Monday, May 21, 2012

एक औरत, एक निश्चय और ‘गुलाबी गैंग’


                         
सम्पत देवी पाल

- डॉ. शरद सिंह


एक दुबली-पतली सांवली-सी औरत जिसकी उम्र लगभग 64 वर्ष हो और उसके बारे में यह पता चले कि वह एक ऐसे संगठन को संचालित कर रही है जिसका नाम भी अपने आप में अनूठा है -गुलाबी गैंगतो चकित रह जाना स्वाभाविक है। क्योंकि बुन्देलखण्ड अंचल में ऐसा वातावरण नहीं है कि स्त्रियां स्वतंत्र हो कर कोई निर्णय ले सकें अथवा घर की चैखट लांघ कर न्याय की बातें कर सकें।
    धनगढ़ (गड़रिया) परिवार में सन् 1947 को जन्मीं सम्पत देवी पाल उत्तरप्रदेश के बांदा जिले में कई वर्ष से कार्यरत हैं। सम्पत देवी पाल ग्रामीण महिलाओं में जागरूकता लाने का अनथ प्रयास कर रही हैं। इस कार्य को सही एवं सुचारु ढंग से क्रियान्वित करने के लिए सम्पत देवी ने महिलाओं के एक दल का समाजसेवी गठन कर रखा है। यह दल गुलाबी गैंगअथवा पिंक गैंगके नाम से लोकप्रिय है। इस संगठन का यह नाम इस लिए पड़ा क्यों कि इस संगठन के अंतर्गत कार्य करने वाली महिलाएं युनीफॉर्मकी भांति गुलाबी रंग की साड़ी ही पहनती हैं। गुलाबी रंग की साड़ी की एकरूपता ने इन्हें एक अलग और अनूठी पहचान दी है।
श्रीमती सोनिया गांधी के साथ सम्पत देवी पाल
     बांदा जिला बुन्देलखण्ड का आर्थिक रूप से वह पिछड़ा हुआ जिला है जहां शिक्षा और जनसुविधाओं की कमी निरन्तर महसूस की जाती रही है। वैसे बुन्देलखण्ड से ले कर मुंबई तक बांदा जिला अपने लठैतों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि यहां के निवासी लड़ाकू होते हैं, उनका लठैत होना इस बात का द्योतक है कि वे साहसी होते हैं। किन्तु जहां तक महिलाओं का प्रश्न है तो रूढि़वादी परम्पराओं और शिक्षा की न्यूनता के कारण इस जिले की महिलाएं विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर रही हैं। संभवतः इसीलिए सम्पत देवी पाल को इस बात की आवश्यकता का अनुभव हुआ होगा कि बांदा जिले की महिलाओं को आत्मनिर्भरता का रास्ता दिखाया जाए। यह रास्ता अधिकारों की  जागरूकता की अलख जगा कर ही लाया जा सकता था।
सन् 2008 में ओह प्रकाशन से फ्रांसीसी भाषा में एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका नाम था-मोई, सम्पत पाल: चीफ डी गैंग एन सारी रोज़अर्थात् मैं सम्पत पाल: गुलाबी साड़ी दल की मुखियामोई, सम्पत पाल: चीफ डी गैंग एन सारी रोज़को एन्ने बरथोड ने फ्रांसीसी में लेखबद्ध किया है।
फ्रांसीसी में लिखी गई पुस्तक
