Tuesday, November 30, 2021
पुस्तक समीक्षा | संवाद के विविध स्वर रचता काव्य संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
Wednesday, November 24, 2021
चर्चा प्लस | एक गंभीर चूक बनाम पाक्सो एक्ट | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, November 23, 2021
पुस्तक समीक्षा | भावनाओं के कैनवास पर शब्दचित्र रचती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 23.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि नवीन कानगो के काव्य संग्रह "बादलों में उड़ती धूप" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
भावनाओं के कैनवास पर शब्दचित्र रचती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - बादलों में उड़ती धूप
कवि - नवीन कानगो
प्रकाशक - सतलुज प्रकाशन, एस.सी.एफ.267 (द्वितीय तल), सेक्टर-16, पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य - 350/-
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कविता एक ऐसी नदी है जो व्यथित मन की शिला पर कभी काई नहीं जमने देती है। व्यथा व्यक्तिगत हो या चाहे लोक की, कविता उससे स्वतः सरोकारित हो उठती है, बशर्ते कवि सजग हो, अपने परिवेश के प्रति चैतन्य हो और घटित-अघटित सबका सूक्ष्मता से अवलोकन कर रहा हो। जब हर व्यक्ति अपने-आप में सिमटा रहना चाहता हो, वह भी ग्लोबल होने का छद्म रचता हुआ, ऐसे दुरुह समय में कविकर्म की चुनौतियां बढ़ जाती हैं। एक साथ कई मोर्चे खुल जाते हैं। वह अपने मन की कहना चाहता है और जन के मन की भी, वह प्रकृति को शब्दों की छेनी (चीसेल) से उकेरना चाहता और बदरंग अव्यवस्था को भी कविता के कैनवास पर संवेदनाओं की कूची (ब्रश) से उतारना चाहता है। नवीन कानगो एक ऐसे युवा कवि हैं जो अपनी कविताओं में रंग, लोक, संवेदना, वेदना और चेतना सभी की एक साथ चर्चा करते हैं ठीक वैसे ही जैसे नारियल की रस्सी में अनेक रेशे एक साथ गुंथे होते हैं और एक मज़बूत रस्सी गढ़ते हैं। नवीन कानगो भी सशक्त कविताओं को रचते हैं और अपनी कविताओं के माध्यम से वे प्रकृति और जनजीवन को एक साथ सहेजते हैं। ‘‘बादलों में उड़ती धूप’’ नवीन कानगो का प्रथम काव्य संग्रह है। इसमें उनकी अतुकांत कविताएं और ग़ज़लें दोनों ही उपस्थित हैं। दो भिन्न शैलियों के काव्य को एक ही संग्रह में सहेजना कई बार जोखिम भरा होता है क्योंकि दो भिन्न शैलियां एक ऐसा कंट्रास्ट पैदा करती हैं जिससे पाठक के लिए तय करना कठिन हो जाता है कि कवि की किस शैली को वह तरज़ीह दे। लेकिन नवीन कानगो के साथ यह स्थिति निर्मित नहीं हुई है। उनकी दोनों शैलियां अर्थात् अतुकांत कविताएं और ग़ज़लें दोनों ही समान रूप से सधी हुई हैं, परिपक्व हैं।
नवीन कानगो की कविताओं में एक सुंदर, मनोहरी दृश्यात्मकता है जो पढ़ते ही उन रंगों से साक्षात्कार कराने लगती है जिन्हें इन्द्रधनुष ने उपेक्षा से अपने पीछे छुपा लिया है, क्योंकि ये चटख नहीं वरन जीवन के सच्चाई के धूसर रंग हैं। संग्रह की पहली कविता ‘‘चितेरा’’ में इस प्रभाव को बखूबी अनुभव किया जा सकता है-
कैनवास की परिधि और
रंगों के नामों से जूझते
रुके कांपते हाथ
बेमौसम बारिश का मोहताज़ चितेरा
खुरदुरे बंजर खेत में लोटता है
उसे अपनी देह से जोतता है
फिर बादलों की बाट जोहता है
स्वयं देह से खेत हो जाता है
गेंहूं की एक बाली के लिए
उसे चुगने वाली एक चिड़िया के लिए।
नवीन की इस कविता को पढ़ते हुए सहसा स्पेनिश कवि रेफाएल अल्बेर्ती की यह छोटी-सा कविता याद आ जाती है-‘‘ जब गेंहूं मेरे लिये नक्षत्रों की रहने की जगह था/और देवता तथा तुषार चिंकारा के जमे आंसू/किसी ने मेरे हृदय तथा छाया पर पलस्तर किया था/मुझे धोखा देने के लिए’’। अल्बेर्ती की यह लोकधर्मिता नवीन कानगो की कविताओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। इसी तारतम्य की एक और कविता है-‘‘आज’’। इस कविता में कवि व्यक्ति को तोड़ देने में सक्षम वर्तमान जीवनदशा की कठिनाइयों का सांकेतिक आख्यान सामने रखता है-
अख़बार छोड़ कर
खुद को पलट कर देखा तो
वक़्त की मार से ज़र्द पड़े सफ़्हे
बिफर पड़े
सर्द आहों और आंसुओं की लम्बी फ़ेहरिस्त में
कहीं-कहीं तुम मुस्कुराए भी थे
यह भी ठीक ही है कि
हरदम रहती घबराहट कहीं दर्ज़ न थी
ज़रा ठहर कर चौंकाती है
पियाले के साथ रंग बदलती
रोज़ एक एहसान उतारती
एक और दिए काम को ख़त्म करती
ज़िन्दगी।
