Wednesday, June 12, 2019

चर्चा प्लस ... और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया? - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया?
 
- डॉ. शरद सिंह

आश्चर्य होता है कि किसी नन्हीं बच्ची के साथ कोई इतनी नृशंसता कैसे कर सकता है? अलीगढ़ के आंसू अभी सूखे नहीं थे कि भोपाल में एक ऐसी बच्ची हवस और मौत का शिकार बन गई जो पढ़ाई में अव्वल थी और एक लम्बा सुखद भविष्य उसके सामने था। लेकिन वहशी दरिंदे को उसकी योग्यता नहीं मात्र शरीर दिखा। हद तो यह है कि आज ढाई साल की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। आए दिन ऐसे घृणित अपराध घटित हो रहे हैं मानो कानून का कोई भय उन अपराधियों को है ही नहीं। वस्तुतः यौनअपराधों से जुड़े कानूनों की एक बार फिर समीक्षा किए जाने की जरूरत है। 
चर्चा प्लस ... और कितनी बेबी, कितनी गुड़िया, कितनी निर्भया? - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     भारत में पिछले साल जम्मू के एक रेप केस ने सबको हिलाकर रख दिया था। कठुआ ज़िले में ख़ानाबदोश समुदाय की एक बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इस मामले की सुनवाई पंजाब में हुई जहां अदालत ने जम्मू-कश्मीर के कठुआ में पिछले साल जनवरी महीने में आठ साल की एक बच्ची के साथ गैंग रेप, प्रताड़ना और हत्या मामले में छह दोषियों में से तीन को अदालत ने उम्र क़ैद की सज़ा दी है। इस सनसनीखेज गैंग रेप के बाद देश भर में ग़ुस्सा देखा गया था। पूर्व सरकारी अधिकारी सांजी राम को इस मामले का मास्टरमाइंड माना जा रहा था। पठानकोट की फास्ट ट्रैक अदालत ने राम को भी उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई है। सबूतों के अभाव में सांजी राम के बेटे को अदालत ने रिहा कर दिया है। इसके साथ ही दो पुलिस वालों को भी पांच-पांच साल की क़ैद की सज़ा सुनाई है। सांजी राम के अलावा परवेश कुमार, दो स्पेशल पुलिस ऑफिसर दीपक कुमार और सुरेंदर वर्मा, हेड कॉन्स्टेबल तिलक राज और सब-इंस्पेक्टर आनंद दत्ता को इस मामले में दोषी ठहराया गया है। पुलिसकर्मियों को सबूतों को मिटाने में दोषी ठहराया गया है। यह जान कर आश्चर्य होता है कि सांजी राम राजस्व विभाग के रिटायर्ड अधिकारी रहा है और दीपक खजुरिया स्पेशल पुलिस ऑफिसर। ऐसे जिम्मेदार पदों पर आसीन व्यक्तियों ने इतना घृणित कार्य किया कि मानवता और सांस्कृतिक मूल्यों का भी दिल दहल गया। कोर्ट के फ़ैसले के बाद पीड़िता की मां ने मुख्य अभियुक्त सांझी राम को फांसी देने की मांग की थी। सजा के संबंध में पीड़िता की मां का कहना है कि “मुझे राहत मिली है, लेकिन न्याय तब मिलेगा जब सांझी राम और विशेष पुलिस अधिकारी दीपक खजुरिया को फांसी दी जाएगी।“
पीड़िता पक्ष के वकील मुबीन फ़ारूकी ने कहा, “आज सच की जीत हुई है आज पूरे देश की जीत हुई है। पूरे देश ने यह लड़ाई मिल कर लड़ी थी। दीपक खजुरिया, प्रवेश कुमार और सांझी राम को 376डी, 302, 201, 363, 120बी, 343 और 376बी के तहत दोषी ठहराया गया है। वहीं तिलक राज, आनंद दत्ता और सुरिन्दर वर्मा को आईपीसी की धारा 201 के तहत दोषी ठहराया गया है। यह संवनैधानिक भावना की जीत है।’’
   लेकिन मां का हृदय अपनी बेटी की क्षत-विक्षत स्थिति को याद कर आज भी चीत्कार कर उठता है। वे कहती हैं कि “मेरी बेटी का चेहरा आज भी मुझे परेशान करता है और यह दर्द जीवनभर रहेगा। जब मैं उसकी उम्र के दूसरे बच्चों को खेलते देखती हूं तो मैं अंदर से टूट जाती हूं।“

