Tuesday, July 16, 2024

पुस्तक समीक्षा | मन से जन तक की यात्रा करते दोहे इस दौर के | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 16.07.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री राजेंद्र गौतम के काव्य संग्रह "कुछ दोहे इस दौर के" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
मन से जन तक की यात्रा करते दोहे इस दौर के
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक -  कुछ दोहे इस दौर के
कवि - राजेंद्र गौतम
प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं 1ई, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य - 250/-
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हिंदी काव्य साहित्य में दोहा एक प्राचीनतम विधा है। यह सदियां पार करते हुए अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं। सूर, कबीर, रैदास, रहीम आदि के दोहे सभी की स्मृतियों में आज भी मौजूद हैं। कोई अन्य काव्य शैली अथवा छंद दोहों का स्थान नहीं ले सका। 13-11 मात्राओं वाली दो पंक्तियों के संक्षिप्त दोहे अभिव्यक्ति का अद्भुत मध्यम रहे हैं। समय के अनुसार दोहों की विषयवस्तु में कतिपय परिवर्तन होता रहा किंतु उसका मूल स्वरूप यथावत रहा। दोहों में भक्ति के भाव मुखरित हुए तो अंधविश्वास, शोषण एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ भी बुलंद हुई। यह सब भक्तिकाल से यथावत चला आ रहा है। विनम्रता से ले कर कठोरता तक, सब कुछ दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किए गए। यह भी सच है कि दौर बदलता है तो स्थितियों में भले ही बहुत अधिक अंतर न आए किन्तु बिम्ब और मानक अवश्य बदलते हैं। पहले सामाजिक व्यवस्थाओं ने रोजगार को सीमित कर रखा था तो अब मशीनों ने तथा कम्प्यूटराइजेशन ने हाथों से काम छीन लिए हैं। अर्थात् कारण भले ही बदल गए किन्तु मूल दशा लगभग वही रही। इस दशा को लक्षित करता हुआ एक दोहा संग्रह आया है जिसका नाम है ‘‘कुछ दोहे इस दौर के’’। इस संग्रह के रचनाकार हैं प्रतिष्ठित नवगीतकार एवं दोहों के सुपरिचित हस्ताक्षर राजेन्द्र गौतम।
राजेन्द्र गौतम ने अपने दोहों के बारे में पुस्तक की भूमिका में आरंभ में ही बड़ी अच्छी बात लिखी है कि वे अपने दोहे निजी नहीं वरन जन का स्वर मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ये दोहे मेरे नहीं, या कहूं, सिर्फ़ मेरे नहीं हैं क्योंकि इनमें केवल मेरे मन की बात नहीं है। है ‘मन की बात’ भी है पर थोड़ी है। ज्यादा इसमें ‘जन-मन की बात’ है।’’
‘‘स्वगत’’ में राजेन्द्र गौतम ने एक रोचक घटना का भी उल्ल्ेख किया है जो जनसरोकार को व्यख्यायित करता है और एक विमर्श भी खड़ा करता है। उन्होंने लिखा है कि उनके एक मित्र ने उन्हें उलाहना दिया कि वे जनसरोकारित नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनके पास कार है, घर में एसी लगा हुआ है, भला वे निर्धन का दुख कैसे समझ सकते हैं? निश्चित रूप से कवि के मित्र का पाला ऐसे कथित उदारमना लोगों से पड़ा होगा जो एसी कमरों में बैठ कर निर्धनों के हित के लिए योजनाएं बनाने का ढोंग करते हैं अथवा सुने-सुनाए आधार पर कविताई करते हैं, जिसका खांटी यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता है। किन्तु उतना ही सच यह भी है कि सभी कवि ‘एलीट वर्ग’ से नहीं आते हैं। जिनका बचपन गांव की धूल-मिट्टी में खेलता हुआ गुजरा हो, जिन्होंने अपने माता-पिता के संघर्षों को देखा हो और जिन्होंने अपनी नहीं तो कम से कम पराई कृषि जमीन को छल द्वारा हड़पे जाते देखा हो, वे एसी कक्ष में बैठ कर भी उस जन की पीड़ा को व्यक्त कर