Wednesday, July 10, 2024

चर्चा प्लस | नहीं की जा सकती है संशय के साथ सफलता की उम्मीद | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
नहीं की जा सकती है संशय के साथ सफलता की उम्मीद  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                              चाहे छात्र जीवन हो या राजनीति का महासमर, चाहे पारिवारिक जिम्मेदारियां हों अथवा संबंधों का निर्वाह हर व्यक्ति सफलता चाहता है। क्या जीवन में सफल होना आसान है? नहीं! समूचा जीवन विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं से घिरा रहता है। जो व्यक्ति इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होता चलता है, वही सफलता का स्वाद चख पाता है। सो, इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने का एक साॅलिड रास्ता है जिस पर चल कर सफलता के दरवाज़े पर दस्तक दी जा सकती है। चलिए देखें, कौन सा है वह रास्ता?      
एक काॅलेज छात्रा जब अविवाहित मां बनी तो उस पर अपने बेटे को पालने के लिए कोई मजबूत सहारा नहीं था। उसे कुछ लोगों ने सलाह दी कि यदि वह अपने बेटे को किसी निःसंतान दंपति को सौंप दे तो उसके बेटे का जीवन संवर जाएगा। उस अविवाहित मां ने जी कड़ा कर के इस निर्णय को स्वीकार कर लिया लेकिन जब उसे पता चला कि जो दंपति उसके बेटे को गोद ले रहे हैं, वे ग्रेजुएट नहीं हैं तो उसने उन्हें अपना बेटा सौंपने से मना कर दिया। मां चाहती थी कि उसके बेटे को पालने वाले माता-पिता कम से कम ग्रेजुएट तो हों ताकि उसके बेटे को आगे चल कर उच्चशिक्षा दिला सकें। जब उस दंपति ने विश्वास दिलाया कि वे उसके बेटे को अपने बेटे की तरह पालेंगे और उसे काॅलेज की शिक्षा दिलाएंगे, तब कहीं जा कर वह अविवाहित मां अपने बेटे को उस निःसंतान दंपति को सौंपने को राजी हुई। उस दंपति ने अपना वादा निभाया और जब वह बालक 17 वर्ष का युवा हो गया तथा अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर चुका तो उसे कौलेज में दाखिला दिला दिया। उस बालक के माता-पिता अपना वादा पूरा करते हुए अपने गोद लिए बेटे की पढ़ाई में अपना पूरा पैसा खर्च कर रहे थे। यह बात उस युवक को अच्छी नहीं लगी। उसे लगा कि वह अपने माता-पिता पर और बोझ नहीं डाल सकता है। तब उसने काॅलेज से ड्राॅप लिया और अपने एक दोस्त के साथ रहते हुए छोटे-मोटे काम करने लगा। वह खाने का जुगाड़ करने के लिए कोक की बॉटल्स बेचता था। जहां वह रहता था वहां से लगभग सात मील दूर एक कृष्ण मंदिर था जहां लंगर का आयोजन किया जाता था। वह युवक भी खाने में खर्च होने वाला पैसा बचाने के लिए सात मील दूर भोजन करने जाता था। उसी दौरान उसे लगा कि उसे कैलीग्राफी की पढ़ाई करना चाहिए। पोस्टर्स आदि में कैलीग्राफी लिखावट की बहुत मांग रही है, उससे अच्छे पैसे मिलेंगे। फिर उसने मुद्रण में आने वाले शेरीफ और सैन शेरीफ टाइपफेस सीखे। फिर उसने उस टाइपफेस से अलग-अलग शब्दों को जोड़कर टाइपोग्राफी तैयार की।

इसके बाद उस युवक ने अपने मित्र के साथ मिलकर एक गैरेज में एप्पल कंपनी की शुरुआत की। जी हां यह पूरा घटनाक्रम है उस युवक के जीवन का जिसे आज दुनिया स्टीव जॉब्स के नाम से पहचानती है। स्टीव जॉब्स ने जब एप्पल की शुरुआत की तो उनकी उम्र मात्र 20 साल थी। अपने दोस्त वॉजनिएक के साथ स्टीव जॉब्स ने  खूब मेहनत की और 10 वर्ष में ही ‘एप्पल’ को एक पहचान दिला दिया। एक गैरेज में दो लोगों से शुरू हुई कंपनी में 4000 कर्मचारियों को रोजगार मिला। इसके साथ ही उन दोनों मित्रों ने मैकिन्टोश कंप्यूटर को दुनिया के सामने लाया। लेकिन जीवन में अभी बहुत से उतार-चढाव आने बाकी थे। स्टीव जाब्स जब 30 साल के थे, तो उन्हें उन्हीं की कंपनी से निकाल दिया गया। यह एक विचित्र और असंभावित-सी घटना थी, लेकिन यही सच था।

स्टीव जॉब्स ने इसे भी एक सबक की तरह लिया और इसके बाद पांच वर्ष के संघर्ष के बाद एक नई कंपनी ‘‘नेक्स्ट’’ के नाम से स्थापित की। और इसके बाद एक और कंपनी ‘‘पिक्स्चर’’ के नाम से बनाई जिसने एनिमेशन की दुनिया में तहलका मचा दिया। इसके बाद घटनाक्रम ने एक बार फिर यू टर्न लिया और एप्पल ने नेक्स्ट कंपनी को खरीद लिया जिससे स्टीव जॉब्स एक बार फिर एप्पल में जा पहुंचे। स्टीव जॉब्स मानते थे कि यदि उन्हें अपनी ही एप्पल कंपनी से नहीं निकाला जाता तो वे ‘‘नेक्स्ट’’ और ‘‘पिक्स्चर’’ को नहीं बना पाते। फिर बिना झिझक एप्पल में लौटने का उनका निर्णय सही रहा। इससे वे एप्पल के एक बार फिर सर्वेसर्वा बन कर उसे सर्वाच्च शिखर पर पहुंचा सके।