चाहे अलीगढ़ की घटना हो या भोपाल की अथवा सागर की, ऐसी सभी वारदातों में एक बात की समानता होती है और वह है नाबालिग मासूम बच्चियों के साथ दरिंदगी। हाल ही में घटित अलीगढ़ की घटना ने तो एक बार फिर देश को स्तब्ध कर दिया। आश्चर्य होता है कि किसी नन्हीं बच्ची के साथ कोई इतनी नृशंसता कैसे कर सकता है? अलीगढ़ के आंसू अभी सूखे नहीं थे कि भोपाल में एक ऐसी बच्ची हवस और मौत का शिकार बन गई जो पढ़ाई में अव्वल थी और एक लम्बा सुखद भविष्य उसके सामने था। लेकिन वहशी दरिंदे को उसकी योग्यता नहीं मात्र शरीर दिखा। हद तो यह है कि आज ढाई साल की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। आए दिन ऐसे घृणित अपराध घटित हो रहे हैं मानो कानून का कोई भय उन अपराधियों को है ही नहीं। वस्तुतः यौनअपराधों से जुड़े कानूनों की एक बार फिर समीक्षा किए जाने की जरूरत है। नाबालिग बच्चियों के साथ नृशंसतापूर्ण अपराध पर रोक न लग पाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कहीं न कहीं व्यवस्था में कमी जरूर है-सामाजिक व्यवस्था में भी और कानून व्यवस्था में भी। बच्चियों के साथ निरंतर हो रहे हादसों पर राजनीति का खेल खेलने के बजाए जरूरी है जन जागरूकता और कानून में कुछ जरूरी बदलाव पर ध्यान दिया जाना।
प्रायः पुलिस 24 घंटे से पहले गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखने से परहेज करती है क्योंकि कई बार गुमशुदा इंसान अपनी मर्जी से क्रोध में आ कर घर से निकल पड़ता है और क्रोध शांत होने पर स्वयं घर लौट आता है। यह धारणा आज के आपराधिक माहौल में मंहगी साबित हो रही है। जहां तक धारणा की बात है तो इस धारणा को भी बदलना होगा कि यदि कोई लड़की घर से गायब है तो प्रथमदृटष्या यह मान लिया जाए कि वह किसी के साथ भाग गई होगी। आज लड़कियों के घर से भागने के मामले नगण्य हो चले हैं जबकि उनके साथ यौनहिंसा के अपराध रिकार्ड तोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में तत्काल रिपोर्ट लिख कर खोज आरम्भ कर देने से कई बच्चियों की जान बच सकती है।
हमारे जीवन की हमारे समाज का पारिवारिक ढांचा और सामाजिक सोच बुनियादी रूप से आत्मीयता भरी है। यहां अपरिचितों से दूरी बनाने के बजाए उनसे परिचय बढ़ा कर अपनापन स्थापित करने की परम्परा रही है। ऐसे वातावरण में छोटी बच्चियां दिन भर पड़ोसियों के आंगन और घर में खेलती रहती हैं। उनके माता-पिता भी यह सोच कर निश्चिन्त रहते हैं कि बच्ची अपने चाचा, मामा जैसे पड़ोसी के घर में ही तो खेल रही है। ऐसे पड़ोसी जब बच्ची को टॉफी-चॉकलेट देते हैं और बच्चियां अपने माता-पिता की ओर देखती हैं कि वो ‘अंकल जी’ से टॉफी-चॉकलेट ले या न ले तो उसके माता-पिता भी उसे प्रोत्साहित करते हैं कि ‘ले लो बेटी, अंकल टॉफी दे रहे हैं, ले लो!’
माता-पिता को विश्वास रहता है कि बच्ची के ‘अंकल जी’ बच्ची के प्रति वात्सल्यभाव रखते हैं और उसे किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाएंगे। लेकिन दिल्ली गुड़िया-कांड के अपराधियों ने न केवल माता-पिता के विश्वास को तोड़ा बल्कि एक ऐसे अविश्वास को जन्म दे डाला जिसके कारण अब माता-पिता अपनी बच्चियों को पड़ोसियों से दूर रखने का प्रयास करेंगे। यदि दूर नहीं भी रख सकेंगे तो मन ही मन दुश्चिन्ताओं से घिरे रहेंगे।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के गांधीनगर इलाके में 15 अप्रैल 2013 को पांच साल की मासूम ‘गुड़िया’ का अपहरण के बाद किए गए दुराचार से पूरा देश स्तब्ध रह गया था। दिसम्बर 2012 में ‘दामिनी’ के साथ हुई घटना को लोग भूल भी नहीं पाए थे कि यह घटना सामने आ गई थी। दामिनी रेप कांड के बाद कुछ लोगों ने यह भी दोषारोपण किया कि लड़कियां पाश्चात्य वेशभूषा धारण करती हैं और अकेली या अपने मित्रों के साथ घूमती हैं इसलिए उनके प्रति बलात्कारी आकर्षित होते हैं। लेकिन चार-पांच साल की छोटी बच्चियों के बारे में भी क्या यही कहा जाएगा कि ये भी बलात्कारियों को आकर्षित करती हैं? ऐसी गैरजिम्मेदाराना सोच अनजाने में ही बलात्कारियों की पक्षधर बन जाती है।

