(लेख)
- डॉ. शरद सिंह
स्वतंत्रता बड़ा मीठा-सा, प्यारा-सा सम्मोहित कर लेने वाला शब्द है। स्वतंत्र व्यक्ति अपने विचार किसी भी माध्यम से व्यक्त कर सकता है और इच्छानुसार जीवन जी सकता है। बंधन और स्वतंत्रता में यही तो बुनियादी अन्तर है। जब देश परतंत्र था तब खुल कर बोलने का भी अधिकार नहीं था लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नागरिक अधिकारों में निरन्तर वृद्धि हुई। यूं भी हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रा माना जाता है। ऐसे लोकतांत्रिक वातावरण में स्त्रियों के बहुमुखी विकास के असीम अवसर होने चाहिए। अवसर हैं भी। जहां उचित वातावरण स्त्री को मिलता है वहां वह अपनी क्षमता सिद्ध कर के दिखा देती है किन्तु देश का एक बड़ा तबका आज भी ऐसा है जो सड़े-गले सामंती विचारों की पैरवी करता है और औरतों को आगे बढ़ता नहीं देख पाता है। देश को स्वतंत्रता मिले पैंसठ साल व्यतीत हो गए किन्तु सामंती सोच नहीं बदली। यह सामंती सोच ही तो है जिसमें औरतों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे उसी तरह के वस्त्र पहनें जो पुरुष समाज की नैतिकता को बनाए रख सके। इसी बात को दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो यही साबित होता है कि पुरुष समाज के नैतिकता का महल इतना कमजोर है कि स्त्री के वस्त्रों को देख कर ढह जाता है। सिक्के के दो पहलू होते हैं किन्तु इस तथ्य का एक तीसरा पहलू भी है कि स्त्री सीता बने, अग्निपरीक्षा दे और पुरुष समाज राम के बदले रासरचैया कृष्ण बना घूमता रहे। पुरुष समाज के चारित्रिक पतन का ही परिणाम था गुवाहाटी का वह घृणित कांड जिसमें एक लड़की को सामूहिक एवं सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। लड़की का दोष यही था कि वह घर से निकली थी, अपनी मित्रा की जन्मदिन पार्टी का हिस्सा बनी थी यानी उसने ‘लक्ष्मणरेखा’ पार की थी। यह हम किस युग के समाज में रह रहे हैं?
बड़ी ‘कंस्ट्रास्ट’ है हमारी सामाजिक सोच। उस समय देश का सिर गर्व से ऊंचा उठ गया जब भारतीय मूल की सुनिता विलियम्स ने अंतरिक्ष की ओर दूसरी बार रुख किया। इंदिरा नुयी, चंदा कोचर, सानिया मिर्जा या महाश्वेता देवी देश के गर्व का विषय हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर आम भारतीय परिवार में मां की कोख में कन्या-भ्रूण के आकार लेते ही व्याकुलता छा जाती है। देश के स्वतंत्र होने के पैंसठ वर्ष बाद भी हम कन्या-भ्रूण को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। स्वतंत्राता के बहुमूल्य पैंसठ वर्षों में शतप्रतिशत स्त्री साक्षरता के साथ स्त्री को समाज में सम्मानित और भयमुक्त स्थान पर होना चाहिए था किन्तु जन्म के साथ कन्या होना आज भी अभिशाप बना हुआ है। बालिका की पढ़ाई के खर्च के साथ विवाह के खर्च का बोझ लदा हुआ है। उसके विवाह के साथ दहेज की दहशत जुड़ी हुई है। ससुरालपक्ष के दहेज लोभी होने या न होने पर उसके शेष जीवन की सांसों की डोर निर्भर रहती है। विवाह के बाद संतानोत्पत्ति के साथ कालचक्र एक बार फिर वहीं जा रहता है कि कन्या-भ्रूण से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए? इस