Tuesday, July 2, 2024

पुस्तक समीक्षा | छंदमुक्त कविता में लालित्य की स्थापना है ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 02.07.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ. श्यामसुंदर दुबे जी के काव्य संग्रह "पृथ्वी का प्रथम स्नान" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
छंदमुक्त कविता में लालित्य की स्थापना है ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’
     समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक       - पृथ्वी का प्रथम स्नान
कवि         - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक     - मेघा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110052
मूल्य        - 200/-
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आधुनिक कविता की अपनी निजी समस्याएं हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या शुष्कता और सपाटबयानी की है। आधुनिक कविता जिसे छंदमुक्त कविता भी कहा जाता है, प्रायः इन दोनों समस्याओं से निरंतर जूझती रहती है। कवि में सृजन के प्रति ठहराव की कमी, संवेदना के कोमल पक्ष की अवहेलना और कभी-कभी यथार्थ को पूरी कटुता के साथ व्यक्त करने की जिद कविता को शुष्क बना देती हैं। जबकि आधुनिक कविता में भी लालित्यपूर्ण ढंग से संवाद किया जा सकता है। जैसे नरेश मेहता ने अपने प्रबंधकाव्य ‘‘प्रवाद पर्व’’ में किया। नरेश मेहता का प्रबंध काव्य ‘‘प्रवाद पर्व’’ राम कथा पर आधारित है। यह 1975 में लिखा गया और 1977 में प्रकाशित हुआ। इसमें नरेश मेहता ने छंदमुक्त आधुनिक काव्य शैली को अपनाया और यह साबित किया कि आधुनिक काव्य शैली में मात्र वामपंथी विचारों को ही नहीं अपितु पारंपरिक कथानकों को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। नरेश मेहता के इस प्रबंध काव्य में मनोवैज्ञानिक पक्ष अत्यंत दृढ़ता से उभरा था, किन्तु प्रकृतिपक्ष अपेक्षाकृत सीमित था। जब काव्य में प्रकृति के तत्वों का प्रमुखता से समावेश करते हुए दैनिक जीवन की समस्याओं को भी व्यक्त किया जाता है तो उसमें जो लालित्य की छटा बहुलता से दिखाई देती है, वह भावनाओं को और अधिक गहरे रंगों के साथ प्रस्तुत करती है। यह बात श्यामसुंदर दुबे के काव्य संग्रह ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ की कविताओं से गुज़रते हुए स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। 

डाॅ. श्यामसुंदर दुबे लोकजीवन से जुड़े हुए रचनाकार हैं। उन्होंने लोकजीवन पर अनेक ललित निबंध लिखे हैं। वे लोकजीवन के प्रतिष्ठित व्याख्याकार के रूप में भी जाने जाते हैं। चूंकि लोकजीवन प्रकृति के निकट रहता है और प्रकृति का सहचर एवं सहधर्मी होता है। अतः जब श्यामसुंदर दुबे कविता लिखते हैं तो उसमें प्रकृति, लोकजीवन और आमजन जीवन - तीनों का संतुलित प्रस्तुतिकरण दिखाई देता है। प्रकृति लालित्य की भावना को जागृत करती है, इसलिए श्यामसुंदर दुबे के इस काव्य संग्रह के प्रथम खंड की कविताएं प्रकृति के तत्वों को समर्पित हैं। 
     संग्रह के प्रथम खंड को उन्होंने शीर्षक दिया है ‘‘सृष्टि संभव’’। इस खंड में उन सभी मुख्य तत्वों पर कविताएं हैं जो सृष्टि को संभव बनाती हैं। जैसे- पृथ्वी, जल, आग, हवा, आकाश, देह और प्रेम। भारतीय दर्शन में पंचभूत अथवा पंचतत्व सभी पदार्थों के मूल माने गए हैं। ये पंचतत्व हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इन्हीं से सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है।  यहां तक कि मानव का अस्तित्व भी इन्हीं पंचतत्वों से बना है। जब इन पंच तत्वों में जीवन  का संचार होता है तो निर्जीव और सजीव में अंतर मुखर हो जाता है। सजीव में भावनाएं होती हैं। जहां भावनाएं होंगी वहां सृष्टि का आकलन एवं व्याख्या भी होगी। श्यामसुंदर दुबे अपनी पृथ्वी विषयक कविताओं में पृथ्वी को ‘‘गुस्सैल स्त्री’’, ‘‘लतामंगेशकर की तरह’’, ‘‘धरती का पता’’, ‘‘धरती की सुख-नींद’’और ‘‘धरती दिया बाती है’’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इन कविताओं में लालित्य के तत्वों की बात की जाए तो देखा जा सकता है कि मटेरियलिस्टिक एलीमेंट्स (जड़ तत्वों) का कवि ने किस तरह मानवीकरण किया है। उदाहरण के लिए ‘‘गुस्सैल स्त्री’’ की इन पंक्तियों को देखिए-
एक गुस्सैल स्त्री 
नहाती रही 
लावा की नदियों में वर्षों तक 
आग-आग होती रही 
घूमती वह चकरी-सी 
अकेली थी वह 
अपने पीड़ा भरे नृत्य में 
बिलकुल अकेली 
इस अनंत के ओर-छोर में 
वह तपती रही 
अपनी पोर-पोर में 
छिपाए अपने भीतर 
अपार संभावनाएं।

