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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 30, 2023

पुस्तक समीक्षा | रक्तरंजित महत्वाकांक्षा की एक प्रामाणिक अपराध कथा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 30.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई   लेखक संजय सिंह की बहुचर्चित पुस्तक "एक थी शीना बोरा" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
रक्तरंजित महत्वाकांक्षा की एक प्रामाणिक अपराध कथा
 - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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अपराध कथा - एक थी शीना बोरा
लेखक      - संजय सिंह
प्रकाशक     - राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, जी-17, जगतपुरी, दिल्ली- 110 051
मूल्य        - 399/-
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सच लिखना हमेशा कठिन होता है। उस समय यह और भी जोखिम भरा होता है जब किसी अपराध का सच लिखा जा रहा हो और वह भी वर्तमान में घटित अपराध का। एक डिस्क्लेमर कि ‘‘पात्रों ओर घटनाओं का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से संबंध नहीं है तथा घटनाओं का किसी घटना से मिलान होना संयोग मात्र है।’’ -लेखक को बहुत बड़े संकट से बचा लेता है। इस तरह का डिस्क्लेमर लेखक के लिए ‘सेफ्टीबेल्ट’ होता है। जो किसी भी संभावित आपदा से लेखक को साफ़ बचा ले जाता है। लेकिन संजय सिंह का शुमार ऐसे लेखकों में नहीं है। उन्होंने जिस तरह एक क्राइम इन्वेस्टिगेटर के रूप में पत्रकारिता की है, वही ‘दुस्साहसी प्रवृति’ उनकी किताबों में एक के बाद एक देखने को मिल रही है। चलिए, पहले लेखक के बारे में ही कुछ चर्चा कर ली जाए। जैसा कि ‘‘एक थी शीना बोरा’’ के कव्हर के आंतरिक पृष्ठ पर लेखक का परिचय दिया गया है-‘‘ संजय सिंह क्राइम और इन्वेस्टिगेटिव लेखन व पत्रकारिता की दुनिया के चर्चित नाम हैं। उनका जन्म 4 मार्च, 1971 को मुम्बई में हुआ। वहीं पले-बढ़े। मुम्बई यूनिवर्सिटी से पी-एच. डी. और एलएलबी की उपाधि प्राप्त की। पिछले ढाई दशक से ज्यादा समय से वे पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। बतौर पत्रकार उन्होंने ‘‘शीना बोरा मर्डर केस’’ को कवर किया है। जी न्यूज, एनडीटीवी, टाईम्स नाउ, आईबीएन, न्यूज-एक्स जैसे प्रमुख चैनलों में सीनियर पदों पर रहे संजय ने इस दौरान क्राइम और खोजी पत्रकारिता में अपनी खास पहचान बनाई। ‘तेलगी स्टैम्प स्कैम’ का पर्दाफाश उनकी पत्रकारिता का एक जरूरी उदाहरण है। इसी स्कैम पर लिखी गई उनकी किताब ‘‘तेलगी स्कैम’’ रिपोर्टर की डायरी’’ पर ‘‘स्कैम 2003: द तेलगी स्टोरी’’ नाम से एक वेब सीरीज बन रही है। उनकी एक और किताब ‘‘सीआईयू: क्रिमिनल इन यूनीफार्म’’ भी धूम मचा चुकी है। यह किताब हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी में प्रकाशित हुई है। इस किताब पर भी एक वेब सीरीज बन रही है।’’
