Thursday, April 26, 2018

Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गढ़ाकोटा, सागर (म.प्र.) में 23 एवं 24 अप्रैल को दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में देश और विदेश से पधारे मूर्धन्य विद्वान और विदुषी वक्ताओं के बीच 'सारस्वत वक्ता' के रूप में मैंने " वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा" विषय पर अपना व्याख्यान दिया। ये हैं कुछ औपचारिक तथा अनौपचारिक तस्वीरें उसी अवसर की... 
महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ एस एम पचौरी एवं संगोष्ठी संयोजक डॉ घनश्याम भारती का हार्दिक आभार 🙏
Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha


Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

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Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

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Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

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Dr ( Miss) Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

Wednesday, April 25, 2018

भावनाओं से खेलते सोशल मीडिया के अपराधी - डाॅ. शरद सिंह

मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....


भावनाओं से खेलते सोशल मीडिया के अपराधी - डाॅ. शरद सिंह in Dabang Media

चर्चा प्लस ... भावनाओं से खेलते सोशल मीडिया के अपराधी - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
भावनाओं से खेलते सोशल मीडिया के अपराधी
- डाॅ. शरद सिंह
आज सोशल मीडिया पर जिस तरह भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है उसे देख कर सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ याद आती है। उस कहानी में डाकू खड्गसिंह एक अपाहिज बन कर सहायता मांगता हुआ बाबा भारती के पास पहुंचा और उनकी सद्भावनाओं से खिलवाड़ करता हुआ उनका घोड़ा ले उड़ा था। तब उसे रोक कर बाबा भारती ने कहा था कि “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।“ बाबा भारती कम से कम डाकू खड्गसिंह को यह कह तो सके लेकिन इंटरनेट की आभासीय दुनिया में फ़र्ज़ी आईडी वाले डाकुओं की कोई कमी नहीं है और ये डाकू जनता की भावनाओं पर बेख़ौफ़ डकैती डालते रहते हैं। 
भावनाओं से खेलते सोशल मीडिया के अपराधी - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस  Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