‘‘रहगुज़र’’ शीर्षक की दो कविताएं हैं, एक तनिक लम्बी और दूसरी मात्र पांच पंक्तियों की। ‘‘रहगुज़र-1’’ की प्रथम पांच पंक्तियां देखिए-
कपड़ा मारना
समय-समय पर
समय की आलमारी में पड़े
स्मृतिचिन्हों, तस्वीरों और
औंधी पड़ी यादों पर
इसके बाद दृष्टिपात करिए ‘‘रहगुज़र-2’’ कविता पर -
इस तरह याद आते हो तुम कभी-कभी
जैसे एक राह
जिससे बस यों ही गुज़रे थे
मगर फिर भी वह
शहर की पहचान हो गई
दोनों कविताएं स्मिृतियों की थाती की बात करती हैं। प्रथम कविता अतीत पर से धूल झाड़ कर स्मृतियों को ताज़ा करने के प्रयास पर तो दूसरी कविता लोक स्मृति में समाहित हो जाने की अप्रयास घटित घटना पर है। दोनों कविताओं के बिम्ब एक सुंदर कोलाज़ बनाते हैं जिसमें किसी भी व्यक्ति की स्मृतियों का आकार उभर सकता है। यही खूबी इन दोनों कविताओं को सशक्त बनाती है।
सीख़चें सीमाओं का प्रतीक होते हैं। यह बंधनकारी स्थिति को जन्म देते हैं अतः यदि बंधन हो तो उसका अनुपस्थित होना ही श्रेयस्कर होता है। इसलिए कवि का कहना है कि ‘‘अनुपस्थिति’’ भी सुखकर हो सकती है। कविता देखिए-
मेरे झरोखे से
बहुत ख़ूबसूरत दिखते हैं
गुलों से लबरेज़ दरख़्त
बादलों में डूबता-उतराता चांद
मैं शुक्रगुज़ार हूं
उस हवा के झोंके का
जो अनायास ही इसे खोल
चला गया
मैं शुक्रगुज़ार हूं
उस सीख़चें का
जो नहीं है।
कविताओं के बाद नवीन कानगो की उन ग़ज़लों को पढ़ना जो इस संग्रह में संग्रहीत हैं, एक अलग ही ज़मीन पर ले जाता है किन्तु भावनात्मक संवाद यथावत बना मिलता है। जीवन की सच्चाइयों को कुरेदते शेर मन को आंदोलित कर देते हैं। ‘‘उम्र चेहरे पे’’ शीर्षक ग़ज़ल के चंद शेर देखें-
उम्र चेहरे पे दबे पांव इस तरह आई
थम गया वक़्त, जम गई काई
वक़्त भी एक वक़्त तक गुज़रता था
अब न मौसम है और न अंगड़ाई
‘‘जब उसका अक्स’’ भी एक खूबसूरत ग़ज़ल है जिसमें रूमानीयत की छटा देखी जा सकती है और संयमित भावनाओं के ज्वार को अनुभव किया जा सकता है-
जब उसका अक्स नज़र आता है
गुज़रता वक़्त ठहर जाता है
वो मुझसे कभी बिछड़ा ही नहीं
रोज़ ख़्वाबों में नज़र आता है
उसकी सोहबत की रहनुमाई है
टूटा, उजड़ा भी संवर जाता है
ग़ज़ल और रूमानीयत का तो वैसे भी घनिष्ठ संबंध रहा है। बहुत ही कोमल-सी ग़ज़ल है ‘‘ईद का माहताब’’। इस ग़ज़ल में नफ़ासत भी है और नज़ाकत भी-
ईद का माहताब हो जैसे
उसका दिखना सवाब हो जैसे
इतनी ख़मोशियां समेटे है
उसका पैकर क़िताब हो जैसे
उसको देखा, मगर नहीं देखा
उसका चेहरा नक़ाब हो जैसे
सूक्ष्म जीवविज्ञान (माइक्रो बाॅयोलाॅजी) में पी.एच.डी., नवीन कानगो ने दक्षिण आफ्रिका और फिनलैंड में पोस्ट डाॅक्टोरल अध्ययन किया है तथा वर्तमान में डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में माइक्रो बाॅयोलाॅजी के विभागाध्यक्ष हैं। नवीन कानगो का सर्जनात्मक वैविध्य पाठक के मन को प्रभावित करने में सक्षम है। उनकी कविताओं में युवादृष्टि के साथ वैचारिक प्रौढ़ता है। उनकी कई कविताएं साबित करती हैं कि उनमें कवि ने गहरे और असाधारण आत्ममंथन का निचोड़ प्रस्तुत किया है। ‘‘बादलों में उड़ती धूप’’ संग्रह की कविताओं में विसंगतियों, जड़ताओं, विवेकहीनता और कुव्यवस्था के प्रति रोष है तो प्रेम की ध्वनि तरंगे भी हैं। विश्वास है कि यह काव्य संग्रह हर पाठक वर्ग को रुचिकर लगेगा।
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Sunday, November 21, 2021
रचनाकार के सामने आज 'लाईक' 'कमेंट' का जोख़िम है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ऑनलाईन पुस्तक लोकार्पण | गूगल मीट
Friday, November 19, 2021
आंचलिक स्त्री का ज़मीनी यथार्थ और स्त्री विमर्श | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | व्याख्यान | राष्ट्रीय वेबिनार
Wednesday, November 17, 2021
चर्चा प्लस | छात्र, छात्र जीवन और बदलता दौर | अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, November 16, 2021
पुस्तक समीक्षा | एक शायर को बेमिसाल श्रद्धांजलि है ‘‘यारां’' | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 16.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई शायर स्व. यार मुहम्मद "यार" के ग़ज़ल संग्रह "यारां" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
एक शायर को बेमिसाल श्रद्धांजलि है ‘‘यारां’'
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह - यारां
कवि - यार मुहम्मद ‘‘यार’’
प्रकाशक - श्यामलम, सागर (म.प्र.)
