संस्था नहीं थी। जब स्टूडियो कल्चर ख़त्म होने लगा तो फ़िल्मों के प्रिंट्स को कौड़ियों के भाव कबाड़ियों को बेच दिया गया क्योंकि उन स्टूडियो की इमारतों में कुछ और निर्मित होने लगा। दादा साहेब फालके की फ़िल्म ’राजा हरिश्चंद्र’ के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म ’आलम आरा’ इस पहली बोलती फिल्म की भाषा को न तो शुद्ध हिंदी कहा जा सकता था और न शुद्ध उर्दू। यह मिली-जुली हिन्दुस्तानी थी फिर भी इस पहली सावाक फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण को एक नया मोड़ देते हुए एक नया इतिहास रचा।
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(दैनिक सागर दिनकर, 14.03.2018 )
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‘आलम आरा’ मूलतः जोसेफ़ डेविड निर्देशित एक पारसी नाटक था। आर्देशिर इसे देखकर बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने तय किया कि वो गाने डालकर इस पर फ़िल्म बनाएंगे। जिस समय आर्देशिर ईरानी आलम आरा बना रहे थे, उसी समय कृष्णा मूवीटोन, मदन थिएटर्स जैसी कंपनियां भी बोलती फ़िल्म बनाने के प्रयास में लगी थीं। ईरानी ’आलम आरा’ की शूटिंग जल्द से जल्द ख़त्म करना चाहते थे ताकि उनकी फ़िल्म भारत की पहली बोलती फ़िल्म बन जाए। ‘आलम आरा’ को देखने के लिए दर्शकों ने अपने पूर्व के सारे रिकार्ड तोड दिए थे। यहां तक कि दर्शकों को काबू में रखने के लिए पुलिस को लाठियां चलानी पड़ी थीं।
लेकिन सबकुछ इतना आसान भी नहीं था। ‘आलम आरा’ को अपने निर्माण के दौरान अनेक मानवीय और तकनीकी कठिनाइयों को सामना करना पड़ा था। सबसे बड़ी कठिनाई फिल्म के नायक के चयन को ले कर हुई। मास्टर विट्ठल शिक्षित नहीं थे अतः ईरानी को लगा कि वे संवाद नहीं बोल पाएंगे। लेकिन मास्टर विट्ठल फिल्म कम्पनी के वैतनिक अभिनेता के रूप में अनुबंधित थे। फिल्म में नायक के रूप् में न चुने जाने पर उन्होंने कम्पनी पर मुकदमा ठांक दिया। उल्लेखनीय है कि जो बम्बई के जाने माने बैरिस्टर मिस्टर जिन्ना (आगे चलकर पाकिस्तान के जनक) ने मास्टर विट्ठल का मुकद्दमा लड़ा और विजय दिलाई। कम्पनी को मास्टर विट्ठल को ‘आलम आरा’ का हीरो बनाना पड़ा। इस प्रकार फ़िल्म के नायक की भूमिका निभाई मास्टर विट्ठल ने और नायिका थीं ज़ुबैदा। फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। राजकुमार और बंजारिन की प्रेम कहानी पर आधारित थी। वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने इस फ़िल्म में फ़क़ीर की भूमिका की थी। फ़िल्म में एक राजा और उसकी दो झगड़ालू पत्नियां दिलबहार और नवबहार की कहानी थी। दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फ़कीर भविष्यवाणी करता है कि राजा के उत्तराधिकारी को नवबहार जन्म देगी। ग़ुस्साई दिलबहार बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख मंत्री आदिल से प्यार का निवेदन करती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। ग़ुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलम आरा को देशनिकाला दे देती है। आलम आरा को बंजारे पालते हैं। युवा होने पर आलम आरा महल में वापस लौटती है और राजकुमार से प्यार करने लगती है। अंत में दिलबहार को उसके किए की सज़ा मिलती है, राजकुमार और आलमआरा की शादी होती है । इसी के साथ आदिल को जेल से रिहा कर दिया जाता है।
उन दिनों ‘‘आलम आरा’’ पूरे एशिया में नाम कमाया। अकेले मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह लगातार आठ सप्ताह तक चली थी। लोगों ने सिर्फ़ गाने सुनने के लिए इस फ़िल्म को देखा। दुर्भाग्यवश इस पहली सवाक फ़िल्म में संगीतकार, गीतकार या गायकों के नामों का उल्लेख नहीं मिलता है और इस फ़िल्म के गाने भी संरक्षित नहीं किए जा सके। कहा जाता है कि फ़िल्म में कुल सात गाने थे। जिनमें से एक फ़क़ीर की भूमिका करने वाले अभिनेता वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने गाया था। उसके बोल थे- “दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे, ताक़त है ग़र देने की।“ एक और गाने के बारे में एल वी प्रसाद के संस्मरण से पता चला कि उसे गायिका अलकनंदा ने गाया था। बोल थे-‘‘बलमा कहीं होंगे’’। इस बात की जानकारी नहीं है कि शेष पांच गानों के बोल क्या थे और किसने गाया था। फ़िल्म के संगीत में केवल तीन वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया गया था- तबला, हारमोनियम और वायलिन।