मुझे व्हाट्एप्प की मैसेजेस की भीड़ से घबराहट होती है। उस पर आमतौर पर ऊलजलूल संदेशों से भरे हुए व्हाट्एप्प ग्रुप से तो भगवान बचाए। संदेशों की ये बाढ़ मोबाईल की मेमोरी को तो डुबा ही देती है, साथ ही दिमाग की बत्ती भी गुल कर देती है। फिर भी कई ग्रुप एडमिन जागरूक होते हैं और वे सजगता के साथ अपने ग्रुप का संचालन करते हैं। ऐसे ही एक ग्रुप से मैं भी जुड़ी हूं। उस ग्रुप में विभिन्न क्षेत्रों के बुद्धिजीवी हैं। लेकिन जब बात भावनाओं की हो तो तर्क पीछे छूट जाते हैं। पिछले दिनों इसी तरह का उदाहरण मेरे सामने आया। उस व्हाट्एप्प ग्रुप के एक सदस्य ने एक तस्वीर पोस्ट की। तस्वीर में अपने माता-पिता के साथ दो बच्चे दिखाई दे रहे थे। एक लड़का और एक लड़की। अबोध आयु के। तस्वीर के साथ संदेश लिखा था कि-‘‘यह परिवार एक नैनो में सफर कर रहा था देवास के पास कार का सीरियस एक्सीडेंट हो गया और दोनों मां-बाप एक्सपायर हो चुके हैं। दोनों बच्चे अपना पता एड्रेस बताने में असमर्थ हैं। कृप्या इस तस्वीर को फार्वर्ड करने की कुपा करें।’’ निश्चितरूप से बड़ा मार्मिक संदेश था जिसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति बिना सोचे-विचारे उस पोस्ट को आगे बढ़ा देगा। मैंने भी उस पोस्ट को पढ़ा लेकिन देर से। तब तक उस व्हाट्एप्प ग्रुप के एडमिन चैतन्य सोनी जो एक जागरूक पत्रकार हैं, उस पर टिप्पणी कर चुके थे। मैंने उनकी टिप्पणी पढ़ी। उनकी टिप्पणी थी कि -‘‘ये फोटो क्या नैनो कार में से मिली है?’’ फिर उनकी दूसरी टिप्पणी थी -‘‘शायद फेक है यह।’’ जाहिर है कि एक पत्रकार की नज़र ने उस जालसाजी को ताड़ लिया जो आम व्यक्ति नहीं ताड़ सकता है। मैंने भी ध्यान से देखा, वह फोटो बहुत ही अच्छी हालत में और एकदम साफ़सुथरी थी। लिहाजा उसका उस दुर्घटनाग्रस्त कार से मिलना तो संभव नहीं था। और जब बच्चे अपने घर का पता नहीं बता पा रहे थे तो वह फोटो व्हाट्एप्प मैसेज करने वाले को कहां से मिल गई? न जाने किस परिवार की फोटो का इस तरह दुरुपयोग किया गया था। उस व्हाट्एप्प ग्रुप में जिन्होंने उस पोस्ट को शेयर किया था, वे एक प्रबुद्ध व्यक्ति हैं लेकिन स्वाभाविक है कि भावुकता में वे इस पक्ष पर नहीं सोच सके होंगे और जब यह संदेश उनके पास आया होगा तो उन्होंने उसे ग्रुप में शेयर कर दिया। जब दुर्घटना और बच्चों के साथ किसी त्रासदी की बात हो तो कोई भी व्यक्ति व्याकुल हो उठेगा और जल्दी से जल्दी उनकी सहायता के लिए तत्पर हो जाएगा। इसमें उन प्रबुद्ध सदस्य का कोई दोष नहीं था। लेकिन यहीं प्रश्न उठता है कि यदि इसी तरह फर्जी संदेश सोशल मीडिया में पोस्ट और फार्वर्ड होते रहेंगे तो सच्ची घटना घटने पर अथवा सही संदेश पर कोई क्यों ध्यान देगा? दरअसल, चंद खुराफातियों ने संवेदनशील लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने का हथियार बना रखा है सोशल मीडिया को। वहीं इसे कानून की दृष्टि को देखा जाए तो यह साईबर क्राईम है।
2 अप्रैल 2018 को देश के विभन्न हिस्सों में प्रदर्शन के दौरान जो दंगे, आगजनी और मौतें हुईं उसमें भी सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए भड़काऊ संदेशों का बड़ा हाथ रहा। उसके बाद सभी संवेदनशील क्षेत्रों में प्रशासन के द्वारा इंटरनेट पर कुछ समय के लिए रोक लगा दी। इससे उन भड़काऊ संदेश भेजने वालों का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन शेष जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आजकल ई-बैंकिग का चलन है। आपात या तुरंत पैसे भेजने के लिए ई-बैंकिंग या इंटरनेट पर आधारित अन्य माध्यम ही अपनाए जाते हैं। इंटरनेट को बंद किए जाने पर न जाने कितने लोगों को समय पर पैसे नहीं मिल पाए होंगे। न जाने कितने लोग बस, रेल या हवाई रिजर्वेशन न करा पाने पर अपने अवसरों से वंचित हो गए होंगे। इन सबसे बड़ा नुकसान व्यापार जगत को हुआ। ई-मार्केटिंग तो ठप्प हुई ही, साथ ही सामान्य बाज़ार भी लड़खड़ा गया। प्रशासन जानता था कि इंटरनेट सेवा रोकने से यह सब होगा लेकिन वह मजबूर था। क्योंकि यदि इंटरनेट सेवा जारी रहती तो भड़काऊ संदेश आग उगलते रहते और उसमें आमजनता की जान और माल जलते रहते। जो सुविधा इंसान को इंसान के करीब लाने और परस्पर मित्र बनाने के लिए ईजाद की गई, उसका इस तरह घृणित उपयोग किया जाना इंसानियत को लज्जित करता है।
विभिन्न धर्मों के देवी-देवता को ले कर अभद्र संदेशों का अदान-प्रदान अकसर होता रहता है। जिसके कारण कई बार माहौल गरमाने लगता है और पुलिस व्यवस्था को यथार्थ के बदले आभासीय दुनिया से उपजे खतरों के पीछे दौड़ना पड़ता है। महिलाओं और उसमें भी विशेषरूप से स्कूल-काॅलेज जाने वाली लड़कियों को इससे विशेष खतरा रहता है। बदनीयत लड़के पहले मित्र बनते हैं फिर अवसर पाते ही विशेष ऐंगल से ली गई सेल्फी या फिर मित्रता प्रेम में बदल चुकी हो तो भावुक पलों का मोबाईल-वीडियो बना लेते हैं और फिर उसे इंटरनेट पर अपलोड करने की धमकी दे कर लड़की को ब्लैकमेल करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे अपराध पहले नहीं होते थे। लेकिन एक पीढ़ी पहले तक ऐसे अपराधों को उंगलियों पर गिना जा सकता था। तब लड़की द्वारा लिखे गए प्रेमपत्र बदनीयत लड़कों के हथियार होते थे लेकिन वह उन्हें लड़की के माता-पिता या रिश्तेदारों तक ही भेजने की क्षमता रखता था। लेकिन आज एक अपलोड लड़की की गोपनीयता को पल भर में पूरी दुनिया के सामने सार्वजनिक कर सकता है। यह अपराध भावनाओं के साथ किया गया ऐसा अपराध है जो हत्या से भी अधिक जघन्य है। सिर्फ़ लड़की नहीं वरन किसी सभ्रांत पुरुष या लड़के की आपत्तिजनक तस्वीरें या वीडियो इंटरनेट पर अपलोड करने की धमकी दे कर उसका जीना हराम करने की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं। यहां तक कि कभी कोई प्रोफेसर इस अपराध की चपेट में आता है तो कभी कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता।
भारत में भी साइबर क्राइम मामलों में तेजी से बढ़त हो रही है। सरकार ऐसे मामलों को लेकर बहुत गंभीर है। भारत में साइबर क्राइम के मामलों में सूचना तकनीक कानून 2000 और सूचना तकनीक (संशोधन) कानून 2008 लागू होते हैं। मगर इसी श्रेणी के कई मामलों में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), कॉपीराइट कानून 1957, कंपनी कानून, सरकारी गोपनीयता कानून और यहां तक कि आतंकवाद निरोधक कानून के तहत भी कार्रवाई की जा सकती है। साइबर क्राइम के कुछ मामलों में आईटी डिपार्टमेंट की तरफ से जारी किए गए आईटी नियम 2011 के तहत भी कार्रवाई की जाती है। इस कानून में निर्दोष लोगों को साजिशों से बचाने के इतंजाम भी हैं। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों, ई-मेल, चैट वगैरह के जरिए बच्चों या महिलाओं को तंग करने के मामले अक्सर सामने आते हैं। इन आधुनिक तरीकों से किसी को अश्लील या धमकाने वाले संदेश भेजना या किसी भी रूप में परेशान करना साइबर अपराध के दायरे में ही आता है। किसी के खिलाफ दुर्भावना से अफवाहें फैलाना, नफरत फैलाना या बदनाम करना भी इसी श्रेणी का अपराध है। इस तरह के केस में आईटी (संशोधन) कानून 2009 की धारा 66 (ए) के तहत सजा का प्रावधान है। दोष साबित होने पर तीन साल तक की जेल या जुर्माना हो सकता है। ई-मेल स्पूफिंग और फ्रॉड के मामलों में आईटी कानून 2000 की धारा 77 बी, आईटी (संशोधन) कानून 2008 की धारा 66 डी, आईपीसी की धारा 417, 419, 420 और 465 लगाए जाने का प्रावधान है।
आज का युग कम्प्यूटर, मोबाईल और इंटरनेट का युग है। इंटरनेट की मदद के बिना किसी बड़े काम की कल्पना करना भी मुश्किल है। ऐसे में अपराधी भी तकनीक के सहारे हाईटेक हो रहे हैं। वे अपराध करने के लिए कम्प्यूटर, इंटरनेट, डिजिटल डिवाइसेज और वल्र्ड वाइड वेब आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऑनलाइन ठगी या चोरी भी इसी श्रेणी का अहम अपराध होता है। किसी की वेबसाइट को हैक करना या सिस्टम डेटा को चुराना ये सभी तरीके साइबर क्राइम की श्रेणी में आते हैं। साइबर क्राइम दुनिया भर में सुरक्षा और जांच एजेंसियां के लिए परेशानी का कारण साबित हो रहा है। लेकिन कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाईल का प्रयोग करने वालों को हमेशा सतर्क रहना चाहिए कि कहीं उनसे भी जाने-अनजाने में कोई साइबर क्राइम तो नहीं हो रहा है। जहां तक संभव हो आपत्तिजनक संदेशों को फार्वर्ड करने से बचने में ही भलाई है। साथ ही, संदिग्ध-संवेदनशील संदेशों को कुछ पल ठहर कर परखना जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि जाने-अनजाने हम अपनी भावुकता के हाथों ही ठगे जाएं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सोशल मीडिया के अपराधी दूसरों के दिमाग पर कब्ज़ा कर के अपने अपराधों को अंजाम देते हैं। इसी लिए सतर्क रहते हुए सोशल मीडिया में मौजूद अपराधियों से अपनी संवेदनाओं और भावनाओं को बचाए रखना जरूरी है।
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( दैनिक सागर दिनकर, 25.04.2018 )
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Thursday, April 19, 2018

