चर्चा प्लस | समाज का सबसे ज़रूरी पर सबसे उपेक्षित व्यक्ति
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
आपकी कीमती चप्पल की एक बद्धी अगर टूट जाए तो क्या आप उसे तत्काल कचरे में फेंक देंगे? इतना कलेजा तो अंबानी या अडानी का ही होगा, एक आमआदमी का इतना कलेजा नहीं है कि वह कम से कम एकाध बार सुधरवाए बिना उसे फेंक सके। जब बात चप्पल या जूता सुधरवाने की आती है तो सड़क के किनारे बैठा मोची ही याद आता है। दुबला-पतला मरियल-सा मोची, जिससे चप्पल सुधरवाई के लिए मोल-भाव करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। तर्क ये कि सरकार तो इन्हें सुविधाएं दे रही हैं। लेकिन कभी सोचा किसी ने कि यदि उसे सुविधाएं मिल रही हैं तो हर मौसम झेलता हुआ वह बंदा वहां क्या कर रहा है?
जब आपकी छः सौ रुपए की फैंसी चप्पल जिसे आपने कभी-कभार पहनने के लिए बड़े जतन से सहेज कर रखा हो अचानक ‘चीं’ बोल जाए तो गहरा सदमा लगता है। जी हां, पिछले दिनों मैंने डब्बे से अपनी एक फैंसी चप्पल का जोड़ा निकाला। बटर पेपर से ढंका हुआ, बहुत सुरक्षित ढंग से रखा हुआ था। लेकिन पैरों में पहनते ही संदेह हुआ कि कुछ गड़बड़ है। चप्पल उतार कर मैंने उसे ध्यान से देखा तो मुझे उसकी बद्धी उखड़ती हुई प्रतीत हुई। उस समय तक उखड़ी नहीं थी लेकिन यह तय था कि मैं उसे पहन कर कहीं जाती और दस कदम के बाद उसे दम तोड़ देना था। घर के बाहर निकलने पर चप्पल के दम तोड़ते ही क्या दशा होती है, यह आप सब भी जानते हैं। क्योंकि आप भी कभी न कभी इस दशा से गुज़रे ही होंगे। चाहे चप्पल की बद्धी टूट जाए या फिर आपका जूता मुंहफाड़ का खड़ा हो जाए यानी उसका तल्ला अलग हो जाए तो एक कदम भी चलना मुश्क़िल हो जाता है। ऐसे संकट के समय सिर्फ़ एक व्यक्ति याद आता है, वह है - मोची।
ऐसा संकट मुझ पर एक बार और आन पड़ा था जब मैं नेशनल बुक ट्रस्ट के एक वर्कशाप में बिहार की राजधानी पटना गई थी। शाम को बाजार में घूमते समय अचानक मेरी चप्पल की बद्धी टूट गई। नया और अनजान शहर। मैं घबरा गई कि अब मेरा क्या होगा? शायद मुझे एक नई चप्पल तत्काल खरीदनी पड़ेगी। यानी अनचाहा खर्चा। गनीमत कि एक स्थानीय सज्जन मेरे साथ थे। उन्होंने तुरंत एक पैडल रिक्शा रोका और मुझे दूसरी सड़क पर ले गए जहां मोची बैठा हुआ था। उस मोची ने तत्काल मेरी चप्पल की बद्धी सिल कर ठीक कर दी और मुझे संकट से उबार लिया। यह बात उन दिनों की है जब बिहार में लालू यादव का शासन था। खैर, उसके बाद से मैंने यात्रा के दौरान एक जोड़ा अतिरिक्त चप्पल अपने सामान में रखना शुरू कर दिया। फिर भी दूसरा झटका मुझे लखनऊ में लगा, राष्ट्रीय पुस्तक मेले के दौरान। उसमें मुझे पाठकों के साथ संवाद करना था। कार्यक्रम शुरू होने में मात्र पंद्रह मिनट शेष थे। मैं जैसे ही मेला स्थल पर पहुंचीं मेरी चप्पल ने मेरा साथ छोड़ दिया। अब मेरे पास दो ही विकल्प थे कि या तो मैं मंच पर नंगे पांव पहुंचूं या फिर दस मिनट में अपनी चप्पल बदल कर आऊं। मैंने ड्राईवर को पास बुला कर पूछा कि क्या दस मिनट में हम जा कर आ सकते हैं? वह मेरा संकट समझ गया और उसने तत्काल मुझे गाड़ी में बिठाया और शर्टकट्स लेता हुआ गेस्टहाउस पहुंचाया, जहां मैंने अपनी चप्पलें बदलीं और दस निट के भीतर वापस मेला स्थल पर आ गई। मैंने उस ड्राईवर को दिल से धन्यवाद दिया। इसके बाद मैंने तय किया कि कहीं भी जाने से पहले चप्पलों की जांच-पड़ताल कर लिया करूंगी।