इसी समीक्षा काॅलम में मैं ‘‘सीआईयू: क्रिमिनल इन यूनीफार्म’’ के बारे में पूर्व में लिख चुकी हूं। उस पुस्तक को पढ़ने के बाद संजय सिंह के लेखन के प्रति मेरा आश्वस्त होना स्वाभाविक था। अब ‘‘एक थी शीना बोरा’’ वह धमाका है जो हिन्दी कथा जगत को कोरे-फिक्शन के बजाए सत्यलेखन के और करीब लाएगा। इस पुस्तक में लेखक द्वारा सच का उद्घाटन उसके डिस्क्लेमर से ही आरम्भ हो जाता है, जब लेखक संजय सिंह साफ़गोई से लिखते हैं कि-‘‘इस किताब को बिना किसी पूर्वग्रह और दुर्भावना के लिखा गया है। ‘‘शीना बोरा मर्डर’’ का मामला अभी अदालत में चल रहा है। इस किताब का उद्देश्य किसी भी तरह से उस केस, उसके किसी पहलू या उससे जुड़े किसी व्यक्ति, आरोपी, जांच एजेंसी या आम पाठक को किसी व्यक्ति विशेष या संस्था के बारे में प्रभावित करना नहीं है। लेखक मानता है कि बिना अदालती फैसला आए किसी आरोपी को दोषी करार देना उचित नहीं है और यह किताब भी ऐसा कोई प्रयास नहीं करती। बतौर पत्रकार लेखक के अपने व्यक्तिगत अनुभवों के अलावा यह किताब ‘‘शीना बोरा मर्डर’’ से जुड़ी उपलब्ध जानकारियों को सिलसिलेवार तरीके से पिरोकर एक जटिल मामले को सरल तरीके से समझाने का प्रयास मात्र है। इसके लिए अदालत में पेश दस्तावेजों और सबूतों के अलावा अन्य सामग्री का सहारा भी लिया गया है। सम्बन्धित लिंक किताब के आखिर में ‘‘सन्दर्भ सूची’’ में दिए गए हैं।’’
अर्थात् प्रथम पृष्ठ से ले कर अंतिम पृष्ठ तक खांटी सच्चाई। लेखक ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि इस पुस्तक को लिखने के लिए उन्हें शीना बोरा केस के सोलह हजार पृष्ठ के दस्तावेज पढ़ने पड़े थे। लेखक का दावा सच है क्योंकि उन सोलह हजार पृष्ठों में से अनेक तथ्य इस पुस्तक में मौजूद हैं। लेखक ने विधि मुखर्जी की किताब ‘‘द डेविल्स डॉटर’’ से भी जानकारी बटोरी हैं क्योंकि विधि मुखर्जी इस पूरे घटनाक्रम से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रहीं। इन जानकारियों को संजय सिंह ने बाकायदा विधि और उसकी किताब के नाम सहित उद्धृत किया है।  
अब बात करते हैं ‘‘शीना बोरा मर्डर’’ केस की। वर्ष 2015 में घटित शीना बोरा हत्याकांड ने सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। यह एक हाईप्रोफाईल हत्याकांड था। 1989 में जन्मी शीना बोरा एक ऐसी युवती थी जिसने अपने संक्षिप्त जीवन में अविश्वनीय रिश्ते पाए और फिर एक दिन अपनों के हाथों मारी गई। शीना बोरा तत्कालीन ‘‘मीडिया मुगल’’ कहे जाने वाले शक्तिशाली व्यक्ति पीटर मुखर्जी की दूसरी पत्नी इन्द्राणी मुखर्जी की पहली बेटी थी। इस घटना से यही पता चलता है कि जहां अतिमहत्वाकांक्षा हो वहां अपनों के रक्त से हाथ रंगने में भी संकोच नहीं किया जाता है। महत्वाकांक्षा का एक घिनौना चेहरा। एक अविश्वसनीय-सी लगने वाली सच्ची कथा। लेखक संजय सिंह ने जिस विस्तार और बारीकी से इस उलझे हुए घटनाक्रम को सुलझाने