विडम्बना के कारण देश के अनेक इलाकों में यह दशा जा पहुंची है कि विवाह के लिए लड़कियां कम पड़ने लगी हैं और दूसरे इलाके से लड़कियां ‘खरीद कर’ लाई जाने लगी है। निःसंदेह यह अविश्वसनीय-सा सच है किन्तु सोलह आने सच है। जबकि लड़कियां हर साल विद्यालयीन वार्षिक परीक्षाओं में अव्वल आ कर अपनी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण देती रहती हैं। नौकरी के क्षेत्र में भी यह स्वीकार किया जाता है कि स्त्रियां अधिक ईमानदारी और लगन से कार्य करती हैं। इसीलिए निजी कंपनियां स्त्री कर्मचारी रखना अधिक पसंद करती हैं।
बेशक यदि सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं है तो बुरा ही बुरा भी नहीं है। स्त्री के हित में दहेज विरोधी कानून(1961, संशोधित 1985), घरेलू हिंसा अधिनियम (26 अक्टूबर 2006), कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा का कानून(1997), संपत्ति में अधिकार(2005) जैसे महत्वपूर्ण वैधानिक कदम उठाए गए हैं। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को अधिक अवसर दिए जाने लगे हैं। इन अनुकूलताओं के अच्छे परिणाम भी सामने आते रहते हैं। जैसे मध्यप्रदेश के सीहोर की दो बहनों बबीता और रीना ने अपने सद्यः विवाह की परवाह किए बिना उन बरातियों और दूल्हों को ठुकरा दिया जिन्होंने उनके पिता के साथ मार-पीट की तथा शराब पी कर उनके रिश्ते-नातेदारों के साथ अभद्रता की। पुलिस कंट्रोलरूम में भी समझाइश के दौरान बबीता ने यही कहा कि ‘हम दोनों बहनों ने मन पक्का कर लिया है, अब ससुराल नहीं जाएंगे। मैं और मेरी बहन पांचवीं पास भले ही हों, पर हम अपना अच्छा-बुरा अच्छी तरह जानती हैं। जिन्होंने शराब पी कर हुड़दंग किया, मेरे पिता, चाचा को मारा हम उनके यहां कैसे जाएंगे?’ उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले की प्रियंका भारती, कुशीनगर की प्रियंका राय व सिद्धार्थ नगर की ज्योति यादव ने उस ससुराल में जाने से मना कर दिया जहां शौचालय ही नहीं था। छत्तीसगढ़ के छुरिया में पैदा हुईं बकरी चराने वाली फुलबासन यादव ने आज हजारों अपने जैसी गांव की बेटियों की तकदीर बदल दी है। पांच दिसंबर 1969 को नक्सल प्रभावित क्षेत्र के छुरिया में पैदा हुईं फुलबासन ने 2001 में शासन की महिला सशक्तिकरण योजना का लाभ लेते हुए ग्राम स्तर पर महिला स्व सहायता समूह का गठन कर महिला सशक्तिकरण की लड़ाई शुरू की थी। स्वयं आर्थिक विपन्नता में पली बढ़ी फुलबासन ने अपने क्षेत्र की हजारों महिलाओं को आर्थिक विकास का पाठ पढ़ाया और राज्य में 12 हजार से अधिक महिला स्वसहायता समूहों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फुलबासन यादव ने महिलाओं को अल्प बचत के लिए प्रोत्साहित किया। फुलबासन को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया जा चुका है।
देश की स्वतंत्रता के पैंसठ वर्ष बाद भी बाद भारतीय स्त्री के विकास की कथा ‘फ्फिटी-फ्फिटी’ पर अटकी हुई दिखाई देती है। यदि स्त्रियों को ले कर समाज में मौजूद सामंती सोच की बाधा दूर हो जाए तो निःसंदेह विकास की दर बढ़ कर शतप्रतिशत भी हो सकती है।
- डॉ. शरद सिंह
