प्रस्तुत है आज 18.10.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक मुकेश भारद्वाज के उपन्यास "मेरे बाद" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण"
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पुस्तक समीक्षा
"मेरे बाद" : जासूसी और रोमांच के एक नए अंदाज़ से भरा उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - मेरे बाद
लेखक - मुकेश भारद्वाज
प्रकाशक - यश पब्लिकेशंस, 1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 299/-
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पेशे से प्रखर पत्रकार और अपनी बेलौस ओर बेख़ौफ़ राजनीतिक टिप्पणियों के लिए विख्यात मुकेश भारद्वाज का जब मर्डर मिस्ट्री वाला जासूसी उपन्यास ‘‘मेरे बाद’’ प्रकाशित हुआ तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। उनके द्वारा जासूसी थ्रिलर लिखे जाने ने जिज्ञासा जगा दी कि आखिर किस मिस्ट्री को उन्होंने अपने उपन्यास में सामने रखा है और किस तरह से इसका ताना-बाना बुना गया होगा? जासूसी उपन्यासों की एक पाठक और एक साहित्यिक समीक्षक दोनों रूप में मेरी भी यही जिज्ञासा थी। जब मैंने कुल 272 पृष्ठों का यह उपन्यास आद्योपांत पढ़ा तो मुझे लगा कि मुकेश भारद्वाज जासूसी उपन्यास के पाठकों की नब्ज़ पकड़ चुके हैं। उन्होंने जिस कोण से इस उपन्यास के कथानक को बुना है वह उनकी लेखकीय क्षमता के प्रति कायल कर देता है।
21 वीं सदी के दूसरे दशक में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह जासूसी उपन्यास फिर से साहित्य के बाज़ार में अपनी जगह बनाने लगे हैं उसे देखते हुए, हिन्दी में जासूसी उपन्यासों का दौर एक बार फिर शुरु होता दिखाई देता है लेकिन आज जासूसी उपन्यासों के सामने अनेक चुनौतियां हैं। सत्तर-अस्सी के दशक तक मुद्रित रूप में ही जासूसी कथानक सहज उपलब्ध रहते थे लेकिन आज के दौर में जब ओटीटी के बूम का दौर चल रहा है, जासूसी, थ्रिलर, सस्पेंस और मर्डर मिस्ट्री हाई डेफिनेशन डिजिटल प्रजेंटेशन के साथ हमारी आंखों के सामने चलित रूप में मौजूद हैं। जो दर्शक ओटीटी पर नहीं हैं उनके लिए न्यूज़ चैनल्स सहित तमाम प्रकार के चैनल्स पर एक न एक कार्यक्रम अपराध पर आधारित परोसा जाता है। यह सब मिल जाता है उसी कीमत के अंदर जो ओटीटी या पेड टीवी के लिए चुकाना पड़ता है। दूरदर्शन के फ्री-टू-एयर चैनल्स भी इससे अछूते नहीं हैं। वे भी जानते हैं कि आम इंसान मर्डर मिस्ट्री और जासूसी जैसे विषय में गहरी दिलचस्पी रखता है। इस कठिन दौर में यदि कोई जासूसी उपन्यास लिखता है तो उसके सामने (यदि इब्ने शफी के उर्दू और जेम्स हेडली चेईज़ के अंग्रेजी उपन्यासों के हिन्दी रूपांतरों को छोड़ दिया जाए तो) सुरेन्द्र मोहन पाठक और ओमप्रकाश शर्मा के समय का अनुकूल वातावरण नहीं है। इससे पहले गोपाल राम गहमरी ने जासूसी दुनिया को मुद्रण में लाया था। गोपाल राम गहमरी जो एक उपन्यासकार तथा पत्रकार थे, वे 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘‘जासूस’’ नामक पत्रिका निकालते रहे। उन्होंने स्वयं 200 से अधिक जासूसी उपन्यास लिखे। यूं तो गोपाल राम गहमरी ने कविताएं, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन उन्हें प्रसिद्धि मिली उनके जासूसी उपन्यासों से। यदि गौर करें तो देवकीनन्दन खत्री का ‘‘चंद्रकान्ता’’ उपन्यास हिन्दी के शुरुआती जासूसी उपन्यासों गिना जा सकता है। सबसे पहले इसका प्रकाशन सन 1888 में