’आलम आरा’ के लिए अमेरिका से टैनार साउंड सिस्टम आयात किया गया। ईरानी और उनकी यूनिट इंपीरियल स्टूडियो ने टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरा विदेश से आयात किया। उसके साथ उपकरण का प्रशिक्षण देने के लिए विलफोर्ड डेमिंग नाम के साउंड इंजीनियर आए थे। अर्देशिर और उनके सहयोगी रुस्तम भड़ूचा ने उनसे एक महीने में ही बारीकियां सीखीं और पूरी फ़िल्म की रिकॉर्डिंग स्वयं की। टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरे से शूट करने में बड़ी परेशानी होती। एक ही ट्रैक पर साउंड और पिक्चर की रिकॉर्डिंग होती, इसलिए कलाकारों को एक ही टेक में शॉट देना पड़ता। डबिंग के बारे में तो उस समय कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। कैमरे के प्रिंट के साथ समस्या ये थी कि उसे संरक्षित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो नाइट्रेट प्रिंट था जो बड़ी जल्दी आग पकड़ लेता था। फ़िल्म की शूटिंग में और भी बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आस-पास बहुत आवाज़ें आती थीं जो साथ में रिकॉर्ड हो जाती थीं। ऐसे में दिन में शूटिंग करना बड़ा मुश्किल होता था. फ़िल्म के ज़्यादातर कलाकार मूक फ़िल्मों के दौर के थे। ऐसे में उन्हें टॉकी फ़िल्म में काम करने की तकनीक के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। उन्हें घंटों तक सिखाया जाता कि माइक पर कैसे बोलना है. उन्हें ज़बान साफ़ करने के तरीक़े बताए जाते।
पुणे में जन्मे ख़ान बहादुर अर्देशिर एम. ईरानी अध्यापक से मिट्टी तेल इंस्पेक्टर, फिर पुलिस इंस्पेक्टर की नौकरी के बाद संगीत और फ़ोटाग्राफी के उपकरण बेचने का काम करने लगे। छात्र-जीवन से ही फोटोग्राफी के प्रति दीवानगी ने उन्हें सिनेमा की तरफ प्रेरित किया। पहले वे हॉलीवुड की प्रख्यात निर्माण संस्था ‘यूनीवर्सल पिक्चर्स’ के भारत में (मुंबई) प्रतिनिधि बने, फिर मुंबई में ही मैजेस्टिक सिनेमाघर का निर्माण किया और एलैक्जैंडर सिनेमाघर में भागीदारी भी की। सन् 1926 में उन्होंने इंपीरियल सिनेमा की स्थापना की और इस बैनर के अंतर्गत् पहली सवाक फ़िल्म में गानों का भी फ़िल्मांकन किया। सन् 1939 में उन्होंने ज्योति स्टूडियो की स्थापना की जहां अनेक फिल्मों की शूटिंग हुई।
मैजेस्टिक सिनेमा में जब फ़िल्म का प्रीमियर हुआ तो ख़ुद आर्देशिर ईरानी एक-एक मेहमान का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे। उस समय फ़िल्म के नेगेटिव बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलते थे। आलम आरा के बहुत लिमिटेड प्रिंट्स बने थे। उस वक़्त फ़िल्म-आर्काइव जैसी कोई संस्था नहीं थी। जब स्टूडियो कल्चर ख़त्म होने लगा तो फ़िल्मों के प्रिंट्स को कौड़ियों के भाव कबाड़ियों को बेच दिया गया क्योंकि उन स्टूडियो की इमारतों में कुछ और निर्मित होने लगा। दादा साहेब फालके की फ़िल्म ’राजा हरिश्चंद्र’ के 18 वर्ष बाद आने वाली फ़िल्म ’आलम आरा’ इस पहली बोलती फिल्म की भाषा को न तो शुद्ध हिंदी कहा जा सकता था और न शुद्ध उर्दू। यह मिली-जुली हिन्दुस्तानी थी फिर भी इस पहली सावाक फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण को एक नया मोड़ देते हुए एक नया इतिहास रचा।
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(दैनिक सागर दिनकर, 14.03.2018 )
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