नोट और वोट के बीच फंसी आमजनता - डॉ. शरद सिंह

मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....
 
नोट और वोट के बीच फंसी आमजनता- डॉ शरद सिंह in Dabang Media

चर्चा प्लस ... नोट और वोट के बीच फंसी आमजनता ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
नोट और वोट के बीच फंसी आमजनता
- डॉ. शरद सिंह
नोटबंदी का जख़्म अभी पूरी तरह से भरा नहीं था कि अब 2000 के नोटों का संकट आमजनता को सांसत में डाल रहा है। एक ओर आसन्न चुनाव का शुरू हो चुका घमासान और दूसरी ओर खाली पड़े एटीएम मुंह चिढ़ा रहे हैं। यानी नोट और वोट के बीच फंसे लोग जाएं तो कहां जाएं ? कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे आमजनता के धैर्य की परीक्षा का अंतहीन सिलसिला जारी है। 
 
 नोट और वोट के बीच फंसी आमजनता ... डॉ. शरद सिंह ... चर्चा प्लसArticle for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
वह भी विवाहों के मुहूर्त्त के पूर्व का समय था और लोगों को नोटबंदी का सामना करना पड़ा था। भारत के 500 और 1000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण, जिसे मीडिया में छोटे रूप में नोटबंदी कहा गया, की घोषणा 8 नवम्बर 2016 को रात आठ बजे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अचानक राष्ट्र को किये गए संबोधन के द्वारा की गयी। यह संबोधन टीवी के द्वारा किया गया। इस घोषणा में 8 नवम्बर की आधी रात से देश में 500 और 1000 रुपये के नोटों को खत्म करने का ऐलान किया गया। इसका उद्देश्य केवल काले धन पर नियंत्रण ही नहीं बल्कि जाली नोटों से छुटकारा पाना भी था। इससे पहले भी इसी तरह के उपायों को भारत की स्वतंत्रता के बाद लागू किया गया था ताकि जालसाजी और काले धन पर अंकुश लगाया जा सके। लेकिन यह अदला-बदली की प्रक्रिया थी जिसमें जनता को पर्याप्त समय दिया गया था नोट बदलने के लिए। बल्कि देखा जाए तो इन पूर्व के तमाम विमुद्रीकरण ने सिर्फ़ जमाखोरों को सबक सिखाया था और आमजनता को तो इसका प्रभाव भी महसूस नहीं हुआ था। लेकिन 8 नवम्बर 2016 को बंद किए गए 500 और 1000 रुपए के नोटों ने दिहाड़ी मजदूरों तक की कमर तोड़ दी।
अब अप्रैल 2018 के मध्य में उत्पन्न 2000 रुपयों के नोटों की कमी और एमटीएम में रुपयों की र्प्याप्त उपलब्धता नहीं होने से एक बार फिर अमजनता सशंकित हो उठी है। विवाहों का सबसे बड़ा मुहूर्त्त सिर पर है और लोगों को नोटों की कमी से जूझना पड़ रहा है। हर जगह स्वाईप या डिज़िटल तरीका काम नहीं कर पाता है। छोटे व्यापारियों, मजदूरों और रोजमर्रा की छोटी खरीददारी के लिए फुटकर नोटों से ले कर 2000 तक के नोट की जरूरत पड़ती ही है। बहरहाल, 2000 के नोटों के संकट पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के हाल ही में दिए गए बयान से पहले मीनाक्षी लेखी के उस वक्तव्य का उल्लेख करना जरूरी लग रहा है जो उन्होंने नोटबंदी का विरोध करते हुए दिया था- ‘’आम औरत और आदमी, जो लोग अनपढ़ हैं और बैंकिंग सुविधाओं तक जिनकी पहुंच नहीं है ऐसे लोग इस तरह के उपायों से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। मुख्य रूप से कुछ समय के अंतराल में स्वयं जनता 2000 के नोट को चलन से बाहर कर देगी, क्योंकि जहां कम मूल्य की वस्तु खरीदनी हो तब दुकानदार आपसे 2000 के नोट नहीं लेगा। परिणाम स्वरूप 2000 के नोट की या तो जमाखोरी होगी अथवा काले धन का ही सृजन करेंगें। सरकार को इस विषय पर प्रारंभिक समय से सचेत रहने की आवश्यकता है।’’
लगता है जैसे मीनाक्षी लेखी का अनुमान सच साबित हो रहा है। इसकी पुष्टि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वक्तव्य से भी होती है। मध्य प्रदेश के शाजापुर में 16 अप्रैल 2018 को किसानों को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था, “नोटबंदी से पहले 15 लाख करोड़ रुपए की नकदी चलन में थी। इस प्रक्रिया (नोटबंदी) के बाद यह बढ़कर 16 लाख 50 हजार करोड़ रुपए हो गई, लेकिन बाजार से 2000 का नोट गायब हो रहा है। लेकिन दो-दो हजार के नोट कहां जा रहे हैं, कौन दबाकर रख रहा है, कौन नकदी की कमी पैदा कर रहा है। यह षड्यंत्र है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है, ताकि दिक्कतें पैदा हों। सरकार इससे सख्ती से निपटेगी।“ उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने यह मुद्दा केंद्र सरकार के सामने भी उठाया है। उन्होंने इसके पीछे साजिश होने का आरोप लगाया है।
