Tuesday, March 15, 2022

पुस्तक समीक्षा | भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक गंभीर उपन्यास | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 15.03.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक प्रदीप पाण्डेय के उपन्यास "पक्षद्रोह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक गंभीर उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास   - पक्षद्रोह
लेखक     - प्रदीप पांडेय
प्रकाशक   - प्रभात पेपरबैक्स, प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफअली रोड, नई दिल्ली- 110002
मूल्य      - 250 रुपए 
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भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो। जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरूद्ध जाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करने लगता है तो वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है। आज देश में भ्रष्टाचार अपनी जड़े जड़े जमा चुका है। आज पूरी दुनिया में भारत भ्रष्टाचार के मामले में 94वें स्थान पर है। भ्रष्टाचार के कई रंग-रूप है जैसे रिश्वत, काला-बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना, पैसा लेकर काम करना, सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि। भ्रष्टाचार में मुख्य घूस यानी रिश्वत, चुनाव में धांधली, ब्लैकमेल करना, टैक्स चोरी, झूठी गवाही, झूठा मुकदमा, परीक्षा में नकल, परीक्षार्थी का गलत मूल्यांकन, हफ्ता वसूली, जबरन चंदा लेना, न्यायाधीशों द्वारा पक्षपातपूर्ण निर्णय, पैसे लेकर वोट देना, वोट के लिए पैसा और शराब आदि बांटना, पैसे लेकर रिपोर्ट छापना, अपने कार्यों को करवाने के लिए नकद राशि देना यह सब भ्रष्टाचार ही है। जीवन का कोई भी क्षेत्र इसके प्रभाव से मुक्त नहीं है। यदि हम इस वर्ष की ही बात करें तो ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो कि भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं। यह एक संक्रामक रोग की तरह है। समाज में विभिन्न स्तरों पर फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कठोर दंड-व्यवस्था की जानी चाहिए। आज भ्रष्टाचार की स्थिति यह है कि व्यक्ति रिश्वत के मामले में पकड़ा जाता है और रिश्वत देकर ही छूट जाता है। 
भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए सजगता और साहस जरूरी है। यह दोनों तत्व साहित्य के माध्यम से मन-मस्तिष्क में अपनी जगह बना सकते हैं। एक ऐसा नायक जो भ्रष्टाचारियों से स्वयं लड़ता है और अपने संघर्ष के द्वारा दूसरों को संघर्ष का मार्ग दिखाता है। निसंदेह इस तरह साहित्य का दायित्व चुनौती भरा हो जाता है। वस्तुतः नई-नई चुनौतियां साहित्य को परिमार्जित करती रहती हैं। साहित्य के लिए यह आवश्यक है कि वह पुरातन मूल्यों की नींव पर नवीनतम मूल्यों की इमारत खड़ी करता रहे। हिन्दी साहित्य में निःसंदेह इसे आवश्यकता को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया। जहां तक बात उपन्यासों की है तो हिंदी उपन्यास लेखन में सन 1960 के बाद एक नया मोड़ शुरू होता है। साठ के बाद के हिंदी उपन्यासों में यथास्थितिवाद के स्थान पर संघर्ष और विद्रोह का आग्रह दिखाई पड़ता है। इस तरह के लेखन की शुरुआत हुई नई कहानी के रूप में। नई कहानी आंदोलन के पीछे जो तत्व प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रहे थे उसके मूल में मोहभंग, हताशा, कुंठा, देश का बंटवारा, सांप्रदायिक दंगे, संयुक्त परिवारों का तेजी से हो रहा विघटन, पारिवारिक संबंधों पर अर्थ का दबाव, प्रेम संबंधों की समस्या, अमीरी-गरीबी के बीच लंबी होती खाई, नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच सामंजस्य की समस्या, बेरोजगारी, महानगरीयता, अकेलापन, शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलंबी स्त्रियों की नई विचारधारा, कामकाजी स्त्रियों का दोहरा शोषण, जातिगत व्यवस्था में उपेक्षा का भाव आदि।
