Friday, October 21, 2022

बतकाव बिन्ना की | चलो चले गुंइयां कातिक नहाबे | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"चलो चले गुंइयां कातिक नहाबे..."  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात (छतरपुर) में।
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बतकाव बिन्ना की         
चलो चले गुंइयां कातिक नहाबे...
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
        
‘‘का हो रओ भैयाजी?’’मैंने भैयाजी से पूछी। बे अपने घरे की बाहरी दीवार की पुताई रए हते।
‘‘तुम सो अकबर-बीरबल घांई बतकाव कर रईं बिन्ना!’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘का मतलब?’’
‘‘मतलब जे के एक दफा अकबर ने बीरबल से पूछी के बीरबल, जे बताओ के हमारे राज्य में सबसो बड़ो अंधरा को आ? बीरबल ने कही के आप हमें दो दिना को टेम देओ हम सबसे बड़े अंधरा को केवल नामई नई बताहें बल्कि आपखों ऊसे सजीवन मिलवा देहें। बाकी आपको हमाए घरे आने परहे ऊसे मिलबे के लाने। अकबर ने कही ठीक है, अब हम दो दिना बाद तुमाए घरे आबी। ठीक दो दिना बाद अकबर बादसाय पौंच गए बीरबल के घरे। ऊ बेरा बीरबल अपने घरे के बाहरे के अंगना में बैठे नरियल की रस्सी से अपनी खटिया गांथ रए हते। अकबर ने देखी औ बीरबल से पूछी, का हो रओ बीरबल? बीरबल बोलो के महाराज आपके लाने सबसे बड़ो अंधरा दिखाने रओ सो जेई से हम इते खटियां गांथत बैठे आएं। अकबर ने पूछी के कां है बो सबसे बड़ो अंधरा? मोए जल्दी मिलाओ ऊसे। बीरबल ने कही के आपकी बगल में जो दरपन धरो ऊमें आप देखो सो आपखों आपके राज्य को सबसे बड़ो अंधरा दिखा जेहे। अकबर ने तुरतई दरपन में देखो। ऊको अपनो चेहरा दिखाई दओ। अकबर बोलो, जो का आए बीरबल? अंधरा कां हैं, ईमें सो हमई दिखा रए। ई पे बीरबल मुस्क्यात भओ बोलो के गुस्ताख़ी मुआफ होय हुजूर! अपने राज्य के सबसे बड़े अंधरा सो आपई हो। का मतलब? अकबर बादसाय भड़क गओ। गुस्सा ने करो हुजूर, आपई बताओ के आप इते आए, आपने हमें खटिया गांथत देखो, फेर बी हमसे पूछी के का हो रओ बीरबल? मनो आप हमें देख न पाए के हम का कर रए। आप ठैरे अपने राज्य के बादसाय औ आप ई खों हम काम करत भए न दिखाने, मतलब जे के आप अपने राज्य के सबसे बड़े अंधरा कहाने। अकबर ने सुनी सो बीरबल की तारीफें करन लगो।’’ भैयाजी ने मोए पूरी किसां सुना दई।
‘‘हऔ, मनो हम आपकी तारीफें न करबी। काए से के आप हमें इनडायरेक्ट में अंधरा कै रए।’’ मैंने मों बनात भई कही।
भैयाजी हंसन लगे। मोय सोई हंसी आ गई।
‘‘अब जो मैं जे पूछूं सो आप कहोगे के तुमाए जैसो बहरा नई देखो....’’ मैंने बात अधूरी छोड़ दई।
‘‘अरे नई, पूछो, का पूछने!’’ भैयाजी बोले।
‘‘आप का गा रए हते? मोए ऐसो लगो के आप कातिक गीत गा रए हते।’’मैंने कही।
‘‘हऔ! तुमने सही पैचानों। आज मोए पुरानो कातिक गीत याद आ गओ। काम करत टेम कछु गात-गुनगुनात रओ सो मन लगो रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कुल्ल दिनां बाद मैंने जो गीत सुनो। ने तो आजकाल सो सबई लोकगीतन में ऊंटपटांग सैंया, बैंया के अलावा कछु रैत नइयां।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘सही कही बिन्ना! पुराने लोकगीतन की, जा जे कओ के असली लोकगीतन की बातई कछु और आए।’’ कहत भए भैयाजी फिर के कातिक गीत गुनगुनान लगे-
‘‘चलो चले गुंइयां कातिक नहाबे
कातिक नहाबे/हुन्ना धुआबे
रइयो चैकन्नी कहूं कान्हा ने आएं
कान्हा जो आएं, हुन्ना ले जाएं
चलो चले गुंइयां कातिक नहाबे.....’’
‘‘बड़ो अच्छो गात हो आप तो! कभऊं रेडियो के लाने ट्राई करो आपने?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘ऊंहूं! नई करो! अब इत्तो बी नई बनत हमसे! बाकी चलो एक और गीत सुनो-
गंगा से न्यारो, जमुना से न्यारो
तला हमाओ सबरों से न्यारो
चलो चलें कातिक नहाबे के लाने...
लछमी बी आएं इते, दुर्गा सो आएं
राधा बी आएं इते सीता सो आएं
देबन ने डोला सोई इतई उतारो
तला हमाओ सबरांे से न्यारो
चलो चलें कातिक नहाबे के लाने...

