चर्चा प्लस
बुंदेलखंड का दशहरा और उसकी रोचक परम्पराएं
दशहरा अपने आप में एक परंपरा है बुराई पर अच्छाई की विजय को स्मरण करने की। यूं तो समूचे देश में दशहरा मनाया जाता है फिर भी हर क्षेत्र में त्योहारों को मनाने की अपनी अलग परंपराएं और अपनी अलग शैली होती है। बुंदेलखंड में भी धूमधाम से दशहरा मनाया जाता है लेकिन अपनी अलग परंपराओं के साथ। इस दिन सुबह से नीलकंठ के दर्शन करना अच्छा माना जाता है। दरअसल, कई रोचक परम्पराएं त्योहारों को और अधिक रोचक बना देती हैं और कभी-कभी कुछ परम्पराएं जानबूझ कर छोड़ दी जाती हैं, ताकि त्योहार अच्छे और अहिंसक संदेश दे सकें। तो चलिए आज की चर्चा में आनंद लीजिए बुंदेलखंड दशहरा और उसकी रोचक परंपराओं का!
बुंदेलखंड में दशहरा से जुड़ी कई अनूठी परम्पराएं है जिनमें से कुछ बंद कर दी गईं और कुछ आज भी जारी हैं। जो परंपराएं जारी हैं उनमें से एक है दशहरा पर पान खिलाने की परम्परा। आज भी यह परम्परा उत्साह के साथ बखूबी निभाई जा रही है। घरों में भी लोग पान लगा कर रखते हैं। घरों में आने वाले अतिथियों को भी पान खिलाकर इस परम्परा का निर्वहन किया जाता है। अतिथि भी अपने साथ पान लाते। परस्पर एक-दूसरे को पान का बीड़ा देते हुए कहते हैं-‘‘दशहरा का राम-राम पहुंचे जू !’’ दरअसल यह पान उस विजय का प्रतीक होता है जो दशहरे का मूल आधार है। राजाओं के समय में युद्ध के पूर्व चुनौती के रूप में एक राजा दूसरे के पास पान का बीड़ा भेजता था। उस बीड़े को स्वीकार करने का अर्थ होता था, चुनौती को स्वीकार करना। इसके बाद दोनों युद्ध करते थे। युद्ध में जो पक्ष विजयी होता वह विजय उत्साह में पान का बीड़ा चबाता और अपनी विजय का उत्सव मनाता। चूंकि दशहरा रावण पर राम की विजय का पर्व है इसलिए इस अवसर पर बुंदेलखंड में पान खाकर और खिला कर बुराई पर अच्छाई की विजय की खुशियां मनाई जाती हैं।
एक और परंपरा है मछली दर्शन और जाल डालने की। यह लगभग समाप्त होती जा रही है। बस, ग्रामीण अंचलों में अभी इसे देखा जा सकता है वरना शहरी क्षेत्र में पूरी तरह लुप्त हो गई है। बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में यह परंपरा दशहरे से दीपावली तक मनाई जाती है तो कहीं-कहीं सिर्फ़ दीपावली से पहले मछली दर्शन किए जाते हैं। मुझे याद है कि मेरे घर खाना पकाने वाली महाराजिन बऊ के बेटे-बेटियां सुबह से आ धमकते थे, दशहरे में भी और दीपावली में भी। वे घर के प्रत्येक सदस्य के सिर पर बारी-बारी से मछली के जाल का रूमाल ओढ़ाते थे और फिर कांच की बोतल में नन्हीं-सी मछली दिखा कर ‘मछली दर्शन’ कराते थे। बदले में मां उन्हें कुछ पैसे और मिठाई आदि दिया करती थीं। कभी-कभी कुछ ‘प्रोफेशनल किस्म’ के लोग भी मछली ले कर ‘मछली दर्शन’ कराने आ धमकते थे जो सीधे-सीधे मछली का दान मांगते।