यह सच्ची कहानी है स्टीव जॉब्स के जीवन की। जो बताती है कि यदि व्यक्ति अपनी क्षमता पर भरोसा रखे वह अपने जीवन की सही दिशा पा सकता है। सही दिशा पाने के लिए कई बार जोखिम भी उठाने पड़ते हैं जैसे स्टीव जाॅब्स ने काॅलेज की पढ़ाई छोड़ कर कैलीग्राफी का रास्ता अपनाया। उन्होंनेे एक कठिन संघर्ष के मार्ग को चुना। वह चांदी का चम्मच मुंह में ले कर पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उन्होंने अपने संघर्ष से वह सफलता पाई जिसने सारी दुनिया की जीवनशैली को नया मोड़ दे दिया। यह सब इसलिए संभव हुआ कि उन्होंने अपनी क्षमता के प्रति, अपने संघर्ष के प्रति कभी अपने मन में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रखा। यानी जीवन में सफलता पाने की सबसे पहली शर्त है, स्वयं के प्रयासों पर संशय यानी संदेह की काली छाया नहीं पड़ने देना। जब व्यक्ति को अपने आप पर भरोसा रहता है तो वह सब कुछ सफलतापूर्वक कर सकता है। जीवन में रास्ता बदल कर भी तभी देखा जा सकता है जब खुद पर यकीन हो।

बचपन में मैंने एक संस्कृत की कथा पढ़ी थी जो मुझे आज तक याद है। एक गांव में एक पिता और पुत्र रहते थे। एक बार गांव में महामारी फैली। लोग गांव छोड़ कर भागने लगे। पिता-पुत्र ने भी गांव छोड़ने का निर्णय लिया और दूसरे स्थान की ओर चल पड़े। रास्ते में एक गहरी नदी पड़ी। उस नदी को पार किए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता था। नदी पर कोई पुल नहीं था और वहां कोई नाव भी नहीं थी। तब पिता ने पुत्र की मदद से एक लंबे वृक्ष को काटा और उसे नदी के उस स्थान पर आर-पार डाल दिया, जहां नदी थोड़ी संकरी थी। इस तरह पेड़़ से पुल बन गया। लेकिन गोल-गोल एक खतरनाक पुल। पुत्र ने उस पुल से हो कर नदी पार करने से मना कर दिया क्योंकि उसे गिर कर डूब जाने का डर था। तब पिता ने कहा कि मैं पहले उस पार जाता हूं। यदि मैं सुरक्षित उस पार पहुंच गया तो तुम भी इस पुल को सुरक्षित जान कर नदी पार कर लेना। पुत्र मान गया। पिता ने हिम्मत जुटाई और निर्भय हो कर सुरक्षित नदी के उस पार जा पहुंचा। तब उसने पुत्र को नदी पार करने को कहा। पुत्र अब भी नदी पार करने को ले कर संशयग्रस्त था। उसका साहस नहीं हो पा रहा था कि वह पेड़ के उस पुल पर पांव भी रखे। किन्तु अब पिता उस पार पहुंच चुका था और वह अकेला छूट गया था। पिता समझ गया कि उसका पुत्र डर रहा है। तो उसने अपने पुत्र को दो सलाह दी कि ‘‘नीचे मत देखना’’ और ‘‘पीछे मत देखना’’, बस आगे मेरी ओर देखते हुए बढ़ते जाना। पुत्र ने पिता की सलाह पर अमल किया और वह भी सुरक्षित नदी पार कर गया। दरअसल कई बार यही होता है कि हम अज्ञात भय को अपने ऊपर हावी होने देते हैं और वहीं से असफलता की शुरुआत होती है। दूसरी बात यह कि कई बार हम अपनी पिछली असफलताओं को बार-बार याद कर के आत्मविश्वास खोते रहते हैं जिससे सफलता तो दूर, उसकी झलक भी नहीं मिल पाती है।

जीवन में सफलता पाने के लिए सबसे पहली शर्त है आत्मविश्वास और दूसरी शर्त है अपने शुभचिंतकों पर विश्वास। स्टीव जॉब्स ने आत्मविश्वास बनाए रखा। वहीं संस्कृत कहानी के युवक ने अपने पिता की सलाह पर विश्वास करके आत्मविश्वास पाया। जबकि आजकल ऐसी घटनाएं बहुतायत घट रही हैं जिसमें परीक्षा में आशानुकूल परसेंटेज न मिलने पर अथवा मनचाही नौकरी न मिलने पर युवा आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं। वहीं, आत्मविश्वास खोना तो आम-सी बात होती जा रही है। डिप्रेशन युवाओं में एक आम बीमारी बन गई है। जबकि समझने की जरूरत यह है कि यदि आपके मुंह पर एक दरवाजा बंद हो रहा है तो समझ जाइए कि वह दरवाजा आपके प्रवेश करने के लिए नहीं है। दूसरा दरवाजा देखिए, तीसरा देखिए, चौथा देखिए। एक न एक दरवाजा ऐसा जरूर मिलेगा जो आपको प्रवेश करने देगा और जीवन में सफलता के शिखर तक पहुंचा देगा। सिर्फ जरूरत है तो अपनी क्षमताओं पर विश्वास करने की, अपनी सही योग्यता को पहचानने की, क्योंकि संशय के साथ सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। संशय और सफलता परस्पर दो विपरीत ध्रुव हैं। यानी सफलता आत्मविश्वास से मिलती है, संशय से नहीं।        
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