हुआ था। यह लेखक का पहला उपन्यास था। यह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था और तब इसे पढ़ने के लिये बहुत लोगों ने देवनागरी-हिन्दी भाषा सीखी थी। यह पूरा उपन्यास तिलिस्म और ऐयारी अर्थात् जासूसी पर आधारित था। लेकिन उस समय से अब तक आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। आज सिनेमा, टेलीविजन और इंटरनेट के कारण मर्डर मिस्ट्री वाले जासूसी साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले पाठक को फायरआर्म्स की अच्छी-खासी जानकारी रहती है। एक सामान्य-सी लगने वाली मर्डर मिस्ट्री में पाठक को मिस्ट्री जैसा अनुभव हो तभी लेखन सार्थक हो सकता है। मुकेश भरद्वाज ने एक साधारण सी लगने वाली मर्डर मिस्ट्री में जिस तरह जासूसी का छौंका लगाया है, उससे उनका उपन्यास जासूसी के ‘एक नए फ्लेवर’ के रूप में हमारे सामने आता है।
रहस्य और रोमांच से भरे किसी जासूसी उपन्यास का कथानक पूरी तरह बता कर उसके प्रति लेखकीय अपराध नहीं किया जा सकता है। उचित यही होता है कि पाठक स्वयं उसे पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़े और समूची जासूसी प्रक्रियाओं के साथ स्वयं को जासूस का हमराह अनुभव करे। बहरहाल, इस उपन्यास के बारे में उसकी खूबियों की चर्चा तो की ही जा सकती है। उपन्यास का पहला अध्याय एक ऐसे व्यक्ति से जोड़ता है जो अपने गले में फांसी का फंदा डाल कर आत्महत्या करने को तत्पर है। इस पात्र की मनोदशा को ले कर लेखक ने कोई छिपाव नहीं रखा है। मृत्यु के पूर्व जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों की याद आना और उन्हें याद करते हुए किशोर वशिष्ठ नामक इस पात्र की आत्महत्या की इच्छा का बलवती होता जाना, इस प्रथम अध्याय के अंत तक ही पाठक को संशय में रखता है कि किशोर वशिष्ठ सचमुच आत्महत्या कर रहा है या नहीं? यहीं से पाठक उपन्यास के नाम का आशय ताड़ जाता है कि ‘‘मेरे बाद’’ किशोर वशिष्ठ की मनोदशा से उपजा है। प्रथम अध्याय के अंतिम पैरा में इस संशय का एक झटके में अंत हो जाता है कि किशोर आत्महत्या करेगा या नहीं, जब वह अपनी मृत पत्नी के फुलकारी दुपट्टे से बने फांसी के फंदे पर झूल जाता है। प्रथम अध्याय समाप्त होते ही पाठक सोच में पड़ जाता है कि अब इसके बाद क्या? इसमें मिस्ट्री कैसी? एक इंसान आत्महत्या करने की मनोदशा पर पहुंचता है और फांसी के फंदे पर लटक जाता है। एक साधारण ओपन एण्ड शट केस।
दूसरे अध्याय में उस व्यक्ति से पाठकों का परिचय होता है जो प्राइवेट जासूस है और होमीसाईड एक्सपर्ट है। नाम है अभिमन्यु। यह दिलफेंक है और चरित्र से जेम्सबांड से कम नहीं है। सुरा और सुन्दरी उसे हर पल आकर्षित करती है। दूसरे अध्याय के अंत तक वह पात्र भी सामने आ जाता है जिसका नाम नंदा है जो पेशे से अधिवक्ता है, अभिमन्यु का दोस्त है और मृतक किशोर वशिष्ठ के आर्थिक मामलों का वकील है। किशोर की अंतिम वसीयत नंदा के पास है। तीसरे अध्याय में उस समय कथानक एक धमाके के साथ बूस्ट करता है जब अभिमन्यु संदेह प्रकट करता है कि किशोर की मौत आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या है।
