Saturday, October 29, 2022

श्रद्धांजलि लेख | चित्रकार नील पवन बरुआ जिन्होंने भारतीय चित्रकला को अपनी एक अलग कला-स्थापना दी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

श्रद्धांजलि लेख

चित्रकार नील पवन बरुआ जिन्होंने भारतीय चित्रकला को अपनी एक अलग कला-स्थापना दी

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
  साहित्यकार एवं कला समीक्षक
 29 अक्टूबर 2022, हमने नील पवन बरुआ के रूप में एक ऐसे कलाकार को खो दिया जिसने रंगों में भावनाओं को जिया। उनका आर्ट आधुनिक और पारंपरिक लोक कला का एक ऐसा मिश्रण था कि उनके पेंटिंग के सामने से गुज़रते समय व्यक्ति ठिठक कर वहीं रुक जाता। मुझे चित्रकला से बेहद लगाव है। मैंने चित्रकला की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली है किंतु बचपन से ही मुझे चित्रकारी का शौक रहा और आज भी किसी जगह मुझे चित्रकला प्रदर्शनी का पता चलता है और संभव होता है तो मैं उसे देखने जरूर जाती हूं। क्योंकि यह अवसर मेरे पास बहुत कम होते हैं इसलिए मैंने इसका एक रास्ता ढूंढ निकाला और मैं अक्सर पेंटिंग्स की वर्चुअल एग्जीबिशन जरूर प्रवेश करती हूं। यह ऑनलाइन एक बहुत अच्छा अवसर रहता है, जब आप घर बैठे विभिन्न कलाकारों की चित्रकला को निकट से देख पाते हैं। ऐसी ही एक वर्चुअल एग्जीबिशन साइट पर एक बार मुझे नील पवन बरुआ की पेंटिंग्स देखने का अवसर मिला। उनकी पेंटिंग ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि मैंने फिर इंटरनेट पर ढूंढ-ढूंढ कर उनकी पेंटिंग्स देखी और उनकी कला को समझने का प्रयास किया। उनकी पेंटिंग्स में मैंने पाया कि वे अधिकतर गहरे रंगों और गहरे शेड्स का प्रयोग करते थे किंतु वह चटक नहीं होते थे बल्कि गहरी भावनात्मक एकता को परिलक्षित करते थे। उनकी पेंटिंग्स में मैंने यह विशेषता पाई कि वे अपनी पेंटिंग्स में आधुनिक कला और पारंपरिक लोक कला का बेजोड़ सम्मिश्रण करते हैं। यह प्रस्तुति बहुत कम चित्रकारों की कला में देखने को मिलती है। प्रायः कलाकार या तो लोक से जुड़ा होता है अथवा मॉडर्न आर्ट को आत्मसात कर लेता है लेकिन नील पवन बरुआ ने अपनी पेंटिंग्स में आधुनिक और लोक को इतने संतुलित रूप में प्रस्तुत किया है कि यह दोनों पक्ष एक दूसरे के पूरक बनकर उभरते हैं। कोई भी एक पक्ष दूसरे पक्ष को कमतर नहीं बनाता है।
       2021 में नागरिक पुरस्कार "असम गौरव" से सम्मानित बरुआ का जन्म 1 जून 1936 को जोरहाट के तिओक में हुआ था। 1971 में गुवाहाटी में असम फाइन आर्ट्स एंड क्राफ्ट सोसाइटी की स्थापना करने वाले कलाकार ने एक अनोखा काम किया था, जब उन्होंने सिगरेट और माचिस के पैकेट पर मिनिएचर पेंटिंग शुरू की थी।
     बरुआ  का व्यक्तिगत जीवन बहुत ही असामान्य रहा।  गायिका  दीपाली बोरठाकुर जिन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था, उनसे बरुआ को प्रथम दृष्टि में ही प्रेम हो गया। सन 1976 में बरुआ ने दीपाली बोरठाकुर से विवाह कर लिया। जिस चीज ने उनकी प्रेम कहानी को अद्वितीय और शाश्वत बनाया, वह थी एक दूसरे के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से जुड़ा बलिदान और समर्पण।  राज्य की कोकिला के रूप में जानी जाने वाली बोरठाकुर एक दुर्लभ मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित थीं, जिससे वे लकवाग्रस्त हो गई थीं, जिससे वे व्हीलचेयर तक सीमित हो गई थीं।  दुख ने उनकी आवाज भी छीन ली। लेकिन इससे कुछ नहीं बदला।  एक सच्चे साथी की तरह बरुआ ने अपनी पत्नी दीपाली की एक बच्चे की तरह देखभाल की। वे कभी उन्हें अकेला नहीं छोड़ते थे। बरुआ कहते थे कि उनकी पत्नी के प्रति उनका प्रेम और निष्ठा उनके कलात्मक प्रयास का एक हिस्सा थी। यद्यपि दिसंबर, 2018 उनका प्रेम उनसे सदा के लिए बिछड़ गया। इसके बाद वे अकेले पड़ गए। किंतु उन्होंने अपने भीतर मौजूद प्रेम की भावना को अपनी पेंटिंग्स में बखूबी उतारा।
     नील पवन बरुआ असम के प्रसिद्ध चित्रकारों में से एक रहे। उन्हें किसी एक विचार या अवधारणा से बंध कर रहना पसंद नहीं था। वे विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों से जुड़े रहते थे जैसे- मिट्टी के बर्तनों, कविता, मुखौटा बनाने, वृंदावानी वस्त्र की कला को पुनर्जीवित करना आदि।
   एक साक्षात्कार में उन्होंने अपनी इस प्रवृत्ति के बारे में स्वीकार करते हुए कहा था कि "मैं बिना किसी पूर्वकल्पित विचार या धारणा के अनायास काम करता हूं।"         
 
