प्रस्तुत है आज 22.03.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि बिहारी सागर के गीतसंग्रह "बुन्देली मकुईयां" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
लोकजीवन का आह्वान करता बुन्देली गीतसंग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - बुन्देली मकुईयां
कवि - बिहारी सागर
प्रकाशक - स्वयं लेखक (धर्मश्री पुल के पास, अंबेडकर वार्ड, सागर)
मूल्य - 60 रुपए
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बेर और मकुईयां बुन्देलखंड के ऐसे वनोपज हैं जिनसे ग्राम्यजीवन का हमेशा नाता रहा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ और वनों की अंधाधुंध कटाई ने सभी प्रकार के वनोपज को क्षति पहुंचाई है। बेर तो अभी भी शहरी बाज़ार में दिखाई दे जाते हैं लेकिन मकुईयां ठीक उसी तरह से सिमटती चली गई है जैसे आधुनिक जीवन में लोकगीत सिमटते जा रहे हैं। ऐसे अपारम्परिक होते समय में सागर के कवि बिहारी सागर का काव्य संग्रह महत्वपूर्ण कहा जा सकता है जिसमें उनके द्वारा लिखे गए बुन्देली गीत हैं जो लोकधुनों एवं लोकगीतों के स्वर पर आधारित हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर मुद्रित है -‘‘लोकगीत’’ ‘‘रचयिता- बिहारी सागर’’। प्रश्न उठता है कि लोकगीत किसे कहेंगे?
लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोकसमाज अपनाता है। लोकगीतों में लोक संस्कृति और सभ्यता का वास्तविक स्वरूप देखने को मिलता है। लोकगीतों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है इसमें मानव जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक के विभिन्न संस्कार समाए होते हैं। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहा जा सकता है। लोकगीत में लोक और गीत दो शब्दों का योग है जिसका अर्थ है लोक के गीत। लोक शब्द वास्तव में अंग्रेजी के ‘फोक’ का पर्याय है जो नगर तथा ग्राम की समस्त साधारणजन का परिचायक है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-‘‘लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है बल्कि नगर व ग्रामों में फैली हुई समुचित जनता है।’’
लोकगीत आमजन के गीत होते है। घर, नगर, गांव के लोगों के अपने गीत होते है। त्योहारों और विशेष अवसरों पर यह गीत गाए जाते हैं। इसकी रचना करनेेवाले जमीन से जुड़े लोग होते हैं जिन्हें परंपराओं एवं लोकजीवन का सहज ज्ञान होता है। इसके अनेक प्रकार हैं। स्त्रियां चक्की चलाती हुई गीत गाती हैं, पानी भरने जाते समय गीत गाती हैं, पुरुष मवेशी चराने जाते समय या खेत में काम करते समय गीत गाते हैं- ये सभी लोकगीत ही होते हैं। कवि बिहारी सागर ने भी लोकभाषा अर्थात् बुन्देली में जो गीत लिखे हैं उनका सीधा सरोकार लोकजीवन से है। अतः इन्हें लोकगीतों की श्रेणी में इस आशा के साथ रखा जा सकता है कि ये गीत बुन्देलखंड अंचल के जनसामान्य के स्वर में अपना स्थान बना लेंगे।
संग्रह के आरंभिक पन्नों पर गीतकार मोतीलाल ‘मोती’ का शुभकामना संदेश, उमाकांत मिश्र, लोकनाथ मिश्र एवं मणिकांत चौबे ‘बेलिहाज़’ द्वारा लिखी गई भूमिकाएं हैं। इस संग्रह में मुख्यरूप से काव्यात्मक रचनाएं हैं किन्तु पांच लघुकथाएं भी अंतिम पृष्ठों पर रखी गई हैं। साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था श्यामलम के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने इस संग्रह के कलेवर पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि - ‘‘कवि बिहारी सागर के इस संग्रह में ईश्वर भक्ति से ओतप्रोत भजनों देवी-देवताओं पर गीत, बुन्देलखंड में शादी विवाह, विभिन्न त्योहारों पारंपरिक, सामाजिक, पारिवारिक अवसरों पर गाए जाने योग्य शैलीबद्ध बुन्देली (लोक) गीतों के साथ ही पांच लघुकथाएं भी शामिल की गई हैं जो उनके कथा लेखन के प्रति रुझान का संकेत है। सरल और सहज भाषा में अपने भावों को व्यक्त करना बिहारी भाई के लेखन कर्म को लोक से जोड़ता है। सुधि पाठक इस संग्रह का पठन कर आनंद की अनुभूति करेंगे।’’
