Wednesday, July 3, 2024

चर्चा प्लस | हरदम हाशिए पर रहती है स्त्री-सुरक्षा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
हरदम हाशिए पर रहती है स्त्री-सुरक्षा 
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      किसी भी बजट में स्त्री-सुरक्षा पर कितना ध्यान रखा जाता है, यह जग जाहिर है। लाड़ली बहना योजना हो या ऐसी की कोई दूसरी योजना, स्त्रियों को आर्थिकरूप से सशक्त बनाने के लिए बेहतर है लेकिन स्त्री के लिए आर्थिक सशक्तिकरण ही सब कुछ नहीं है। उसे सबसे पहले सुरक्षा चाहिए। एक ऐसा वातावरण चाहिए जिसमें वह निडर और निश्चिंत हो कर घर से बाहर कदम रख सके एवं घर में भी सुरक्षित अनुभव कर सके। स्त्री के प्रति अपराध कारित हो जाने के बाद अपराधी के घर पर बुलडोजर चला देने से भी अपराध की दर कम नहीं हो रही है। इस पर सोचना होगा।   
चाहे राज्य का बजट हो या केन्द्र का बजट, स्त्रियों की आर्थिक शक्ति में भले ही ईजाफा कर दे लेकिन उसे उन्हें उनकी सुरक्षा को ले कर आश्वस्त नहीं कर पाता है। महिला थाने हैं किन्तु स्टाफ की कमी है। स्त्रीसुरक्षा एप्प जारी किए जाते हैं लेकिन वे भी चंद महीनों बाद बंद फाईलों जैसे हो जाते हैं। यूं भी इस प्रकार के एप्प उन्हीं महिलाओं के काम आ सकते हैं जिनके पास एंडरायड फोन हो। जिन महिलाओं पास एंडरायड फोन नहीं हैं, उनकी सुरक्षा का क्या उपाय है? वे घर से लाठी ले कर निकलें, सीटी ले कर निकलें यानी अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त खुद करें। प्रायः सभी स्त्रियों को सलाह दी जाती है कि वे आत्मरक्षा के गुर सीखें। वे जूडो-कराटे आदि की एक्पर्ट बनें। इसका तो अर्थ यही हुआ कि समाज और कानून स्त्रियों को पूरी तरह सुरक्षा देने में स्वयं को असफल मान रहा है।

मध्यप्रदेश में स्त्रियों के प्रति अपराध करने वालों में डर पैदा करने के लिए उनके घर बुलडोजर चला कर धराशयी करने का तरीका अपनाया गया है। लेकिन यह उपाय भी पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। अपराध थम नहीं रहे हैं और अपराधी डर नहीं रहे हैं। चाहे मध्यप्रदेश हो या देश का कोई भी प्रांत, स्त्रियां कहीं भी अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती हैं। स्कूल-कालेज में पढ़ने वाली आयु की लड़कियों से ले कर कामकाजी महिलाएं तक शारीरिक शोषण के संभावित भय में जीती हैं। इस बारे में वे अपने परिजन से भी चर्चा करने से हिचकती हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि दोषी चाहे जो हो किन्तु सबसे पहले पाबंदी उन्हीं पर यानी लड़कियों और स्त्रियों पर ही लगाई जाएगी। लड़कियों को पढ़ाई छुड़ा दिए जाने का डर रहता है। वे जानती हैं कि यदि वे घरवालों को बताएंगी कि राह चलते लड़के उन्हें छेड़ते हैं या स्कूल-काॅलेज में कोई लड़का उन्हें परेशान करता है तो पहले तो उन्हीं लड़कियों के कपड़ों को लक्ष्य कर के ताना मारा जाएगा, फिर ‘‘स्कूल जाना बंद’’, ‘‘काॅलेज जाना बंद’’ की धमकी दी जाएगी। ऐसी लड़कियां सुरक्षा की उम्मींद रखें भी तो किससे?