दशहरे के दिन प्रातःकाल नीलकंठ पक्षी के दर्शन करना बुंदेलखंड में शुभ माना जाता है। यह माना जाता है कि नीलकंठ विषपायी शिव का प्रतीक है और विषपायी शिव का बुंदेलखंड से गहरा संबंध है। ‘‘शिवपुराण’’ के अनुसार सागर मंथन में जब कालकूट विष निकला तो उसके विषाक्त प्रभाव से तीनों लोक संकट में पड़ गए। तब शिव ने उस कालकूट विष को पी कर अपने गले में रोक लिया जिससे उनका गला नीला पड़ गया। गले में रुके विष के प्रभाव से शिव को दाह का अनुभव होने लगा। तब वे समुद्र से हिमालय की ओर आकाशमार्ग से चल पड़े। रास्ते में उन्हें विंध्य पर्वतमाला मिली और कालंजर पर्वत के ऊपर से गुजरते समय उन्हें शीतलता का अनुभव हुआ। अतः विषपायी शिव कालंजर पर्वत पर ठहर गए। अतः समूचे बुंदेलखंड में विषपायी शिव के प्रतीक नीलकंठ पक्षी के दर्शन को शुभ माना जाता है। साथ ही यह भी मान्यता है कि जिस प्रकार शिव ने कालकूट विष से तीन लोकों को बचाया था, ठीक उसी प्रकार नीलकंठ पक्षी के दर्शन से सभी संकट दूर हो जाते हैं।
जब बात दशहरे की आती है तो याद आने लगता है मुझे मेरे बचपन का दशहरा और उसका हंगामा भरा माहौल। मुझे अच्छी तरह से याद है, जब मैं छोटी थी तो दशहरे का उत्साह किस तरह चारों ओर व्याप्त हो जाता था। उन दिनों मैं सागर संभाग के पन्ना नगर में रहती थी। वह मेरी जन्मस्थली भी है। हिरणबाग कहलाती थी वह कॉलोनी। मुझे अच्छा लगता था पन्ना का दशहरा उत्सव। बहुत ही भव्य आयोजन होता था। छत्रसाल पार्क के सामने वाले बड़े से मैदान में बहुत बड़ा रावण बनाया जाता था। उस समय की मेरे दो-ढाई फुट थी इसलिए रावण कुछ ज्यादा ही बड़ा दिखता था मुझे। बहरहाल, घर की दीवारों पर ‘व्हाईटवॉश’ (जो कि पी.डब्ल्यू. डी. की कृपा से होता था) और आंगन में गोबर से लिपाई जो कि मां स्वयं अपने हाथों से करती थीं, जिसमें मैं और वर्षा दीदी भी हाथ बंटाती थीं। इन सबके बीच प्रतीक्षा रहती थी दशहरे की उस रात की जिसमें रावण दहन किया जाता था। रामलीला वाले राम और लक्ष्मण धनुष ले कर आते थे। साथ ही पन्ना राजपरिवार से तत्कालीन महाराज नरेन्द्र सिंह आते थे।
छत्रसाल ग्राउंड में अच्छा-खासा मेला भर जाता था। वह वहां का दशहरा मैदान था। तरह-तरह की दूकानें, झूले और हम बच्चों के लिए ढेर सारा आकर्षण। दशहरा मैदान मेरे घर से लगभग पचास कदम की दूरी पर था। यानी कॉलोनी के कैम्पस से निकलो और दशहरा मैदान सामने नजर आता था। नन्हे-मुन्ने, छोटे शहरों के यही तो फायदे होते हैं। सब कुछ आस-पास। मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह अपने मामा कमल सिंह की उंगली पकड़ कर दशहरा मैदान पहुंचते थे। फिरकी, गुब्बारे, सीटी, चूड़ी और न जाने क्या-क्या ले डालते थे हम लोग। उस जमाने की यही हमारी गंभीर शॉपिंग होती थी। विशेष रूप से मेरी। मेरी तुलना में वर्षा दीदी को शॉपिंग का शौक हमेशा कम ही रहा है। इस मामले में वे हमेशा मुझसे पीछे रहीं।
