Thursday, July 25, 2024

चर्चा प्लस | सोशल मीडिया अकेलेपन का मित्र भी है, शत्रु भी | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
सोशल मीडिया अकेलेपन का मित्र भी है, शत्रु भी  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                          
        सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स लाइक्स और कमेंट्स पर केंद्रित होते हैं। कुछ प्लेटफॉर्म्स उपयोगकर्ताओं को प्रेरित करते हैं कि वे लाइक्स और कॉमेंट्स पैसे देकर खरीद लें। सेलिब्रिटीज इस तरह के काम करते भी हैं क्योंकि यह उनके प्रचार प्रसार के लिए जरूरी होता है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कई लोगों में लाइक्स और कॉमेंट्स को लेकर डिप्रेशन पैदा होने लगता है। इस डिप्रेशन के चलते उनके भीतर एक जुनून जागने लगता है कि किसी भी तरह अधिक से अधिक लाइक्स मिलें। अधिक लाइक्स पाने के लिए लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं और यहीं से शुरू होता है सोशल मीडिया का दुष्परिणाम।       
        इस समय शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सोशल मीडिया के किसी न किसी प्लेटफार्म से न जुड़ा हो। अनेक लोग फेसबुक, इंस्टाग्राम, एक्स, टिकटॉक, स्टारमेकर आदि से जुड़े हुए हैं और इन्हीं प्लेटफार्म पर घूमते हुए अपने अकेलेपन का सामना करते हैं। जो लोग इन प्लेटफॉर्म्स से खुद को नहीं जोड़ पाते हैं वे व्हाट्सएप ग्रुप में जरूर शामिल हो जाते हैं। सभी अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार प्लेटफार्म का चयन करते हैं। इन प्लेटफॉर्म्स ने कोरोना काल में सबसे अधिक साथ दिया, जब हर व्यक्ति साक्षात संपर्क के मामले में परस्पर एक-दूसरे से दूर हो रहा था। बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने इन प्लेटफॉर्म्स पर अपनी प्रतिभा को निखारा। लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ लोग इन प्लेटफार्म पर पहुंच कर गहरे अवसाद यानी डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं और अपराधिक कदम भी उठा लेते हैं।
      कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोगों को खतरनाक चैलेंज भी देते हैं। युवा वर्ग इन चैलेंजेस से खास आकर्षित होता है। उसे लगता है कि यदि वे चैलेंज पूरा कर लेंगे तो उनकी एक ही पोस्ट से उन्हें ‘नेम’ और ‘फेम’ दोनों मिल जाएगा। कुछ समय पहले ऐसा ही एक चैलेंज दिया गया था जिसमें चलती गाड़ी से उतरने-चढ़ते हुए डांस मूव करना था। इस चैलेंज को पूरा करने के चक्कर में कुछ युवाओं ने अपने हाथ-पांव तुड़वाए, तो कुछ अपनी जान से भी हाथ धो बैठे।
       बचपन में हम सभी ने एक निबंध जरूर लिखा होगा कि ‘‘विज्ञान वरदान है या अभिशाप’’। ठीक इसी तरह का मामला है सोशल मीडिया के साथ, यह वरदान भी है और अभिशाप भी। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की जानकारी की भरमार है। खाना पकाना, कशीदाकारी, बुनाई, हस्तशिल्प, कबाड़ सामानों से नए सामान बनाना आदि-आदि सब कुछ सिखाया जाता है। अभी हाल ही बात है कि मेरी एक सहेली ने मुझे फोन किया। मैं कहीं रास्ते में थी इसलिए उसका फोन नहीं सुन सकी। घर आ कर मैंने उसका मिस्ड काॅल देखा तो उसे कॉल बैक किया। उसने बताया कि जब उसने फोन किया था तो वह मंचूरियन बना रही थी और वह मुझसे जानना चाहती थी कि मंचूरियन में सोया साॅस के बदले टोमेटो कैचप डाला जा सकता है क्या? मैं कोई मंचूरियन एक्सपर्ट नहीं हूं। लेकिन उसे लगा कि वह झट से मुझसे पूछ ले। जब मैं फोन पर उपलब्ध नहीं हुई तो उसने इंटरनेट पर सर्फिंग की और अपना उत्तर पा लिया। इस तरह की बहुत सारे वैश्विक पकवान हैं जिन्हें बनाना सीखने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है, बस, इंटरनेट पर ढूंढिए तो उन्हें बनाने के पूरी पद्धति वीडियो सहित मिल जाएगी।