     पुस्तक के बारे में प्रकाशक ने सम्पत पाल हमारी सहायता कर सकती हैशीर्षक से लिखा कि ‘‘भारत के ऊंचे पहाड़ों और बाढ़ग्रस्त मैदानों वाले उत्तर प्रदेश के एक नितान्त साधनहीन क्षेत्रा यह किंवदन्ती चल निकली कि एक महिला बाहुबलियों के अत्याचारों के सामने अकेली उठ खड़ी हुई है। जिसका नाम है सम्पत पाल जो प्रताडि़त पत्नियों, सम्पत्ति छीनलिए गए लोगों और उच्चवर्ग (विशेष रूप से ब्राह्मणों) द्वारा अस्पृश्यता के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही है। वह महिला स्वयं साधनहीन गड़रिया जाति की है। क्या ऐसी कोई महिला दबंगों से लोहा ले सकती है? न्याय की इच्छुक एक विद्रोहिणी? यह उसकी कहानी है जो वह यहां बता रही है। बचपन में उसने स्कूल-भवन के खम्बे की ओट में चोरी से खड़े हो कर शिक्षा पाई क्यों कि वह ग़रीब थी। बारह वर्ष की आयु में विवाह हो गया। उसने अपने ससुरालवालों के अत्याचार का डट कर सामना किया, अपनी एक पड़ोसी स्त्री की रक्षा की और अपनी एक सहेली की परिवार से दुखी सहेली की सहायता की....किन्तु सबसे जोखिम भरा काम था गांव के दबंगों को चुनौती देना और उनके द्वारा सुपारी देकर पीछे लगाए गए (हिटमैन्स) गुण्डों से स्वयं की रक्षा करना। सम्पत पाल को अपना घर, अपना गांव आदि सब कुछ छोड़ना पड़ा। तब उसे महसूस हुआ कि वह अकेली लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकती है किन्तु यदि उसके साथ और औरतें आ जाएं पांच, दस, सौ.....तो वे सब मिल कर लोगों को अन्याय और प्रताड़ना से बचा सकती हैं। आज (सन् 2008 में) गुलाबी गैंगमें 3,000 औरतें हैं जो गुलाबी रंग की साड़ी पहनती हैं और अपने हाथ में लाठी रखती हैं। एक वास्तविक नायिका की भांति सम्पत पाल ने अपने आस-पास की सैंकड़ों लोगों का जीवन बदल दिया है, अभी तो उसकी लड़ाई की यह शुरुआत भर है।’’
     सम्पत पाल के गुलाबी दल की औरतें निपट ग्रामीण परिवेश की हैं। वे सीधे पल्ले की साड़ी पहनती हैं, सिर और माथा पल्ले से ढंका रहता है किन्तु उनके भीतर अदम्य साहस जाग चुका है। अपने एक साक्षात्कार में अपने गुलाबी गैंग के बारे में सम्पत पाल ने कहा था कि ‘‘जब पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी हमारी मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं तब विवश हो कर हमें कानून अपने हाथ में लेना पड़ता है। हमारा दल गुलाबी गैंग के नाम से प्रसिद्ध हो चुका है किन्तु इसमें गैंगशब्द का अर्थ कोई गैरकानूनी गैंग नहीं है, यह गैंग फॉर जस्टिस है। हमने गुलाबी रंग अपनाया है क्योंकि यह जीवन का रंग है।’’
     आज सम्पत देवी पाल का अर्थ है एक औरत, एक निश्चय और गुलाबी गैंगयानी न्याय के पक्ष में आजीवन डटे रहना। 
  