किशोर की दो संताने हैं- बेटा प्रबोध और बेटी गुलमोहर। दोनों माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध प्रेमविवाह द्वारा अपना परिवार बसा चुके हैं, फिर भी आर्थिक रूप से अपने पिता पर निर्भर थे। भाई-बहन दोनों अपने पिता से अलग हो कर उनके द्वारा बनाए आलीशान घरों में ही रह रहे थे। पिता और संतानों के बीच भीषण टकराव था। पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले पड़ गए किशोर को अपनी केयरटेकर रागिनी से सहारा मिलता है। रागिनी का किशोर के जीवन में महत्व इसी बात से समझ में आ जाता है कि वह अपनी अंतिम वसीयत में अपनी करोड़ों की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा और अपनी महलनुमा कोठी रागिनी के नाम लिख जाता है। रागिनी से इस घनिष्ठता के बावजूद ऐसा क्या मसला था जिसने 74 वर्षीय करोड़पति किशोर को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया या फिर जासूस अभिमन्यु के अनुसार उसकी हत्या की गई।
इस उपन्यास में अनेक पात्र हैं जो उचित समय पर अपनी उपस्थिति देते हैं। इनमें एक पात्र है रागिनी की बेटी तो दूसरी दिल्ली पुलिस स्पेशल होमी साईड इंवेस्टिगेशन डिवीजन की जांचकर्ता पुलिसवाली सबीना सहर। इनके अलावा वकील अमरकांत, डीएसपी संजय माकन, हवलदार मेहरचंद, मृतक किशोर की बहू और प्रबोध की पत्नी इरा आदि। देखा जाए तो इसे एक ‘‘थ्रिलर ज्यूडीशियल नावेल’’ भी कहा जा सकता है, लेकिऩ इसमें ‘‘कोर्टरूम ड्रामा’’ नहीं है इसलिए इसे ‘‘मर्डर मिस्ट्री विथ लीगल थ्रिलर’’ यानी कानूनी रोमांच के साथ हत्या की रहस्य की श्रेणी में बेझिझक रखा जा सकता है। यूं भी कानूनी दांवपेंच किसी अस्त-शस्त्र से कम नहीं होते हैं। वे निर्दोष को बचा सकते हैं तो मार भी सकते हैं, वे दोषी को सज़ा दिला सकते हैं तो बचा भी सकते हैं। इस तरह के दंावपेंच से भी इस उपन्यास में सामना होता है। इस तरह अपने आप जासूसी का एक त्रिकोण पाठक के सामने आ जाता है जिसके एक कोण में आरोप पक्ष का वकील है तो दूसरे कोण में बचाव पक्ष का वकील और तीसरे कोण में प्राइवेट जासूस। यह त्रिकोण बारमूदा त्रिकोण से कम रोमांचकारी नहीं है। इसमें वकीलों के कानूनी-गैरकानूनी दांवपेंच, पुलिस प्रशासन में मौजूद भ्रष्टाचारी और हत्या या आत्महत्या में से क्या?- इस बात का ग़ज़ब का सस्पेंस है। यह उपन्यास महानगरों के धनसम्पन्न परिवारों में कम होती नैतिकता और मूल्यहीनता को भी खुल कर सामने रखता है। पाठक देखता है कि आमतौर पर अनुचित माने जाने वाले दैहिक संबंधों से किसी को भी परहेज नहीं है या फिर पानी की तरह मदिरा का सेवन किया जाना एक आम बात है। जहां इस तरह का स्वच्छंद और एक हद तक उच्छृंखल वातावरण हो वहां हत्या अथवा आत्महत्या जैसी आपराधिक मनोवृत्ति के बीज का पाया जाना स्वाभाविक है।
बहरहाल, इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है कि यह बड़े ही रोचक ढंग से अनेक कानूनी मुद्दों की जानकारी दे डालता है, जैसे वसीयत को लागू कराने में लीगल एक्जीक्यूटर की भूमिका, हालोग्राफिक वसीयत आदि। यह एक ऐसा जासूसी उपन्यास है जो किसी भी पैरा पर पाठक को बोझिल नहीं लगता है और उपन्यास के अंतिम पैरा के अंतिम वाक्य तक अपने सम्मोहन में बांधे रखता है। रहस्य, रोमांच और मर्डर मिस्ट्री पसंद करने वालों के लिए एक नायाब उपन्यास है। इसे पढ़ने वालों को लेखक मुकेश भारद्वाज के आगामी जासूसी उपन्यास की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी क्योंकि जासूस अभिमन्यु की गहरी छाप दिल-दिमाग पर बनी रहेगी और बना रहेगा जासूसी के उस नएपक्ष का आनन्द जो इस उपन्यास को अन्य जासूसी उपन्यासों से अलग और विशेष बना देता है।
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बहुत खूब
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