इसी रुटीन जांच-पड़ताल में अपनी वर्तमान चप्पलों की कमजोरी का मुझे समय रहते पता चला। अब टूटने से पहले उन्हें बनवाना जरूरी था। मुझे किसी काम से अपने एक परिचित के साथ जाना था। मैंने अपनी वह चप्पल का जोड़ा भी साथ रख लिया कि जाते समय मोची को चप्पलें दे जाऊंगी और लौटते में उठा लाऊंगी। घर से निकलते ही अचानक मुझे याद आया कि जिस पेड़ के नीचे वह बैठता था वह पेड़ तो सड़क चैड़ीकरण अभियान में काटा जा चुका है। अब वह कहां बैठता होगा? मैंने अपने परिचित से यह प्रश्न किया। तो उन्होंने बताया कि उसी जगह पर बैठता है, बस, थोड़े पीछे हट कर, सड़क के किनारे। मैंने स्वीकार किया कि पेड़ कटने के बाद मैं उधर से कई बार गुजरी हूं लेकिन मेरा ध्यान नहीं गया उस मोची की ओर। अब उस समय मुझे शिद्दत से उसकी याद आ रही थी। वस्तुतः यह मेरा स्वार्थ था जो उसे याद कर रहा था। जब तक मुझे उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी थी तब तक मेरा ध्यान ही नहीं गया था कि वह कहां बैठता है? अब बैठता भी है या नहीं? मैं अपनी चप्पलों का जोड़ा ले कर उसके पास पहुंची। वह सचमुच वहीं सड़क के किनारे बैठा था। धूप-पानी से बचने के लिए उसने काले रंग का छाता खड़ा कर रखा था। एक पुरानी आसनी पर बैठा वह अपनी लोहे की तिपाई पर एक जूते को फंसा कर उसका तला ठीक कर रहा था। मेरे निकट पहुंचते ही उसने मेरी ओर देखा। मैंने उसे अपनी दोनों चप्पलों की दशा समझाई और उन्हें सिल कर कुछ दिन और पहनने लायक बनाने को कहा। उसने सहमति में सिर हिलाते हुए चप्पलें रख लीं। जैसे ही मैं वहां से आगे बढ़ी कि मेरे परिचित ने मुझे टोंका कि आपने उससे यह नहीं पूछा कि वह कितने पैसे लेगा? मैंने उनसे कहा कि मुझे पता है कि वह हज़ार-दो हज़ार नहीं लेगा। फिर अगर बीस रुपए में मेरी छः सौ की चप्पल बचा देगा तो यह कोई मंहगा सौदा नहीं है। इस पर वे कहने लगे कि आजकल इन लोगों ने दाम बहुत बढ़ा दिए हैं। शायद बीस से ज्यादा मांगने लगे। ये लोग पहले दो रुपए लेते थे तो अब पांच रुपए लेते हैं। मैंने अपने परिचित को याद दिलाया कि भाई साहब! पहले बाज़ार में दो रुपए चलते थे, अब नहीं चलते। खोटा पैसा ले कर वह क्या करेगा? कैसे अपना पेट भरेगा? इस पर वे कहने लगे कि सरकार भी तो इनको इतनी सारी सहायता देती है फिर भी ये ऐसे ही बने रहते हैं। मैंने उस समय उनको कोई जवाब नहीं दिया। मुझे तो अपनी वह कविता याद आने लगी थी जो मैंने इसी मोची पर लिखी थी जब उसके सिर को छांव देने वाला पेड़ काटने से पहले ठूंठ कर दिया गया था। ‘‘बचे रह जाना’’ शीर्षक से लिखी गई कविता का एक अंश कुछ इस प्रकार है-
जैसे सोचता है/वह मोची
जो बैठता था इस पेड़ के नीचे
कि जब ठूंठ हो गया पेड़
तो अब वह बैठेगा /किसकी छाया में
चल रही हैं सड़कें/भरता है कोलाहल
टूटती हैं चप्पलें/फटते हैं जूते
उसके पास /है निहाई/है रांपी
है हथौड़ी/है सुई/है धागा
नहीं है तो /बस, /पेड़ की छाया।
फिर मुझे याद आने लगी सुदामा पांडेय ‘‘धूमिल’’ की कविता ‘‘मोचीराम’’ -