और सिलसिलेवार प्रस्तुत करने का श्रमसाध्य काम किया है, वह सचमुच प्रशंसनीय है। पुस्तक के आरम्भ में ही लेखक ने ‘‘रिश्तों के मकड़जाल’’ शीर्षक से इस घटना के सभी संबंधित व्यक्तियों के पारस्परिक रिश्तों को सामने रखा है। जैसे- इंद्राणी मुखर्जी दुर्गा और उपेंद्र बोरा की बेटी थी। जिसके पहले कथित पति सिद्धार्थ दास से दो बच्चे थे- शीना और मिखाइल। दूसरे पति संजीव खन्ना से एक बेटी विधि और तीसरे पति पीटर मुखर्जी ने विधि को गोद ले लिया था। जबकि पीटर मुखर्जी जो स्टार टीवी इंडिया का प्रमुख था, की पहली शादी शबनम सिंह हुई थी। जिससे उसके दो बेटे थे - रॉबिन और राहुल। शीना बोरा इंद्राणी के पहले पति सिद्धार्थ दास से पैदा हुई बेटी थी लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के चलते इंद्राणी ने दुनिया के सामने शीना को अपनी बहन बताकर प्रस्तुत किया। आगे चल कर शीना का उस राहुल से प्रेम हो जाता है तथा सगाई होती है जो उसका किसी भी तरह से रक्तसंबंधी नहीं था लेकिन सामाजिक ढांचे के अनुसार उसका सौतेले भाई था। यही राहुल शीना का न केवल संरक्षक बना बल्कि उसके लापता होने के बाद उसे ढूंढे जाने का लगातार दबाव बनाता रहा। इस षडयंत्र और हत्याकांड की कथा का दो मधुर पक्ष था कि शीना बोरा के मन में इस बात का सदा मलाल रहा कि उसकी मां इन्द्राणी ने उसे न तो सार्वजनिक रूप से अपनी बेटी माना और न मां का प्यार दिया जबकि उसकी सौतेली बहन को बेटी होने का गौरव मिलता रहा। फिर भी शीना और विधि के बीच आपसी प्रेम बना रहा। विधि ने भी सच जानने के बावजूद शीना के प्रति बहनापा बनाए रखा।
इस लोमहर्षक जघन्य हत्याकांड में दूसरा सुंदर पक्ष था राहुल और शीना बोरा का आपसी प्रेम। किसी फिल्मी या टीवी सिरीज़ की खलनायिका की भांति इंद्राणी द्वारा दोनों को एक-दूसरे से अलग करने के सारे हथकंडे अपनाएं गए जो विफल होते गए, क्योंकि दोनों को एक-दूसरे से असीम प्रेम था। इस संबंध ने लेखक संजय सिंह ने भी ‘पोएटिक एप्रोच’ के साथ उस समय का वर्णन किया है जब शीना से राहुल का कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था और राहुल किसी अनहोनी के भय से ग्रस्त हो कर लापता की रिर्पोट लिखवाने के लिए विभिन्न थानों के चक्कर लगा रहा था। लेखक ने लिखा है-‘‘मृग परेशान है। उसे कस्तूरी नहीं मिल रही है। वह लगातार उसे खोज रहा है। यहां-वहां क्रंकीट के जंगल में भटक रहा है। उसकी कस्तूरी के बारे में, जो बहेलिया जानता है वह उसे दिलासा दे रहा है कि उसकी कस्तूरी ठीक है। पर वह उसे उसकी कस्तूरी लौटा नहीं रहा है। न ही वह उसे उसका अता-पता बता रहा है। मृग चाहता है कि जंगल के दूसरे पशु इस मामले में उसकी मदद करें। सब मिलकर बहेलिये पर दबाव डालें, जिससे वह मृग की कस्तूरी का पता बता सके। या फिर बातचीत में ही भूलवश कुछ सच उगल दे। बहेलिया कहता है कि उसे पता है कि उसकी कस्तूरी कहाँ है। पर कस्तूरी नहीं चाहती कि बहेलिया उसका पता मृग