मूल्य - निःशुल्क
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काम ऐसा जहां में कर जायें
ख़ुश्बू-सी बन के हम बिखर जायें
यह शेर है सागर के लोकप्रिय शायर यार मोहम्मद ‘‘यार’’ का। बेशक़ यार साहब ने अपनी शायरी से सभी के दिलों में जगह बनाई और इस दुनिया को छोड़ने के बाद भी यादों में बसे हुए हैं लेकिन इस उपभोक्तावादी दुनिया में जहां स्वार्थपरता सिरचढ़ कर बोलती है, वहां एक मरहूम शायर के प्रति किए गए अपने वादे को पूरा करना अपने आप में एक ऐसा काम है जो हर दृष्टि से प्रशंसनीय है। 28 फरवरी 1938 को जन्मे शायर यार मोहम्मद ‘‘यार’’ ने सन् 2016 की 03 फरवरी को इस दुनिया से विदा ले ली। उनके जाने के बाद 06 फरवरी 2016 को सागर नगर की साहित्य, संस्कृति और कला के लिए समर्पित अग्रणी संस्था श्यामलम द्वारा ‘‘यार’’ साहब के सम्मान में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया। इस आयोजन के दौरान ही ‘‘यार’’ साहब की ग़ज़लों को संग्रह के रूप में प्रकाशित कराने का निर्णय लिया गया और संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने इस संबंध में विधिवत घोषणा की। इस संबंध में उन्होंने ‘‘यारां’’ का आमुख लिखते हुए चर्चा की है कि -‘‘06 तारीख को हमने उन्हें श्रद्धांजलि दी, उन्हें याद किया। बात आई उनकी रचनाओं के प्रकाशन की। इमरान भाई (सार साहब के पुत्र) ने बताया कि एक संग्रह ज़रूर छापा गया था किन्तु उसमें बेशुमार शाब्दिक त्रुटियां होने की वज़ह से अब्बा ने उनका वितरण रोक दिया था। मैंने उसे दुरुस्त करा कर नए सिरे से प्रकाशित करने का निर्णय लिया। तत्संबंधी घोषणा भी श्रद्धांजलि सभा में की। श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहूंगा, सभा में मौजूद मंचासीन अतिथि शिवशंकर केशरी और निर्मलचंद ‘निर्मल’ का जिन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया, लेकिन उसको फलीभूत होते देखने वे आज हमारे बीच नहीं हैं।सोचा था छोटा सा काम है, अगले वर्ष इसी तारीख़ में उसका प्रकाशन कर कवमोचन करा लिया जाएगा। लेकिन भाषाई दुरुस्तीकरण की प्रक्रिया को पूरा करते-करते आज पांच साल बीत गए। हांलाकि इस अवधि में जो किया जाना संभव था, मैंने किया।’’
अपने वादे को पांच दिन में भूल जाने वाले आज के माहौल में पांच साल तक वादे के अमल में जुटे रहना बड़ा जीवट वाला काम है। अंततः श्यामलम संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र ने अपने वादे को पूरा किया और यार मुहम्मद ‘‘यार’’ साहब की चालीस ग़ज़लों का एक खूबसूरत संग्रह प्रकाशित कर कर दम लिया। इस संग्रह के साथ कई महत्वपूर्ण तथ्य जुड़े हुए हैं। पहला तथ्य तो यह कि यह श्यामलम संस्था का पुस्तक प्रकाशन की दिशा में प्रथम सोपान है। दूसरा तथ्य यह कि ‘‘यारां’’ पर कोई शुल्क अंकित नहीं किया गया है। यह निःशुल्क है। इस संबंध में उमाकांत मिश्र का कहना है कि मैं ‘‘श्रद्धा कभी बेची नहीं जाती है। यह श्यामलम की ओर से यार साहब को श्रद्धांजलि है।’’ यह भावना स्तुत्य है। क्योंकि लेखन एवं प्रकाशन की दुनिया से जुड़े सभी लोग जानते हैं कि पुस्तक प्रकाशन में अच्छा-खासा खर्च आता है। यह सारा व्यय मूल रूप से श्यामलम संस्था और संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र द्वारा उठाया गया है। साहित्य और साहित्यकार की उनकी प्रतिबद्धता की राह में ‘‘यारां’’ मील का पत्थर है।
समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह के नामकरण के संबंध में उमाकांत मिश्र आमुख में ने जानकारी दी है कि डाॅ. सुरेश आचार्य ने संग्रह का नाम ‘‘यारां’’ रखा। डाॅ. सुरेश आचार्य हिन्दी, उर्दू और संस्कृत के गहनज्ञाता हैं। उनके द्वारा यार साहब के ग़ज़ल संग्रह को ‘‘यारां’’ नाम दिया जाना उनकी शायरी को तो प्रतिबिम्बित करता ही है, साथ ही जो ‘‘यार’’ साहब के स्वभाव से परिचित हैं वे समझ सकते हैं कि यह नाम ‘‘यार’’ साहब के याराना स्वभाव को भी रेखांकित करता है। इस ग़ज़ल संग्रह से जुड़ा तीसरा तथ्य यह है कि इसमें कठिन प्रतीत होने वाले उर्दू शब्दों का प्रत्येक पृष्ठ के फुटनोट में अर्थ दिया गया है ताकि इन ग़ज़लों को पढ़ने वालों को इनके मर्म को समझने में तनिक भी असुविधा न हो। शाब्दिक त्रुटिहीनता का हरसंभव प्रयास किया गया है। क्योंकि यही वह संवेदनशील पक्ष था जिसके कारण ‘‘यार’’ साहब ने अपनी प्रकाशित पुस्तक को वितरित करने से रोक दिया था जबकि उसके प्रकाशन में वे धन व्यय कर चुके थे। अतः उनकी इस भावना का संग्रह में सावधानीपूर्वक ध्यान रखा गया है। संग्रह में एक संक्षिप्त भूमिका साहित्यकार पी. आर. मलैया द्वारा लिखी गई है जिसमें उन्होंने ‘‘यार’’ साहब की शायरी की खूबियों पर प्रकाश डाला है।