यही दशा रहती है कामकाजी स्त्रियों की। वे कितना भी बेहतर परफारमेंस दें लेकिन हर कार्यस्थल में एक न एक लोललुप दृष्टि उन पर गड़ी रहती है। वे चाह कर भी किसी से नहीं कह पाती हैं क्योंकि वे भी जानती हैं कि सबसे से पहले तो उन्हीं को दोषी माना जाएगा कि ‘‘तुम्हीं लिफ्ट देती होगी’’। अरे, जब साथ काम करेंगे तो आपस में हंसना-बोलना तो पड़ेगा ही। अब यदि कोई स्त्री हंस कर दो बात कर ले तो इसे किसी के द्वारा ‘‘लिफ्ट’’ समझ लिया जाना सरासर गलत है। लेकिन ऐसी गलतफहमियां कई बार अपराध के सिरे तक जा पहुंचती हैं। यह अपराध किसी भी प्रकार का हो सकता है। दैहिक शोषण, मानसिक शोषण, आर्थिक चोट आदि कुछ भी। अन्यथा बदनाम करने का फितूर तो कहीं गया नहीं है। किसी स्त्री से बदला लेना है तो सबसे आसान रास्ता दिखता है उसके चरित्र पर कीचड़ उछालना। यह भी अपराध है। किन्तु इस अपराध को कानून के कटघरे तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती है, समाज पहले ही स्त्री को चरित्रहीन मान लेता है।

समाज में इस तरह की गिरावट क्यों आती जा रही है जबकि शासन बुलडोजर ले कर तैयार है? कहीं तो कुछ छूट रहा है जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। दरअसल प्रायः शक्तिसम्पन्न परिवारों के अपराधी छूटते चले जाते हैं जिससे अपराध करने का उनका हौसला बढ़ता है। यह व्यवस्था की हर कड़ी में मौजूद खामी का दुष्परिणाम है। इस खामी की शुरूआत अपराध के विरुद्ध पहली सीढ़ी से हो जाती है। यानी पुलिस व्यवस्था आज भी स्त्रियों के मन में अपनी मजबूत छवि नहीं बना पाई है। स्त्रियां थाने जाने से हिचकती हैं। यदि स्त्री थाने पहुंच भी जाए तो स्टाफ की कमी के चलते कई बार त्वरित सहायता नहीं मिल पाती है। फिर इस समय सबसे बड़ी आपराधिक प्रवृत्ति बन कर उभरा है साइबर अपराध। स्त्रियों के विरुद्ध यह अपराध घातक ढंग से काम करता है। धोखा दे कर आपत्तिजनक तस्वीरें ले लेना और फिर उन्हें इंटरनेट पर वायरल करने की धमकी दे कर दैहिक शोषण करना। ऐसी पीड़िताओं को अपराधी खुले तौर पर धमकी देते हैं कि यदि वे पुलिस के पास गईं तो उनकी तस्वीरें या वीडियो तत्काल इंटरनेट पर डाल दिए जाएंगे। भयग्रस्त स्त्रियां या लड़कियां चाह कर भी किसी की मदद नहीं ले पाती हैं और निरंतर शोषण की शिकार होती रहती हैं। ऐसे भी कई मामले सामने आए हैं जिनमें अपराधियों ने लड़की को अपनी सहेलियों को भी अपने साथ लाने को बाध्य किया।

चाहे इंटरनेट की आड़ ले कर किया जाने वाला अपराध हो अथवा सीधे की जाने वाली यौनहिंसा हो, वह घर के बाहर घटित हो अथवा घर के भीतर किसी परिजन द्वारा घटित हो कड़ाई से रोका जाना जरूरी है। यह तभी संभव है जब अपराध की दर पर अंकुश लगे। यह तो दिख रहा है कि बुलडोजर चलाना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि इससे अपराधी के परिजन भले ही भुगतें लेकिन अपराधी की ढीठ प्रवृति पर इसका असर नहीं पड़ता है। यूं भी यदि किसी अपराधी को अपने परिवार के भले-बुरे की चिंता होगी तो वह अपराध करेगा ही क्यो? जिसकी प्रवृति अपराधी नहीं है, उसे अपराध करने से पहले अपने परिवार की प्रतिष्ठा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व उसे अवश्य याद आएंगे। अतः दण्ड को अपराधी पर केन्द्रित करना ही अधिक प्रभावी हो सकता है।
 