स्वतंत्रता बड़ा मीठा-सा, प्यारा-सा सम्मोहित कर लेने वाला शब्द है। स्वतंत्र व्यक्ति अपने विचार किसी भी माध्यम से व्यक्त कर सकता है और इच्छानुसार जीवन जी सकता है। बंधन और स्वतंत्रता में यही तो बुनियादी अन्तर है। जब देश परतंत्र था तब खुल कर बोलने का भी अधिकार नहीं था लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नागरिक अधिकारों में निरन्तर वृद्धि हुई। यूं भी हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्रा माना जाता है। ऐसे लोकतांत्रिक वातावरण में स्त्रियों के बहुमुखी विकास के असीम अवसर होने चाहिए। अवसर हैं भी। जहां उचित वातावरण स्त्री को मिलता है वहां वह अपनी क्षमता सिद्ध कर के दिखा देती है किन्तु देश का एक बड़ा तबका आज भी ऐसा है जो सड़े-गले सामंती विचारों की पैरवी करता है और औरतों को आगे बढ़ता नहीं देख पाता है। देश को स्वतंत्रता मिले पैंसठ साल व्यतीत हो गए किन्तु सामंती सोच नहीं बदली। यह सामंती सोच ही तो है जिसमें औरतों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे उसी तरह के वस्त्र पहनें जो पुरुष समाज की नैतिकता को बनाए रख सके। इसी बात को दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो यही साबित होता है कि पुरुष समाज के नैतिकता का महल इतना कमजोर है कि स्त्री के वस्त्रों को देख कर ढह जाता है। सिक्के के दो पहलू होते हैं किन्तु इस तथ्य का एक तीसरा पहलू भी है कि स्त्री सीता बने, अग्निपरीक्षा दे और पुरुष समाज राम के बदले रासरचैया कृष्ण बना घूमता रहे। पुरुष समाज के चारित्रिक पतन का ही परिणाम था गुवाहाटी का वह घृणित कांड जिसमें एक लड़की को सामूहिक एवं सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। लड़की का दोष यही था कि वह घर से निकली थी, अपनी मित्रा की जन्मदिन पार्टी का हिस्सा बनी थी यानी उसने ‘लक्ष्मणरेखा’ पार की थी। यह हम किस युग के समाज में रह रहे हैं?
India Inside, August 2012 |
बड़ी ‘कंस्ट्रास्ट’ है हमारी सामाजिक सोच। उस समय देश का सिर गर्व से ऊंचा उठ गया जब भारतीय मूल की सुनिता विलियम्स ने अंतरिक्ष की ओर दूसरी बार रुख किया। इंदिरा नुयी, चंदा कोचर, सानिया मिर्जा या महाश्वेता देवी देश के गर्व का विषय हैं लेकिन वहीं दूसरी ओर आम भारतीय परिवार में मां की कोख में कन्या-भ्रूण के आकार लेते ही व्याकुलता छा जाती है। देश के स्वतंत्र होने के पैंसठ वर्ष बाद भी हम कन्या-भ्रूण को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। स्वतंत्राता के बहुमूल्य पैंसठ वर्षों में शतप्रतिशत स्त्री साक्षरता के साथ स्त्री को समाज में सम्मानित और भयमुक्त स्थान पर होना चाहिए था किन्तु जन्म के साथ कन्या होना आज भी अभिशाप बना हुआ है। बालिका की पढ़ाई के खर्च के साथ विवाह के खर्च का बोझ लदा हुआ है। उसके विवाह के साथ दहेज की दहशत जुड़ी हुई है। ससुरालपक्ष के दहेज लोभी होने या न होने पर उसके शेष जीवन की सांसों की डोर निर्भर रहती है। विवाह के बाद संतानोत्पत्ति के साथ कालचक्र एक बार फिर वहीं जा रहता है कि कन्या-भ्रूण से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए? इस विडम्बना के कारण देश के अनेक इलाकों में यह दशा