यार मुहम्मद ‘‘यार’’ सागर के मदार चिल्ला, लाजपतपुरा वार्ड में जन्मे थे। अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से सम्बद्ध उर्दू अदब से उन्होंने मेट्रिक किया। उन्हें पहलवानी का शौक था। सागर नगर के प्रमुख पहलवानों में उनकी गिनती होती थी। पहलवानी के साथ ही उन्हें शायरी का भी शौक रहा। वे उस्ताद मियां मेहर (नवाब साहब) के शागिर्द रहे। उन्होंने हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में शायरी की। वे सामाजिक समरसता एवं कौमी एकता में विश्वास रखते थे। ‘‘यार’’ साहब ने नातिया मुशायरों में भी अनेक बार भाग लिया। कई सम्मानों से उन्हें सम्मानित भी किया गया।
शायरी अपने शायर की भावनाओं की प्रतिनिधि होती है और साथ ही उसका सकल जग से भी सरोकार होता है। यार मुहम्मद ‘‘यार’’ की शायरी में दीन-दुखियों के प्रति उनकी संवेदनाएं स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। उनके ये चंद शेर देखें-
धूप से इस जहां को बचा लीजिये
अपने दामन का साया अता कीजिये
आपके नाम की माला जपता रहूं
रंग अपना यूं मुझ पे चढ़ा दीजिये
आप ही आप मुझको नज़ा आएं बस
आंखों में खाके-पा को लगा दीजिए
‘‘यार’’ साहब जब ग़ज़ल के अस्ल इश्क़िया मिजाज़ को थामते हैं तो उनकी इश्क़िया ग़ज़ल भी एक गरिमा के साथ सामने आती है। उदाहरण देखें-
उसका फ़साना दिल को जलाने के लिए है
हर बात मेरी दिल को लुभाने के लिए है
हर सांस यूं तो मेरी ज़माने के लिए है
ये जान मगर उनपे लुटाने के लिए है
मैं जानता हूं, दिल से तुझे चाहता है वो
नाराज़गी तो मुझको सताने के लिए है
इश्क़ की बात करते हुए ‘‘यार’’ साहब लौकिक और अलौकिक प्रेम को एकसार करते हुए सूफ़ियाना अंदाज़ में जा पहुंचते हैं। वे इश्क़ को दुनिया की सबसे बड़ी नेमत करार देते हैं और प्रेम के व्यक्तिगत अनुभव को पीढ़ियों के प्रेम तक ले जाते हैं। उनकी यह ग़ज़ल देखिए-
इश्क़ में राज़े-मुहब्बत है समझता क्या है
इश्क़ गर हो न तो इंसान में रक्खा क्या है
इक तक़ाज़ा ही तो इंसानियत का है बाक़ी
वर्ना इंसान से इंसान का रिश्ता क्या है
तेरे जल्वों का करिश्मा है ये रौशन आंखें
नूर आंखों में अगर हो न तो जंचता क्या है
साये-दामन में शाम आपके गुज़र जाए
और बस इसके सिवा मेरी तमन्ना क्या है
‘‘यार’’ अज्दाद की इस घर में ख़ुश्बुएं बसतीं
वर्ना अपना दरो-दीवार से रिश्ता क्या है
‘अज्दाद’ अर्थात् पुरखों की ख़ुश्बूओं वाले घर को ही अपना घर मानना ‘‘यार’’ साहब का संयुक्त परिवार और पीढ़ियों में विश्वास रखने को दर्शाता है। उनकी वतनपरस्ती भी इन्हीं शेरों में बखूबी झलकती है।
यार मुहम्मद ‘‘यार’’ के कई शेर ऐसे हैं जिनमें उनकी कलम दुख-सुख, मिलन-विरह, के बीच अपने बाहर-भीतर के सफर की कश्मकश को बड़ी सुंदरता और गहराई से शब्दांकित करती है। वे आत्मीयजन के व्यवहार में होने वाले क्रमिक परिवर्तन को भी बखूबी सामने रखते हैं -
पहले थे मेहरबां, बदगुमां हो गये
अब वो मेरे लिए आस्मां हो गये
बिन मेरे वो जो रहते नहीं थे ज़रा
कितने अब फ़ासले दरम्यां हो गये
हमने उनके लिए जान भी दी मगर
आज वो ग़ैर के राज़दां हो गये
साथ ले-ले के अपने चले जो मुझे
दूर वो सबके सब कारवां हो गये
‘‘यार’’ साहब के शेरों में दुनियावी चलन की सच्ची तस्वीर पूरे तल्ख़ रौ में उभर कर सामने आती है। लेकिन खूबी यह है कि वे आज के असंवेदी माहौल के प्रति मात्र उलाहना ही नहीं देते हैं, वरन सकारात्मक सुझाव भी देते हैं-
क्या नहीं बिक रहा आज संसार में
दिल का सौदा भी होता है बाज़ार में
क्या मिलेगा हमें बोलो तकारर में
बात बन जाएगी, दोस्तो प्यार में
लालो-गौहर से भी बेशक़ीमत है ये
वक़्त को हम गंवाएं न बेकार में