सकते हैं। क्योंकि बात संवेदना की होती है, दिखावे की नहीं। यदि कवि के भीतर संवेदनाएं जाग्रत अवस्था में हैं तो वह कहीं भी सांस लेता हुआ अपनी कविताओं में सच की आंच का ताप समेट सकता है। व्यक्ति चाहे एक बार ही क्यों न किसी रोटी की भाप से जला हो उसे जलने की पीड़ा का पता होता है। वहीं, राजेन्द्र गौतम एक ऐसे कवि हैं जो जमीन से जुड़े हुए हैं और उन्होंने अपने नवगीतों के माध्यम से गांव एवं शहर के जन की पीड़ा को हमेशा अभिव्यक्ति दी है। उनकी यह खूबी उनके दोहों में आना भी स्वाभाविक था।
पाल भसीन ने संग्रह में इस बात की तस्दीक भी की है कि ‘‘गांव से शहर पहुंच कर भी गांव की मिटटी से जुड़े रहना सभी के वश की बात नहीं होती। इस बात का प्रमाण उनके (राजेन्द्र गौतम के) नवगीतों और दोहों में सहज ही मिल जाता है और अब इनमें से कुछ इस एल्बम के रूप में आपके सामने हैं।’’
संग्रह की भूमिका लिखते हुए भारतेंदु मिश्र का कथन है कि ‘‘ये दोहे असल में कवि द्वारा हमारे समय का परिस्थितियों के अनुरूप किया गया संवाद है। ये हमारे समय की आहटें हैं और यह संवाद अभी जारी है।’’
काव्य की चाहे कोई भी विधा हो, जब समय से संवाद करते हुए समय के साथ चलती है तो उसकी उपादेयता स्वतः सिद्ध रहती है। राजेन्द्र गौतम के दोहों की भी उपादेयता स्वयंसिद्ध है। उनके दोहों में यथार्थ की मार्मिक प्रस्तुति है। जैसे यह दोहा देखिए-
व्यर्थ  सभी  संचार  हैं, तार और बेतार।
खटिया तक महदूद है, अम्मा का संसार।।
मां पर ही एक और दोहा देखिए-
चूल्हे-चैके में खटे जीवन का अनुवाद।
मां की पोथी में मिले, लिखे यही संवाद।।
भूख या गरीबी का संबंध जाति, धर्म, समुदाय से नहीं वरन आर्थिक स्थिति पर टिका होता है। जो अर्थबल से सम्पन्न है, उसकी की प्रभुता का बोलबाला रहता है किन्तु जो अर्थविहीन है वह दलितों और शोषितों की कतार में ही खड़ा दिखाई देता है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म अथवा जाति का क्यों न हो। इसी बात को राजेन्द्र गौतम ने कुछ इस प्रकार कहा है-  
भूखे सोएं सांस भर, रामू और करीम।
मंदिर-मस्जिद बेख़बर, सुबके लेकिन नीम।।
जब पास में पूंजी न हो और सिर पर कर्जे का भारी बोझ लदा हो तो किसान या तो पलायन कर के शहरों में मजदूरी करने को विवश हो जाते हैं अथवा कुछ घबरा कर आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। दोष इसमें गांव का नहीं अपितु उस व्यवस्था का है जिसमें देश की आजादी के कई दशक बीत जाने पर भी किसान सर्वाधिक शोषित है। फिर आज तो कार्पोरेट जगत की भी कुदृष्टि उस पर गड़ी रहती है। राजेन्द्र गौतम का ये दोहा इस दशा को बेहतर स्पष्ट करता है-  
बरगद को था क्या पता होंगे गांव मसान।
गीधों का आहार है हरिया या मलखान।।
जिस तरह किसान शोषण का शिकार है उसी तरह मजदूर की दशा भी उससे इतर नहीं है। दिन भर हाड़तोड़ मेहनत के बाद दिहाड़ी के रूप में कभी चंद रुपए, तो कभी मुट्ठी भर अनाज मिलता है। जिससे न तो उसके परिवार का पेट भरता है और न उसका स्वयं का। लेकिन मजदूर से काम लेने वाले को इससे कोई वास्ता नहीं है कि मजदूर को भरपेट खाना मिला है या नहीं, उसे तो मजदूर से ज्यादा से ज्यादा काम करवा लेने की भूख होती है। यह दोहा देखिए-
डेढ़  सेर  आटा  दिया, पंसारी  ने  तोल।
खून-पसीने का मिला, सांझ ढले यह मोल।।
गंावों का भी शहरीकरण हो रहा है। किन्तु यह शहरीकरण पूंजीपतियों की मुट्ठी में कैद है। किसानों, गरीबों की जमीनें आधे-पौने दामों में ले कर एम्यूजमेंट पार्क और पंच सितारा होटल बनाए जाते हैं। इनके ठीक चार कदम पर भूख और बदहाली अपना तांडव करती रहती है जिसकी ओर देखना भी किसी को गंवारा नहीं होता है। ये दोहे इसी कटु सच्चाई को बयान करते हैं-