      वे अपनी पेंटिंग्स के बारे में कहते थे कि "मेरी पेंटिंग मेरे बोहेमियन दृष्टिकोण को दर्शाती है। जब मैं कैनवास पर अपना काम शुरू करता हूं तो मैं कभी किसी विषय के बारे में नहीं सोचता। इसके पूरा होने के बाद ही मुझे इसके बारे में पता चलता है।"  यद्यपि उनकी अधिकांश रचनाएँ अमूर्त हैं, वे आधुनिकता से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं और भ्रम से लेकर प्रकृति को उसकी प्राचीन महिमा में चित्रित करने तक हैं।  प्रकृति के परे भी देखते थे लेकिन प्रकृति को आधार बनाकर। यही उनके चित्रकला की मूल विशेषता थी।
      कई बार व्यक्ति को अपनी विशिष्टताओं के बारे में स्वयं भी पता नहीं रहता है। विशेष रूप से हमारे देश में कला की किसी भी विधा से जुड़ने वाले व्यक्ति की प्रतिभा को शुरू में न तो ठीक से पहचाना जाता है न उस पर ध्यान दिया जाता है जिससे वह स्वयं भी नहीं जान पाता है कि वह भविष्य में किस दिशा की ओर बढ़ेगा। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण नील पवन बरुआ के जीवन के रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने अपने चित्रकार बनने के बारे में स्वयं कहा था कि "मैं संयोग से एक चित्रकार बन गया पसंद से नहीं, क्योंकि मेरे पास तब करने के लिए और कुछ नहीं था। जब मैं लगभग 24 साल का था तब मैंने पेंटिंग शुरू कर दी थी। औपचारिक शिक्षा के लिए मेरी नापसंदगी भी इसके लिए जिम्मेदार थी। कई प्रयासों के बाद मैंने आखिरकार मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। खेतों और सामाजिक कार्यों में काम करना मुझे कॉलेज की शिक्षा से अधिक आकर्षित करता था। हालांकि मुझे कक्षाओं में जाने में मज़ा नहीं आता था, लेकिन मैं एक शौकीन था  पाठक। प्रोमोथनाथ बोस द्वारा लिखित एक पुस्तक ने मुझे प्रभावित किया। वहां मुझे शांतिनिकेतन के बारे में पता चला।" 
     इसके बाद भी शांतिनिकेतन गए और जहां से उन्हें चित्रकला की बारीकियों का अनुभव होना शुरू हुआ। लेकिन उन्होंने किसी पूर्ववर्ती चित्रकार का अनुकरण करने के बजाय अपनी एक अलग कला-स्थापना की।
     84 वर्ष की आयु में  इस संसार से विदा लेने के पूर्व उन्होंने जिस विशेषता के साथ रंगों को कैनवास पर आकार दिया, उनकी वह चित्रकला प्रेमियों के हृदय में उन्हें सदैव जीवित रखेगी।
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सागर, मध्यप्रदेश
लेखिका : डॉ (सुश्री) शरद सिंह चित्रकला में गहरी दिलचस्पी रखती है तथा कला समीक्षक के रूप में इन्होंने विभिन्न चित्रकारों के चित्रकला पर समीक्षात्मक लेख एवं टिप्पणियां लिखी है। इनकी अपनी स्वयं की पेंटिंग्स का अपना एक ब्लॉग और एक फेसबुक भी संचालित है- 
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श्रद्धांजलि लेख | चित्रकार नील पवन बरुआ जिन्होंने भारतीय चित्रकला को अपनी एक अलग कला-स्थापना दी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | साहित्यकार एवं कला समीक्षक
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https://yuvapravartak.com/71643/


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