सागर नगर के ही नहीं वरन् उर्दू अदब के एक नामचीन शायर यार मुहम्मद ‘‘यार’’ ने शायरी को समृद्ध किया। साथ ही उनके इस योगदान को संग्रह के रूप में दस्तावेज़ बनाने में श्यामलम संस्था ने जो महती कार्य किया वह साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। ‘‘यार’’ साहब की शायरी को निश्चित रूप से पढ़ा जाना चाहिए जो कि अब ‘‘यारां’’ के प्रकाशन से आसान हो गया है। ‘‘यारां’’ के अगले संस्करण को समूल्य किया जा सकता है, बढ़ती मंहगाई एवं संस्था के सीमित साधनों को देखते हुए श्यामलम संस्था को इस पर विचार करना चाहिए। इससे उनके श्रद्धांजलि के पवित्र उद्देश्य पर कोई आंच नहीं आएगी। बहरहाल, इस ग़ज़ल संग्रह का श्रद्धांजलिस्वरूप प्रकाशित होना तथा निःशुल्क रखा जाना अपने आप में एक अनूठी मिसाल है। बारम्बार प्रशंसनीय है।
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण
Friday, November 12, 2021
चर्चा प्लस | भारत को कितनी राहत देगी पीएम मोदी और स्कूली छात्रा विनीशा की ललकार | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, November 9, 2021
पुस्तक समीक्षा | प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 09.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि विनीत मोहन औदिच्य द्वारा अनूदित काव्य संग्रह "ओ प्रिया" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
प्रेम को व्याख्यायित करते बेजोड़ साॅनेट्स
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - ओ प्रिया
अनुवादक - विनीत मोहन औदिच्य
प्रकाशक - ब्लैक ईगल बुक्स, 7464, विस्डम लेन, डब्लिन, ओहायो (यूएसए)
मूल्य - 180/-
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इस बार समीक्षा के लिए जो काव्य संग्रह मैंने चुना है उसका नाम है ‘‘ओ प्रिया’’। यह नोबल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा के एक सौ प्रेम साॅनेट का हिन्दी में काव्यात्मक अनुवाद है। इसके अनुवाद हैं सागर निवासी विनीत मोहन औदिच्य। यह पुस्तक अमरीकी प्रकाशक ब्लैक ईगल बुक्स का इंटरनेशनल एडीशन है। यूं तो ब्लैक ईगल बुक्स का मुख्यालय ओहायो स्टेट के डब्लिन शहर में स्थित है किन्तु भारत में ओडीशा के कलिंग नगर, भुवनेश्वर में भी इसका कार्यालय है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मानक के अनुरुप यह पुस्तक आकर्षक मुद्रण में पेपरबैक है। जहां तक इस पुस्तक के कलेवर का प्रश्न है तो इसका मैंने दो तथ्यों के साथ आकलन करना उचित समझा है- पहला पाब्लो नेरुदा से जुड़े तथ्य और दूसरा हिन्दी साहित्य में साॅनेट की स्थिति। इन दो तथ्यों से गुज़र कर ही इस समीक्ष्य पुसतक की उपादेयता को परखा जा सकता है।
पाब्लो नेरुदा मात्र एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे। 1970 में चिली में सल्वाडोर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार बनाई जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी। अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया। और इसी वर्ष उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला। 1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया। इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत हो गई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हजारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया। कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के समाप्त होने की प्रार्थना करते रहे। लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया। 23 सितंबर, 1973 को चिली के सैंटियागो में नोबेल पुरस्कार पाने के दो साल बाद नेरुदा का निधन हो गया। हालाँकि उनकी मौत को प्रोस्टेट कैंसर के लिए आधिकारिक रूप से जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन आरोप लगाए गए हैं कि कवि को जहर दिया गया था, क्योंकि तानाशाह ऑगस्टो पिनोशे के सत्ता में आने के ठीक बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। पाब्लो ने अपने जीवन में दो भावनाओं को प्रबल रूप से जिया जिसमें एक थी देश के प्रति प्रेम जिसके लिए वे राजनीति के क्षेत्र में संघर्ष करते रहे और दूसरी भावना थी प्रेम की। जो उन्हें जब सच्चे प्रेम के रूप में अनुभव हुई तो उन्होंने प्रेम पर वे साॅनेट लिख डाले जिन्होंने उन्हें विश्व में एक रोमांटिक कवि की ख्याति दिला दी।
