Thursday, June 13, 2019

हीरों का जनक बुंदेलखंड बढ़ रहा है भुखमरी की ओर - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - 'नवभारत' में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
'नवभारत' में आज प्रकाशित मेरा लेख...
हार्दिक धन्यवाद 'नवभारत' 🙏



        हीरों का जनक बुंदेलखंड बढ़ रहा है भुखमरी की ओर
    - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                     
छत्ता तेरे राज में धक्-घक् धरती होय।
जित-जित घोड़ा पग धरे, उत-उत हीरा होय।।
- यह आशीर्वाद दिया था बुंदेला महाराज छत्रसाल को प्रणामी धर्म के प्रवर्त्तक महामति प्राणनाथ ने। आशीर्वाद फलीभूत हुआ और जिसका प्रमाण है कि आज भी पन्ना स्थित हीरों की खदान ने हीरों का खनन किया जाता है। जिस धरती में हीरे पाए जाते हों उसे तो धन सम्पन्न, सुविधासम्पन्न होना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। यशस्वी बुंदेलखंड आज भुखमरी की ओर बढ़ रहा है। जहां भुखमरी होगी वहां अपराध और अत्याचार भी होंगे ही। बुंदेलखंड में भुखमरी का सबसे बड़ा कारण है प्राकृतिक संपदा का असंतुलित दोहन। जिन्हें जरूरत है उन्हें पानी नहीं मिलता और जिन्हें विलासिता के लिए चाहिए उनके फॉर्म हाऊस के पूल पानी से लबालब भरे रहते हैं। सामुदायिक व्यवस्थाएं तो जब पूरे देश ने बिसार दी हैं तो बुंदेलखंड की क्या बिसात? व्यक्तिगत लॉन सिंचित होते रहते हैं जिनमें अधिक से अधिक चार-छः लोग आनन्द ले पाते हैं जबकि सार्वजनिक पार्क अपनी दुदर्शा पर आंसू बहाते रहते हैं, जहां पचासों व्यक्ति हर शाम प्रकृति का आनन्द ले सकते हैं। लेकिन स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो चली है। यदि किसान की खेती ही सूख जाए और पीने को पानी ही न मिले तो किसी पार्क में आनन्द नहीं आ सकता है।
Article of Dr (Miss) Sharad Singh published in  Navbharat
        जंगल कटते जा रहे हैं। बेतहाशा खनन हो रहा है, इस पर अंकुश नहीं है। कभी सूखे से तो कभी ओलावृष्टि से चारा नष्ट हो गया। बुंदेले सरकार और उनकी मशीनरी के ही हाशिये पर ही नहीं रहे बल्कि प्रकृति ने भी उन्हें कमजोर किया। पहले बारिश न होने से सूखा झेला तो दो वर्ष से किसानों ने अतिवृष्टि और ओलावृष्टि की समस्या का भी सामना किया। अब तो मानों किसानों ने समस्याओं का सामना करने को नियति मान लिया है।  बुंदेलखंड में किसान सालभर में एक ही फसल बो पाता है। ऐसी स्थिति में इस योजना का बहुत लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है। बुंदेलखंड कभी जल संरक्षण और संवर्धन की गाथा कहने वाला इलाका हुआ करता था, मगर अब यही इलाका पानी की समस्या के कारण हर वर्ष अखबारों की सुर्खियों में रहता है।

राजनीतिक स्थितियां सरकारों के साथ बदलती गईं लेकिन मगर बुंदेलखंड के हालात नहीं बदले। जल संकट, सूखा, बेरोजगारी और पलायन का आज भी स्थायी समाधान नहीं खोजा जा सका है। राजनेताओं ने खूब सब्ज-बाग दिखाए, मगर जमीनी हकीकत वही बंजर जमीन जैसी है। सन् 2018 में खजुराहो में ‘राष्ट्रीय जल सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में देशभर के 200 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ता, विशेषज्ञ और जल संरक्षण के जानकारों नें भाग लिया था। इस दो दिन के सम्मेलन में बुंदेलखंड की जल समस्या पर खास चर्चा हुई। जल-समस्या के निदान पर भी चर्चा हुई किन्तु समस्या जस के तस रही। बुंदेलखंड में मध्यप्रदेश के सात और उत्तर प्रदेश के सात, कुल मिलाकर 14 जिले हैं। इन सभी जिलों की स्थिति लगभग एक जैसी है। कभी यहां नौ हजार से ज्यादा जल संरचनाएं हुआ करती थीं, मगर अब अस्तित्व में एक हजार से कम ही बची हैं। भवन निर्माण के विस्तार के लिए प्राचीनतम तालाब और कुए तक सुखा दिए गए। कुछ कुंओं और बावड़ियों का उद्धार समाजसेवकों ने किया किन्तु इतना पर्याप्त नहीं है। दरअसल, पुराने जलस्रोतों को बचाने और नए स्रोतों की खोज करने की मुहिम छेड़े जाने की जरूरत है। 