मुझे आज भी याद है कि किस तरह पन्ना महाराज राम और लक्ष्मण का तिलक करते थे और फिर राम बना रामलीला का कलाकार धनुष पर तीर चढ़ता था। जब तीर के नुकीले सिरे पर आग लगा दी जाती थी तो वह जलता हुआ तीर रावण के पुतले की ओर छोड़ देता था। तीर लगते ही रावण का पुतला धू-धू कर के जल उठता था और हम सभी बच्चे प्रफुल्लित हो कर तालियां बजाने लगते थे। रावण के पुतले में भरे गए पटाखे जोरदार शोर के साथ फूटते थे। रावण के साथ ही मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले भी बनाए जाते थे जिनके कद रावण के पुतले से जरा छोटे होते थे। तीनों का एक साथ दहन किया जाता था।
घर लौटने पर मां आरती की थाली सजा कर मामाजी की आरती उतारती थीं, यह कहती हुईं कि -‘‘मेरा भाई रावण को मार कर आया है।’’ इसके बाद हमारे घर में परम्परागत शस्त्रपूजा होती थी। मुझे उस तलवार की धुंधली स्मृति है जो मेरे बचपन में शस्त्र के रूप में पूजी जाती थी। लेकिन मेरे नानाजी जो गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उन्होंने बाद में घर में शस्त्रपूजन बंद करा दी और उस तलवार को हंसिए में ढलवा दिया गया जो वर्षों तक रसोईघर में सब्जी काटने के काम आता रहा। हमारे परिवार में मांसाहार नानाजी के समय से ही बंद कर दिया गया था। वे घोर अहिंसावादी थे। इसलिए बलि के प्रतीक स्वरूप कुम्हड़े को काटा जाता था किन्तु बाद में यह भी उचित नहीं लगा। नानाजी को लगा कि भले ही हम कुम्हड़े को काट रहे हैं किन्तु मन में बलि की कल्पना होने से हिंसा की भावना तो बनी रहेगी। अतः वह परम्परा भी समाप्त कर दी गई। बस, परस्पर पान की बीड़ा दिए जाने की परम्परा यथावत चलती रही।
यह सारी बातें मुझे इसलिए याद आ रही हैं क्यों कि सन् 2017 में झांसी प्रवास के दौरान मुझे हमीरपुर के विदोखर गांव के दशहरे के बारे में पता चला। कोई दशहरा इतना रक्तरंजित भी हो सकता है, यह जान कर मुझे हैरानी हुई। विदोखर में दशहरा मनाने की अपनी एक अलग ही परम्परा है। विदोखर में दशकों पहले हजारों लोग सवा मन सोना लुटाकर दशहरा मनाते थे। इस गांव में वह कुआं और राहिल देव मंदिर आज भी मौजूद है, जहां नरसंहार के बाद सोना लुटाए जाने की परंपरा शुरू हुई थी। यहां उन्नाव के गांव डोंडियाखेड़ा के लोग सोना लुटाने में अहम भूमिका निभाते थे। आपको याद दिला दूं कि यह वही जगह है जहां संत शोभन सरकार ने सोने का खजाना जमीन में दबे होने का दावा किया था और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भारी हंगामा छाया रहा था।
स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि औरंगजेब के समय विदोखर के ठाकुरों को बलात् मुसलमान बनाया गया था। जिन्हें बगरी ठाकुर कहा जाता था। लगभग 530 वर्ष पहले उन्नाव के डोंडियाखेड़ा से ठाकुर बड़ी संख्या में यहां व्यापार के लिए आते थे। ठाकुरों का यह जत्था एक बार हमीरपुर के इसी विदोखर गांव से गुजर रहा था, तभी कुआं देख पानी पीने के लिए रुक गया। इसी दौरान बगरी ठाकुर समाज के कुछ युवक यहां पहुंच गए। बगरी ठाकुर युवकों ने डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों को कुए से पानी नहीं पीने दिया और मारपीट कर की। डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने स्वयं को अपमानित महसूस किया और बगरी