जा पहुंची है कि विवाह के लिए लड़कियां कम पड़ने लगी हैं और दूसरे इलाके से लड़कियां ‘खरीद कर’ लाई जाने लगी है। निःसंदेह यह अविश्वसनीय-सा सच है किन्तु सोलह आने सच है। जबकि लड़कियां हर साल विद्यालयीन वार्षिक परीक्षाओं में अव्वल आ कर अपनी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण देती रहती हैं। नौकरी के क्षेत्र में भी यह स्वीकार किया जाता है कि स्त्रियां अधिक ईमानदारी और लगन से कार्य करती हैं। इसीलिए निजी कंपनियां स्त्री कर्मचारी रखना अधिक पसंद करती हैं।
बेशक यदि सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं है तो बुरा ही बुरा भी नहीं है। स्त्री के हित में दहेज विरोधी कानून(1961, संशोधित 1985), घरेलू हिंसा अधिनियम (26 अक्टूबर 2006), कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा का कानून(1997), संपत्ति में अधिकार(2005) जैसे महत्वपूर्ण वैधानिक कदम उठाए गए हैं। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को अधिक अवसर दिए जाने लगे हैं। इन अनुकूलताओं के अच्छे परिणाम भी सामने आते रहते हैं। जैसे मध्यप्रदेश के सीहोर की दो बहनों बबीता और रीना ने अपने सद्यः विवाह की परवाह किए बिना उन बरातियों और दूल्हों को ठुकरा दिया जिन्होंने उनके पिता के साथ मार-पीट की तथा शराब पी कर उनके रिश्ते-नातेदारों के साथ अभद्रता की। पुलिस कंट्रोलरूम में भी समझाइश के दौरान बबीता ने यही कहा कि ‘हम दोनों बहनों ने मन पक्का कर लिया है, अब ससुराल नहीं जाएंगे। मैं और मेरी बहन पांचवीं पास भले ही हों, पर हम अपना अच्छा-बुरा अच्छी तरह जानती हैं। जिन्होंने शराब पी कर हुड़दंग किया, मेरे पिता, चाचा को मारा हम उनके यहां कैसे जाएंगे?’ उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले की प्रियंका भारती, कुशीनगर की प्रियंका राय व सिद्धार्थ नगर की ज्योति यादव ने उस ससुराल में जाने से मना कर दिया जहां शौचालय ही नहीं था। छत्तीसगढ़ के छुरिया में पैदा हुईं बकरी चराने वाली फुलबासन यादव ने आज हजारों अपने जैसी गांव की बेटियों की तकदीर बदल दी है। पांच दिसंबर 1969 को नक्सल प्रभावित क्षेत्र के छुरिया में पैदा हुईं फुलबासन ने 2001 में शासन की महिला सशक्तिकरण योजना का लाभ लेते हुए ग्राम स्तर पर महिला स्व सहायता समूह का गठन कर महिला सशक्तिकरण की लड़ाई शुरू की थी। स्वयं आर्थिक विपन्नता में पली बढ़ी फुलबासन ने अपने क्षेत्र की हजारों महिलाओं को आर्थिक विकास का पाठ पढ़ाया और राज्य में 12 हजार से अधिक महिला स्वसहायता समूहों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फुलबासन यादव ने महिलाओं को अल्प बचत के लिए प्रोत्साहित किया। फुलबासन को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया जा चुका है।
देश की स्वतंत्रता के पैंसठ वर्ष बाद भी बाद भारतीय स्त्री के विकास की कथा ‘फ्फिटी-फ्फिटी’ पर अटकी हुई दिखाई देती है। यदि स्त्रियों को ले कर समाज में मौजूद सामंती सोच की बाधा दूर हो जाए तो निःसंदेह विकास की दर बढ़ कर शतप्रतिशत भी हो सकती है।
(‘इंडिया इनसाइड’ के अगस्त 2012 अंक में मेरे स्तम्भ ‘वामा’ में प्रकाशित मेरा लेख
साभार)