(साभार- दैनिकनईदुनियामें 13.11.2011 को प्रकाशित मेरा लेख)




Wednesday, May 16, 2012

ना आना इस देश मेरी लाडो ......

आधी दुनिया - पूरा सच

        उन्नीस साल की एक लड़की, सांवली, दुबली और घबराई हुई। वह रेलवे स्टेशन में भटक रही थी। वह नहीं जानती थी कि कौन-सी गाड़ी कहां जाएगी। वह पढ़ना नहीं जानती थी। वह किसी से कुछ पूछ भी नहीं पा रही थी क्यों कि उसकी बोली-भाषा समझने वाला वहां कोई नहीं था। कुछ देर प्लेटफॉर्म पर भटकने के बाद वह एक कोने में बैठ कर रोने लगी। लोगों ने समझा कि वह पगली है। उसकी दशा भी उसे पगली सिद्ध कर रही थी। फटी-सी मैली साड़ी और उतारन के रूप में मिला हुआ ढीला ब्लाउज़। कुल दशा ऐसी कि मानो दस दिन से अन्न का दाना उसके पेट में न गया हो। एक कुली का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ। तब तक वहां तमाशबीनों की भीड़ लग गई और कौतूहल जाग उठा कि यह युवती कौन है? वह स्वयं को लोगों से घिरा हुआ पा कर एक बार फिर घबरा कर रोने लगी। वह रोती हुई क्या कह रही थी कोई समझ नहीं पा रहा था। उसी दौरान कोई ओडिया सज्जन उधर आ निकले तब उन्होंने बताया कि वह आंचलिक ओडिया बोल रही है। फिर उन सज्जन ने उस युवती से पूछ-पूछ कर उस युवती की जो दुख भरी गाथा सुनाई उसने सुनने वालों के रोंगटे खड़े कर दिए।
    वह युवती ब्याह कर लाई गई थी। किन्तु उसका विवाह वास्तविकता में विवाहनहीं एक प्रकार का सौदा था जिसमें उस युवती तो दो समय की रोटी के बदले बेचा गया था।
    मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड में भी ओडीसा तथा आदिवासी अंचलों से अनेक लड़कियों को विवाह करके लाया जाना ध्यान दिए जाने योग्य मसला हैं। क्योंकि यह विवाह सामान्य विवाह नहीं है। ये अत्यंत ग़रीब घर की लड़कियां हैं जिनके घर में दो-दो, तीन-तीन दिन चूल्हा नहीं जलता है, ये उन घरों की लड़कियां हैं जिनके मां-बाप के पास इतनी सामर्थ नहीं है कि वे अपनी बेटी का विवाह कर सकें, ये उन परिवारों की लड़कियां हैं जहां उनके परिवारजन उनसे न केवल छुटकारा पाना चाहते हैं वरन् छुटकारा पाने के साथ ही आर्थिक लाभ कमाना चाहते हैं। ये ग़रीब लड़कियां कहीं संतान प्राप्ति के उद्देश्य से लाई जा रही हैं तो कहीं मुफ़्त की नौकरानी पाने की लालच में खरीदी जा रही हैं। इनके खरीददारों पर उंगली उठाना कठिन है क्योंकि वे इन लड़कियों को ब्याह कर ला रहे हैं। इस मसले पर चर्चा करने पर अकसर यही सुनने को मिलता है कि क्षेत्र में पुरुष और स्त्रियों का अनुपात बिगड़ गया है। लड़कों के विवाह के लिए लड़कियों की कमी हो गई है। माना कि यह सच है कि सोनोग्राफी पर कानूनी शिकंजा कसे जाने के पूर्व कुछ वर्ष पहले तक कन्या भ्रूणों की हत्या की दर ने लड़कियों का प्रतिशत घटाया है लेकिन मात्रा यही कारण नहीं है जिससे विवश हो कर सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों की अत्यंत विपन्न लड़कियों के साथ विवाह किया जा रहा हो।  यह कोई सामाजिक आदर्श का मामला भी नहीं है। 
    खरीददार जानते हैं कि ब्याह करलाई गई ये लड़कियां पूरी तरह से उन्हीं की दया पर निर्भर हैं क्योंकि ये लड़कियां न तो पढ़ी-लिखी हैं और न ही इनका कोई नाते-रिश्तेदार इनकी खोज-ख़बर लेने वाला है। ये लड़कियां भी जानती हैं कि इन्हें ब्याहता का दर्जा भले ही दे दिया गया है लेकिन ये सिर नहीं उठा सकती हैं। ये अपनी उपयोगिता जता कर ही जीवन के संसाधन हासिल कर सकती हैं। इन लड़कियों के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह भी है कि ये अपनी बोली-भाषा के अलावा दूसरी बोली-भाषा नहीं जानती हैं अतः ये किसी अन्य व्यक्ति से संवाद स्थापित करके अपने दुख-दर्द भी नहीं बता सकती हैं। इनमें से अनेक लड़कियां ऐसी हैं जिन्होंने इससे पहले कभी किसी बस या रेल पर यात्रा नहीं की थी अतः वे घर लौटने का रास्ता भी नहीं जानती हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लौट कर जाने के लिए इनके पास कोई अपनानहीं है। जिन्होंने इन लड़कियों को विवाह के नाम पर अनजान रास्ते पर धकेला है वे या तो इन्हें अपनाएंगे नहीं या फिर कोई और ग्राहकढूंढ निकालेंगे।
     इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग़रीबी की आंच सबसे पहले औरत की देह को जलाती है। अपने पेट की आग बुझाने के लिए एक औरत अपनी देह का सौदा शायद ही कभी करे, वह बिकती है तो अपने परिवार के उन सदस्यों के लिए जिन्हें वह अपने से बढ़ कर प्रेम करती है और जिनके लिए अपना सब कुछ लुटा सकती है। लेकिन देह के खेल का एक पक्ष और भी है जो निरा घिनौना है। यही है वह पक्ष जिसमें परिवार के सदस्य अपने पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटी या बहन को रुपयों की लालच में किसी के भी हाथों बेच दें। औरतों का जीवन मानो कोई उपभोग-वस्तु हो- कुछ इस तरह स्त्रियों को चंद रुपयों के बदले बेचा और खरीदा जाता है। इस प्रकार के अपराध कुछ समय पहले तक बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में ही प्रकाश में आते थे लेकिन अब इस अपराध ने अपने पांव इतने पसार लिए हैं कि इसे मध्यप्रदेश के गांवों में भी घटित होते देखा जा सकता है। इस अपराध का रूप विवाहका है ताकि इसे सामाजिक मान्यताओं एवं कानूनी अड़चनों को पार करने में कोई परेशानी न हो। 

(‘इंडिया इनसाईड’ पत्रिका के मई 2012 अंक में प्रकाशित मेरा लेख साभार)
 
