Friday, July 12, 2024

शून्यकाल | प्रेम का सबसे अद्भुत रूप है “सखी भाव” | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम -                     शून्यकाल
 प्रेम का सबसे अद्भुत रूप है “सखीभाव”
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                       
       गूंगे के गुड़ के समान होता है प्रेम। जिसका स्वाद तो लिया जा सकता है किंतु उसके आनंद का बखान नहीं किया सकता। यह एक ऐसी अनुभूति है जो दूसरे के प्रति संवेदना जगाती है। दूसरे के प्रति समर्पण जगाती है। भारतीय परम्परा में यह सदा माना गया है कि प्रेम के द्वारा ईश्वर को भी पाया जा सकता है। संतों, मनीषियों और विद्वानों ने प्रेम के विविध मार्ग बताए हैं। श्रीकृष्ण तो प्रेम के प्रतीक रहे हैं जिन्होंने रास के द्वारा सात्विक प्रेम का मानसिक मार्ग प्रशस्त किया। कृष्ण भक्ति मार्ग में ‘सखी भाव’ प्रेम का सबसे अद्भुत स्वरूप है।
‘‘जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी।’’ 
-यही भाव होते हैं अपने प्रिय को मनाने के, जब प्रिय और कोई नहीं, स्वयं श्रीकृष्ण अर्थात ईश्वर हो। कई सम्प्रदायों में ईश्वर को परमात्मा अर्थात पुरुष और मनुष्य को आत्मा अर्थात स्त्री माना जाता है। ऐसे सम्प्रदाय के संत एवं भक्त जब भक्ति की पराकाष्ठा में पहुंच जाते हैं तो वे स्त्री का वेश धारण कर लेते हैं तथा स्त्रियों की भांति जीवन जीते हुए अपने प्रिय ईश्वर को मनाने, रिझाने का यत्न करते हैं। यह ‘सखी भाव’ कहलाता है अर्थात स्वयं को गोपी अथवा कृष्ण की सखी मान कर कृष्ण को अपना प्रियतम मानना। 
सखी भाव प्रेम का सबसे अद्भुत स्वरूप है। एक समूचा सम्प्रदाय ही सखी भाव को समर्पित है, जिसका नाम है सखी सम्प्रदाय। यह निम्बार्क मत की शाखा है। वस्तुतः वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदाय है जिनमे सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है द्वैताद्वैत सम्प्रदाय हैं इस सम्प्रदाय के बारे में मान्यता है कि इसे भगवान विष्णु के 24 अवतारो मे से एक भगवान हंस ने प्रारंभ किया। इसी सम्प्रदाय के चतुर्थ आचार्य निम्बार्क ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस सम्प्रदाय को एक अलग पहचान दी। जिससे इस सम्प्रदाय को उन्हीं के नाम से अर्थात  ‘‘निम्बार्क सम्प्रदाय’’ के नाम जाना गया। इस सम्प्रदाय में गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी के संचालक भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, जो शिष्यों को मंत्रोपदेश करते हुए कृष्ण की भक्ति का प्रचार करते रहते है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्रायः एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। 

निम्बार्क मत के अनुयायी संत स्वामी हरिदास ने सखी सम्प्रदाय का प्रर्वतन किया। स्वामी हरिदास संत के साथ ही उच्चकोटि के संगीताचार्य भी थे। स्वामी हरिदास के जन्म स्थान, जन्मतिथि और जाति के संबेध में निंबार्क मतावलंबियों तथा विष्णु स्वामी संप्रदाय वालों में परस्पर विरोध रहा है। बहरहाल, स्वामी हरिदास का जन्म चाहे जहां हुआ हो अथवा वे किसी भी जाति के रहे हों किन्तु उनकी ख्याति उनके सखी भाव के कारण हुई। वह सखी भाव जो मनुष्य को ईश्वर अर्थात श्रीकृष्ण की सखी मानता है और श्रीकृष्ण की सखी होने के लिए जाति, धर्म को कोई बंधन नहीं होता है। 

उपलब्ध विवरण के अनुसार पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुंचे थे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया था। स्वामी हरिदास ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित किया। स्वामी हरिदास ने श्रीकृष्ण की भक्ति में भजन गाते हुए अनेक राग-रागिनियों की सृजन किया। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी हरिदास के शिष्य थे। कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन पहुंचा था।
सखी संप्रदाय का मूल आधार इस एक पंक्ति में अभिव्यक्त है कि -‘‘जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी।’’ इसी भावना के आधार पर श्रीकृष्ण को प्रिय और भक्त को सखी माना जाता है। सखी संप्रदाय के साधु नख से लेकर शिख तक स्वयं को सजाते हैं। वे स्वयं को स्त्री के रूप में कल्पना करते हैं। यहां तक कि  वे रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं। यह ईश्वर के प्रति प्रेम का अद्भुत स्वरूप है।

 सखी सम्प्रदाय के भावों को स्वामी हरिदास के कुछ पदों से भली-भांति समझा जा सकता है। स्वामी हरिदास का एक पद है -
ज्योंहि ज्योंहि तुम राखत हौ,
त्योंही त्योंही रहियतु हैं, हो हरि।
और अचरगै पाइ धरौं,
सु तौ कहौं कौन के पैंड भरि।।
जदपि हौं अपनो भायो कियो चाहौ,
कैसे करि सकौं, सो तुम राखो पकरि।
कहि ‘हरिदास’ पिंजरा के जानवर लौं,
तरफराइ रह्यौ उड़िबे कों कितोउ करि।।