हमारे देश को सैकड़ों वर्ष तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ा। अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को इतना जर्जर कर दिया कि वह आज तक सम्हल नहीं सका है। यद्यपि 1967 के मध्यावधि चुनाव के दौरान आर्थिक असमानता को दूर करने का प्रयत्न किए गए। राजाओं की पेंशन बंद कर दी गई, बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, चीनी राष्ट्रीय कोयला खदानों खाद्यान्नों का भी राष्ट्रीयकरण करने का प्रयत्न किया गया जिससे उल्टा असर हुआ परिणाम हुआ कि मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिला चीजें महंगी होने लगीं। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने लगा। बाजारवाद ने आर्थिक परिस्थितियों का संतुलन तेजी से बिगाड़ा। परिणाम तक रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोलने लगे। एक कागज को एक मेज से दूसरे मेज तक पहुंचाने के लिए मेज के नीचे से रिश्वत देने की परंपरा ने अपने अपनी जड़े जमा लीं। यदि कोई सरकारी काम करवाना है तो रिश्वत देना जरूरी हो गया। हिंदी साहित्य में आर्थिक भ्रष्टाचार पर लगभग हर विधा में लिखा गया। उपन्यास, कहानियां, व्यंग, कविताएं सभी विधाओं में भ्रष्टाचार का विश्लेषण एवं उसका निदान रेखांकित किया गया। इस दिशा में श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘‘राग दरबारी’’ सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है जिसमें हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को खुलकर सामने रखा गया। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उदय प्रकाश की लंबी कहानी ‘‘दिल्ली की दरबार’’ प्रकाशित हुई थी। जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास ‘‘उत्कोच’’ भी कुछ ऐसे ही विषय पर है। जो यह दृश्य सामने रखता है कि बिना रिश्वत दिए कोई काम हो पाना संभव नहीं है इसी क्रम में युवा लेखक प्रदीप पांडेय का उपन्यास पक्षद्रोह भ्रष्टाचार के एक और पक्ष को सामने रखता है। इस उपन्यास का नायक विक्रम स्वाभिमानी है। ईमानदारी का जीवन जीना चाहता है लेकिन समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार दफ्तरों में व्याप्त रिश्वत लेने देने की परंपरा उसे ईमानदारी से डिगाने पर तत्पर दिखाई देती है। लेकिन विक्रम इसका इसका रास्ता ढूंढ निकालता है। यह उपन्यास युवा पीढ़ी से एक ऐसा आग्रह करता दिखाई देता है जिससे समाज में आर्थिक अपराध कम हो सकते हैं। यद्यपि यह रास्ता आसान नहीं है। विक्रम को भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि विक्रम युवा है अतः उसके हृदय में उत्पन्न होने वाली प्रेम की भावना भी उपन्यास में एक अलग रंग भर्ती है जो कि मानव जीवन के एक महत्वपूर्ण पक्ष को इंगित करती हैं। जिसमें वह घर बसाना चाहता है और सुख में जीवन जीना चाहता है। 
