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पुस्तक समीक्षा | सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 23.05.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के काव्य संग्रह "फूलों के अधरों पर कीलें" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - फूलों के अधरों पर कीलें
कवि - ज. ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’
प्रकाशक - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा वार्ड, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य - 250/-
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विधाएं साहित्य को समृद्ध करती हैं। किसी भी साहित्य में गद्य और पद्य की जितनी अधिक विधाएं रहती हैं वह उतना ही अधिक विस्तार पाता है। हिंदी साहित्य में गद्य विधा में अनेक विधाएं समानांतर क्रियाशील है जिनमें छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों तरह की विधाएं हैं। यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में किस विधा को चुनता है। स्पष्ट है कि रचनाकार जिस विधा में स्वयं की आश्वस्ति और सहजता अनुभव करता है वही विधा उसे रुचिकर लगती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो एक रचनाकार किस विधा के साथ स्वयं को ‘‘कंफर्टेबल’’ महसूस करता है उसे ही अपनाता है। किसी भी रचनाकार को किसी विशेष विधा को चुनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि नई-नई विधाएं जन्म लेती हैं और अपना मार्ग प्रशस्त करती हैं। सागर के कवि ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के लिए नवोदित विधा सजल को चुना। उनका काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ नवोदित सजल विधा में निबद्ध कविताओं का संग्रह है। संग्रह के संबंध में चर्चा करने से पूर्व सजल विधा के बारे में चर्चा कर लेना उचित होगा।
सजल विधा को उत्तर प्रदेश के मथुरा में सन् 2017 को स्थापना मिली, जब मथुरा में हिन्दी सजल सर्जना समिति के तत्वावधान में प्रथम हिन्दी सजल महोत्सव-2017 का आयोजन किया गया। हिन्दी काव्य की नई विधा इसी समारोह में ‘सजल’ को अपने व्याकरण और मानकों के साथ हिन्दी के उपस्थित विद्वानों ने मान्यता प्रदान की थी। इस अवसर पर पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कहा था कि, ‘‘हिन्दी में बहुत ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। मैंने भी लिखीं थीं। परन्तु मुझे लगा कि यह हिन्दी के साथ न्याय नहीं है। अतः मैंने इसे एक नाम ‘गीतिका’ दिया। इसका कोई मानक निर्धारित न होने कारण सर्वमान्य न हो सकी। आज मथुरा से डॉ. अनिल गहलौत ने ‘हिन्दी सजल’ का शुभारम्भ किया है। इसका मानक और व्याकरण भी तय किया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह विधा सर्वमान्य होगी और काव्य जगत में अपना ऊंचा स्थान बनाएगी।’’
इसी आयोजन में सजल विधा के प्रवर्तक माने जाने वाले डॉ. अनिल गहलौत ने ‘सजल’ की अवधारणा और उसके मानकों पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि ‘‘हिन्दी में ग़ज़ल के कारण हिन्दी वाले उर्दू भाषी होते चले गए। अनेक कवियों ने उर्दू के उपनाम धारण कर लिए। अनेक हिन्दी ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए परन्तु उर्दू शाइरों ने उन्हें ग़ज़ल नहीं माना। यह ठीक भी है। जब ग़ज़ल के व्याकरण को आप जानते ही नहीं तो आपकी ग़ज़ल कैसे सही हो सकती है। अतः हिन्दी कवि ग़ज़लकार या शाइर नहीं बन सके। ‘सजल’ विधा इस मानसिकता से हमें उबारेगी और इसके माध्यम से हम हिन्दी की सच्ची सेवा भी कर सकेंगे।’’