मेरा यह लेख इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -
http://indiainside.webs.com/


































इसे ‘बिहिनिया संझा’ के 17 मई 2012 के अंक में इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -  www.bihiniyasanjha.blogspot.in

 

Wednesday, May 9, 2012

प्रवासी महिला कथाकारों की कथाओं में स्त्री




- डॉ. शरद सिंह









    जब हम भू-मण्डलीकरण की बात करते हैं तो समूचा विश्व एक ‘ग्लोबल गांव’ दिखाई देने लगता है। इस ‘ग्लोबल गांव’ के लगभग हर कोने में भारतीय मूल के नागरिकों की बसाहट दिखाई देती है। भारत की स्वतंत्रता के बहुत पहले से भारतीयों ने विदेशों में जा कर बसना शुरु कर दिया था। अब तो उनकी दो-तीन पीढि़यां विदेशी धरती पर ही जन्म ले कर वहां के वातावरण में रच-बस चुकी है। जहां तक प्रश्न विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य का है तो वहां यह तथ्य स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आता है कि विदेशी धरती पर प्रवासी भारतियों की पीढि़यां भले ही गुज़र रही हों लेकिन अपनी मूल माटी, अपने मूल भारतीय संस्कारों और मूल भारतीय विचारों से वे आज भी कटे नहीं हैं। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष उन स्त्रियों से जुड़ा हुआ है जो भारतीय मूल की हैं और प्रवासी के रूप में विदेशों में जीवनयापन कर रही हैं। इन स्त्रिायों को अपनी मूल संस्कृति का भी पोषण करना होता है और जहां रह रही होती हैं वहां की संस्कृति के अनुरुप भी स्वयं को ढालना होता है। ऊपरी तौर पर देखने से यही प्रतीत होता है कि भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव इतना अधिक पैर पसार चुका है कि अब भारतीय लड़कियों या स्त्रियों को विदेशी भूमि में जा कर बसने में कठिनाई का अनुभव पहले की अपेक्षा बहुत कम होता होगा। किन्तु प्रवासी महिला कथाकारों की कहानियों में जो स्त्री उभर कर सामने आती है, वह एक अलग ही जीवन-कथा कहती है। यह जीवन कथा स्त्री के अंतर्द्वन्द्व की है, यह जीवन कथा दो भिन्न संस्कृतियों के बीच मालमेल बिठाते रहने की है, यह जीवन-कथा स्त्री के उस पक्ष की है जिसमें वह स्वतंत्र दिखती है किन्तु अपने जातीय (भारतीय) संस्कारों के कारण स्वयं को पाश्चात्य शैली में स्वतंत्र कर नहीं पाती है। इस प्रकार वह दोहरे दायित्व को वहन करती रहती है।
     प्रवासी भारतीय रचनाकारों में महिला कथाकारों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण कही जा सकती है। इन कथाकारों ने विदेशों में बसने वाली भारतीय स्त्रियों के मानसिक, सांस्कृतिक और वैचारिक संघर्ष को बडे़ ही विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्रवासी महिला कथाकारों में प्रमुख नाम हैं -अमेरिका की उषा प्रियवंदा, सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, पुष्पा सक्सेना, इला प्रसाद, रचना सक्सेना, सोमा वीरा, सीमा खुराना आदि, कनाडा की शैलजा सक्सेना, डेनमार्क की अर्चना पैन्यूली, फ्रांस की सुचिता भट, ब्रिटेन की उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, जकिया जुबैरी, अचला शर्मा, कादम्बरी मेहरा, दिव्या माथुर आदि, संयुक्त अरब अमीरात की पूर्णिमा वर्मन, स्वाती भालोटिया आदि, कुवैत की दीपिका जोशी आदि। ये सभी लेखिकाएं स्त्री-जीवन के विविध पहलुओं पर गंभीरता से दृष्टिपात करते हुए सम्पूर्ण समाज के आचरण की गहराई से मीमांसा करती हैं। सभी प्रवासी लेखिकाओं पर एक लेख में चर्चा करना अति विस्तार का विषय हो जाएगा अतः इस लेख में पांच लेखिकाओं की एक-एक कहानी पर चर्चा की जा रही है। ये पांचों कहानियां परस्पर भिन्न कथानकों पर आधारित हैं। ये कहानियां हैं - सुषम बेदी की ‘संगीत पार्टी’, जकिया जुबैरी की ‘मारिया’, अचला शर्मा की ‘चौथी ऋतु’, पूर्णिमा वर्मन की ‘यूं ही चलते हुए’ और दिव्या माथुर की ‘2050’।
सुषम बेदी