झुग्गी वाले नगर का पाँच सितारा रूप।
कहीं पूस की रात है कहीं फागुनी धूप।।
होरी के घर आज भी नहीं पँसेरी धन ।
खेत-खेत में लिख रही भूख करुण गोदान।।
देसज परिदृश्य देख कर कवि का हृदय व्यथित हो उठता है। उसे क्षोभ होता है कि हम किस बात पर गर्व करें जब हमारे यहां भूख और गरीबी का बोलबाला है-  
पूरब-पच्छिम उड़ रहा इसका धानी चीर।
इसकी आंखों में बसी हर मीरा की पीर।।
बापू के मन का पढ़े, हृदय-विदारक क्लेश।
माथा ऊंचा  रख  सके,  कैसे गूंगा देश।।
कवि ने अपने दोहों में जहां एक ओर जन के कष्टों की बात की है, वहीं उसने मन की उमंगों से उपजती कोमल भावनाओं को भी सुंदरता से पिरोया है। इन दोहों में बिम्बों का आधुनिक स्वरूप भी अत्यंत रोचक है। बानगी देखिए-
चुटकी एक गुलाल की, सुर्ख हुए हैं गाल।
देह लरजती छुवन से, ज्यों फूलों की डाल।।
चुटकी एक गुलाल की, लाई कितनी याद।
भले वर्चुअल ही सही, दे जाती उन्माद।।
चुटकी एक गुलाल की बदले सारे सीन।
श्वेत-श्याम थी जिन्दगी अब सपने रंगीन।।
गुझियां देवर को मिलीं होली का उपहार
पिय को केवल मिल सका रुखा-सूखा प्यार।
कवि राजेन्द्र गौतम ने अपने इस संग्रह में अपने कुछ हरियाणवी दोहे भी शामिल किए हैं।
वैसे एक बात इस संग्रह के दोहों के विषय में है जो मुझे खटकी, वह है दोहों का फार्मैट। इस संग्रह के दोहे कथन की दृष्टि से, वजन की दृष्टि से और शैली की दृष्टि से परिपक्व एवं बेहतरीन हैं किन्तु कवि ने इन्हें संग्रह में प्रस्तुत करते समय दो लाईनों के बदले पांच लाईनों में तोड़ कर प्रस्तुत किया है। चूंकि दोहा एक परंपरागत विधा है और दो लाईनों में ही इसे देखने की आदत है अतः इसे पांच लाईनों में प्रस्तुत करने का उद्देश्य समझ से परे है। कवि की ओर से अपनी भूमिका में इस बारे में कोई कारण भी नहीं बताया गया है। कवि राजेन्द्र गौतम एक वरिष्ठ कवि हैं अतः उनके द्वारा किया गया यह प्रयोग चौंकाता है। क्योंकि उनके दोहों की प्रवृति एवं प्रकृति में पूर्वकालीन दोहा शैली से भिन्नता नहीं है किन्तु फार्मेट में यह भिन्नता होने से भ्रम उत्पन्न होता है। जब कोई पाठक पुस्तक का नाम ‘‘कुछ दोहे इस दौर के’’ पढ़ कर दोहे पढ़ने के मंसूबे से पुस्तक को अपने हाथों में लेगा और उसके कलेवर पर प्रथम दृष्टि डालेगा तो उसमें क्षणिकाएं होने का बोध होगा, जबकि सभी दोहे हैं। यह जोखिम कवि ने क्यों लिया, यह उन्होंने आत्मकथन में स्पष्ट किया होता तो उचित होता। फिर भी मात्र फार्मेट को ले कर संग्रह के दोहों को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि उनकी सम्प्रेषणीयता उन्हें पढ़ने के बाद विचारों को देर तक उद्वेलित करने में सक्षम है।            ---------------------------- 
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1 comment:

  1. सुप्रभात शरद जी,
    मेरे दोहा संकलन की इतनी अच्छी समीक्षा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। कह सकता हूं कि इस संकलन की अब तक प्रकाशित समीक्षाओं में यह सर्वोत्तम है। आपने पुस्तक के प्रतिपाद्य को समग्र अभिव्यक्ति दी है। आजकल समीक्षाएं परिचयात्मक टिप्पणी मात्रा होती हैं लेकिन आपने विस्तार से न केवल दोहे के इतिहास को रेखांकित किया, मेरे दोहों में किस प्रकार वर्तमान का प्रतिनिधित्व हुआ है, उसको भी बहुत अच्छी तरह से रेखांकित किया है। फॉर्मेट को लेकर भी आपका सवाल अपनी जगह सही है। आगे इस पर विचार किया जाएगा। आपके लेखन की निरंतरता नई पीढ़ी को प्रेरणा देगी ऐसा मेरा विश्वास है। पुन: आभार।

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