Wednesday, March 23, 2022

चर्चा प्लस | भगत सिंह होने का अर्थ | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
भगत सिंह होने का अर्थ
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
        ‘‘मैं महत्वाकांक्षा, आशा और जीवन के आकर्षण से भरा हूं लेकिन जरूरत के समय मैं सब कुछ त्याग सकता हूं।’’ भगत सिंह ने यह सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के भी दिखा दिया। 23 वर्ष की छोटी-सी आयु में वे हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। लेकिन जो भगत सिंह असेम्बली में बम फेंकते हैं वे ही भगत सिंह लिखते हैं कि ‘‘बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं होती। क्रांति की तलवार विचारों के पत्थर पर तेज होती है।’’ अर्थात् भगत सिंह को समझना इतना आसान नहीं है। उनकी विलक्षण प्रतिभा को जानने के लिए उनके विचारों को गहराई से जानना जरूरी है।
मात्र 23 वर्ष की आयु में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को स्वीकार कर लेना कोई आसान काम नहीं है। जी हां, जब भगत सिंह को फांसी दी गई तो उस समय उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। मेरे नानाजी संत श्यामचरण सिंह बचपन में हम दोनों बहनों को भगत सिंह की कहानी सुनाया करते थे। भगत सिंह की जीवनी के अंत में नानाजी की टिप्पणी रहा करती थी कि- ‘‘कायर अंग्रेजों ने रात के अंधेरे में फांसी दे दी और अंतिम संस्कार भी कर दिया। एक बच्चे से डर गई थी अंग्रेज सरकार।’’ यूं तो मेरे नानाजी गांधीवादी थे और गांधीजी के आंदोलनों में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। तत्कालीन सीपी एण्ड बरार के वर्धा, राजनांदगांव, दुर्ग आदि स्थानों में नशाबंदी अभियान चलाया। वे अहिंसावादी एवं सत्याग्रही थे किन्तु उनके मन में शहीद भगत सिंह के प्रति सम्मान एवं वात्सल्य की अगाध भावना थी। स्वाभाविक था क्योंकि भगत सिंह ने जो भी रास्ता अपनाया था उसका एकमात्र उद्देश्य देश को आज़ाद कराना था। आज जब बाईस-तेईस साल के युवा कोचिंग औा काॅम्पीटीशन की दौड़ में जूझते रहते हैं, इस आयु ने भगत सिंह ने सिर्फ़ देशहित के बारे में सोचा। उनके विचार इतने गहरे और प्रखर थे कि उन्हें जानने के बाद यह विश्वास करना और भी कठिन हो जाता है कि वे मात्र बीस वर्ष के थे जब उन्होंने अंग्रेज सरकार की ताकत को चुनौती दे डाली।
यूं तो कोर्स की किताबों में शहीद भगत सिंह के बारे में मैंने पढ़ा था किन्तु जिज्ञासावश समय-समय पर अलग से उन पर कई किताबें पढ़ीं। अगस्त 1947 में प्रकाशित जितेन्द्रनाथ सान्याल द्वारा लिखित और कुमारी स्नेहलता सहगल द्वारा अनूदित पुस्तक ‘‘अमर शहीद सरदार भगत सिंह (एकमात्र प्रामाणिक जीवनी)’’ जिसकी भूमिका बाबू पुरषोत्तम दास टण्डन ने लिखी थी। जो कि कर्मयोगी प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी। यह किताब मुझे जबलपुर के साहित्य सदन पुस्तक भंडार में मिली थी। बहुत पुरानी पुस्तक। पन्ने लगभग पीले पड़ चुके थे। ऐसी विशेष किताबें उस पुस्तक भंडार में मिल जाया करती थीं। अतः जब भी मैं मां के साथ जबलपुर जाती थी तो मां मुझे साहित्य सदन जरूर ले जाती थीं। बाद में राजशेखर व्यास द्वारा संपादित एवं अनूदित ‘‘भगत सिंह की जेल डायरी’’ पढ़ी। वीरेन्द्र सिन्धु की पुस्तक ‘‘सरदार भगतसिंह पत्र और दस्तावेज’’ पढ़ी। कुलदीप नैयर द्वारा लिखित ‘‘भगत सिंह की फांसी का सच’’ पढ़ा।  अन्य कई किताबें। हर किताब यह साबित करती थी कि भगत सिंह अपनी आयु से अधिक गंभीर विचारशीलता रखते थे।  
असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था कि-‘‘मनुष्य को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’’
भगत सिंह हिंसात्मक प्रवृत्ति के नहीं थे। वे भारतीय जनता की स्वतंत्रता की इच्छा के बारे में अंग्रेज सरकार को आगाह करना चाहते थे। इसीलिए भगतसिंह ने जब बटुकेश्वर दत्त के साथ असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई और 8 अप्रैल 1929 को बम फेंका तो वह स्थान असेम्बली का खाली हिस्सा था। वरना यदि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो वहां उपस्थित न्यायाधीश, वकीलों या दीर्घा में बैठे लोगों पर बम फेंक सकते थे। उनका उद्देश्य निर्दोषों को मरना नहीं था बल्कि आजादी के संघर्ष का उद्घोष करना था। इसीलिए उन्होंने वहां से भागने का प्रयास नहीं किया बल्कि स्वयं की गिरफ़्तारी दे दी। वे जानते थे कि उन पर देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा और शायद फांसी दे दी जाए मगर वे डरे नहीं। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में ‘‘लाहौर षडयंत्र’’ के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी करते रहे।
भगत सिंह पर अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स की हत्या का भी मुकद्दमा चलाया गया। इस दौरान सुखदेव और राजगुरु भी इनके साथ जेल में थे। तीनों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। उस समय जो भी व्यक्ति अंग्रेज शासनकर्ता के विरुद्ध आवाज उठाता उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता।
भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में रहते थे। इन दोनों युवाओं में गहरी मित्रता थी। दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। सांडर्स हत्याकांड में सुखदेव ने भगतसिंह तथा राजगुरु का साथ दिया। पुणे जिले के खेड़ा में जन्में राजगुरु को जब पता चला कि पुलिस द्वारा निर्ममता से पीटे जाने के कारण लाला लाजपत राय की मौत हो गई है तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने अंग्रेज सरकार से उनके इस कृत्य का बदला लेने का निश्चय किया। वे भगतसिंह और सुखदेव के संपर्क में आए। फिर 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु ने भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए। भगत सिंह ने उस समय अपनी गिरफ्तारी नहीं दी क्योंकि वे एक कदम और आगे बढ़ कर फिर अपनी गिरफ्तारी देने की योजना बना चुके थे। वे कुछ ऐसा करना चाहते थे जिसकी गूंज भारत में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में सुनाई दे। यह योजना थी असेम्बली में बम और पर्चे फेंकने की।
लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह के शामिल होने को लेकर मुकदमे का नाटक चला और अंततः 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई। रात के अंधेरे में ही सतलुज नदी के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। यह अंग्रेज सरकार का एक कायराना कृत्य था।
भगत सिंह की यह छोटी-सी जीवनयात्रा अत्यंत ऊर्जावान और एकाग्र थी। मानो उनके जीवन का उद्देश्य देशभक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्यधिक प्रभावित थे। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के कोमल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने 1920 में भगत सिंह महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में भाग लेने लगे, जिसमें गांधी जी विदेशी समानों का बहिष्कार कर रहे थे। 14 वर्ष की आयु में ही भगत सिंह ने सरकारी स्कूलों की पुस्तकें और कपड़े जला दिए। सन् 1921 में जब चौरा-चौरा हत्याकांड के बाद गांधीजी ने किसानों का साथ नहीं दिया तो भगत सिंह पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में गठित हुए ‘‘गरम दल’’ के हिस्सा बन गए। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। 9 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ के लिए चली 8 नंबर डाउन पैसेंजर से काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। यह घटना काकोरी कांड नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इस घटना में भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद आदि का हाथ था। काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज कर दी। तब भगत सिंह और सुखदेव लाहौर पहुंच गए। भगत सिंह के चाचा सरदार किशन सिंह चाहते थे कि भगत सिंह घर बसाएं और सामान्य जीवन जिएं। किन्तु भगत सिंह तो मन ही मन स्वतंत्रता संग्राम का वरण कर चुके थे।  
भगत सिंह कुशल वक्ता, गंभीर पाठक और उत्साही लेखक थे। उन्होंने ‘‘अकाली’’ और ‘‘कीर्ति’’ दो अखबारों का संपादन भी किया था। वे फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का अध्ययन कर चुके थे। जेल की अपनी दो साल की अवधि में भगत सिंह कई लेख लिखे जिनमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों को व्यक्त किया। अपने लेखों में उन्होंने पूंजीपतियों को भी स्वतंत्रता का शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि ‘‘मजदूरों का शोषण करने वाला चाहे एक भारतीय ही क्यों न हो, वह भी स्वतंत्रता का शत्रु है।’’ उन्होंने जेल में अंग्रेजी में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’’। भगत सिंह मानते थे कि ‘‘क्रांति मानव जाति का एक अविभाज्य अधिकार है तथा स्वतंत्रता सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ उन्हांेने कहा था कि ‘‘वे (अंग्रेज प्रशासन) मुझे मार सकते हैं, लेकिन वे मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन वे मेरी आत्मा को कुचल नहीं पाएंगे।’’ वे यह भी कहते थे कि ‘‘मेरा धर्म मेरे देश की सेवा करना है।’’
भगत सिंह का एक ऐसा वाक्य जो उनके द्वारा असेम्बली में बम फेंके जाने के वास्तविक उद्देश्य की ओर स्पष्ट संकेत करता है, वह है-‘‘लोग स्थापित चीजों के आदी हो जाते हैं इसलिए परिवर्तन के विचार से कांपते हैं। इस सुस्ती की भावना को क्रांतिकारी भावना द्वारा प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है।’’ वस्तुतः वे आमजन में स्वतंत्रता की चेतना का त्वरित संचार करना चाहते थे। उनकी यह भावना उनके इस शेर में भी साफ़ दिखाई देती है-
आज जो मै आगाज़ लिख रहा हूं, उसका अंजाम कल आएगा।
मेरे खून  का  एक-एक  कतरा  कभी  तो  इंकलाब लाएगा।
भगत सिंह होने का अर्थ बहुत व्यापक है। उनके व्यक्तित्व को एक गरमपंथी, हिंसावादी कह कर ठुकराया नहीं जा सकता है। उन्हें समझने के लिए उनके पूरे विचारों को जानना और समझना जरूरी है।
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(23.03.2022)
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