पाबलो नेरुदा ने तीन विवाह किए। आरम्भ के दो विवाह सफल नहीं रहे किन्तु तीसरा विवाह उन्होंने अपनी प्रेमिका मेडिल्टा उर्रुटिया सेर्डा से किया। मेडिल्टा फिजियो थेरेपिस्ट थीं और उनसे लगभग आठ वर्ष छोटी थीं। वे लैटिन अमेरिका की पहली पेड्रियाटिक थेरेपिस्ट थीं। मेडिल्टा के प्रेम में डूब कर पाब्लो नेरुदा ने ‘‘सिएन साॅनेटोज़ डी अमोर’’ अर्थात् ‘‘प्रेम के सौ साॅनेट्स’’ लिखे। इसी पुस्तक का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है ‘‘ओ प्रिया’’ के नाम से। इस पुस्तक के अनुवादक विनीत मोहन औदिच्य स्वयं भी एक साॅनेटकार हैं और उनके द्वारा अनूदित अंग्रेजी साॅनेट्स की एक और पुस्तक ‘‘प्रतीची से प्राची पर्यांत’’ की समीक्षा भी मैं इसी स्तम्भ में कर चुकी हूं। हिन्दी साहित्य में साॅनेट विधा को मौलिक सृजन के रूप में गंभीरता से परिचित कराने का श्रेय है कवि त्रिलोचन शास्त्री को। प्रारम्भ में हिंदी में सॉनेट को विदेशी विधा होने के कारण स्वीकार नहीं किया गया किन्तु त्रिलोचन शास्त्री ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया. इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवतः स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया।
विनीत मोहन औदिच्य के अनुवाद की यह विशेषता है कि वे विदेशी भाषा के साॅनेट के अनुवाद को हिन्दी में साॅनेट के रूप में ही करते हैं। जबकि काव्यानुवाद अपने आप में चुनौती भरा कार्य होता है। क्योंकि जब किसी विदेशी काव्य को अनुवाद के लिए चुना जाता है तो उसमें वर्णित दृश्य, देशज स्थितियां और तत्संबंधी कालावधि की समुचित जानकारी अनुवादक के लिए आवश्यक होती है। जैसे पाब्लो के साॅनेट्स में चिली के समुद्रतट, समुद्र और मछुवारों का वर्णन मिलता है जो भारतीय समुद्रतटों और मछुवारों की जीवन दशाओं से सर्वथा भिन्न है। इसी तरह की अनेक छोटी-बड़ी विशेषताओं का ज्ञान होना अनुवाद के लिए आवश्यक हो जाता है। इसके साथ ही जरूरी हो जाता है अनुवाद के लिए चुनी गई कृति और उसके कवि की भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करना। इस सबके बाद ही काव्यानुवादक अनुवाद के लिए सटीक शब्दों का चयन कर पाता है। विनीत मोहन औदिच्य ने जिस आत्मीयता के साथ पाब्लो के साॅनेट्स को हिन्दी में पिरोया है, वह प्रभावित करने वाला है। संग्रह की अनूदित कविताओं को पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि अनुवादक ने पाब्लो की भावनाओं को भली-भांति समझा है और साथ ही उनके परिवेश को भी अनुवादकार्य के दौरान आत्मसात किया है। उनके शब्दों का चयन प्रभावित करता है क्यों वे शब्द मूल कविता की आत्मा को साथ ले कर चलते हैं। उदाहरण के लिए 18 वां साॅनेट की ये पंक्तियां देखें-
तुम बहती हो पर्वत श्रृंखलाओं में पवन जैसी
बर्फ़ के नीचे गिरते हुए तीव्र झरने सी
तुम्हारे सघन केश धड़कते हैं सूर्य के
उच्च अलंकरणों से, दोहराते हुए उन्हें मेरे लिए।
काकेशस का सम्पूर्ण प्रकाश गिरता है तुम्हारी काया पर
एक गुलदस्ता जैसा, असीम रूप से अपवर्तक
कजसमें जल बदलता है वस्त्र और गाता है
दूरस्थ नदी की हर गति के साथ।
प्रिय की अनुपस्थिति किस तरह किसी व्यक्ति को आलोड़ित करती है, विशेष रूप से जब वह उसकी उपस्थिति चाहता हो, 69 वें साॅनेट की इन चार पंक्तियों में अनुभव किया जा सकता है-
संभवतः तुम्हारी अनुपस्थिति ही होना है शून्यता का
तुम्हारे बिना हिले, दोपहर को काटना
एक नीले पुष्प-सा, बिना तुम्हारे टहले
धुंध और पत्थरों से हो कर बाद में
संग्रह का 89 वां साॅनेट भावनाओं के उच्चतम शिखर को छूता हुआ प्रतीत होता है। यह वह अतिसंवेदनशील भावाभिव्यक्ति है जो असाध्य रोग के कारण मृत्यु के सुनिश्चित हो जाने पर अंतिम इच्छा की तरह प्रकट होती है। पंक्तियां देखिए-
जब मैं करूं मृत्यु का वरण, मैं चाहता हूं तुम्हारे हाथों को मेरी ओखों पर
मैं चाहता हूं रोशनी और तुम्हारे प्यारे हाथों का गोरापन
मैं चाहता हूं उन हाथों की स्फूर्ति मुझसे हो कर गुजत्ररे एक बार
मैं करना चाहता हूं उस कोमलता की अनुभूति जिसने परिवर्तित किया मेरा भाग्य।
इसी तारतम्य में 94 वें साॅनेट को भी उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है जिसमें एक प्रेमी मृत्यु, प्रेम और परिवेश के समीकरण को अमरत्व प्रदान कर देना चाहता है-