यद्यपि एसबीआई के चेयरमैन का कहना है कि नोटबंदी जैसे हालात नहीं है। उस वक्त पैसा सिस्टम से निकाला गया था, इसलिए परेशानी हुई थी। अभी ऐसी स्थिति नहीं है। एसबीआई के पास पर्याप्त कैश है। यह बात जरूर है कि 2000 के नोट का सर्कुलेशन कम हुआ है। एक वजह यह है कि फसलें आई हैं, किसानों को तेजी से पेमेंट बढ़ा है। जल्दी ही सबकुछ सामान्य हो जाएगा। वैसे पिछले कुछ हफ्ते से गुजरात, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कैश में कमी बनी हुई थी। 16 अप्रैल 2018 को पूर्वी महाराष्ट्र, बिहार और मध्य प्रदेश से नकदी की कमी की शिकायतें मिलीं। उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, झारखंड और महाराष्ट्र में नकदी का संकट पैदा हो गया। उधर गुजरात में भी बैंकों में नकदी की किल्लत शुरू हो चुकी है। लगभग 10 दिन पहले यह परेशानी उत्तर गुजरात से शुरू हुई, लेकिन अब पूरे राज्य में इसका असर है। यहां तक कि बैंकों ने नकदी निकालने की सीमा तय कर दी है। ज्यादातर एटीएम में पैसा नहीं है। शादी और किसानों को फसल के भुगतान का वक्त होने की वजह से लोगों को कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली, एनसीआर, भोपाल, पटना, लखनऊ, हैदराबाद और अहमदाबाद समेत देश के कई इलाकों के एटीएम में पैसा नहीं होने की शिकायतें मिलीं। इस बीच, केंद्र सरकार ने स्वीकार किया कि कुछ जगह कैश की कमी है। इसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा, “देश में नकदी के हालात की समीक्षा की जा चुकी है। कुल मिलाकर पर्याप्त नकदी चलन में है। बैंकों में पर्याप्त कैश है। कुछ जगहों पर कमी इसलिए हुई, क्योंकि कुछ जगहों पर मांग अचानक बढ़ी। इस पर जल्द ही नियंत्रण पाया जाएगा।“
न्यूज़ ऐजेंसियों के अनुसार रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने 2000 रुपए के नोटों की छपाई तीन महीने के लिए बंद कर रखी है। जिससे 500 और 200 से छोटे नोटों को ही प्रचलन में लाया जाए और सभी बैंक अपने ग्राहकों को यही नोट उपलब्ध कराए। सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड कंपंनी ने भी इस चीज की पुष्टि करते हुए बताया कि आरबीआई ने 2000 नोट को छापने की कोई भी डिमांड नहीं की इसलिए नए 500, 200 और इससे छोटे नोटों को ही छापा जा रहा है। इसका उद्देश्य यह हैं की देशभर में छोटे नोटों का प्रचलन ज्यादा से ज्यादा हो और कालेधन पर लगाम भी लग सके। इस संबंध में यह चर्चा भी जोरो रही है कि रिजर्व बैंक एक बार फिर 2000 रुपये की करेंसी के संचार को धीरे-धीरे कम कर देगी। दूसरी चर्चा यह रही कि 2000 की करेंसी की सुविधा के चलते देश में कालेधन का संचय आसान हो गया है और इसी के चलते बाजार में 2000 की करेंसी का ज्यादा संचार नहीं है।
कारण जो भी हो लेकिन फिलहाल आमजनमा को नोटों की कमी के संकट से एकबार फिर जूझना पड़ रहा है। एक ओर आसन्न चुनावों के लोक-लुभावने वादे हैं तो दूसरी ओर नोटों की कमी का कठोर यथार्थ। ऐसे में आमजनता का अपने भविष्य को ले कर चिंतित होना स्वाभाविक है कि कहीं एक बार फिर किसी प्रकार की बंदी का सामना तो नहीं करना पड़ेगा? यह समय सिर्फ़ विवाह महूर्तों का नहीं है, इस समय किसान अपनी उपज को मंडियों में पहुंचा रहे हैं और उनके खातों में धन पहुंच रहा है लेकिन यदि समय रहते यह धन उनके हाथों में रुपयों के रूप में नहीं आ पाया तो उनके लिए भी संकट खड़ा हो सकता है। स्थानीय छोटे-मोटे कर्जे या मजदूरों को चुकता करने के लिए किसानों को भी नकद राशि की दरकार होती है। एटीएम और बैंक काउंटरों पर नकद की कमी होने की स्थिति में धन होते हुए भी धन की कमी से उनहें जूझना पड़ेगा। यही स्थिति लगभग हर तबके के लोगों की रहेगी।
नोटबंदी का जख़्म अभी पूरी तरह से भरा नहीं है कि अब 2000 के नोटों का संकट आमजनता को उलझन में डाल रहा है। एक ओर आसन्न चुनाव का शुरू हो चुका घमासान और दूसरी ओर खाली पड़े एटीएम यानी नोट और वोट के बीच फंसे लोग जाएं तो कहां जाएं? कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे आमजनता के धैर्य की परीक्षा का अंतहीन सिलसिला जारी है। लिहाजा इस परीक्षा का अंत अब सरकार को ही पूरी तत्परता से करना होगा क्योंकि यह उसी के अधिकार क्षेत्र का मामला है। आमजनता सीधे आरबीआई से संवाद नहीं कर सकती है लेकिन सरकार आरबीआई को निर्देश दे सकती है। जहां तक जमाखोरी और कालाबाजारी का प्रश्न है तो इसके लिए भी सरकारी स्तर पर ही कोई ठोस कदम उठाने होंगे, वह भी ऐसे कदम जो जमाखोरों ओर कालाबाजारी करने वालों पर तो अंकुश लगाए किन्तु आमजनता को परेशानी न उठानी पड़े। आखिर कब तक बड़े-बड़े घोटालेबाज अरबों रुपयों का घोटाला कर के देश से बाहर भागते रहेंगे और आमजनता बलि का बकरा बनती रहेगी? इस प्रश्न को ध्यान में रख कर कोई तो ऐसी योजना बनानी ही होगी जिससे बार-बार आमजनता को मुद्रा की कमी और उससे उत्पन्न घबराहट न झेलनी पड़े। यह एक ऐसा मुद्दा है जो चुनावों की दिशा का निर्धारण करने की ताकत रखता है।
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Note Aur Vote Ke Beech Fansi Aamjanta - Charcha Plus by Dr Sharad Singh
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(दैनिक सागर दिनकर, 18.04.2018 )
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Friday, April 13, 2018