हम जब भी किसी महिला के साथ अपराध की खबर देखते या सुनते हैं तो उस अपराध के विरुद्ध आवाज उठाने की बजाय अपने घर की महिलाओं, बहनों और बेटियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देते हैं, जो स्वयं एक प्रकार का अपराध ही है। अकसर घरेलू हिंसा पति द्वारा पत्नी या ससुराल वालों के द्वारा बहू को शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न के रूप में नजर आती है और महिलाएँ इसे अपना भाग्य समझकर सहती रहती हैं। इस हिंसा को सहने का एक कारण यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में शादी के पहले से ही लड़की के दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि एक बार पिता के घर से डोली उठने के बाद पति के घर से ही अर्थी उठनी चाहिये यानी शादी के बाद लड़की अपने पिता के घर वापस आकर नहीं रह सकती, भले ही ससुराल वाले उसका कितना ही उत्पीड़न करें। जिसके चलते अधिकाँश महिलाएँ बिना किसी से शिकायत किये शांति से हिंसा को सहती रहती हैं।

घरेलू हिंसा की शिकार विवाहित तथा अविवाहित दोनों प्रकार की स्त्रियां होती हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में घर की बेटियों व महिलाओं के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय घर के पुरुष मुखिया ही करते हैं। जो अपना निर्णय उन पर थोपते हैं। यदि कोई लड़की अपना जीवनसाथी स्वयं चुन ले तो उसके परिवार वाले अपनी झूठी शान के लिये बेटी की हत्या करने में भी नहीं कतराते हैं।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को लिंग आधारित हिंसा का कोई भी कार्य, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मानसिक क्षति या पीड़ा होती है या होने की संभावना होती है, जिसमें ऐसे कार्यों की धमकी, जबरदस्ती या स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित करना शामिल है, चाहे वह सार्वजनिक या निजी जीवन में हो। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई रूप हैं, हत्या जैसे दहेज हत्या, ऑनर किलिंग, कन्या भ्रूण हत्या, यौन अपराध जैसे बलात्कार, शील भंग करने की हिंसा, मानव तस्करी, जबरन वेश्यावृत्ति, घरेलू हिंसा, तेजाब फेंकना, अपराध । राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भारी वृद्धि हुई है। अकेले 2022 में 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, जो हर घंटे लगभग 51 एफआईआर के बराबर है, डेटा 2021 और 2020 की तुलना में गंभीर वृद्धि को उजागर करता है। एनसीआरबी की वार्षिक अपराध रिपोर्ट ‘‘भारत में अपराध 2022’’ जो 2023 के अंत में जारी की गई थी, में दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि प्रति लाख आबादी पर महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर 66.4 थी, जबकि ऐसे मामलों में चार्जशीट 75.8 दर्ज की गई। ब्यूरो को अपराध डेटा के संग्रह और विश्लेषण का काम सौंपा गया है और यह केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करता है। एनसीआरबी के अनुसार, भारतीय दंड संहिता के तहत महिलाओं के खिलाफ अधिकांश अपराध पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता (31.4 प्रतिशत) के थे, जिसके बाद महिलाओं का अपहरण (19.2 प्रतिशत), महिलाओं पर उनकी शील भंग करने के इरादे से हमला (18.7 प्रतिशत) और बलात्कार (7.1 प्रतिशत) के मामले थे।  

ये आंकड़े अच्छा संकेत नहीं हैं। स्त्रियों की सुरक्षा को ले कर शासन, प्रशासन, सरकार और समाज सभी को गंभीरता से सोचना होगा। अन्यथा आंकड़े इसी तरह बढ़ते रहेंगे और स्त्रियां सुरक्षित माहौल के लिए तसरती रहेंगी।  
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