गणेश भजन से आरंभ होने वाले गीतों के क्रम में हास्य गीत, कृष्ण भजन, गारी ढिमरयाई धुन में निबद्ध कोरोनावायरस पर गीत, विवाह गीत, शारदा मां की स्तुति, तुलसी गीत, चैकड़िया भजन, बाल कविताएं, ग़ज़ल, वसंत गीत, झूला गीत, दादरा धुन में निबद्ध गीत, देशभक्ति गीत, विवाह से संबंधित गीत आदि विविध विषयों पर गीत इस संग्रह में मौजूद हैं जिन्हें प्रस्तुत करते हुए कवि बिहारी सागर ने लोक जीवन के प्रति अपनी आत्मीयता को प्रकट किया है। इनमें से अधिकांश गीत गेय हैं तथा ढोलक, मंजीरा, नगड़िया आदि वाद्ययंत्रों के साथ गाए जा सकते हैं। कई गीतों में बड़ा मनोहारी दृश्य मिलता है। जैसे ढिमरियाई धुन में रचा गया गीत जिसमें वर्षा ऋतु में एक ननद अपनी भौजी से कहती है कि प्रिय के बिना यह ऋतु उसके लिए कष्टकारी है-
भौजी उचटन लगी मिदंरियां
गईयो खूब ददरिया, भौजी उचटन लगी मिदंरियां।
बेरन जा बरसात सी आई
ऐसी ऋतु सावन की छाई
गरजे कारी बदरिया, भौजी उचटन लगी मिदंरियां।
दादरा की धुन पर लिखे गए गीत ‘‘मोरी खजुरिया वारी’’ में एक ऐसे युवक की समस्या का वर्णन है जो काम करने के लिए निकला है लेकिन उसके पांव में कांटा लग गया है जिससे वह परेशान है। उसे घर लौटने में देर होगी तो मां चिंता करेगी। पर उसे विश्वास है कि उसके बारे में सुन कर उसकी पत्नी उसकी सहायता के लिए दौड़ी चली आएगी -
मोरी खजुरियावारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
अबई से है जा काम की बेरा
आफत जा हम खों भारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
निगतो मोपे बनरव नैयां
हेरत है बाट मतारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
अबई के जो लागो बसकारो
छा गई बदरिया जा कारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
घर खों मोरे खबर लगा दो
आ जेहे तोरी घरवारी, लगो मोय खजूरी को कांटो।
‘‘आए न सांवरिया’’ शीर्षक गीत में वियोग श्रृंगार की सुंदर प्रस्तुति है। वर्षाऋतु में एक विरहणी नायिका अपनी सखी से अपने मन का हाल व्यक्त कर रही है-
रस की भरी है गगरिया
मोरे आए न सांवरिया।
हरियाली चैमासा छाई
रुत सावन की ऐसी आई
पल-पल आवे खबरियर,
मोरे आए न सांवरिया।
संग की सखियां झूला झूलें
विरह दिवस हम कैसे भूलें
नस-नस चमके बिजुरिया,
मोरे आए न सांवरिया।
कवि को समसामयिक समस्याओं से भी सरोकार है। जिसमें सबसे बड़ी समस्या कोरोना के रूप में हमारे सामने आ चुकी है। बिहारी सागर ने ढिमरियाई धुन पर कोरोना गीत लिखते हुए आमजन को सजगता और सावधानी का संदेश दिया है-
भैया सबको बच के रेंने
सबई जनो से केंने, भैया सबको बच के रेंने।
दो गज दूरी बना के चलियो
सेनेटाईज कर लेंने, भैया सबको बच के रेंने।
गांव-बस्ती में सबको समझाने
चलने मास्क खों पेंने, भैया सबको बच के रेंने।
‘‘बुन्देली मकुईयां’’ एक ऐसा काव्य संग्रह है जो मन और जीवन दोनों की भावनाएं सामने रखता है। यह विश्वास किया जा सकता है कि बुन्देली में लिखा गया यह संग्रह बुन्देली साहित्य में रुचि रखने वाले प्रत्येक पाठक को रुचिकर लगेग।
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