पद्मश्री ‘‘नीरज’’ तथा डॉ. गहलौत के वक्तव्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो सजल विधा को ग़ज़ल के समकक्ष खड़ी की गई विधा माना जा सकता है। निश्चित रूप से अनेक कवियों को सजल विधा ने आकर्षित किया है और अब तक कई संग्रह इस विधा में प्रकाशित हो चुके हैं। कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ के आरंभिक पृष्ठों पर भूमिका एवं शुभकामनाओं के रूप में डॉ. अनिल गहलौत, विजय राठौर, डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया, ईश्वरीप्रसाद यादव तथा विजय बागरी विजय ने सजल विधा और उसके व्याकरण पर समुचित प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने कवि प्रभाकर के सजलों के तारतम्य में सजल विधा के संबंध में लिखा है- ‘‘सजल विधा में छंदों की तरह मात्राभार का कोई स्थाई विधान नहीं है। लेकिन इसमें आदिक से लेकर अंतिम तक मात्रा भार की समानता और लय की समरूपता की अनिवार्यता है। इसीलिए सजल का मीटर छोटा या बड़ा कैसा भी हो सकता है। इसमें समांत एवं पदांत में तुक की अनिवार्यता भी रखी गई है। सजलकार ने इस सजल संग्रह में छोटे मीटर से लेकर बड़े मीटर तक की सजलें सम्मिलित की हैं।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘यद्यपि अभी हिंदी जगत सजल की विशिष्टताओं से भली भांति परिचित नहीं हो पाया है एवं सजल अपने स्वाभिमान के साथ स्थापित होने के लिए संघर्षरत है, लेकिन अल्प समय में ही उसने जो सर्वस्वीकार्यता एवं लोकप्रियता प्राप्त की है, उससे उसके उज्जवल भविष्य की सम्भावनाएं प्रबल होती जा रही हैं।’’
विधा चाहे कोई भी हो उसे विस्तार पाने तथा लोकप्रिय होने में समय लगता है। हिंदी में ग़ज़ल विधा अल्पावधि में लोकप्रिय नहीं हुई उसका इतिहास अमीर खुसरो की ग़ज़लों से शुरू होता है। सजल विधा के साथ एक धनात्मक स्थिति यह है कि आज उसे सोशल मीडिया का प्लेटफार्म मिला हुआ है जिससे वह शीघ्र ही अधिक से अधिक रचनाकारों तक अपनी पहुंच बना पा रही है। ज़ाहिर है कि जिसे यह विधा रुचिकर लगेगी वह सहज भाव से इसे अपनाता जाएगा। सन् 1956 में सागर संभाग के ही दमोह जिले के बांसातारखेडा जन्मे कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त की तथा शिक्षण कार्य से जुड़कर, प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। आरंभ से ही साहित्यिक लगाव होने के कारण वे कविताएं लिखने लगे थे। सन 1972 में ‘‘जय बंग’’ शीर्षक उनकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी। इसके बाद वे मुक्त रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे किंतु एक लंबे अंतराल के बाद उनका दूसरा काव्य संग्रह सजल संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ है।
कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने दोहा, कुंडलिया, मुक्तक तथा गीत भी लिखे हैं किंतु सजल के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वर्तमान में वे सजल विधा में ही सृजनकार्य कर रहे हैं। काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ में यूं तो हर शेड्स की कविताएं मौजूद हैं, लेकिन विसंगतियों के विरुद्ध कटाक्ष भरा स्वर मुखरता से उभरा है। संग्रह के नाम ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह की रचनाएं व्यंजनात्मक हैं। यह रचनाएं स्थितियों की ओर संकेत करती है जहां फूल जैसे नाजुक तत्व के अत्यंत नाजुक अधरों पर किलें ठोंक दी गई हों। अव्यवस्थाओं को देखकर कभी हृदय का द्रवित हो उठना स्वाभाविक है कवि ‘‘प्रभाकर’’ प्रश्न करते हैं कि वे लोग कहां हैं जो सुव्यवस्था स्थापित कर सकते हैं-
नीतिवान गुणवंत कहां हैं?
सच्चरित्र अब संत कहां हैं?
भूले हम कबिरा, तुलसी को।
गुप्त, निराला, पंत कहां हैं ?
कौन करे चिंता दीनों की ?
दयावंत, श्रीमंत कहां हैं ?