रांपी से उठी हुई आंखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला/और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हंसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूं-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है/न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
‘‘मोचीराम’’ और मेरी कविता के बीच समय की एक चौड़ी धारा बह चुकी है लेकिन मोची की दशा यथावत है। तो फिर कहां है वे सारी सरकारी सहायताएं जो ‘‘इन लोगों’’ तक पहुंची हुई मान ली जाती हैं। क्या वह मोची पागल है या जुनूनी है जो तमाम सुख-सुविधाओं को धता बता कर सड़क के किनारे धूप, धूल, धुआं, गर्मी, सर्दी, बरसात सहता हुआ बैठा रहता है? शाम देर गए अपना ठिया समेटते समय ठोस लोहे की अपनी भारी तिपाई अपने कंधे पर लादता है और दिन भर की रेजगारी जेब में रख कर अपने घर की ओर चल पड़ता है। दूसरे दिन फिर उसी तिपाई को लाद कर अपना ठिया जमाने के लिए लौट आता है। अपना छाता खड़ा करता है और उसके नीचे अपनी दुकानदारी जिसे आज की भाषा में बोलें तो अपना ‘‘वर्कस्टेशन’’ सजा लेता है। कभी कोई नेता, मंत्री या उच्चाधिकारी अपनी गाड़ी रोक कर यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करता कि आज भी मोची सड़कों के किनारे दशकों पहले जैसी दशा में क्यों बैठा है? उन तक पहुंचने वाली सरकारी सहायता राशि कहां जा रही है?
वह मोची तब तक मीडिया में भी जगह नहीं हासिल कर पाता है जब तक कि कोई नेता वाह-वाही बटोरने के लिए उसके घर भोजन करने न जा धमके। जो नेता उनके घर भोजन कर के अपनी उदारता दिखाते हैं, क्या उन्होंने कभी उन्हें अपने घर की डायनिंग टेबल पर अपने परिवार के साथ बिठा कर खाना खिलाया है? हो सकता है कि किसी आमचुनाव के पहले खिला भी दें लेकिन क्या उनकी बुनियादी दशा के प्रति गंभीर हैं? क्या कभी फालोअप लिया जाता है कि जिनके लिए सहायता राशि भेजी गई, उन तक पहुंची या नहीं? या पहुंची तो कितनी? न तो पक्ष को इसकी चिंता रहती है और न विपक्ष को। विपक्ष भी सिर्फ़ वे कमजोरियां ढूंढता है जिनसे सीधे मंत्री या मुंख्यमंत्री से इस्तीफा मांगा जा सके। ताकि कुर्सी खाली तो वह अपनी किस्मत आजमा सके। यह बात चर्चा में कटु लग रही है लेकिन सच्चाई से मुंह मोड़ लेने से सच्चाई नहीं बदलती है।
सच्चाई तो यही है कि मोची हमारी ज़िन्दगी में सबसे जरूरी लेकिन सबसे उपेक्षित व्यक्ति है। जब हमें उससे काम होता है तभी हमें उसकी याद आती है। हम बड़े-बड़े माॅल में जा कर मोल-भाव की कल्पना भी भूल जाते हैं और तड़क-भड़क के दाम चुका कर बिना ‘उफ’ किए चले आते हैं। लेकिन सड़क किनारे बैठे दरिद्र मोची से मोल-भाव करना अपना कर्तव्य समझते हैं। वहीं नेताओं को तो मोची की चिंता ही नहीं है क्योंकि वे अपने जूते फटने या चप्पलें टूटने की प्रतीक्षा नहीं करते हैं। उनके लिए एक मोची वाह-वाही बटोरने का माध्यम हो सकता है, लेकिन मात्र एक आमजन के तौर पर सिर्फ़ मोची नहीं। इसी बात पर एक शेर अर्ज़ करती हूं-
सच से आंखे फेर रहा है,अपना नेता,देखो
केवल स्वारथ हेर रहाहै,अपना नेता, देखो
फिर चुनाव की आहट पा कर,चौकन्ना हो
मतदाता को घेर रहा है,अपना नेता,देखो
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Nice
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