यदि मैं मरूं, तुम इतनी शुद्ध शक्ति के साथ उत्तरजीवी रहो
कि तुम करो विवर्णता और शीतलता को क्रोधित
चमकाओ अपनी अमिट आंखों को दक्षिण से दक्षिण तक
सूर्य से सूर्य तक, जब तक कि गाने न लगे तुम्हारा मुख गिटार-सा
मैं नहीं चाहता तुम्हारी हंसी या पदचाप लगे डगमगाने
मैं नहीं चाहता मेरी प्रसन्नता की विरासत की हो मुत्यु
मत पुकारो मेरे हृदय को, मैं नहीं हूं वहां
मेरी अनुपस्थिति में रहो जैसे रहती हो एक घर में।
‘‘ओ प्रिया’’ अनूदित होते हुए भी पाब्लो के मौलिक साॅनेट्स का आनन्द दे पाने में सक्षम है। यूं भी अनुवाद कार्य दो भाषाओं, दो साहित्यों और दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य करता है। इतना श्रेष्ठ अनुवाद करके विनीत मोहन औदिच्य ने हिन्दी साहित्य और लैटिन अमरीकी साहित्य के बीच एक सृदृढ़ सेतु तैयार किया है। यह काव्य संग्रह न केवल पठनीय अपितु संग्रहणीय भी है।
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Thursday, November 4, 2021
चर्चा प्लस | बुंदेली दीपावली से जुड़ी रोचक परंपराएं | डाॅ शरद सिंह
Tuesday, November 2, 2021
पुस्तक समीक्षा | मन की गहराई के हर स्तर को छूती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
प्रस्तुत है आज 02.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि अमरजीत कौंके के काव्य संग्रह "बन रही है नई दुनिया" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मन की गहराई के हर स्तर को छूती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कविता संग्रह - बन रही है नई दुनिया
कवि - अमरजीत कौंके
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं.11, बाईसा गोदाम, जयपुर-302006
मूल्य - 100/-
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अमरजीत कौंके पंजाबी और हिन्दी के एक सुपरिचित कवि एवं अनुवादक हैं। इनके अब तक पंजाबी में सात काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जो हैं-दरिया दी कब्र चों, निर्वाण दी तलाश विच, द्वंद्व कथा, यक़ीन, शब्द रहणगे कोल, स्मृतियां दी लालटेन तथा प्यास। हिन्दी में तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-मुट्ठी भर रोशनी, अंधेरे में आवाज़ एवं अंतहीन दौड़। ‘‘बन रही है नई दुनिया’’ उनका हिन्दी में चौथा काव्य संग्रह है। हिन्दी और पंजाबी के प्रतिष्ठित कवियो एवं लेखकों की कृतियों का अनुवाद कर चुके हैं जिनमें हिन्दी के केदारनाथ सिंह की ‘अकाल में सारस’, नरेश मेहता की ‘अरण्या’, कुंवर नारायण की ‘कोई दूसरा नहीं’, विपिन चंद्रा की ‘साम्प्रदायिकता’, अरुण कमल की ‘नए इलाके में’, मिथिलेश्वर की ‘उस रात की बात’, मधुरेश की ‘देवकीनंदन खत्री’, हिमांशु जोशी का ‘छाया मत छूना मन’ बलभद्र ठाकुर का ‘राधा और राजन’, उषा यादव की ‘मेरी संकलित कहानियां’, जसवीर चावला की ‘धूप निकलेगी’ तथा पवन करण की ‘औरत मेरे भीतर’ का पंजाबी में अनुवाद किया है। इसके साथ ही पंजाबी कवि रविंदर रवि, परमिंदर सोढी, डाॅ रविंदर, सुखविंदर कम्बोज, दर्शन बुलंदवी, बी.एस. रतन, सुरिंदर सोहल तथा बीबा बलवंत की कृतियों का हिन्दी में अनुवाद कर चुके हैं। शिक्षा जगत में कार्यरत अमरजीत कौंके का अपना एक मौलिक दृष्टिकोण तथा अपना एक अलग रचना संसार है। वे दुनियावी समस्याओं को अपने अनुभव के तराजू से तौलते हैं, जांचते, परखते हैं फिर उन्हें अपनी कविताओं में ढाल देते हैं।
हिन्दी के कश्मीरी मूल के कवि अग्निशेखर जब अपने जलते अनुभवों को सहेजते हुए कहते हैं कि ‘‘मैं कविता लिखता हूं, इसीलिए जी पा रहा हूं।’’ वहीं पंजाबी मूल के अमरजीत कौंके कविता के महत्व को इन शब्दों में बयान करते हैं कि -
मैं कविता लिखता हूं
क्योंकि मैं जीवन को
उसकी सार्थकता में
जीना चाहता हूं
कविता न लिखूं
तो मैं निर्जीव पुतला
बन जाता मिट्टी का
खता, पीता, सोता
मुफ़्त में डकारता
