बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ऐसे हते अपने महाराज छत्रसाल जू!
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
भैयाजी औ भौजी हफ्ता भरे के लाने बाहरे गए रए। लौट के बे ओंरे मोरे इते आए। ओरछा, छतरपुर, पन्ना, दमोए होत भए लौटे। पन्ना से बे मोरे लाने जुगल किशोर जू को प्रसाद लाए हते। मोरो तो जन्मई पन्ना में भओ रओ, सो मैंने तो बचपनई से उते के सबई मंदिर देखे रए। बा गीत सबई ने कभऊं ने कभऊं जरूर सुनो हुइए के -‘‘पन्ना के जुगल किशोर, मुरलिया में हीरा जड़े।’’
औ मुरलिया में का, उनकी तो ठुड़ी में सोई हीरा जड़े दिखात आएं। बाकी बा तो मंदिरन की नगरी ठैरी। उते बलदाऊ जू को मंदिर, राम-जानकी को मंदिर, जगन्नाथ स्वामी जू को मंदिर, हरदौल जू को मंदिर, औ महामती प्राणनाथ जू को मंदिर आएं। औ बे सबई इत्ते बड़े-बड़े आएं के उने देख के जी जुड़ा जात आएं। जबे भौजी ने मोए जुगल किशोर जू को परसाद दओ तो मोरी अंखियां से आंसू चू आए। बा सबरे मंदिर औ उते की गलियां याद आ गई रईं।
उते पन्ना में एक पार्क सोई आए - छत्रसाल पार्क। बचपने में हम ओरें उते खूब खेलत रए। उते महाराज छत्रसाल की एक स्टेचू सोई लगी, जोन के पैडस्टल माने चैंतरा पे महाराज के किला औ वंशवृक्ष बनाओ गओ आए। ऊ टेम पे इत्तो नोनो पार्क औ कऊं ने रओ। मोय बा सोई याद आ गओ।
‘‘आप ओरन की यात्रा कैसी रई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘भौतई नोंनी।’’ भैयाजी चहकत भए बोले।
‘‘तुम सोई संगे चलतीं तो खूबई अच्छो रैतो।’’ भौजी ने कई।
‘‘जी तो मोरो बी रओ हतो, पर इते कछू जरूरी सो काम पर गओ रओ।’’ मैंने भौजी से कई। बाकी असल में मैंने ई कारण से मना करी हती के उन ओरन खों अपनी रिस्तेदारी में सोई जाने रओ। अब मैं उन ओरन के संगे कां जाती।
‘‘बिन्ना ई दारे धुबेला सोई हो आए। पिछली बेर ने जा पाए हते।’’ भौजी ने बताई।
‘‘अच्छो लगो ने उते?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ, भौतई अच्छो लगो। उते महाराज छत्रसाल को अंगरखा देखो, इत्तो बड़ो के का कओ जाए। बा देख के पतो परत आए के उन ओरन की ऊंचाई कित्ती ज्यादा हती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, तो उनकी बंदूकें देखो! अब के ज्वान लौं उने पांच मिनट ने उठा पाहें, चलाबो तो दूर रओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘महाराज छत्रसाल जू की बातई अलग रई। बे ने होते तो अपनों बुंदेलखंड आज ने जाने कोन सी दसा में होतो। चलो, मैं आप ओरन खों उनको एक मजेदार किसां सुना रई। जोन से पतो परत आए के जोन समै औ राजा-महाराजा हरें नाच-रंग में डूबे रैत्ते, ऊ टेम पे अपने महाराज छत्रसाल कित्ते अच्छे औ पक्के चरित्र के रए।’’ मैंने भौजी और भैयाजी से कई।
‘‘कैसी किसां?’’ भौजी ने दिलचस्पी दिखात भई पूछी।
‘‘भओ का के एक दफा उनके दरबार में एक लुगाई पौंची। बा बड़ी रूपवती हती। महाराज छत्रसाल ने उसे आबेे को कारण पूछो।
‘‘आप अपनी पीरा बताओ! हम से जो कछू बी हो पाहे आपकी पीड़ा दूर करबे के लाने हम करबी।’’ महाराज छत्रसाल ने बा लुगाई से कई।
