Tuesday, October 4, 2022

पुस्तक समीक्षा | एक ‘‘टैबू’’ विषय पर महत्वपूर्ण उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 04.10.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका पूनम मनु के उपन्यास "द ब्लैंक पेपर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
एक ‘‘टैबू’’ विषय पर महत्वपूर्ण उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास  - द ब्लैंक पेपर
लेखिका   - पूनम मनु
प्रकाशक  - सामयिक प्रकाशन, 3320-21, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य     - 300/-
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भारतीय समाज में ऐसे कई विषय हैं जिन्हें ‘टैबू’ माना जाता है। टैबू अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है निषेध, वर्जित, वर्जना, मनाही आदि। वे विषय जिन पर खुल कर चर्चा करना भी लज्जाजनक माना हांे, जो लोगों के लिए आघातकारी, अपमानजनक या कष्टप्रद हो सकते हों। ब्रिटेनिका शब्दकोश में टैबू का अर्थ ुकछ इस प्रकार बताया गया है- ‘‘ऐसा कुछ जिसके बारे में बात करना या करना स्वीकार्य नहीं है अथवा कुछ ऐसा जो वर्जित है।’’ एक समय था जब यौनसंबंधों पर चर्चा को भी ‘टैबू’ की श्रेणी में रखा जाता था किन्तु भारतीय समाज जैसे-जैसे शिक्षित और प्रगतिशील हुआ वैसे-वैसे परिवर्तन आता गया। अब यौनसंबंधों के ज्ञान को यौनशिक्षा के रूप में शैक्षिक दायरे में रखे जाने पर खुल कर विचार-विमर्श होता है। लेकिन आज भी कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर चर्चा करना तो दूर, पर्दा डाले रखना उचित समझा जाता है। लेस्बियन, गे आदि पर चर्चा ‘टैबू’ में ही गिनी जाती है। समाज में अब इस तरह की घटनाएं यदाकदा खुल कर सामने आने लगी हैं जिसमें गे अर्थात समलिंगी पुरुष की इस प्रवृत्ति को छिपाए रखने के लिए विपरीत लिंगी अर्थात् लड़की से उसका विवाह करा दिया जाता है। कभी बता कर, कभी छिपा कर। कभी आर्थिक बदहाली में जी रही लड़की और उसके माता-पिता इस प्रकार के बेमेल वैवाहिक संबंध को स्वीकार कर लेते हैं और कभी-कभी लड़की ऐसे संबंधों में अपनी स्वतंत्रता तलाश करने लगती है। कुछ साल पहले मधुर भंडारकर की एक फिल्म आई थी, ‘फैशन’। इस फिल्म में फैशन इंडस्ट्री की कड़वी सच्चाई के साथ ही ‘गे’ संबंधों और आपसी समझौते के तहत बेमेल विवाह को फिल्माया गया था। अभी हाल ही में लेखिका पूनम मनु का एक हिन्दी उपन्यास आया है जिसका नाम है -‘‘द ब्लैंक पेपर’’। इस उपन्यास में यौन संबंधों से जुड़े विविध टैबू मुद्दों को बेझिझक उठाया गया है।
जब बात आती है टैबू विषयों पर लेखन की तो इसमें सबसे पहला जोखिम स्वयं लेखक को उठाना पड़ता है। उस विषय से उसका व्यक्तिगत कोई लेना-देना न होते हुए भी पाठक यही समझ बैठता है कि यदि इस विषय पर इतनी बारीकी से कलम चलाई गई है तो इसमें लेखक का अपना अनुभव भी शामिल होगा। जबकि सच्चाई इससे विपरीत होती है। लेखक तो सिर्फ विषय की तह तक जाता है और एक चिकित्सक की भांति उसके प्रत्येक पक्ष की जांच करता है तथा एक ‘डायगनोसिस प्रिस्क्रिप्शन’ की भांति उपन्यास, कहानी अथवा अपनी इच्छित विधा की रचना लिख डालता है। यदि कोई लेखक ‘गे’ व्यक्तियों के बारे में लिख रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं ‘गे’ है अथवा यदि कोई महिला ‘लेस्बियन’ महिलाओं पर लिख रही है तो वह स्वयं लेस्बियन है। लिहाजा ऐसे टैबू’ माने जाने वाले विषयों पर साहित्य पढ़ते समय ऐसी बचकानी सोच को परे रख देना चाहिए तभी रचना के मर्म को समझा जा सकता है।

