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डॉ. शरद सिंह
इसमें कोई दो मत नहीं कि महात्मा
गांधी के विचार कालजयी हैं। दुख तो तब होता है कि गांधी के देश में कोई डी आई जी
पद का अधिकारी कहता है कि यदि मेरी बहन अपने प्रेमी के साथ घर से भागती तो मैं उसे
गोली मार देता। उस समय पीड़ा होती है जब न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति कहता
है कि पत्नी को पति के हाथों मार खाने से मना नहीं करना चाहिए। कई बार यह हुआ है
कि जब महात्मा गांधी के स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण का विषय उठता है तो कस्तूरबा
के प्रति उनके कठोर व्यवहार पर जा ठहरा है। चूंकि ऐसे समय में गांधी के व्यक्तिगत
जीवन के समक्ष उनके सर्ववादी विचारों को अनदेखा किया गया। महिलाओं को सशक्त बनाने
की कोशिश ही गांधी के नारी आंदोलन की बुनियाद थी। गांधी मानते थे कि स्त्रियों को
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समकक्ष सशक्त होना चाहिए। वे राजनीति में
महिलाओं की सहभागिता के पक्षधर थे। वस्तुतः गांधी का अहिंसावादी आंदोलन स्त्रियों
की उपस्थिति के कारण अधिक सार्थक परिणाम दे सका। इस तथ्य को गांधी जी ने स्वीकार
करते हुए एक बार कहा था कि स्त्रियां प्रकृति से ही
अहिंसावादी होती हैं। स्त्रियां पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील और सहृदय
होती हैं अतः स्त्रियों की उपस्थिति से अहिंसावादी आन्दोलन एवं सत्याग्रह अधिक
कारगर हो सकते हैं।
महात्मा गांधी स्त्रियों को अबला
कहने के विरोधी थे। वे मानते थे कि स्त्री पुरुषों की भांति सबल और शक्ति सम्पन्न
है। जिस प्रकार एक सशस्त्र पुरुष के सामने निःशस्त्र पुरुष कमजोर प्रतीत होता है, ठीक उसी तरह सर्वअधिकार प्राप्त
पुरुषों के सामने स्त्री अबला प्रतीत होती है जो कि वस्तुतः अबला नहीं है। उनका
कहना था कि उन्हें अबला पुकारना महिलाओं की आंतरिक शक्ति
को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें
मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में
वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं।
गांधी जी मानते थे कि स्त्रियों
की उपस्थिति पुरुषों को भी आचरण की सीमाओं में बांधे रखती है। यही कारण है कि
उन्होंने कांग्रेस में महिलाओं को नेतृत्व का पूरा अवसर दिया। विभिन्न आंदोलनों
में स्त्रियों को भरपूर अवसर दिया। उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत स्त्रियों के
सामाजिक,
शैक्षिक,
आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। वे स्त्रियों को एक स्त्री
के रूप में न देख कर एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखते थे। वे स्त्रियों को
सम्पत्ति पर पुरुषों के बराबर स्वामित्व दिए जाने के भी पक्षधर थे।
इससे भी बढ़ कर गांधी ने उस विचार
का समर्थन किया जिस पर आज भी वाद-विवाद चलता रहता है। गांधी का मानना था कि विवाह
के बाद भी स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार रहता है। इसलिए उसकी अनुमति के बिना
उसकी देह को स्पर्श करने का किसी भी पुरुष को अधिकार नहीं है, वह पुरुष भले ही उसका पति ही
क्यों न हो। यह एक ऐसा विचार था जो स्त्री को एक व्यक्ति का दर्जा देने के साथ ही
उसके अधिकारों की पूर्णता पर भी मुहर लगाता है। पुरुषसत्तात्मक सामंती सामाजिक
व्यवस्था ने गांधी के इस विचार को गहरे दबा दिया और सोलहवीं शताब्दी की उसी
परिपाटी को जिलाए रखा कि मां, बहन, पत्नी के रूप में स्त्री पुरुष की
सम्पत्ति होती है। वह न अपनी इच्छा से जीवन साथी चुन सकती है, न तो अपने ढंग से अपना जीवन जी
सकती है और अब तो एक बार फिर यह तय किया जाने लगा है कि स्त्रियां क्या पहनें, क्या नहीं या फिर वे बाज़ार-हाट
जाएं या नहीं। उस पर एक विज्ञापन ने तो हद कर दी है कि छेड़छाड़ से बचना है तो फोन
कर के घर पर सामान मंगवा लें।
कई बार इस बात पर भी उंगली उठाई
गई कि गांधी जी युवतियों के कंधे पर हाथ रख कर चलते थे। इस तथ्य का दूसरा पहलू
देखें तो कि गांधी स्त्रियों और पुरुषों के आपसी व्यवहार को सहज भाव से ले कर चलने
का संदेश देना चाहते थे। आज तो स्थिति इसके ठीक विपरीत है। आज भाई भी अपनी बहन को
अपने साथ ले कर चलने में हिचकता है कि कहीं लोग भाई-बहन को प्रेमी-प्रेमिका न समझ
बैठें। यही तो सोच का अन्तर है। गांधी इसी सोच को बदलना चाहते थे। वे स्वयं
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। इतना कठोर पालन कि उन्होंने कस्तूरबा से भी
संतानोत्पत्ति तक ही दैहिक संबंध रखा। वे संभवतः सिद्ध करना चाहते थे कि पुरुषों
में भी इच्छाओं पर लगाम लगाने की क्षमता होती है, वह भी स्त्रियों के स्पर्श एवं
उपस्थिति होते हुए भी। वे योगियों अथवा साधुओं वाले ब्रह्मचर्य को नहीं अपितु एक
सामान्य पुरुष के आत्म संयम के ब्रह्मचर्य को सामने रखना चाहते थे। यदि गांधी के
ब्रह्मचर्य की सही व्याख्या समाज के सामने समय रहते आई होती आज सामाजिक परिदृश्य
कुछ और होता। आज स्त्रियों को खाप-पंचायतों के तानाशाही फरमान नहीं सुनने पड़ते और
न ही महानगरों के भीड़ भरे चौराहे पर आवारा शोहदों के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता।
महात्मा गांधी मानते थे कि
सामाजिक व्यवस्था ने स्त्रियों को संयमित रहने का पाठ हमेशा पढ़ाया है किन्तु
पुरुषों को भी इस संयम के पाठ की आवश्यकता है। वस्तुतः महात्मा गांधी के स्त्री
विमर्श को गहराई से समझने आवश्यकता आज भी है।
(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनिया’ में 30.09.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)