लेखक प्रदीप पांडे सामाजिक कार्यों से भी जुड़े हुए हैं और राजनीतिक स्तर पर भी उन्होंने भ्रष्टाचार की हर एक रंग को निकट से देखा है इसलिए उन्होंने अपने उपन्यास में इसे बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया है। भ्रष्टाचार जगत में व्याप्त टेबल से नीचे पैसे देने का मुहावरा प्रयोग में लाते हुए प्रदीप पांडे ने बड़े दिलचस्प शैली में लिखा है- ‘‘बहुत खूब जो लोग जुबान के पक्के होते हैं, वे जीवन में बहुत तरक्की करते हैं।’’ ‘‘बैग में से पेपर का बंडल निकालकर पेपर को फाड़ते हुए नोट का बंडल निकालकर विक्रम बोला- ‘यह पैसे मैं आपको फिल्मों की तरह टेबल से नीचे दूंगा।’ ‘हां हां, लाओ कहीं से भी दे दो’ हंसकर साहब ने कहा और टेबल के नीचे से पैसे लेते हुए पूछा- ‘क्या लोगे?’ रुपए टेबल पर रखे बैग में रखते हुए पूछा-‘क्या लोगे ठंडा या गरम?’ ‘चाय चल जाएगी साहब, पचहत्तर हजार की चाय तो बनती ही है साहब ।’ 
जीवन में चुनौती को स्वीकार करना और आत्मविश्वास बनाए रखना यह दोनों स्थितियां भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा होने का साहस प्रदान करती हैं। इस संबंध में उपन्यासकार प्रदीप पांडेय ने एक स्थान पर लिखा है-‘‘जीवन में आपके द्वारा उठाया गया कोई भी कदम जो आपके स्वयं के अथवा सामाजिक सिद्धांतों से बाहर है, वही चुनौती होती है, वही जो व्यक्ति जीवन की प्रत्येक चुनौती को सहज स्वीकार कर ले तो समझ ही उसमें जी वक्ता कूट-कूट कर भरी है। कई दफा हमारा आत्मविश्वास सातवें आसमान पर होता है, हम हार जाते हैं। इसके पीछे एक ही कारण है एकाग्रता का न होना।’’
एक समूचा कथानक रिश्वतखोरी के विरुद्ध आवाज़ उठाता है, यह भी अपने-आप में विशिष्टतापूर्ण है। वैसे उपन्यास लेखन की भी अपनी निजी चुनौतियां होती हैं। एक कथानक को संतुलित विस्तार देना और विविध पात्रों को उनका उचित स्पेस देते हुए रोचक तत्वों को समाहित करना सुगम नहीं होता है। कई बार अतिरेक में बह जाने का भय होता है लेकिन उपन्यास लेखन के क्षेत्र में पहलकदमी करते हुए प्रदीप पांडेय ने संतुलन बनाए रखा है जिससे उपन्यास की रोचकता आद्योपांत बनी रहती है। यह उपन्यास सामाज में व्याप्त दूषित व्यवस्थाओं की वास्तविकता से अवगत करता है। मेडिकल लाइसेंस बनाने के बदले ड्रग ऑफिसर द्वारा रिश्वत मांगने से शुरू हुई कहानी विभिन्न मोड़ लेती हुई एक ऐसे क्लाइमैक्स तक पहुंचती है, जहां पक्ष और विपक्ष दोनों ही अनिर्णय की स्थिति में स्वयं को पाते हैं। वही अचानक साक्ष्य के आधार पर न्यायालय निर्णय तक पहुंचता है। लेकिन पक्ष में खड़ा व्यक्ति पक्षद्रोह का दोषी दिखाई देने लगता है तथा भ्रष्टाचारी एक अजीब परिस्थिति में स्वयं को पाकर चैका देने वाला कदम उठाता है। इस पूरे उपन्यास को पढ़ते समय पाठक स्वयं को उपन्यास के नायक विक्रम के साथ-साथ चलता हुआ स्वयं को महसूस करेगा, यह बात विश्वास पूर्वक कही जा सकती है। समाज में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे कभी न कभी किसी ना किसी भ्रष्टाचार का सामना न करना पड़ा हो। लगभग हर व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम एक बार और अधिकतम अनेक बार भ्रष्टाचार का सामना करना ही पड़ता है चाहे वह उस के पक्ष में खड़ा हो अथवा ना हो लेकिन भ्रष्टाचारी का चेहरा वह अपने सामने पाता है।
प्रदीप पांडेय का उपन्यास सटायर न होकर एक गंभीर उपन्यास है जो भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर गंभीरता से सोचने का तीव्र आग्रह करता है। यह उपन्यास निश्चित रूप से पाठकों को पसंद आएगा और उन्हें चिंतन मनन के लिए विवश करेगा।
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