  अमेरिका में रह रहीं सुषम बेदी की कहानियों में भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के बीच उहापोह में जीते भारतियों की मानसिक दशा और जीवनचर्या का सटीक चित्रण मिलता है। उनकी कहानी ‘संगीत पार्टी’ भी इसी तरह के कथानक पर आधारित है। यह कहानी तेईस वर्ष की आयु की एक ऐसी लड़की की है जिसका पालन-पोषण अमेरिका में हुआ। उस लड़की के विवाह को ले कर चिन्तित हैं। इससे भी अधिक चिन्तित हैं कि उनकी बेटी उन्मुक्त अमेरिकी समाज के आचरण को अपनाते हुए किसी ऐसे जीवनसाथी को न चुन ले जो उसके योग्य न हो। 

जकिया जुबैरी

 लंदन में रहने वाली जकिया जुबैरी लेबर पार्टी के टिकट पर दो बार चुनाव जीत कर काउंसलर निर्वाचित हो चुकी हैं। जकिया जुबैरी ने हिन्दी और उर्दू के बीच की दूरी को पाटने के लिए विश्व हिन्दी सम्मेलन-2007 में महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। जकिया जुबैरी की कहानियों में स्त्रियों का मनोवैज्ञानिक पक्ष विश्लेषणात्मक रूप में सामने आता है। 

अचला शर्मा
ब्रिटेन में ही रहने वाली अचला शर्मा ने बी.बी.सी की हिन्दी सेवा से से संबद्ध रहीं तथा अध्यक्ष पद भी उन्होंने सम्हाला। उनकी कहानी ‘चौथी ऋतु’ लगभग सत्तर साल की एक बूढ़ी की हृदयस्पर्शी कहानी है। यह स्त्री के अकेलेपन का एक ऐसा कोलाज़ बनाती है जिसमें वृद्धावस्था में अकेलेपन का एक-एक रंग साफ-साफ दिखाई देता है। 

पूर्णिमा वर्मन
  संयुक्त अरब अमीरात में रहने वाली पूर्णिमा वर्मन का साहित्य जगत से घनिष्ठ संबंध है। वे बेव पत्रिका की संपादन के साथ विविध विधाओं के लेखन से भी जुड़ी हुई हैं। ‘यूं ही चलते हुए’ पूर्णिमा वर्मन की एक महत्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी से गुज़रते हुए प्रवासी स्त्री-जीवन के एक साथ अनेक पक्ष देखने को मिल जाते हैं कि वे किस तरह परिस्थितियों से तालमेल बिठा कर स्वयं को उसके अनुरुप ढालती रहती हैं। इसी तथ्य को लेखिका ने भी बड़े ही सहज ढंग से पाठकों के सामने रखा है।

दिव्या माथुर
ब्रिटेन में रहने वाली दिव्या माथुर अपनी कहानियों में प्रवासी स्त्रियों के वर्तमान के साथ ही भविष्य का चिन्तन भी करती हैं। उनकी एक चर्चित कहानी ‘2050’ वस्तुतः उस ‘फ्यूचर विज़न’ की कहानी है जब ब्रिटेन में रहने वाली एशियाई स्त्री को मातृत्व के लिए तरसना पड़ेगा, छटपटाना पड़ेगा और तत्कालीन ब्रिटिश नियमों के तहत ‘समाज सुरक्षा परिषद’ से अनुमति मिले बिना कोई भी स्त्री मां नहीं बन सकेगी।
    यदि समग्र प्रवासी साहित्य पर दृष्टि डाली जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि प्रवासी महिला कथाकार पूरी संवेदना और गंभीरता के साथ कथालेखन में संलग्न हैं और उनकी कहानियों में मिलने वाली स्त्रियां दो विपरीत संस्कृतियों के बीच सेतु बन कर संघर्षरत रहने की मर्मस्पर्शी कथा कहती हैं। ये स्त्रियां कहीं से भी लाचार या थकी हुई नहीं है, वे सक्षम हैं अपने लिए रास्ता ढूंढने में और भावी पीढ़ी को रास्ता दिखाने में। वस्तुतः प्रवासी महिला कथाकारों की ये कहानियां हिन्दी साहित्य का महत्वपूर्ण एवं अभिन्न हिस्सा हैं।

(विगत 27-28 अप्रैल 2012 को श्री अरविन्द महिला कालेज पटना बिहार में ‘समकालीन हिन्दी कथा साहित्य और महिला लेखन’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत किए गए मेरे लेख का सारांश जो स्मारिका में प्रकाशित है. यह लेख विस्तृत रूप में पुस्तक में कालेज द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है.