दामिनी बलात्कार कांड के बाद भी यही लगा था कि बलात्कार के अपराध पर लगाम लगेगी। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक मासूम बच्ची के साथ हुई बलात्कार व दरिंदगी की घटना को लेकर महिला संगठनों में एक बार फिर उबाल आया। इन संगठनों ने आरोपियों के अपराध स्वीकार करते ही उन्हें फांसी के तख्ते पर चढ़ा देने की मांग की। राष्ट्रीय और प्रादेशिक महिला जन संगठनों ने ‘दामिनी’ के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद एनसीआर में अप्रैल 2013 तक कुल 393 बलात्कार की घटनाएं घटने पर भी गहरा रोष व्यक्त किया। उन्होंने कहा था कि ‘दिल्ली जैसे इलाके में बलात्कार की घटनाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं इस देश में सुरक्षित नहीं हैं, लिहाजा खुद उन्हें तीर-तलवार लेकर अपनी हिफाजत करनी पड़ेगी।’ कुछ महिला संगठनों की मांग थी कि ‘जिस अपराध के लिए जो सजा का प्रावधान कानून में निहित किया गया हो, उसकी सजा देने का अधिकार पीड़ित या उसके परिजनों को ही दिया जाए।’ निःसंदेह कठोर सजा जरूरी है। ऐसी सजा जो अन्य अपराधियों को अपराध में प्रवृत होने से रोक सके। उनके दिलों में भय जगा सके। किन्तु क्या इतना ही पर्याप्त होगा? भारतीय दण्ड संहिता में सजाओं के अनेक प्रावधान हैं। फिर भी अपराधी बेखौफ़ अपराध करते रहते हैं।
एक ओर दिल्ली की पांच वर्षीया नन्हीं गुड़िया दो वहशियों की शिकार बनी और दूसरी ओर मध्यप्रदेश के सिवनी जिले की नन्हीं बच्ची बलात्कारियों की शिकार बनी। शिकार हुई पांच वर्षीय मासूम ने 14 दिनों से जिंदगी और मौत से जंग लड़ने के बाद नागपुर के निजी अस्पताल में दम तोड़ दिया। दोनों स्थानों पर अलग-अलग दल की सरकारें। इसलिए राजनीतिक बयानबाज़ी का बाज़ार गर्म होना था और हुआ भी। दूसरी ओर एक और शर्मनाक प़क्ष सामने आया कि दिल्ली गुड़िया-रेप कांड में बच्ची के माता-पिता को अपना मुंह बंद रखने की एवज में दो हजार रुपए देने वाले आरोपी एक कांस्टेबल था। अर्थात् जिसे रक्षा के लिए तैनात किया गया वही भक्षकों का ‘सगावाला’ बन बैठा। जब कांस्टेबल पकड़ा गया तो उसने कथित तौर पर स्वीकार किया कि अपने सीनियर इंस्पेक्टर के कहने पर ही उसन दो हजार रुपए की पेशकश बच्ची के परिजनों को की थी। ऐसी दशा में दोषी किसे ठहराया जाए? भ्रष्ट और लचर कानून व्यवस्था को? राजनीतिज्ञों को? समाज के पुरुषवादी दृष्टिकोण को? या फिर तीनों को?
उन सभी बच्चियों को याद करते हुए जो आज जीवित होतीं अगर समाज में दरिंदे न होते....उन बच्चियों का मेरी ये पंक्तियां श्रद्धांजलि स्वरूप ....
आपराधिक हो चला वातावरण
हो चला संदिग्ध सबका आचरण
जब सुरक्षित ही नहीं हैं बच्चियां
उठ गया इंसानियत का आवरण
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 12.06.2019)
 

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