‘‘महाराज! आपसे हाथ जोड़ के बिनती आए के आप हमाई बस एक इच्छा पूरी कर देओ।’’ बा लुगाई अपने दोई हाथ जोड़त भई बोली।
‘‘बताओ आपकी का इच्छा आए? सोना-चांदी के सिक्का चाउने, के जमीनें चाउने? जो कछू चाउने होय सो बिना डरे बोलो आप।’’ महाराज छत्रसाल ने पूछी।
‘‘महाराज, मोए ने तो सोना-चांदी चाउने औ ने जमीनें चाउने। बाकी मोय जो कछू चाउने बा आप ई दे सकत आओ।’’ बा लुगाई बोली।
‘‘आप बोलो तो, हमने कई न के आपकी इच्छा हम जरूर पूरी करहें।’’ महाराज छत्रसाल ने कई। जा सुन के बा लुगाई भौत खुस भई।
‘‘महाराज! हमें आप भौतई अच्छे लगत आओ, सो हम चात आएं के हमाओ आप जैसो मोड़ा होय।’’ बा लुगाई भरे दरबार में बोली। ऊको लगो के सबई के आंगू महाराज ने उसकी इच्छा पूरी करबे को वादा करो आए, सो उने अपनो वादा पूरो करने पड़हें। औ वादा पूरो करने को जा मतलब रओ के महाराज बा लुगाई से ब्याओ करें औ ऊको एक मोड़ा पैदा करन देवें।
महाराज छत्रसाल सोई बा लुगाई की सयानपाना ताड़ गए। सो बे तुरतईं अपने सिंहासन से उठे औ ऊ लुगाई के आगूं ठाड़े हो गए। औ अपने दोई हाथ जोड़ के बोले,‘‘बस इत्ती-सी बात? आप हमाए जैसो बेटा पाबे के चक्कर में काए पड़ रईं? ईसे अच्छो तो जो आए के आप हमें अपनो बेटा मान लेओ। हमई तुमाए बेटा आएं। माता जू आप हमें अीशीर्वाद देओ! ’’कैत भए महाराज छत्रसाल ने बा लुगाई के पांव छू लए। पूरो दरबार महाराज के जैकारे करन लगो।
बा लुगाई भौतई शरमिन्दा भई। बा समझ गई के महाराज छत्रसाल औ राजा-महाराजा घांई नोंईं। जे चरित्र के पक्के आएं। ऊने महाराज से माफी मांगी।
‘‘आपको हमने अपनी मताई कओ आए, सो आप हमसे माफी मांग के हमें नरक में ने ढकेलो।’’ महाराज छत्रसाल ने बा लुगाई से कई। फेर अपने मंत्री हरों के बोल के ऊको भेंट-उपहार दए।
‘‘सो जे हती महाराज छत्रसाल की किसां। कोनऊं औ राजा होतो तो इत्ती सुंदरी को अपनी मताई ने बनातो, बल्कि ऊके संगे मजा करतो औ कछू पईसा-कौड़ी दे के उते से भगा देतो। मनो महाराज छत्रसाल ने बा लुगाई खों पूरी इज्जत दई। ऐसे हते अपने महाराज छत्रसाल जू।’’ मैंने किसां पूरी करत भई कई।
‘‘हओ बिन्ना! तभई तो उनके राज में परजा बड़े सुख से रई औ लुगाइन खों बड़ो मान करो जात रओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ, हमने उनको महल देखो। उनको मुकरबां देखो। औ जा सोच के अच्छो लगत रओ के बे अपन ओरन के पुरखा रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘औ का भैयाजी! महाराज छत्रसाल की तो ऐसी-ऐसी किसां आएं के का कओ जाए। आप ओरन खों पतोई हुइए के जबें महाकवि भूषण इते बुंदेलखंड पधारे तो उनके आबे की खबर पा के महाराज छत्रसाल खुदई दौड़ के गए औ उनकी पालकी खों अपनो कंधा दओ। तभईं तो महाकवि भूषण बोल परे हते के -
और कोनऊं राजा, ने मन में ल्याऊं अब।
शिवा खों सराहों के सराहों छत्रसाल को।।
मने महाकवि भूषण ने महाराज छत्रसाल को शिवाजी महाराज के बरोबर पाओ रओ।’’ मैंने भैया जी से कई।
‘‘सई कई बिन्ना! महाराज छत्रसाल घांई औ कोनऊं ने भओ।’’ भौजी बोलीं।
सो, आप सब ओरें सोई महाराज छत्रसाल को याद राखो करे। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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