सन् 2018 में भारत में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने इस मसले पर सुनवाई करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। निर्णय के अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी। लगभग 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फैसला दिया था। उस समय चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था कि ‘‘जो भी जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। समलैंगिक लोगों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।’’ संवैधानिक पीठ ने माना कि समलैंगिकता अपराध नहीं है और इसे लेकर लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि ‘‘यह फैसला इस समुदाय को उनका हक देने के लिए एक छोटा सा कदम है। एलजीबीटी समुदाय के निजी जीवन में झांकने का अधिकार किसी को नहीं है।’’
एलजीबीटी अर्थात् लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर। निःसंदेह कानून ने एलजीबीटी को अधिकार दे दिए हैं किन्तु समाज अभी भी मानसिक रूप से तैयार नहीं हो सका है क्योंकि वैवाहिक संबंधों का आधार होता है संतति और समलैगिक विवाह में संतति संभव नहीं है। अतः समाज द्वारा इसे स्वीकार कर पाना कठिन हो जाता है। 

पूनम मनु ने अपने उपन्यास में एक साथ दो टैबू’ विषयों को उठाते हुए महिला जेल के जीवन का भी विवरण दिया है। उपन्यास के केन्द्र में है शाइस्ता नामक वह युवती जिसे अपने लंपट सौतेले पिता की हत्या के अपराध में जेल जाना पड़ता है। जबकि वस्तुतः उसने यह अपराध किया ही नहीं था। अपनी मां के इस अनियोजित अपराध को छिपाने के लिए वह अपनी कुर्बानी दे देती है। जेल में उसकी भेंट प्रीति नामक युवती से होती है। अन्य महिला अपराधियों की भांति प्रीति भी अपराधी थी लेकिन उसका अपराध भयावह था। उसने अपनी मां की हत्या की थी जिसके कारण अन्य महिला कैदी उससे घृणा करती थीं। आखिर कोई अपनी जननी मां को कैसे मार सकता है? किन्तु धीरे-धीरे प्रीति से शाइस्ता की मित्रता बढ़ती जाती है और प्रीति को वह ‘‘प्रीती बाजी’’ कहने लगती है। समय के साथ शाइस्ता को अहसास होता है कि प्रीति का सच भी वह सच नहीं है जो सभी जानते हैं। प्रीति की सहेली ने यह अपराध किया था। लेकिन सहेली को न रोक पाने के एवज में प्रीति स्वयं को अपराधी मानती थी तथा स्वयं को हत्या का दोषी समझती थी। शाइस्ता से जेल में मिलने उसकी मां आया करती थी। एक दिन मां के साथ आसिम नाम का एक युवक भी शाइस्ता से मिलने आया। शाइस्ता को वह अच्छा लगा। जबकि आसिम शाइस्ता से मिलने नहीं बल्कि उससे प्रीति की जानकारी लेने आया था। शाइस्ता उसके प्रभाव में आ कर प्रीति की डायरी चोरी-छिपे उसे दे देती है। यद्यपि ऐसा करते हुए उसे ग्लानि भी होती है किन्तु साथ ही खुशी भी मिलती है कि वह आसिम के काम आ सकी।
जेल से छूटने पर आसिम शाइस्ता से मिलने नहीं आता है। जबकि शाइस्ता इसकी उम्मीद कर रही थी कि आसिम उससे मिलने अवश्य आएगा। कुछ समय बाद आसिम की मां शाइस्ता के लिए आसिम का विवाह प्रस्ताव ले कर आती है। यह प्रस्ताव मां-बेटी दोनों को चकित देता है क्योंकि आसिम का आर्थिक स्तर शाइस्ता के आर्थिक स्तर से काफी ऊंचा था तथा उसकी मां भी अपनी अमीरी का दिखावा करने वाली औरतों में से थी। शाइस्ता की मां को इसमें अनुचित की गंध आती है किन्तु शाइस्ता समझती है कि आसिम भी उससे प्रेम करता है इसलिए उसने अपनी मां को विवाह प्रस्ताव ले कर भेजा है। आसिम के एमतरफा प्रेम में डूबी शाइस्ता को इस रिश्ते की खामियां दिखाई नहीं देती हैं और वह विवाह के सपने बुनने लगती है जबकि आसिम ठीक इसके विपरीत बेरुखी का प्रदर्शन करता रहता है। कहानी में सस्पेंस पैदा करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु सस्पेंस रह नहीं पाया है। क्योंकि इसी बीच एक और कहानी का समावेश होता है जो रीना सिंह और समिता सिंह नामक दो युवतियों की कथा है। ये दोनों लेस्बियन हैं और विवाह के रिश्ते में बंध चुकी हैं। रीना पत्नी की के दायित्व निभाती है और समिता पति के दायित्व। कदम-कदम पर उन्हें अपमान झेलना पड़ता है। यह कथानक अपने-आप में एक स्वतंत्र उपन्यास का विषय हो सकता था और तब इसके वे सभी पक्ष विस्तार से जगह पा जाते जो इसमें छूट गए हैं। इस तरह का रिश्ता आम नहीं है, इसे आज भी ‘टैबू’ ही माना जाता है।