Pray for Justice - Dr (Miss) Sharad Singh

Pray for Justice - Dr (Miss) Sharad Singh
Let's #Pray For #Asifa ....
Let's #Pray For #Unnao_Victim_Girl ....
Let's #Pray For #Justice ....
And
Let's #Pray For #Stop The #Crime_Against_Women ....
- #DrSharadSingh

बुंदेलखंड से गुज़रते राजनीतिक गलियारे - डॉ. शरद सिंह ...‘दबंग मीडिया’ में

मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....
 

बुंदेलखंड से गुज़रते राजनीतिक गलियारे

 - Article of Dr Sharad Singh in Dabang Media

ग़लत है अराजकता का रास्ता - डॉ. शरद सिंह ...‘दबंग मीडिया’ में

मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....

ग़लत है अराजकता का रास्ता - Article of Dr Sharad Singh in Dabang Media

उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ पर पीएच. डी. (हिन्दी) उपाधि के लिए शोध ग्रंथ

Kasbai Simon - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास की पीएच. डी. (हिन्दी) उपाधि के लिए शोधार्थी माली गीताबेन द्वारा मेरे उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ पर लिखा गया शोध ग्रंथ आज मुझे प्राप्त हुआ जिसके लिए उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई है। मैं डॉ. माली गीताबेन के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूं 🙂
Ph. D. Research Book on Kasbai Simon - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
📚एक दिलचस्प बात बताऊं कि यूं तो कई यूनीवर्सिटीज़ में मेरे उपन्यासों पर शोधकार्य हुए हैं और हो रहे हैं मगर अकसर उनके बारे में मुझे तब पता चलता है जब वे मुझसे शोध के दौरान चर्चा करते हैं या फिर उपाधि अवार्ड हो जाने के बाद यूजीसी की साईट से पता चलता है। कभी-कभी कोई उदारमना शोधार्थी अपनी रिसर्च बुक की कॉपी मुझे भी भेज भी देते हैं।

चर्चा प्लस ... बुंदेलखंड से गुज़रते राजनीतिक गलियारे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
बुंदेलखंड से गुज़रते राजनीतिक गलियारे
- डॉ. शरद सिंह

बुंदेलखंड देश का एक संघर्षशील और पिछड़ा इलाका है। इसके पिछड़ेपन का एक सबसे बड़ा कारण यह है कि इसने कभी झुक कर समझौते नहीं किए। कभी अपना स्वाभिमान नहीं गंवाया जिसका गवाह इतिहास भी है। आज उसी बुंदेलखंड में नए-नए राजनीतिक गलियारे गढ़े जा रहे हैं। सवाल यह है कि उन गलियारों से गुज़रने वालों को बुंदेलखंड से लगाव है या सत्ता से? इसका आकलन तो बुंदेलखंड के वासियों को ही करना पड़ेगा, वह भी समय रहते। 
बुंदेलखंड से गुज़रते राजनीतिक गलियारे - डॉ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