को दे। कस्तूरी के जो दूसरे मित्र, रिश्तेदार या दोस्त हैं, उन्हें अगर कस्तूरी की फिक्र है तो वे भी मृग से पूछने की बजाय बहेलिये से उसके बारे में पूछ सकते हैं। बहेलिया कस्तूरी और मृग के बीच चट्टान बनकर खड़ा हो गया है। मृग चाहता है कि वह हट जाए या उसे जबरदस्ती हटा दिया जाए। पर बहेलिया इतना मजबूत और चैकस है कि वह अपने खिलाफ कोई सुराग नहीं छोड़ रहा है। जैसे ही उसे अपनी किसी गलती का एहसास होता है वह तुरन्त उसे दुरुस्त कर देता है। बहेलियों की इन सुघड़ चालों के आगे मृग बेबस, असहाय और उदास खड़ा है। रातों को जाग-जाग उठता है। अपनी कस्तूरी के बारे में फिक्रमंद होता है। कोई रास्ता नहीं मिलने पर रोने लगता है, उस मासूम स्कूली बच्चे की तरह जिसका सबसे प्यारा दोस्त उसे बिना बताए कहीं चला गया है।’’
इस तरह लेखक ने राहुल की मनोदशा और व्याकुलता को बड़े मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है। हत्याकांड की रक्तिम कथाभूमि पर हरी दूब-सी कोमल भावनाओं को सटीक ढंग से पिरोया गया है।
शीना बोरा एक ऐसा हत्याकांड रहा है जिसके सामने आने में तीन साल से अधिक समय लग गया और अदलतों में इससे भी कहीं बहुत अधिक। टीवी और अखबारों की सुर्खियां बना रहा यह मामला। कुल मिला कर मामला इस प्रकार था कि इन्द्राणी मुखर्जी जो अतिमहत्वाकांक्षी महिला थी, उसने अपने विवाह संबंधों को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाया। इसमें उसके पहले कथित पति से जन्मीं संतानें शीना और मिखाईल उसे अपने रास्ते की बाधा महसूस हुए। इसीलिए उसने उन्हें अपने माता-पिता को गोद दे दिया। जब शीना को इस सच का पता चला तो उसने इन्द्राणी से अपना अधिकार मांगा। इन्द्राणी ने उसे इस बात के लिए दबाव दे कर मना लिया कि यदि वह और मिखाईल स्वयं को इन्द्राणी के भाई-बहन कहेंगे तो वह उनकी पढ़ाई का पूरा खर्चा देगी। मजबूरी में शीना और मिखाईल को मानना पड़ा। इन्द्राणी के पास मुंबई आने पर शीना की भेंट सौतेले पिता पीटर की पहली पत्नी के बेटे राहुल से हुई। राहुल और शीना दोनों ही एक-दूसरे के दुख को समझते थे, इसीलिए उनमें पहले मित्रता हुई फिर गहरा प्रेम हो गया। यह इंद्राणी को नागवार गुज़रा और उसने अनेक षडयंत्र किए। एक दिन अचानक शीना गायब हो गई। इंद्राणी ने कहा कि वह राहुल से ‘ब्रेकअप’ चाहती थी इसलिए अपने नए प्रेमी के साथ अमेरिका चली गई है। राहुल को यह बात हजम नहीं हुई। एक लंबे संघर्ष के बाद अचानक नाटकीय घटनाक्रम के दौरान पुलिस के सामने इन्द्रणी के ड्राईवर श्यामवर राय ने उस जघन्य अपराध का सच उगल दिया जिसमें इंद्राणी के साथ वह और इंद्राणी का दूसरा पति संजीव खन्ना (विधि का असली पिता) शामिल थे। जिसने भी इस सच को सुना वह चकित रह गया कि कोई मां अपनी सगी बेटी को गला दबा कर मार कर, फिर पेट्रोल डाल कर कैसे जला सकती है? वह भी एक पढ़ी-लिखी, हाई प्रोफाईल तबके की मां। मात्र अपनी ‘इमेज’ और महत्वाकांक्षा के लिए?    