कवि ने जब जल की बात की है तो यही आह्वान किया है कि ‘‘पानी की लय न टूटने पाए’’। जल संबंधी अन्य कविताएं हैं-‘‘‘‘जल में कुंभ’’, ‘‘पानी में थी प्यास’’, ‘‘बर्फ से पूछना पानी का पता’’ और ‘‘पानी की अंतरंगता में’’। ‘‘बर्फ से पूछना पानी का पता’’ कविता में दृश्यात्मकता अद्भुत लालित्य रचती है। इस कविता की ये पंक्तियां बानगी स्वरूप-
जब कभी आप टकराएं बर्फ से
तो पूछना पानी का पता 
वह बताएगा आपको 
पानी की आँच में 
पिघलती प्यास के बारे में 
प्यास में डूबी पतझर की गलियों में 
घुमाने ले जाएगा वह 
जहाँ धीरे-धीरे पानी 
अपनी ताकत से 
बिछा रहा है वसंत 
जड़ों की धमनियों से 
झलकती उजास बना।

श्यामसुंदर दुबे ने आग को एक प्रेमगीत की तरह देखा है। ‘‘आग: प्रेमगीत है’’ कविता लिखते हुए वे कहते हैं कि -
चूल्हे के भीतर सेती है
संस्कृतियों के अंडे
अंडे जो फूट कर बनते हैं
चहचहाती कविता के दिग्गामी स्वर
वही है जो
अपनी उष्मा में ऋतुओं को उकसाती
जड़ों के रेशों में
रचती जो कम्प्यूटर
डालती मेमोरी में
वसंत, वर्षा, ग्रीष्म और शीत की
अनन्त अंगडाइयां।

‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ संग्रह में दूसरे खंड की कविताओं को ‘‘दृश्य-परिदृश्य’’ शीर्षक से रखा गया है। इस खंड की कुल अट्ठाईस कविताओं में ‘‘मौत’’, ‘‘कुंभ’’,‘‘सूरज मछुआरा’’, ‘‘शहर’’, ‘‘नदी की स्मृति’’, ‘‘तुम नहीं लिख पाते प्रेमगीत’’, ‘‘खेत के बीचो बीच अड़ी टांग’’, ‘‘शहर में ट्रैक्टर’’, ‘‘अग्नि संस्कार’’, ‘‘दृष्टि विस्तार’’ आदि जैसी विविधतापूर्ण कविताएं हैं। कवि किसी एक बिम्ब में बंध कर नही रहना चाहता है। वह जीवन के प्रत्येक तत्व को प्रकृति के विविध बिम्बो के धरातल पर देखना चाहता है ताकि जीवन और प्रकृति का भावनात्मक संबंध बना रहे। बा़ढ़ के दृश्य को उकेरती तीखा कटाक्ष करती एक मार्मिक कविता है ‘‘फोटू बचे रहेंगे’’। कविता देखिए-
बाढ़ के बीच/उस आदमी की हिम्मत
टंगी है आकाश में
और धरती डूबती जा रही है
पांवों के नीचे/बचाने के लिए
अब उसके पास कुछ नहीं है
सिवाय अपने
वह बचा हुआ है/बचाने को बाढ़
बाढ़ बची रहेगी
तो बाढ़ से घिरे आदमी के 
फोटू बचे रहेंगे। 

डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने अपने इस संग्रह की कविताओं में जो लालित्य रचा है वह विश्वास दिलाता है कि छंदमुक्त कविताओं में सरसता और लालित्य को स्थापित किया और रखा जा सकता है। यथार्थ कहने के लिए सपाटबयानी ही आवश्यक नहीं है। सटीक बिम्बों का चयन तीखा प्रहार करने की क्षमता रखता है। शैलीगत परिपक्वता, भाषाई समृद्धि एवं अभिव्यक्ति की गहराई काव्य संग्रह ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ को पठनीय बनाती है तथा छंदमुक्त काव्य में लालित्य को स्थापना दिलाती है।     
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