पहले विधानसभा चुनाव और उसके बाद लोकसभा चुनाव। दो समर सामने हैं और योद्धा इस समर को जीतने के लिए अपनी-अपनी योजनाएं बनाने में जुट गए हैं। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश इन दो राज्यों में बंटा बुंदेलखंड राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा इलाका है जहां समस्याएं ही समस्याएं हैं और जहां आश्वासन की पोटली आसानी से खोली जा सकती है। पिछले आमसभा चुनाव के दौरान भी अनेक ऐसे राष्ट्रीयस्तर के नेता बुंदेलखंड में पधारे जिन्हें बुंदेलखंड कहां है यह जानने के लिए गूगलसर्च करना पड़ा होगा। बुंदेलखंड में आ कर उन्होंने गरीबों के घर रोटियां खाईं, चाय पी और मुंह पोंछ कर चलते बनें। फिर चुनाव के दिन करीब आए तो फिर बुंदेलखंड याद आया। इस बार और नए राजनीतिक खिलाड़ी बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारे में बिगुल बजाते हुए गुज़र रहे हैं और आमचुनावों तक गुज़रते रहेंगे। बुंदेलखंड के राजनीतिक मंच पर दृश्य वही रहेगा- ढेर सारे मुद्दे और उससे भी अधिक आश्वासन। इस प्रसंग में बार-बार एक छोटी-सी कहानी याद आता है कि एक गांव में एक तालाब था जिसमें साफ़-स्वच्छ पानी था। हर मौसम में तालाब लबालब भरा रहता। एक बार एक शिकारी उस गांव से गुज़रा उसने देखा कि गांव खुशहाल है उन्हें किसी की मदद की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती है। शिकारी के मन में खोट आ गया। उसने यह प्रचारित की कि वह मगरमच्छ पकड़ने में माहिर है। और एक रात चुपके से एक मगरमच्छ का बच्चा तालाब में छोड़ कर वहां से चला गया। कुछ दिन बाद जब मगरमच्छ बड़ा हुआ और लोगों के लिए खतरा बन गया तो गांववालों को उस शिकारी की याद आई। चतुर शिकारी एक आदमी के पास अपना पता भी छोड़ गया था। गांव वालों उस शिकारी को बुलाया और उससे मगरमच्छ पकड़ने की फ़रियाद की। शिकारी ने वादा किया कि वह मगरमच्छ पकड़ेगा। लेकिन उसने मगरमच्छ पकड़ने में इतने अधिक दिन लगाए कि तब तक उस मगरमच्छ की संतानें भी हो गईं। इसके बाद शिकारी ने उस मगरमच्छ को पकड़ा, गांववालों से अपना ईनाम लिया और वहां से चलता बना। कुछ समय बाद गांव वालों को पता चला कि तालाब में तो अभी भी मगरमच्छ है। उन्होंने फिर शिकारी को बुलाया। फिर वहीं किस्सा दोहराया गया। एक बार शिकारी के सहायक ने ही उससे पूछ लिया कि शिकारी साहब आप हर बार मगरमच्छ का एक न एक बच्चा तालाब में क्यों जीवित छोड़ देते हैं? इस पर शिकारी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया कि अगर मैं एक बार में सारे मगरमच्छ मार दूंगा और तालाब को समस्या-मुक्त कर दूंगा तो गांव वाले मुझे फिर क्यों बुलाएंगे? और यदि वे मुझे नहीं बुलाएंगे तो मुझे पैसे ऐंठने को कहां से मिलेंगे। अपने शिकारी साहब का उत्तर सुन कर उनका सहायक गद्गद हो गया। वहीं, गांव वाले आज भी शिकारी के मोहताज़ बने हुए हैं।
चुनावों के समय उठाए जाने वाले मुद्दों के अलावा भी बुंदेलखंड में कई मुद्दे ऐसे हैं जिनका इस कथा से गहरा संबंध है। बुंदेलखंड की कल-कल करती नदियां अब सूख चली हैं, वनपरिक्षेत्र का धनी बुंदेलखंड अंधाधुंध अवैध कटाई को दशकों से झेल रहा है। रसूख वाले बांधों से पानी चुराते हैं और रेतमाफिया नदियों से रेत चुरा रहे हैं। परिणामतः बुंदेलखंड में भी जलवायु परिवर्तन का कालासाया मंडराने लगा है। मौसम का असंतुलन सूखे का समीकरण रचने लगा है। जब पर्याप्त बारिश नहीं होगी तो किसान कैसे फसल उगाएंगे? पर्याप्त फसल नहीं होगी तो किसान कर्ज के बोझ तले दबता जाएगा और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में वहीं हो रहा है जो आए दिन अखबारों की सुर्खियों में पढ़ने को मिल रहा है। बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में चर्चा में रहा। अब भी औसतन हर माह एक न एक किसान मौत को गले लगा रहा है। दुनिया भले ही इक्कीसवीं सदी में कदम रखते हुए विकास की नई सीढ़ियां चढ़ रहा है लेकिन बुंदेलखंड आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है।
बुंदेलखंड वह इलाका है, जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर व दतिया उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। कुल मिलाकर 13 जिलों से बुंदेलखंड बनता है। नदियों, तालाबों, कुओं वाले इस क्षेत्र में जल का सही व्यवस्थापन नहीं होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में बुंदेलखंड में पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र ने वाटर ट्रेन भी भेज दी, जिसपर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है। पानी की समस्या दूर करने के लिए प्रदेश सरकारों ने तालाब खुदवाए। सरकारी अधिकारियों ने बताया कि यहां अब पानी की कोई कमी नहीं है, जिसके बाद उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पानी से लबालब भरे तालाबों की फोटो ट्वीट कर दी। उसके बाद देश की एक प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी ने इन तालाबों की सच्चाई का पता लगाया तो सच्चाई कुछ और ही निकली। कई तालाब सूखे पड़े थे। पानी जैसी बुनियादी चीज पर भ्रष्टाचार करने वालों की आत्मा भी क्या उनहें नहीं झकझोरती है? या फिर वे अपनी आत्मा को पहले ही बेच चुके हैं? राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र किशोर का कहना है कि ‘’समय-समय पर बुंदेलखंड के लिए काफी पैसा दिया गया लेकिन बदहाली बताती है कि पैसे का सदुपयोग नहीं हुआ। केंद्र ने पैसा देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली। यह नहीं देखा कि पैसा सही इस्तेमाल हुआ या नहीं। प्रदेश सरकारों ने जो घोषणाएं कीं और पैसा दिया उसे अधिकारियों ने जनता तक पहुंचने नहीं दिया। बस अपनी जेब भरते रहे।’’
जब किसान तंगहाल होता है तो शेष व्यवसाय भी लड़खड़ाने लगते हैं। बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। ‘नवभारत टाईम्स’ में छपे इस समाचार ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था कि बुंदेलखंड में लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे हैं’। एनबीटी ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। सरकार ने इसे नकारा लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर अपनी टीम मौके पर जांच के लिए भेजी। उस टीम को लोगों ने घास की रोटियां दिखाईं और बताया कि इनको ही खाकर वे जिंदा रहते हैं। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण गांव के लोग पलायन करने को विवश हैं। विभिन्न समाचार ऐजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल मे लगभग 50 लाख लोग पलायन कर चुके हैं। किसानों ने खेती छोड़ दी है और दूसरे प्रांतों में मजदूरी कर रहे हैं। यहां की बदहाली और लगातार पड़ रहे सूखे ने बुंदेलखंड के युवाओं को अपनी जड़ों से उखड़ने को विवश कर दिया है। युवा अपना गांव, अपना घर-परिवार छोड़ कर बाहर नौकरी करने जाने को मजबूर हैं। युवाओं के पास बाहर मजदूरी करके खाने-कमाने और परिवार को खिलाने के अलावा दूसरा चारा नहीं है।
प्रदेश सरकारें बढ़-चढ़ कर घोषणाएं करती रहती हैं- कभी सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने की तो कभी वेतन और भत्ता बढ़ाने की। सवाल उठता है कि क्या प्रदेश सरकारों के खजानों में इतना दम है कि वे लम्बे समय तक इस प्रकार की व्यवस्थाओं को बनाए रख सकेंगी या फिर खुद सरकारी खजाने कर्ज में डूबते चले जाएंगे? दूसरी ओर विचारणीय यह भी है कि मौजूदा सरकारों पर उंगली उठानेवाले अन्य राजनीतिक दल बुंदेलखंड के लिए सचमुच कुछ करेंगे या फिर हमेशा की तरह मुंगेरीलाल के हंसीन सपने दिखाते रहेंगे? याद रहे कि सितम्बर 2016 में राहुल गांधी ने बुंदेलखंड में रोड-शो किया था, सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महोबा का भ्रमण किया था और अप्रैल 2018 में हार्दिक पटेल ने बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारे में क़दम रखा। अर्थात् यह तो मानना होगा कि बुंदेलखंड ने राजनीतिक नक्शे में अपनी जगह बना ली है लेकिन अभी उसे सीखना है अपने अधिकारों तात्कालिक नहीं वरन हमेशा के लिए हासिल करना। आज उसी बुंदेलखंड में नए-नए राजनीतिक गलियारे गढ़े जा रहे हैं। सवाल यह है कि उन गलियारों से गुज़रने वालों को बुंदेलखंड से लगाव है या सत्ता से? इसका आकलन तो बुंदेलखंड के वासियों को ही करना पड़ेगा, वह भी समय रहते।
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(दैनिक सागर दिनकर, 11.04.2018 )
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Wednesday, April 4, 2018