‘‘भौतई नोनो भैयाजी! ई टाईप के लोकगीत सो अब सुने नईं परत। आप खों खूबई याद ठैरे।’’ मैंने भैयाजी की तारीफ करी।
‘‘जे सब हमाई अम्मा गात रईं। औ तुमें पतो बिन्ना, के हमाई अम्मा भुनसारे चार बजे उठ के कतकारियों के संगे नहाबे के लाने घर से निकर पड़त्तीं। मनो ई बेरा सो अबे लों कछु ठंड नईं परी, ने तो पैलऊं सो कभऊं-कभऊं कातिक में भौतई ठंड पड़त्ती। पर हमाई मताई ने कभऊं नागा नई करो। बे चार बजे भुनसारे तला जात्तीं औ नहा के आउत्तीं। एकाध बेरा हम सोई पांछू गए बाकी एक दिनां में हमाओ जोश ठंडो पर गओ। अम्मा नहा के लौटत्तीं, फेर घर को काम करत भईं कातकिया गात रैत्तीं। बेई हमें कछु-कछु याद हैं।’’ भैयाजी ने बताई।
‘‘अब सो त्योहार-बार भौतई कछु बदल गओ।’’ मैंने कही।
‘‘अब हमने खुदई सो बदलो आए, कोनऊं और ने थोड़ी बदले। हम चाएं सो अबे ऊंसई मना सकत आएं। तुमें याद हुइए के एक बेरा मलिया मेले में अपने मंत्री गोपाल भार्गव भैया ने दिवारी गाई रई औ संगे नाचे रए। खूबई वायरल भओ रओ उनको बा वारो वीडियो। रामधई अच्छो सो लगत आए जब अपन ओरें देखत हैं के अपने भैया हरें ऊंची-ऊंची कुर्सी लो पौंच के बी अपनी बुंदेली परम्पराओं खों भूलत नईयां।’’ भैयाजी तारीफ करत भए बोले।
‘‘भूलबो बी नई चाइए। अखीर जेई माटी में बे ओरें बी जन्में और जेई माटी की जे सगरी परम्पराएं आएं। जेई से सो मोए शिवराज सिंह भैया पोसत आएं के बे सोई अपनी परम्पराएं कभऊं नईं भूलत आएं।’’ मैंने भैयाजी से कही।  
 ‘‘जेई सो हम कै रए के तनक सो फेर-बदल कर के हम अपनी परंपराएं बचा सकत आएं। जैसे तुमाई भौजी खों लेओ, बे तला सो नई जात नहाबे के लाने, पर भुनसारे हमसे पैलई नहा-धो लेत आएं। त्योहार आत आए सो ऊके मुताबिक ब्यंजन बनाउन लगत आएं। अब आज बे एरसे औ अद्रैनी बना रईं। काल औ परे उन्ने गूझा, पपड़ियां औ सेव-नमकीन बना लए हते। ई से निपट के दो दिनां बाद पूजा के लाने दीवार पे सुरैती बनाहें। देखो बिन्ना, मनो त्योहार के लाने कछु मीठा-नमकीन सो लगतई है। जो जे मीठा-नमकीन हमाए पुराने स्टाईल को होय सो आहा हा, कैनेई का !’’ भैयाजी चटखारा लेत भए बोले।
‘‘हऔ भैयाजी, आप सांची कै रै! तभई तो जे देखो के बड़े-बड़े माॅल हरों में ई टेम पे रसगुल्ल, गूझा, पपड़ियां, मगज के लड्डू मिल रए। काए से के उन बाजार वारन खों सांेई पतो के परंपरा वारे त्योहारन पे परम्परा वारी मिठाई-नमकीन लगत आए।’’ मैंने कही।
‘‘सो चलो बिन्ना तुम सोई एक बुरुश पकरो, काए से के जे दीवार हमें चार बजे लों निपटाने आए। ने तो तुमाई भौजी हमें चार बजे की चाय ने देहें। सो चलो, तुम सोई मोरो हाथ बंटाओ।’’
हम दोई भैया-बहन कातकिया गात भए पुताई करन लगे।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मनो भैयाजी के संगे पुताई करत-करत कातकिया गाबे में बड़ो मजो आ रओ हतो। आप ओंरन खों सोई अपनी परम्पराओं घांई कछु ने कछु करो चाइए। खूबई अच्छो लगहे। तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम! औ दिवाली सियाराम !!!
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(21.10.2022)
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