प्रस्तुत है आज 01.03.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका डॉ लक्ष्मी पांडेय के उपन्यास "लॉकडाउन" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
लाॅकडाउन में उपजी एकांतिक मनोदशा पर केन्द्रित उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - लाॅकडाउन
लेखिका - लक्ष्मी पांडेय
प्रकाशक- अनुज्ञा बुक्स,1/10206, लेन नं. 1ई, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 495 रुपए
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विश्वव्यापी कोरोना आपदा ने इस सदी को आरंभ में ही इतना भयाक्रांत कर दिया कि इसका प्रभाव जनमानस पर पड़ना स्वाभाविक था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सन् 2020-21 का पूरा साल कोरोना के आतंक से जूझता रहा। समूचा विश्व लॉकडाउन हो गया। सन् 2020 में स्कूल बंद, काॅलेज बंद, दूकानें बंद, सबकुछ बंद सिवाय अत्यावश्यक सेवाओं के। पहली लहर के दौरान लगाया गया लाॅेकडाउन एक ऐसा अनुभव था जिससे पहले कभी कोई नहीं गुज़रा था। लाॅेकडाउन ने जीवनचर्या ही बदल दी थी। हर परिवार एकाकी हो गया था और उसके लिए यह और भी त्रासद था जो व्यक्ति अपने घर में एकाकी रह रहा था। ऐसे एकाकी वातावरण में इंटरनेट की आभासीय दुनिया मानसिक सहारा दे रही थी लेकिन वास्तविकता और आभास में क्या अंतर होता है, यह पाठ उस दौर ने पढ़ा दिया। कोरोना और लाॅकडाउन के दौरान, इन दोनों विषयों पर विविध विधाओं में प्रचुर साहित्य रचा गया। हर साहित्यकार लाॅकडाउन के संत्रास भरे अनुभव को लिपिबद्ध कर देना चाहता था। इसी दौर में लेखिका लक्ष्मी पाण्डेय ने भी एक उपन्यास लिखा जिसका नाम है-‘‘लाॅकडाउन’’। इससे पूर्व उनके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। आलोचना के क्षेत्र में उनकी विशेष उपस्थिति है।
‘‘लाॅकडाउन’’ उपन्यास एक ऐसी स्त्री की मनोदशा का विवरण प्रस्तुत करता है जो अपने घर में प्रायः अकेली रहती है। काम के अलावा घर से बाहर जाने की उसकी प्रवृत्ति भी नहीं है जिसके लिए लेखिका ने ‘‘घरघुस्सू’’ शब्द का प्रयोग किया है। यह एक शब्द है जो उपन्यास की नायिका कमलिनी की स्थिति, परिस्थिति एवं मनोविज्ञान की अच्छी-खासी झलक दिखा जाता है। किन्तु लाॅकडाउन की यही सबसे बड़ी विडंबना रही कि एक ‘‘घरघुस्सू’’ स्त्री भी घर से बाहर की दुनिया को देखने के लिए व्याकुल हो उठी। प्रतिबंध में व्यक्ति छटपटाता है, यह जीव-प्रवृत्ति है। यदि किसी पशु को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध खूंटे से बांध दिया जाए तो वह रस्सी तुड़ा कर, खूंटा उखाड़ कर भागने का यत्न करता है। वह उसी स्थिति में खूंटे से बंधना स्वीकार कर पाता है जब उसे समझ में आ जाए कि इसी में उसकी भलाई है। लाॅकडाउन में इंसान ने समझ लिया कि घर की क़ैद में रहने में ही भलाई है। लेकिन इस सबके बावजूद मन तो विचरणशील होता है। तन को क़ैद किया जा सकता है, मन को नहीं। लाॅकडाउन के बंधन में रह रही एकाकी कमलिनी का मन मानो और अधिक वाचाल और चिंतनशील हो गया। उपन्यास में कई दृश्य ऐसे हैं जब नायिका कमलिनी स्वयं से ही वार्तालाप करती है। देखा जाए तो यह उपन्यास एकालाप (मोनोलाॅग) शैली के अधिक निकट है। बीच-बीच में फोन पर संवाद इस एकालाप को तोड़ते हैं लेकिन लाॅकडाउन की एकांतिक स्थिति पुनः एकालाप की ओर मोड़ ले जाती है। एकांतिक शब्द वैष्णव संप्रदाय का एक नाम भी है किन्तु लाॅकडाउन के संदर्भ में यह शब्द एकान्त की विकट स्थिति का पर्याय बन गया। जिसे अंग्रेजी में ‘‘साॅलीट्यूड’’ कहा जा सकता है यानी एकांत को जीने वाला।