 लेखक ने इस पूरे घटनाक्रम की न केवन बारीकी से पड़ताल की है बल्कि उन वास्तविक ईमेल्स और फोनटेप को क्रमवार दिया है जो साक्ष्य के रूप में सामने आए। इस सामग्री से यह पुस्तक एकदम प्रमाणिक हो उठी है। पुस्तक में शीना की जली अस्थियां देखने वाले सबसे पहले व्यक्ति गणेश धेने से लेकर मुंबई पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया तक की गतिविधियों का उल्लेख है। दरअसल, जब घटना घटी उन दिनों लेखक जी न्यूज के रेसीडेंट एडीटर थे। अपनी पूरी टीम के साथ इस केस को उन्होंने खंगाला था। अब उन तथ्यों को अपनी पुस्तक ‘‘एक थी शीना बोरा’’ के रूप में बड़े रोचक अंदाज़ में सामने रखा है। इस पुस्तक को पढ़ना पाठकों के लिए सचमुच दिलचस्प रहेगा। रक्तरंजित महत्वाकांक्षा की एक प्रामाणिक अपराध कथा, जिसे पढ़ कर ही पूरी तरह समझा जा सकता है। विशेष यह कि यह पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही बेस्टसेलर श्रेणी में जा पहुंची है जिसका पूरा श्रेय लेखक की दुस्साहस भरी लेखनी को दिया जाना चाहिए।
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Sunday, May 28, 2023

ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नरवानी एवं पुराना पानी | Part - 2

❤️ लीजिए हाज़िर है मेरी एक छोटी-सी घुमक्कड़ी का Part-2 ... 🐒
🚩मकरोनिया से बटालियन रोड होते हुए फोरलेन यानी NH 44 का रास्ता...
🚩बस्तियां फैलती जा रही हैं... खेत प्लाट्स में बदल रहे हैं... पहाड़ियां और टीले कहीं प्लाटिंग की भेंट चढ़ रहे हैं तो कहीं गिट्टी क्रशर की... सब अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हैं, मस्त हैं... प्रकृति और पैसे के बीच चुनाव स्वविवेक का विषय है... 🤷
🚩ख़ैर, बहुत कुछ है जो अभी सुरक्षित बचा है और राहत देता है ... धार्मिक स्थल के रूप में ही सही... प्रकृति और अतीत की सुंदरता वहां साझा मौज़ूद है... जी हां, मैं बात कर रही हूं ग्राम नरवानी की... वही गांव जहां एक दादाजी मिले थे और उन्होंने सेमल के वृक्ष को "कोनऊं काम को नोई" डिक्लेयर कर दिया था... इसमें दोष उनका नहीं, दोष ज्ञान और संसाधनों की कमी का है ...
🚩ग्राम नरवानी के बाहरी ओर सड़क के किनारे मुझे एक मंदिर दिखाई दिया... मुझे बताया गया कि यह लगभग सौ - डेढ़ सौ साल पुराना है... अंग्रेजों के जमाने का... मंदिर परिसर का नाम मुझे बहुत रोचक लगा "पुराना पानी" ! 
    इतना विवरण सुनकर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और जब मैं मंदिर परिसर में पहुंची तब मुझे समझ में आ गया उसका नाम "पुराना पानी" क्यों है? 
    🌳 वह मंदिर वस्तुतः शिव मंदिर था... मंदिर परिसर में एक बहुत ही पुराना वृक्ष लगा हुआ था जिसमें सहजीवन का अद्भुत दृश्य था.... उस पुराने वृक्ष के सहारे अनेक छोटे-छोटे पेड़ तथा लताएं फल-फूल रही थीं ... ऐसे दृश्य प्रायः जंगल में ही देखने को मिलते हैं... उस मंदिर परिसर में यह दृश्य देखकर मन प्रसन्न हो गया... 
 🚩.. और मैंने सोचा कि उस वृक्ष के नीचे 2 मिनट ध्यान अवस्था में बैठ लिया जाए 🧘 ... यह तो तय था कि 2 मिनट में मुझे 'बुद्धत्व' तो  मिलने वाला था नहीं.. लेकिन वहां चल रही ठंडी हवा और शुद्ध प्राकृतिक वातावरण आत्मिक प्रसन्नता का जो बोध करा रहा था, वह अद्भुत था ..😌
 🚩 उस वृक्ष से 10 कदम दूर पर एक पुराना कुआं था... बहुत विशाल कुआं... पत्थर की चिनाई वाला पुराना कुआं .... उसको देखते ही समझ में आ गया कि परिसर का नाम "पुराना पानी" क्यों पड़ा होगा... कुएं के पास खजूर का पेड़ भी था..