ठाकुरों को सबक सिखाने की ठान ली। विदोखर में बगरी ठाकुर और आसपास के 24 गांवों के ठाकुर एकत्र होकर दशहरे का जश्न मनाते थे। इसी दौरान उन्नाव के डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने योजना के साथ बगरी ठाकुरों पर हमला बोल दिया। अचानक हमले से दशहरे के जश्न में डूबे बगरी ठाकुर संभल नहीं सके और इस भीषण युद्ध में सैकड़ों की संख्या में मारे गए। डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने युद्ध जीत लिया और विदोखर के आसपास मौजूद 24 गांवों पर कब्जा कर लिया। युद्ध के बाद इन ठाकुरों ने बगरी ठाकुर के घरों से सोना-चांदी लूट लिया। इस दौरान उन्होंने लूटा हुआ सोना लुटाते हुए जमकर जीत का जश्न मनाया। बस, उसी समय से वहां सोना लुटाए जाने की परंपरा का आरम्भ हुआ। लगभग पांच दशक पहले तक विदोखर गांव के आसपास के 24 गांवों के ठाकुर एकत्रित होते थे। इसके बाद अनोखे ढंग से दशहरा मनाते हुए लोग सवा मन सोना इकट्ठा कर लुटाते थे। जितना सोना जिसके हाथ लगता था, वे अपने घर ले जाता था। अब मंहगाई के जामने में सवा मन सोना लुटाने की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता है, इसलिए प्रतीक रूप में रत्ती भर सोना लुटाया जाता है। आज भी 24 गांवों के ठाकुर एकत्र होकर मिट्टी के गोले बनाते हैं और इन्हीं में रत्ती भर सोना डालकर लुटाते हैं। जिसके हाथ सोने वाला मिट्टी का गोला लगता है, उसे सौभाग्यशाली माना जाता है। हो सकता था कि भविष्य में मेरे नानाजी की तरह किसी को यह परम्परा हिंसक घटना की याद दिलाने वाली लगे और इसे वह बंद करवा दे। यदि ऐसा होता है तो भी विदोखर में दशहरे का आनंद कम नहीं होगा।
एक और हिंसक परंपरा जुड़ी रही है बुंदेलखंड के दशहरे से। यद्यपि अब यह परंपरा पूरी तरह से बंद कराई जा चुकी है। यह परंपरा राजाशाही के समय में चलन में थी। गढ़कुंडार एवं दतिया रियासत में दशहरे पर ‘‘भैंसा वध’’ की परंपरा थी। इस परंपरा में एक भैंसे को मैदान में छोड़ दिया जाता था फिर कुछ लोग उसे दौड़ा कर तलवारों से उसका वध करते थे। जब वह भैंसा मर जाता था तो उसके मांस को प्रसाद के रूप में लोगों को बांटा जाता था। सन 1947 के बाद वीरसिंह जू देव द्वितीय ने इस ंिहंसक परंपरा को दोनों जगह पूरी तरह से बंद करवा दिया।
यूं भी हंसी-खुशी के वातावरण में हिंसा अर्थात् परपीड़ा का क्या काम? किसी एक को पीड़ा पहुंचा कर दूसरा खुश नहीं रह सकता है। उत्सव वही है जो मन को आनन्दित करे, उत्साह से भर दे। उत्सव में आडंबर का कोई महत्व नहीं होता। दशहरा तो यूं भी असत्य पर सत्य की विजय और बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार है। इसे तो सद् विचारों और सद्परम्पराओं के साथ ही मनाया जाना चाहिए। हमेशा दस सिर वाला रावण मारा जाए, एक सिर वाला इंसान नहीं और न ही कोई जानवर।
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बहुत ही ज्ञानवर्धक प्रस्तुति...👍👍👍
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