स्वामी हरिदास ने स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित कर दिया था। वे मानते थे कि जगत की प्रीत मिथ्या है, झूठी है। यदि सच्चा प्रेम कोई है तो वह है सिर्फ बिहारीजी का प्रेम।  
जगत प्रीति करि देखी नाहिनें गटी कौ कोऊ। 
छत्रपति रंक लौं देखे प्रकृति बिरोध बन्यों नहिं कोऊ।।
दिन जो गये बहुत जनमनि के ऐसें जाउ जिनि कोऊ।
कहें श्रीहरिदास मीत भले पाये बिहारी ऐसौ पावौ सब कोऊ।।

प्रेम की पराकाष्ठा एक निजी विचार हो सकते हैं, निजी भावनाएं हो सकती हैं किन्तु विशुद्ध प्रेम का मार्ग जीने की सही राह दिखाता है। आज सांसारिकता अपने चमोत्कर्ष पर है जिसे हम बाजारवाद कह कर पुकारते हैं। धन, पद, शक्ति आदि के पीछे भागना मानवीय प्रवृति रही है। किन्तु उसी मानव के भीतर एक प्रवृति प्रेम की भी रही है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने गौण बना दिया है। प्रेम आज स्वार्थ के रथ पर सवार हो कर चलता है। यदि माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं और अपनी संतान की हर इच्छा को पूरी करते हैं तो वहां प्रेम की फसल लहलहाती हुई दिखती है। यदि संतान माता-पिता के सपनों के अनुरूप मल्टीनेशनल कंपनी के उच्च पद पर काम करता है तो माता-पिता उस पर वारे जाते हैं। यदि पति और पत्नी आर्थिक रूप से सक्षम हैं और एक दूसरे के लिए मंहगे उपहार, वेकेशन डेस्टिनेशन गिफ्ट खरीद कर देते हैं तो वहां भी प्रेम की चहक सुनाई देती है। यदि प्रेमी-प्रेमी भेट-उपहार द्वारा परस्पर एक-दूसरे की आर्थिक ख्वाहिशें पूरी करते हैं तो वहां भी प्रेम पल्वित हो कर फलता-्फूलता दिखाई देता है। क्या सच्चा प्रेम आर्थिक सम्पन्नता पर ही निर्भर होता है? यदि ऐसा है तो झुग्गी-झोपड़ी में तो प्रेम की छाया भी नहीं पड़ती होगी।
यदि प्रेम का आधार आर्थिक सम्पन्नता ही है तो उस ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है जो न तो दिखाई देता है, न तो किसी कार्पोरेट का मालिक है और न तो वह भेंट-उपहार देता है? ऐसा ईश्वर भला प्रेमपात्र कैसे हो सकता है? ऐसे ईश्वर के प्रति सखी भाव कैसे उपज सकता है? शायद इसीलिए स्वामी हरिदास ने कहा है कि -
देखौ इनि लोगन की लावनि ।
बूझत नांहिं हरि चरनकमल कौं मिथ्या जन्म गंवावनि।।

वस्तुतः सच्चा प्रेम सच्चा समर्पण मांगता है। यदि आप किसी से सच्चा प्रेम करते हैं तो आप उसके लिए अपना सब कुछ त्यागने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएंगे। लेकिन यदि प्रेम में खोट है तो उसमें समर्पण की भावना नहीं अपितु नफा-नुकसान की भावना प्रभावी रहेगी। एक बार स्वामी हरिदास से उनके एक शिष्य ने पूछा कि ‘‘स्वामी, जब सोने के आभूषण बनाए जाते हैं तो उसमें अन्य धातु मिलाई जाति है जिसे खोट कहते हैं फिर भी लोग उस आभूषण को पाने के लिए लालायित रहते हैं किन्तु आप कहते हैं कि जहां शुद्धता है वहीं सच्चा प्रेम और सच्ची समृ़िद्ध है। यह बात मुझे समझ में नहीं आई है।’’
शिष्य का प्रश्न सुन कर स्वामी हरिदास मुस्कुराए और उन्होंने शिष्य को समझाया कि ‘‘जो खोट वाली वस्तुओं के पीछे पागल रहते हैं, इस दुनिया को छोड़ते समय उनके मन में शांति नहीं रहती है। वे इस बोझ के साथ प्राण त्यागते हैं कि उनका कमाया हुआ सब कुछ यहीं छूट रहा है। जबकि जो जीवन भर ईश्वर के प्रेम में लिप्त रहता है, उसे अपने अंतिम समय में यह उत्साह रहता है कि अब वह अपने प्रिय से मिल सकेगा और सदा उसके साथ रह सकेगा। क्योंकि परमात्मा ही तो प्रिय है और आत्मा उसकी प्रियतमा। हम सब परमात्मा की प्रियतमाएं हैं, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।’’

स्वामी हरिदास का उत्तर सुन कर उनके शिष्य की शंका दूर हो गई और उसका चित्त शांत हो गया। सखी भाव यही तो सिखाता है कि प्रेम में शुद्धता बनाए रखना ही सच्चा प्रेम है। जहां वासना या स्वार्थ का बोलबाला हो, वहां प्रेम नहीं होता है। ‘‘प्रेम’’ शब्द जितना आसान है उसका स्वरूप उतना ही गूढ़ है। सखी भाव इसी गूढ़ता को समझाता करता है कि प्रेम एक निःस्वार्थ एवं समर्पण की भावना होती है जो धन-संपत्ति नहीं वरन शुद्ध भावना का सच्चा सौदा स्वरूप है।
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