उपन्यास की नायिका रात के सन्नाटे में कुत्तों के भूंकने की आवाज़ के बीच अपने एकाकीपन पर टिप्पणी करती हुई कहती है कि -‘‘ मेरे जैसे लोग जो जीवन भर क्वॉरेंटाइन में रहते हैं, वे ऐसे भयों से जूझते हुए कोई न कोई टोटका, तरीका ढूंढ ही लेते हैं कि जब ऐसी स्थिति आएगी तो वह क्या करेंगे कि भय मुक्त हो सकें। मैंने भी एक रात ऐसी स्थिति में कांपते मन के साथ अपने आराध्य भगवान शिव का स्मरण किया और जाने किस प्रेरणा से मुझे लगा कुत्ते जो देख रहे हैं उनका सामना करने के लिए शिव को रौद्र रूप में उपस्थित होना होगा, तभी वे उन्हें चुप करा पाएंगे। मुझे उसी रूप का स्मरण करना चाहिए और मैंने ऊं रुद्राय नमः का जाप मन ही मन करना आरंभ कर दिया। पांच बार, दस बार, ग्यारह, बारह और अनुभव हुआ कि सन्नाटा व्याप्त है, कुत्तों ने रोना बंद कर दिया है। मन में तब से यह आस्था दृढ़ हो गई है।’’(पृ 21)
अकेलेपन में जीवन से जुड़े हर तथ्य पर क्या, क्यों, कैसे की भांति प्रश्न जाग उठते हैं। मन चिंतनशील हो कर उनके उत्तर ढूंढने लगता है। प्रश्नकर्ता भी मन और उत्तर देने वाला भी वही मन। समग्र के प्रति आंतरिक दृष्टिकोण की समुचित उपस्थिति। मन में प्रश्न उपजा कि लातूर में भूकंप क्यों आया था? इसका उत्तर मन ने जो दिया उसमें कोरोना आपदा का उत्तर भी समाहित था। उपन्यास की नायिका के शब्दों में -‘‘ यह अत्याचार नहीं हम मनुष्यों के कुकर्मों का फल है। कभी-कभी जो कुकर्म करता है वही फल पाता है किंतु कभी-कभी उसके किए का फल पूरा परिवार या पूरा समाज या पूरा राष्ट्र या पूरी मानवता पाती है। कोरोना का निर्माण किसी न किसी एक दिमाग की उपज थी, उसका फल पूरी मनुष्य जाति भोग रही है। पेड़ों को काटकर पहाड़ों को, मैदानों को निर्वस्त्र कर देना, उन पहाड़ों पर होटलों का निर्माण, बस्तियां बसाना, पानी के लिए उन्हें छेद डालना, उन्हें भीतर से कमजोर करेगा ही। ऐसे में पहाड़ों पर बसे हुए आशियाने कब्र बन जाएं तो आश्चर्य कैसा?’’(पृ 22)
लाॅकडाउन ने समूचे विश्व में सन्नाटा पसार दिया। विदेशों की जो सड़कें चैपहियों की लंबी कतारों से ढंकी रहती थीं उन पर पशु-पक्षी विचरण करने लगे-‘‘ भारत ही नहीं, विदेशों के ऐसे दृश्य दिखाती टीवी एंकर प्रसन्नता से गदगद थी। पोलैंड में हिरणों का झुंड सड़कों पर मनमानी दिशाओं में भ्रमण करता दिखा, वेल्स में बकरियों का झुंड, जापान में हिरण, पेरिस में बतखों के जोड़े आराम से टहलते दिखे।’’ मानो प्रकृति अपना स्थान बदल रही थी और इन दृश्यों को हमें दिखा रही थी हमारे घर में रखी टीवी। प्रकृति का आभासीय अनुभव। सुंदर पर प्रत्यक्ष नहीं, ग्राह्य नहीं।
एकाकीपन में एकालाप जब आत्मालाप की ओर बढ़ जाता है तो एक और दृश्य प्रस्तुत होता है-‘‘ नीचे कमरे में आ गई, मन ऊपर छत पर ही जा रहा है दौड़ दौड़ कर। कपड़े बदल लिए, सूखा सूती कपड़े का गाउन बड़ा सुखद लगा। भीगे बालों को पतले तौलिए से रगड़कर खुला छोड़ दिया देह में स्फूर्ति सीे भर गई लेकिन मन दबोच रहा है पूरे अस्तित्व को, सोनवा के पिंजरा में बंद भइलैं हाय, एक मीठी खनकती सी हंसी गूंजती है। चौंंक जाती है, कौन हंसा? लॉक डाउन चल रहा है। स्वाभाविक है सन्नाटा होना। ऐसे में न सखी सहेली आ सकती है न पड़ोसी न नौकर-चाकर, न इस शाम को पोस्टमैन, कोई नहीं। ये कौन हंसा?’’(पृ 48)
‘‘ये कौन हंसा?’’ कमलिनी को इसका उत्तर मिलता है इन शब्दों में-‘‘ मैं कहां जाऊंगी भला, छाया भी कहीं जाती है? मैं तुम्हें समाहित हूं। छाया कहो, मन कहो, आत्मा कहो, जो भी कहो तुम्हारे भीतर कि तुम हूं मैं, सब तुम्हें छोड़कर चले जाए लेकिन जब तक इस संसार में तुम्हारी उपस्थिति है मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकती तुम हो तो मैं रहूंगी ही।’’(पृ 49) इस बिन्दु पर पहुंच कर कथानक नास्टैल्जिक होने लगता है। यह एकांतिकता के प्रभाव की पराकाष्ठा है जब व्यक्ति तन्मयता से आत्मालापी बन जाता है।