कवि ने इस बात का भी आग्रह किया है कि यदि मूल्यों का पतन हो रहा है तो उसका कारण क्या है, इस पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं तटस्थता या निर्लिप्तता ही इन सब के लिए जिम्मेदार होती है। कवि की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए जोकि कोविड-19 की वैश्विक आपदा के दौरान लिखी गईं-
क्यों हो रहे सुमूल्य पतित आप सोचिए ।
आदर्श आज लुप्त व्यथित आप सोचिए।।
निज स्वार्थ सिद्धि हेतु अहो!आत्मा बिकी
वे बेच दें न देश त्वरित आप सोचिए।।
कवि ‘‘प्रभाकर’’ का विचार संसार सुदीर्घ है। वे राजनीति में आती जा रही संवेदनहीनता, चारित्रिक पतन और दोहरेपन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -
उभय तरफ वह मिला हुआ है।
अतः सर्वदा खिला हुआ है।।
करता है वह काला-पीला ।
भवन कई मंजिला हुआ है।।
चांदी के टुकड़े क्या पाए!
उसका मुख अब सिला हुआ है।।
जीवन में प्रत्येक मूल्यों के साथ आपसी सद्भाव का भी क्षरण हुआ है। जहां एकता और भाईचारा पाया जाता था, वहां अब आपसी विवाद और वैमनस्य की बातें होती है। घर के आंगन के बीच दीवार खड़ी करना आम बात हो गई है। इस विषम वातावरण को लक्ष्य करते हुए कवि ने लिखा है कि -
अमराई में गूंजते, कांव-कांव के बोल ।
लुप्तप्राय हैं हो गए, पिक-स्वर मधुर अमोल।।
करुणा और मनुष्यता,हुए उभय क्षतिग्रस्त।
शांति-द्वीप में आ गया, आतंकी भूडोल।।
कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी वेदना को व्यक्त करते हुए देशज शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग किया है। जैसे इस सजल में आप ‘‘कजलियां’’ शब्द का प्रयोग देख सकते हैं। कजलियां गेहूं की वे कोमल नवांकुरित पत्तियां होती है जिन्हें सावन में परस्पर एक दूसरे को दे कर अपनत्व प्रकट किया जाता है। ज़ाहिर है कि जब अपनत्व समाप्त होने लगे तो कजलियों की आंखों में आंसू आएंगे ही। यह पंक्तियां देखिए-
प्रेम-अपनत्व की कजलियां रो पड़ीं।
इसलिए शांति की मुरलियां रो पड़ीं।।
संतुलन हीन पावन प्रकृति हो चली।
अब बिना नीर के बदलियां रो पड़ीं।।
ऐसा नहीं है की कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने सिर्फ आक्रोश और वेदना की ही रचनाएं लिखी हो, उन्होंने अपने सजल के द्वारा प्रसन्न रहने और वातावरण सुधारने का रास्ता भी सुझाया है-
बीन वेदना खुशियां बोना ।
महकेगा तब कोना-कोना।।
प्रगति- पतंग उड़ाना ऊंची।
पड़े पतन का भार न ढोना।।
सोने वाला बस खोता है।
जगने वाला पाता सोना।।
किसी भी रचना के लिए महत्वपूर्ण होती है उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता। विधा चाहे कोई भी हो किंतु यदि रचना में वैचारिक आंदोलन एवं आग्रह का स्वर है तो उसे एक समृद्ध रचना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ का काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ एक समृद्ध काव्य संग्रह कहा जा सकता है। सजल विधा को समझने की दृष्टि से भी यह संग्रह महत्वपूर्ण है।
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पौराणिक किताबें मात्र धार्मिक महत्व की नहीं है वरन् उनमें उस जीवनशैली, दर्शन और विचारों का ज्ञान मिलता है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने जिया है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Sunday, May 21, 2023
Article | A Small Garden Can Be Solved Big Problem | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle
Article
A Small Garden Can Be Solved Big Problem
- Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
*The continuous changes in the weather and the sprinkling of rain in the summer are creating a lack of moisture in the soil, which we can reduce by removing this big effect with our small efforts. Ever wondered why this problem didn't come before? Because earlier there used to be a lot of trees and almost every house used to have a small courtyard, which used to have grass and small trees and plants which did a great job of maintaining moisture in the land. Once again we can save soil moisture by removing the place of fire in the house. Just think, the days of our grandparents when we used to spend summer evenings in the cool gardens!*
Climate is such an aspect which is related to the life of every human being in the world and the condition of climate greatly affects our life. This fact can be understood from the fact that life on earth has been possible only due to favorable climate, but due to human and some natural activities, the climate conditions are changing. This situation is termed as climate change. There is no doubt that the negative changes taking place in the climate will be very fatal for the living beings on the earth. Governments are becoming aware of the dangers associated with climate change and people also need to be warned about the dangers associated with climate change. What is climate, first it needs to be understood. The average weather condition over a large land area over a long period of time is called climate. The climate of a region has the greatest impact on its geographical location. In European countries, where the summer season is short and there is severe cold, whereas in India, there is a predominance of hot summer season. Except for 3-4 months of winter, the climate remains warm for the rest of the time. In the coastal regions of India, the winter season temperature is average. Thus the climate of an area depends on its location. But nowadays we are seeing that the summer season has become erratic. It starts raining as soon as the heat rises and after two days of rain suddenly the heat starts rising again. This is not a good sign of the weather. These changes show that now the weather cycle is changing, that too fast.