चर्चा प्लस ... ग़लत है अराजकता का रास्ता - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 

ग़लत है अराजकता का रास्ता
- डॉ. शरद सिंह

 
अपने अधिकारों की मांग करना ग़लत नहीं है, लेकिन यदि अबोध, अवयस्क बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर और अपने हाथों में हथियार ले कर सड़कों पर अराजकता फैलाई जाए तो इस तरीके को किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जब इस तरह पत्थर चलते हैं तो ये अपनों और परायों दोनों को घायल करते हैं। चाहे सिनेमा को ले कर हो या जातीय अधिकारों को ले कर प्रदर्शन हो, उसे संयमित और अहिंसक ही होना चाहिए। अराजकता के उन्माद का बार-बार प्रदर्शन लोकतंत्र के मूल्यों को भी तार-तार कर रहा है।

Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
 
आज हम ग्लोबलाजेशन की बातें करते हैं और समूची दुनिया को ग्लोबल गांव के रूप में देख्ने का स्वप्न संजोते हैं, जिसमें दुनिया का हर इंसान परस्पर एक-दूसरे का हितैषी और पड़ोसी बन कर रहे, हर देश परस्पर मोहल्लों के रूप में हिलमिल कर रहें। लेकिन सपने और सच्चाई के बीच ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ उस समय दिखाई दे जाता है जब हम संकुचित मानसिकता को अपनाते हुए अराजक हो उठते हैं। नारे लगाते हुए सड़कों पर निकल आना तो फिर भी उतना गलत नहीं है जितना कि सड़कों पर निकल कर हिंसक हो उठना। प्रदर्शनकारियों का एक भी हिंसक क़दम अवसरवादियों एवं दंगाइयों को भरपूर अवसर देते है। वे प्रदर्शनकारियों के बीच घुस जाते हैं और उनकी ओर से बंदूकें चलाने लगते हैं। वे प्रदर्शनकारियों का भला नहीं चाहते बल्कि वे तो अपनी दुश्मनियां निकालना चाहते हैं। वे समाज में भेद-भाव और वैमनस्य बढ़ाना चाहते हैं। फिर भी विचारणीय है कि चंद ऐसे लोगों के बहाव में आ कर पूरी भीड़ कैसे हिंसक हो उठती है? इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? कहीं वे नेतृत्वकर्त्ता तो नहीं जो बिना आगे आए अपने समर्थकों के विचारों में ज़हर घोलते रहते हैं, या कहीं वह साशल मीडिया तो नहीं जो ईज़ाद किया गया था इंसान को इंसान के करीब लाने के लिए लेकिन उसका दुरुपयोग किया जाने लगा है इंसान को इंसान का दुश्मन बनाने के लिए?
विगत कुछ समय से सड़कों पर उतर कर हिंसक होने की प्रवृत्ति जिस प्रकार बार-बार सामने आ रही है, वह चिन्तित करने वाली है। अभी भी समय है कि ठहर कर सारे परिदृश्य पर पुनः दृष्टि डाली जाए और चूक कहां-कहां हो रही है, इसे समझने का प्रयास किया जाए। अभी कुछ समय पहले जब तथाकथित संत रामरहीम को बंदी बना कर कारावास में डाला गया तो उस दौरान डेरा सच्चासौदा के आस-पास जो महौल बना उसने मानवता को लज्जित कर दिया। रामरहीम के समर्थक सड़कों पर निकल आए और तोड़-फोड़, मारपीट करने लगे। बदले में पुलिस की लाठियां और गोलियां चलीं। परिणाम तो वही रहा न कि वे लोग मारे गए जो जीवित कर बहुत कुछ अच्छा काम कर सकते थे। फिल्म ‘पद्मावती’ के कथानक को ले कर जिस तरह की बयानबाजियां हुईं उसने राजपूत समाज की गरिमा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। राजपूतों में यह परम्परा रही ही नहीं कि किसी महिला का गला काट देने या जबान काट देने की धमकी दी जाए, फिर भी ऐसी धमकियां सार्वजनिक रूप से दी गईं और इसके बाद सड़कों पर उतर कर जन, धन की हानि की गई। लोग घायल हुए, मारे भी गए। जो मसला चर्चाओं और उच्चस्तरीय जिममेदार व्यक्तियों के दृढ़ हस्तक्षेप से हल हो सकता था उसे सड़कों तक जाने दिया गया। प्रदर्शन के इसी क्रम में पुणे में किए गए प्रदर्शनों ने भी जिस तरह हिंसक रूप लिया था वह भी चौंकाने वाला था। उस समय यह तय करना कठिन था कि दोषी किसे ठहराया जाए, प्रदर्शन के हिंसक उन्माद में बदलने को या उन पुलिसकर्मियों को जिन्होंने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। किन्तु प्रदर्शन का ताज़ा उदाहरण चौंकाने वाला है। इसने प्रदर्शन की योजना को अराजक उन्माद में बदलने के बीच मौजूद कई तथ्य बेनकाब कर दिए हैं।
सुप्रिमकोर्ट के निर्णय के विरुद्ध सरकार याचिका लगाने जा ही रही थी कि इसके पहले ही प्रदर्शन की योजना तैयार हो गई। यदि यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहता तो इससे याचिकाकर्त्ता सरकार को बल मिलता लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों ने अपनी अवसरवादिता को गुल खिला दिया और सोशल मीडिया को हथियार बनाते हुए मन में उग्रता भर दी। दूसरी जो ध्यान देने योग्य तथ्य है वह यह कि इस देशव्यापी इस प्रदर्शन में बच्चों को सड़कों पर उतारा गया। ऐसे बच्चों को जो सुप्रीमकोर्ट या उसके आदेश या उस आदेश की लाभ-हानि को समझते ही नहीं हैं। उन बच्चों के नन्हें हाथों में पत्थर और डंडे थमा दिए गए। शायद उन बच्चों के माता-पिता को भी इसकी जानकारी नहीं रही होगी। बस, उनसे चूक यही हुई होगी कि वे ध्यान नहीं दे पाए कि उनके बच्चे उनकी आंखों से ओझल हो कर किस तरफ निकल गए हैं। तीसरा जो सबसे गंभीर तथ्य है, वह है प्रदर्शनकारियों के बीच पिस्तौल और बंदूकधारियों की मौजूदगी जिन्होंने अवसर पा कर अपने शस्त्रों का खुल कर प्रयोग किया। इस तरह के तत्व किसी भी प्रदर्शन कार्यक्रम को पल भर में दाग़दार बना सकते हैं। ऐसा होने पर प्रदर्शन का मूल उद्देश्य हाथों से फिसल जाता है और बची रह जाती हैं लाशें और घायल-कराहते हुए लोग।