फोन पर कमलिनी की बातें अपनी दो-तीन परिचिताओं से भी होती रहती है किन्तु उनके जीवन की समस्याएं नायिका के चिंतन को और गहन कर देती हैं। यद्यपि उस दौर में एक विशिष्ठ बौद्धिक बदलाव आ रहा था। लॉकडाउन के कारण साहित्यिक समारोह-सेमीनार स्थिगित हो गए थे, वहीं आभासीय दुनिया डट कर संवाद के द्वार खोल रही थी गूगल मीट, जूम, फेसबुक लाइव, व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि के ज़रिए। इससे हुआ यह कि लोकल कार्यक्रम अनायास ही ग्लोबल हो गए। स्थानीयता और वैश्विकता दोनों एकसार होने लगी। घर बैठे लोग देश-विदेश से जुड़ने लगे चर्चा और गोष्ठियां करने लगे। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय भी आॅनलाईन क्लासेस और वेबिनार पर सिमट गए। किन्तु मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है। उसे तो परस्पर मिलना-जुलना पसंद है। वह भी प्रत्यक्ष भेंट-मुलाक़ात। छात्रावास में रह कर एक छात्र जीवन के जो पाठ पढ़ता है वह घर के अपने कमरे में रह कर नहीं पढ़ सकता है। क़ैद चाहे जेल की हो या घर की, जब लंबी हो जाए तो खड़िया से दीवार पर लकीरें खींच-खींच कर गिनने जैसी स्थिति हो जाती है। उपन्यास की नायिका भी इसी मनोदशा से गुज़र रही होती है। वह सोचती है -‘‘ 25 मार्च से लाॅकडाउन हुआ है, आज पूरे 1 माह 7 दिन हो गए। शिक्षण संस्थाएं छात्रावास तो 17-28 मार्च से खाली होना शुरू हो गए थे। जीवन बदल गया इन दिनों। बड़े-बड़े महल अटरियां खामोश मुंह बंद किए खड़े हैं। महंगी गाड़ियां अपने कवर में दुबकी शांत भाव से इमारतों के एक कोने में खड़ी हैं। उन्हें झाड़ने-पोंछने वाला कोई नहीं है। नौकर-चाकर, माली, ड्राइवर सभी अपने-अपने घरों में बंद हैं। ब्रांडेड कपड़े अलमारियों में आराम फरमा रहे हैं और जिंदगी हाफपेंट, बरमूडा, टी-शर्ट गाउन, सलवार कुर्तों या पुरानी सूती साड़ियों में कट रही है। महंगे जूते अलमारियों में बंद हैं। स्लीपर पहने-पहने ही हर कोई दूध, सब्जी, किराने का सामान लेने मोहल्ले के निकटवर्ती दुकानों तक आ जा रहा है, वह भी पुलिस की निगरानी में। इनमें अमीर भी हंै गरीब भी।’’(पृ 56)
उपन्यास में उन मजदूरों की भी चर्चा है जो महानगरों को छोड़ कर अपने घरों की ओर लौट पड़े थे और रेल की पटरी पर सो जाने के कारण उनमें से कुछ की जानें भी चली गई थीं। यद्यपि यह प्रसंग तर्क-विर्तक के रूप में रखा गया है जिसमें नायिका को मजदूरों से सहानुभूति है किन्तु नायिका के साथी को यह मजदूरों की मूर्खता लगती है। इस बिन्दु पर पाठकों के लिए भी सहमति-असहमति की पूरी गुंजाइश है। किन्तु शैली में प्रवाह है और भाषा भी कथानक के अनुरुप प्रभावी है। उपन्यास में पौराणिक कथाओं, महाभारत तथा रामायण के प्रसंगों पर भी चिंतन-मनन है। बीच-बीच में लोकगीत एवं कविताओं के द्वारा भी कथानक को विस्तार दिया गया है। यदि इस बात को ध्यान में रखा जाए कि यह एक ऐसी स्त्री के मनोवैज्ञानिक पक्ष का विवरण है जो सबके होते हुए भी एकाकीपन झेल ही रही थी, उस पर लाॅकडाउन ने उसे ओर भी एकांतिक बना दिया और इन परिस्थितियों में उसका किसी भी विषय पर अपने इच्छानुसार चिंतन करना स्वाभाविक है तो कथानक सहल प्रतीत होगा। इस उपन्यास को पढ़ना लाॅकडाउन के त्रासद कैद वाले समय के अनुभवों को जीने के समान है। लेखिका लक्ष्मी पाण्डेय का संभवतः इसे लिखने का उद्देश्य भी यही है कि लोग लाॅकडाउन के समय को न भूलें और उससे सबक लें। कुलमिला कर ‘‘लाॅकडाउन’’ एक मनोचिंतन रचता पठनीय उपन्यास हैं।
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सुंदर समीक्षा
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