यह उपन्यास इस तथ्य को सामने रखता है कि किस तरह पुत्रमोह में डूबे माता-पिता एक लड़की से सच्चाई छिपा कर उसे अपने ‘गे’ पुत्र की पत्नी बनाना चाहते हैं। इसके लिए वह ऐसी दोषयुक्त लड़की को चुनते हैं जो जेल की सजा काट कर आई है और दूसरा शायद ही कोई उससे विवाह करने आगे आएगा। लड़का भी अपनी  होने वाली पत्नी से अपनी इस प्रकृति के बारे में स्वयं न बता कर इस बात का विश्वास कर लेता है कि उसकी मां ने लड़की को सच्चाई बता दी है। जिससे उसे लगता है कि वह लड़की यानी शाइस्ता उसकी सम्पन्नता की चकाचौंध से प्रभावित हो कर विवाह के लिए हामी भर चुकी है। इन सारी विचित्र स्थितियों का अंत अनेक प्रश्नों को छोड़ जाता है।

उपन्यास लेखिका अनेक स्थानों पर स्वयं असमंजस में डूबी दिखाई पड़ती हैं कि वे इस प्रकार के संबंधों को ‘टैबू’ के खांचे से निकाल कर किस खांचे में खड़ा करें। ‘‘गे’’ और ‘‘लेस्बियन’’ दोनों तरह के संबंधों को एक साथ एक उपन्यास के कथानक में पिरोने से ऐसे कई महत्पूर्ण तथ्य छूटते चले गए हैं जो इस विषय को और अधिक गंभीरता प्रदान करते। उपन्यास के अंतिम अध्याय ‘‘उनका एकान्तिक आनन्द सिर्फ उनका है’’ में एलजी संबंधों पर लम्बी बहस है। जिसमें एलजी के पक्ष और विपक्ष दोनों में विचार रखे गए हैं। मीरा नायर निर्देशित एक फिल्म आई थी ‘‘फायर’’ जिसमें दो महिलाओं के मध्य परिस्थितिजन्य यौनसंबंधों को प्रस्तुत किया गया था। विशेष बात यह कि वे दोनों पात्र प्रकृति से लेस्बियन नहीं थीं किन्तु वे दैहिक विवशता के वशीभूत लेस्बियनिज्म में पड़ती चली गईं। जबकि इससे काफी पहले इस्मत चुगताई ने अपनी कहानी ‘‘लिहाफ’’ में लेस्बियनिज्म को लिख दिया था। सन् 1942 में जब यह कहानी ‘‘अदाब-ए-लतीफ’’ में पहली बार प्रकाशित हुई थी तो इस्मत चुगताई को कोर्ट केस भी लड़ना पड़ा। इस कोर्ट केस में इस्मत चुगताई की जीत हुई थी। ‘‘लिहाफ़’’ को भारतीय साहित्य में लेस्बियन प्रेम की पहली कहानी माना जाता है। 

शिल्प और संवाद उत्तम हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लेखिका पूनम मनु ने एक ‘‘टैबू’’ विषय पर ईमानदारी से कलम चलाई है तथा अपने उपन्यास के पात्रों के मनोविज्ञान को सफलतापूर्वक सामने रखा है। एलजी संबंधों के प्रति जिज्ञासा रखने वाले पाठकों के लिए इस उपन्यास में अनेक तथ्यात्मक जानकारियां हैं। इस उपन्यास की रोचकता को नकारा नहीं जा सकता है। यह पठनीय है। विचारणीय है। साथ ही एक टैबू विषय पर आधारित होने के कारण महत्वपूर्ण है।        
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