Due to increasing environmental pollution, the temperature of the earth is increasing continuously. Rising temperature due to environmental pollution has made the situation of climate change more serious. According to the Climate Report, every subsequent decade since the 1980s has been warmer than any decade since 1850. This can also be understood in the statement of the Secretary-General of the World Meteorological Organization, Peteri Taalas – “2016 was the warmest year on record, but we may soon see hotter years. As levels continue to rise, global warming will continue. A recent forecast for the coming decades indicates that a new annual global temperature record is expected within the next five years."
After this we saw that the year 2019 was hot by breaking all its previous records. The UN Climate Report 2019 confirms that 2019 was the second warmest year on record, and 2010–2019 the warmest decade. In the year 2019, carbon dioxide (CO2) and other greenhouse gases in the atmosphere reached new record levels.
We are looking at different situations in 2022 and 2023. The temperature is going up to 48-50 degree Celsius but there are sprinkles of rain in between. An erratic weather system is before us. We can be happy with the joy of rain in hot summer, but have you ever thought that how harmful is this rain of very short duration? Small vegetation that sprouts automatically in the rain, preserves the soil of the upper surface of the land, gives it moisture, and grows before time. Then they start getting destroyed in the hot summer. In this way flora and fauna are being affected badly. Another example can be seen that grass seeds are lying in the soil and they start sprouting automatically as soon as the rains come. A carpet of green grass is spread on the ground. If it rains and moisture continues, this grass survives until its next beach is ready, but if there is strong sunlight after two days, that grass will get scorched and its life cycle will end. She will not be able to prepare the seeds of her next generation. This will affect the land and its softness. Barrenness will increase in the land.
It is as easy for us to ignore the quality of the soil as the dust on our shoes. If you are not a farmer or a gardener, you never care about the health of the soil. However, it is very important for us to care about the health of the soil. It is a question of our existence. If the soil is not healthy, it will be difficult to produce food and the food crisis in the world may deepen. Soil consists of a mixture of mineral and organic wastes, which contain micro-organisms. It takes hundreds of years for the top one inch of the nutrient-rich soil layer to develop. This one inch part is an integral part of agricultural land, due to which grains are produced and billions of people get food. However, due to excessive heat and drought, this layer of soil starts to be destroyed, like the severe heat in Europe this year has damaged the soil.
"What we are seeing is that there is now much more drought. At the same time, soil erosion is also intensifying," said researcher Lizeth Vasconez Navas of the Institute of Soil Science at the University of Hamburg.
To save moisture in the soil, there is a need to join the save soil campaign. In March 2022, the Save the Soil movement was launched by Sadhguru, who embarked on a 100-day motorcycle journey through 27 countries. But if someone does not have time, then it is not necessary that he should join any campaign and do the work of saving the soil. The easiest way is to plant trees and do water conservation to save water in the land. We have given up building a small courtyard in front of our houses which used to have grass, plants and moisture. Just, there is a need to re-create that courtyard in our homes which is also called kitchen garden. All that is needed is a lush green garden between the multistory buildings, which preserves the moisture of the earth. The greater the number of these two things, the more we can save the soil and its moisture. So now when building or renovate your house, make sure to keep a place for a small garden as well. This will be our very small right, but very important help against the bad effect of climate change.
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(21.05.2023)
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