जलवायु परिवर्तन ने बुंदेलखंड में भी विगत 15 वर्षों में जो मौसम में गंभीर परिवर्तन किए हैं। इन परिवर्तनों ने क्षेत्र के लोगों की कठिनाइयों और जोखिम को बढ़ा दिया है। यहां विगत वर्षों में मानसून का देर से आना, जल्दी वापस हो जाना दोनों बीच लंबा सूखा अंतराल, जल संग्रह क्षेत्रों में पानी का न हो पाना, कुआं का सूख जाना इत्यादि ने यहां कि कृषि को पूरी तरफ नष्ट कर दिया। यहां तक कि कुछ वर्षों में तो किसान फसल की बुवाई तक नहीं कर पाए। विगत 3 दशकों में तो यहां की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। प्राकृतिक आपदाओं ने इस पूरे क्षेत्र की तस्वीर ही बदल दी है, जिसकी वजह से यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थिति काफी हद तक बिगड़ चुकी है। यह क्षेत्र सूखा प्रभावित हैं, जिसका सीधा असर यहां की कृषि पर पड़ा है। एक बार पुनः इस वर्ष बुंदेलखंड भयंकर रूप से सूखा की मार झेल रहा है। विगत पांच वर्षों का औसत देखा जाए तो इसमें 40-50 प्रतिशत की कमी आई है अर्थात औसत 450-550 मि.मी. वर्षा ही प्राप्त हुई है। यह चिंताजनक है।

हर वर्ष ग्रीष्मकाल में पेयजल के लिए सिरफुटौव्वल की सीमा तक झगड़े होना आम बात है। जान जोखिम में डाल कर महिलाएं और बच्चे गहरे कुओं की तलछठ से पानी निकालने को विवश रहते हैं। जहां तक विवशता का मसला है तो विगत वर्षों विवशता का वह रूप सामने आया जिसने सभी को स्तब्ध कर दिया। एक ओर किसानों ने घास की रोटियां खा कर अपना पेट भरा तो दूसरी ओर पलायन करने को मजबूर परिवारों की बेटियां मानव-तस्करी की शिकार हो गईं। गरीबी से जूझती बुंदेली युवतियां महानगरों के लोगों के झांसे में आ जाती हैं और अपना भविष्य सोचे बिना उनके साथ हो लेती हैं। युवतियों को लगता है कि वे रोजी-रोटी कमा कर अपने परिवार का सहारा बन सकेंगी किन्तु ऐसा हो नहीं पाता है। प्रायः गरीब परिवारों की युवतियां देहशोषण की भेट चढ़ जाती हैं।

इस वर्ष भी मानसून बुंदेलखंड को तरसा रहा है। वर्षाजल की बाट जोहते किसानों को बुवाई आरम्भ करने की प्रतीक्षा है। जबकि जलप्रबंधन की लचर दशा इस बात की ओर संकेत कर रही है कि इस बार भी वर्षाजल का समुचित भंडारण नहीं हो सकेगा। तालाब और नदियों की सफाई या गहरीकरण की दिशा में कोई ठोस कदम उठाए ही नहीं गए हैं। अपने गौरवशाली अतीत को सीने से लगाए और हाथ में कटोरा लिए खड़े बुंदेलखंड की कल्पना ही मन को डरा देने वाली हैं। अभी भी असंभव प्रतीत होती व्यवस्थाएं संभव हैं यदि राजनीतिक नेतृत्व अपने वादों को ईमानदारी से पूरा कर दे, अन्यथा बुंदेलखंड को भुखमरी का दंश झेलना ही पड़ेगा। 
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('नवभारत', 13.06.2019)

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