अमरजीत कौंके कविता को मनुष्य की जीवन्तता और सजगता का प्रमाण मानते हैं। उनका ऐसा मानना सही है क्योंकि कविता संवेदनाओं के सक्रिय रहने पर ही उपजती है। जब संवेदना जाग्रत रहेगी तभी व्यक्ति अपने और दूसरे के दुखों का आकलन कर सकेगा, उनके कारणों का पता लगा सकेगा और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार कर सकेगा। संवेदना जब द्रवित अवस्था में होती है तो वह साहित्य का रास्ता चुनती है। संवेदना की सांद्रता साहित्य में दुनिया का एक ऐसा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर देती है जो देखने, समझने वाले की अंतश्चेतना को आलोड़ित कर देती है। साहित्य में भी काव्य की संक्षिप्तता गद्य की अपेक्षा त्वरित संवाद करती है। संग्रह की एक कविता है ‘‘कोसों तक अंधेरा’’। इस कविता में कवि ने अपने भीतर मौजूद व्याकुलता के अंधेरे का गहनता से वर्णन किया है-
मैं जिस रौशनी में बैठा हूं
मुझे वह रौशनी
मेरी नहीं लगती
इस मस्नूई सी रौशनी की
कोई भी किरण
न जाने क्यों
मेरी रूह में
नहीं जगती
जगमग करता
आंखें चैंधियाता
यह जो रौशन चुफेरा है
भीतर झांक कर देखूं
तो कोसों तक अंधेरा है
अमरजीत कौंके अपनी हिन्दी कविताओं में पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी बड़ी सहजता से करते हैं जिससे यदि किसी हिन्दी पाठक को उस शब्द का अर्थ पता न हो तब भी वह उस शब्द का भावार्थ समझ सकता है। जैसे ऊपर उद्धृत कविता में ‘‘चुफेरा’’ शब्द आया है-‘‘यह जो रौशन चुफेरा है’’। ‘‘चुफेरा’’ का हिन्दी में अर्थ होता है- चारो ओर, चहुंओर। ‘‘यह जो रौशन चुफेरा है’’ अर्थात् ‘‘यह जो प्रकाश चारो और व्याप्त है’’। इस प्रकार आए हुए पंजाबी के शब्द कौंके की हिन्दी कविताओं में कहीं बाधा नहीं बनते हैं वरन् शाब्दिक भाषाई सेतु का काम करते हैं, कविता की सुंदरता बढ़ाते हैं।
काव्य और जीवन दर्शन का सदा ही प्रगाढ़ संबंध रहा है। संत कवि कबीर ने जाति, धर्म, रूढ़ि आदि का मुखर विरोध किया किन्तु वहीं मानव को अपने अस्तित्व की सत्ता को पहचानने का भी आग्रह किया। कबीर देह और प्रज्ञा के निर्माण को एक चदरिया बुनने की प्रक्रिया में ढाल कर देखते हैं और कहते हैं-
झीनी झीनी बीनी चदरिया....
काहे कै ताना काहे कै भरनी
कौन तार से बीनी चदरिया।।
इडा पिङ्गला ताना भरनी
सुखमन तार से बीनी चदरिया।।
आत्मावलोकन तथा आत्ममंथन की इसी प्रक्रिया से गुज़रते हुए कवि अमरजीत कौंके ‘‘मान की चादर’’ कविता लिखते हैं। कवि मन की चादर पर लगी मैल को धो डालने का आह्वान करते हैं। यह एक निर्गुणिया आग्रह है जो आज के बाज़ारवादी उत्तर आधुनिकता के समय में बहुत ज़रूरी-सा लगता है। आज हम भौतिक वस्तुओं को पा लेने की अंधी दौड़ में शामिल होने को ही सुख मान बैठते हैं और अपने मन की चादर पर पड़ते दागों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है। ऐसे भ्रमित कर देने वाले कठिन समय में कवि ने आत्मचिंतन को रेखांकित करते हुए लिखा है-
निचोड़ दो मुझे
गीले कपड़े की तरह
निचुड़ जाए सारी मैल
जो मन की चादर पर लगी
द्वेष, निर्मोह, झूठ, कपट,
फ़रेब की मैल
जो मन की चादर पर जमी
जन्म बीत गए धुलते इसे
धुली बार-बार / हज़ार बार
लेकिन उतरती नहीं मैल
अच्छी तरह धो डालो
मन मेरे की मैली चादर
निचोड़ दो /अच्छी तरह इसको
और दे दो नील
‘‘मां के लिए सात कविताएं’’ उस मां को समर्पित हैं जो अपनी मृत्यु से जूझ रही है और जिसने जीवन भर अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए नाना प्रकार की समस्याओं से जूझा है। मां के चिरविदा होने पर कवि अकुला कर कह उठता है-
जब से तू गई है मां
घर घास के तिनकों की तरह
बिखर गया है
अमरजीत कौंके प्रेम को जब लिपिबद्ध करते हैं तो वह प्रेम अथाह भावनाओं का प्रस्फुटन बन कर सामने आता है। उदाहरण देखिए ‘‘तुमने तो’’ शीर्षक कविता से-
तुमने तो हंसते-हंसते
पानी में
एक कंकर ही उछाला
लेकिन पानी की
लहरों के बीच का
अक़्स पकड़ने के लिए
मैंने सारा का सारा पानी खंगाल डाला
अमरजीत कौंके की कविताएं मन की गहराई के हर स्तर को छूती हैं। ये कविताएं सहज एवं संप्रेषणीय तो हैं ही, इनमें एक ऐसा अनुभव-संसार है जो किसी भी व्यक्ति का हो सकता है। इन कविताओं में मौजूद प्रेम, करुणा, उलाहना, विक्षोभ, अकुलाहट, वैराग्य और विश्वास ही वे तत्व हैं जिनसे एक नई दुनिया के निर्माण की सतत् प्रक्रिया चल रही है। वस्तुतः अनुभव के कैनवास पर भावों से चित्रित कविताओं का यह काव्य संग्रह ‘‘बन रही है नई दुनिया’’ निश्चित रूप से पठनीय है।
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