2 अप्रैल 2018 का वह दिन बहुत संवेदनशील था। मध्यप्रदेश की शासकीय शालाओं में बच्चों के नवप्रवेश का दिन था। अभिभावकों के मन में अपने बच्चों के नवप्रवेश का उत्साह था। किसी ने भी सोचा नहीं था कि उन्हें नौनिहाल किसी हिंसक प्रदर्शन के बीच फंस सकते हैं। वह तो भला हो प्रदर्शनस्थलों पर डटी पुलिस की तत्परता का कि सभी नौनिहाल सुरक्षित रहे। यहां तक कि स्कूल से लौटते समय प्रदर्शनकारियों की भीड़ में फंसी बच्ची को एक पुलिसकर्मी ने अपनी गोद में उठा कर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। अन्य प्रदेशों में भी स्कूली बच्चे सुरक्षित अपने-अपने घरों में पहुंच गऐ। मारे गए तो वे लोग जो उन्माद के पहिए तले दब गए। प्रदर्शनकारियों को उग्रता को अपनाने के पहले सोचना चाहिए कि यदि उनके हाथों में हथियार रहेंगे तो वे चल भी सकते हैं, चाहे वह हथियार लाठियां ही क्यों न हों। उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि इस तरह सड़कों पर अराजकता फैलने से न जाने कितने बीमार इंसान अस्पतालों तक नहीं पहुंच सकेंगे, न जाने कितनी गर्भवतियों को समय पर चिकित्सा सहायता नहीं मिल सकेगी, न जाने कितने लोग दवाओं से वंचित रह जाएंगे। किसी भी ट्रेन को रोकने यात्रियों को कितनी परेशानी होती है, इसे भी समझना जरूरी है। उन यात्रियों में ईलाज़ के लिए जाने वाला कोई बीमार भी हो सकता है उनमें कोई किसी अपने के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचने की व्याकुलता रखने वाला भी हो सकता है। उनमें स्त्रियां और बच्चे तो होते ही हैं जो दहशत से भरा वह समय कैसे गुज़ार पाते हैं, यह बयान कर पाना भी कठिन है।
यह भी याद रखने की बात है कि आज ई-बैंकिंग, ई-मार्केटिंग दैनिकचर्या में शामिल हो गई है। सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने के कारण सरकार को बारह घंटे से भी अधिक समय के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। इस दौरान ई-बैंकिंग, ई-मार्केटिंग और ई-लर्निंग वालों को कितनी मानसिक और आर्थिक क्षति उठानी पड़ी होगी इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है। सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों को इस बारे में एक बार जरूर सोचना चाहिए। जो लोग राजनीतिक बहाव में बह कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, उन्हें संवेदनाओं को बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सिर्फ चंद लोगों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को इस तथ्य को समझना ही होगा कि अपने नैतिक दायित्व से विमुख होते हुए केवल तमाशबीन बनने से अवसरवादियों के हौसले बढ़ते रहेंगे और प्रदर्शन इसी तरह उन्माद की भेंट चढ़ते रहेंगे। इसी तरह बयानबाजों को भी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ भुला कर मानवता के हित में सोचना होगा। उन्हें टटोलना होगा अपनी अंतरात्मा को कि वे कब तक राजनीतिक स्वार्थ के लिए जनता को गुमराह करते रहेंगे और उन्हें हिंसा में झोंकते रहेंगे। यह तो लोकतंत्र की राजनीति नहीं है। लोकतंत्र जनता को एक ओर जहां अपना अधिकार मांगने की आजादी देता है वहीं उनकी सुरक्षा का भी वादा करता है। लोकतंत्र में लोक यानी जनता का भी दायित्व बनता है कि वह शांति बनाए रखे और अपने जान-माल को क्षति न पहुंचाए। यदि उसे किसी राजनीतिक दल को सबक सिखाना है या उससे अपनी मांगे मनवाना है तो मताधिकार के रूप में सबसे बड़ा हथियार उसके हाथों में रहता है। फिर जहां मताधिकार का हथियार हाथ में हो, वहां उग्रता या हिंसा के लिए तो कोई जगह होनी ही नहीं चाहिए।
देश के व्यवस्थापकों, नेतृत्वकर्त्ताओं और अपनी मांगों को ले कर आवाज़ उठाने वालों को - यानी सभी को यह बात याद रखनी ही होगी कि अराजकता समाज के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे किसी का भला नहीं होता बल्कि बुरा ही बुरा होता है। प्रश्न प्रशासनिक लापरवाहियों एवं असंवेदनशीलता का ही नहीं है बल्कि उस असंवेदनशीलता का है जो पूरे समाज को अपने शिकंजे में कसती जा रही है। यह हर प्रदर्शनकारी को याद रखना ही होगा कि हिंसा एक संक्रामक रोग की तरह होता है जिसे वायरल होते देर नहीं लगती। चाहे सिनेमा को ले कर हो या जातीय अधिकारों को ले कर प्रदर्शन हो, उसे संयमित और अहिंसक ही होना चाहिए। अराजकता के उन्माद का बार-बार प्रदर्शन लोकतंत्र के मूल्यों को भी तार-तार कर रहा है।
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(दैनिक सागर दिनकर, 04.04.2018 )
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