      सोशल मीडिया की पहुंच को देखते हुए यूनीसेफ और यूनाईटेड नेशंस भी अपने अभियानों के लिए स्वतंत्र एकाउंट खोल कर उन अभियानों से जुड़ने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित कई एकाउंट हैं जो लोगों में जागरूकता लाते हैं और अपने अभियानों से लागों को जोड़ते हैं।
       यदि बात की जाए एकाकीपन की, तो आज दुनिया में आधे से अधिक लोग एकाकीपन से जूझ रहे हैं। कैरियर पर केन्द्रित व्यस्त ज़िन्दगी ने परिवारों को विकेन्द्रित कर दिया है। हर आयुवर्ग के अनेक लोग ऐसे हैं जो संवाद के लिए सोशल मीडिया में साथी ढूंढते हैं। ऐसा साथी जो उनके समान विचार रखता हो, उनके समान रुचियां रखता हो और उन्हें इस बात का अहसास दिलाए कि वह उन्हें समझता है। भले ही सच्चाई इससे परे हो, किन्तु सोशल मीडिया की आभासीय दुनिया अनेक आभासों पर ही टिकी हुई है। सोशल मीडिया के जरिए लोग परस्पर एक-दूसरे को अपने निकट महसूस कर पाते हैं तथा स्वयं को अकेलेपन की निराशा से बचाए रखते हैं। इस संदर्भ में प्रख्यात लेखक ओ. हेनरी की कहानी ‘‘द लास्ट लीफ’’ याद आती है। कहानी कुछ इस प्रकार है कि जॉन्सी नाम की एक गरीब युवती निमोनिया से गंभीर रूप से बीमार होने के कारण अस्पताल में भर्ती होती है। उसके बिस्तर के सामने वाली खिड़की से उसे एक दीवार दिखाई देती है जिस पर पत्तों से भरी आइवी की बेल है। अपनी बीमारी की निराशा में उसे लगने लगता है कि जिस दिन आइवी बेल के सारे पत्ते झड़ जाएंगे, तो वह भी मर जाएगी। उसका पड़ोसी बेहरमैन, जो एक कलाकार है, देखता है कि जाॅन्सी की हालत सुधरने के बजाए बिगड़ती जा रही है। वह रोज आईवी के पत्तों की ओर निराशा से देखती है जो एक-एक कर के झड़ रहे हैं। बेहरमैन समझ जाता है और वह दीवार पर आईवी के पत्ते की इस तरह पेंटिंग बना देता है कि वह पत्ता बिलकुल असली प्रतीत होता है। जाॅन्सी रोज उसे पत्ते को देखती है कि वह झड़ नहीं रहा है तो इससे उसके भीतर मनोबल का संचार होता है और धीरे-धीरे वह पूर्णस्वस्थ हो जाती है। जब वह स्वयं पत्ते के निकट जा कर देखती है तो उसे वास्तविकता का पता चलता है किन्तु तब तक वह पेंटेड पत्ता अपना काम कर चुका था, यानी जाॅन्सी को निराशा से उबार चुका था। सोशल मीडिया ठीक यही काम करता है उन लोगों के लिए जो जीवन में अपने अकेलेपन से जूझ रहे हैं। वह उन्हें कुछ वास्तविक, तो कुछ आभासीय मित्र देता है जिससे उन्हें अकेलेपन का अहसास कम हो जाता है। लेकिन ठीक यहीं अभिशाप के काले चेहरे भी छिपे रहते हैं। 
       कई लोग भावुकतावश ऐसे लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं जो अच्छाई का मुखौटा ओढ़ कर धोखाधड़ी करते हैं।
एक वास्तविक घटना है कि एक युवती जिसका कोई ब्वायफ्रेंड नहीं था और अपने परिवार से भी उसे उपेक्षा ही मिलती थी, वह एक सोशल मीडिया साईट पर मित्र ढूंढने लगी। जल्दी ही उसे एक ऐसा ब्वायफ्रेंड मिल गया जो तस्वीरों में बेहद आकर्षक था, धनवान था और सबसे बड़ी बात थी कि उस युवती के प्रति अपनत्व जताता रहता था। उस ब्वायफ्रेंड ने जल्दी ही युवती को अपने इतने भरोसे में ले लिया कि उस युवती ने अपनी कुछ निर्वस्त्र तस्वीरें उसे पोस्ट कर दीं। दूसरे ही पल उस तथाकथित ब्वायफ्रेंड ने अपना मुखौटा उतार फेंका और उस युवती को ब्लैकमेल करने लगा। युवती घबरा गई। दबाव बढ़ने पर उसने आत्महत्या का प्रयास किया किन्तु समय रहते बचा ली गई। तब मामला सामान्य पुलिस से होता हुआ सायबर पुलिस तक पहुंचा और पता चला कि उस युवक की सारी जानकारी फर्जी थी। उसकी सारी तस्वीरें इंटरनेट से उठाई गई थीं। यह भी नहीं कहा जा सकता था कि वह व्यक्ति युवा था, अधेड़ था या फिर वह कोई अपराधी युवती थी।
       यह तो था अपराध का मामला लेकिन कई मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें व्यक्ति सोशल मीडिया में घूमते-घूमते गहरे डिप्रेशन यानी अवसाद का शिकार होने लगता है। मेरे एक परिचित जो लेखक भी हैं, पिछले साल इसी तरह के गहरे डिप्रेशन का शिकार हो गए थे। एक दिन मेरी उनसे फोन पर बात हुई तो उन्होंने बहुत ही निराशा भरे स्वर में कहा कि ‘‘अब मेरी ज़िदगी में कुछ नहीं बचा है। मेरे सारे साथी बहुत आगे बढ़ गए हैं। वे रोज किसी न किसी आयोजन में जाते हैं। हर साल उनकी दो-चार किताबें आ जाती हैं लेकिन मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। मुझे लगता है कि मैं खत्म हो गया हूं।’’ मुझे उनकी बातें सुन कर चिंता हुई। उनसे बात करने के बाद मैंने उनकी पत्नी को फोन किया और उन्हें सारी बात बताई तो वे भी निराशा से बोलीं कि, ‘‘मेरी तो कुछ सुनते ही नहीं हैं, घंटों सोशल मीडिया पर जमे रहते हैं।’’ उनकी पत्नी की बात सुन कर मुझे मामला समझ में आ गया। मैंने उन लेखक मित्र को फोन लगाया और समझाया कि सबका अपना जीवन है और अपनी जीवनशैली है। चौबीसों घंटे उन्हें ताकते मत बैठे रहिए। इससे बेहतर है कि भाभीजी के साथ घूमिए-फिरिए, मूड ताज़ा करिए और अपने लेखन पर ध्यान दीजिए। देख लीजिएगा कि आप इस डिप्रेशन से बाहर आ जाएंगे। उन्होंने तुरंत तो मेरी बात नहीं मानी लेकिन कुछ समय बाद जब उनसे बात हुई तो उनका स्वर बदला हुआ था। स्वर में उत्साह था। उन्होंने बताया कि पिछले दिनों उन्होंने दस-पंद्रह कविताएं लिख डाली हैं। इस घटना की चर्चा इसलिए कर रही हूं कि सोशल मीडिया पर ‘‘शो-आफॅ’’ का जबर्दस्त चलन है। अतः उसे मनोरंजन की दृष्टि से देखिए, उसे खुद पर हावी मत होने दीजिए, वरना दूसरों की चकाचौंध में पड़ कर जो कुछ आपकी क्षमता है, उसे भी आप गंवा देंगे।
फेसबुक और ट्विटर से पहले ब्लाॅग लेखन का जबर्दस्त चलन था। हिन्दी ब्लाॅग जगत में अनेक शैकिया और पेशेवर लेखक थे जो विविध विधाओं में ब्लाॅग लिख रहे थे। बड़ा स्वस्थ माहौल था। लेकिन वहां भी ‘‘श्रेष्ठ ब्लाॅगर सम्मान’’ के नाम पर खेमेबाजी का एक ऐसा दौर चला कि लोग ‘‘वर्चुएल’’ से ‘‘रियल’’  में जा पहुंचे। विभिन्न स्थानों पर चुने हुए ब्लाॅगर्स को बुला कर उनका सम्मान किया जाने लगा। यानी जो प्लेटफार्म पहले बिना स्पद्र्धा की भावना के अभिव्यक्ति का मनचाहा स्वरूप उपलब्ध कराता था, वहां भी अस्वस्थ स्पद्र्धा और भेदभाव का प्रदूषण फैल गया। जो प्लेटफार्म मनोभावों को व्यक्त कर के मन को हल्का करने का माध्यम था, वह उन लोगों के लिए मन को निराश करने का माध्यम बन गया जो उस सम्मान की चूहा-बिल्ली की दौड़ में उलझते चले गए।
       रहा सोशल मीडिया पर लाइक्स और कमेंट्स का सवाल तो सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स लाइक्स और कमेंट्स पर केंद्रित होते हैं। कुछ प्लेटफॉर्म्स उपयोगकर्ताओं को प्रेरित करते हैं कि वह लाइक्स और कॉमेंट्स पैसे देकर खरीद लें। क्योंकि यह उनका बिजनेस है। फिा भी यह ध्यान रहे कि वे मात्र प्रेरित करते हैं, बाध्य नहीं करते। सेलिब्रिटीज इस तरह लाइक्स और कमेंट्स खरीदने का काम करते भी हैं क्योंकि यह उनके प्रचार-प्रसार के लिए जरूरी होता है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कई लोगों में लाइक्स और कॉमेंट्स को लेकर डिप्रेशन पैदा होने लगता है। ऐसे लोग बार-बार अपनी पोस्ट पर जा कर देखते हैं कि उन्हें कितने लाईक्स मिले? उनके भीतर एक जुनून जागने लगता है कि किसी भी तरह अधिक से अधिक लाइक्स मिलें। अधिक लाइक्स पाने के लिए लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं और यही से शुरू होता है सोशल मीडिया का दुष्परिणाम।
आवश्यकता इस बात की है कि सोशल मीडिया को जुनून न बनने दें, उसे सिर्फ अपने मनेारंजन, अपने संपर्क और अपनी अभिव्यक्ति का साधन मानें, तो कभी डिप्रेशन के शिकार नहीं होंगे। और हां, सोशल मीडिया पर अनजान लोगों से जुड़ते समय सजग रहें और अपनी निजता का ध्यान रखें, तो कभी किसी खतरे में नहीं पड़ेंगे। क्योंकि यह भी सच है कि आज के समय में सोशल मीडिया के बिना रहा नहीं जा सकता है, बस, यह तय कर के चलें कि सोशल मीडिया आपके लिए है, आप उसके लिए नहीं।                    
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