  💁 मुझे कुए के साथ फोटो खिंचवाने का मन हुआ और बाद में अपने इस मन पर पछतावा भी हुआ😄 ... क्योंकि मेरी ड्रेस का जो कलर कॉन्बिनेशन फोरलेन के Hazard marker साथ मज़ेदार लग रहा था, वही कुए के साथ खिंचवाई गई फोटो को देखने के बाद मुझे खुद डर लगने लगा👻🥺 💀 इतना बकवास कांबिनेशन कि वह किसी हॉरर फिल्म का सीन नज़र आ रहा था... 😀😀😀
    🤓आप लोगों को भी मेरी सलाह है कि किसी पुराने कुएं के साथ ब्लैक एंड व्हाइट कपड़े पहन कर कभी फोटो न खिंचवाएं... उस पर कम से कम बाल तो बिल्कुल भी खुले ना रखें...😂🤣😃
    🚩 बहरहाल, मंदिर और परिसर दोनों ही बेहद ख़ूबसूरत हैं प्रकृति के बहुत क़रीब और आनंददायक...😍
... वैसे बाद में मुझे यह भी पता चला कि इस स्थान पर रजनीश भी ध्यान लगाने आया करते थे... 
  🚙 सो, कुल मिलाकर यह एक शानदार मिनी घुमक्कड़ी रही 😊👌🌴🌳
🚩Every journey gives a new experience, be it small or big. - Dr (Ms) Sharad Singh's advice 🙋🤩❤️
🚶🏃🚴🚙🚜🛤️

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Article | Keep Clean Water Sources For Watery Future | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article 
Keep Clean Water Sources For Watery Future
       -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
*Just think what will happen to us if we do not get drinking water? Then even if we get water and it is polluted then what will happen to us? There are many people in our country who have to face difficulties to get drinking water. There are many people who do not get clean drinking water and they along with their families keep on battling with various serious diseases. Water, and that too clean water, is very important for our life. Knowing this, don't know why we became careless. We dirty up or plug up our old wells. After drying up the old stepwells, buildings were erected on that land. Big ponds were made smaller and small ponds dried up and settled on that land too, as if buildings are needed more than water.*
 
Those whose homes get drinking water through taps, they cannot understand the problems of those who have to walk 1-2 kilometers or stand in long queues to get drinking water and wait for their turn. To make the filtered water coming from the tap more cleaner, RO etc. water cleaners are used. Whereas the person who gets a bucket of water while standing in a long line does not even knows that how clean is the water he has got with great effort? Same condition of those who bring water from those water sources which are no longer clean. For such helpless people, the availability of water is important, not its cleanliness, because they know that dirty water may give them disease but will save them from dying of thirst.
It is a truth that we have no lots of sources of drinking water. In total 71% of the Earth's surface is covered in water. Of this, 97% is salt water and only 3% is fresh water. We are taught this thing in schools since childhood, but as soon as we mature, we forget this important thing by drowning in our selfishness.
I myself have seen three big old wells dried up and houses built on them. Of course those wells were on someone's private land but should anyone have private rights over the source of water? The owners of those wells should have got their houses designed in such a way that their houses would have been built and the wells would have been saved. But alas they did not understand the importance of wells. The government colony where I spent my childhood also had two old wells. Both were big wells of the era of kings. They were always filled to the brim with clean water. The people around him also used to take water from them. A few years ago I got the opportunity to visit that colony once again. I was shocked to see that both the wells were in bad condition. The water was dirty. Both those wells were slowly dying. Destroying water sources like this is just like cutting the branch on which we are sitting.
For some time 'Save Water Sources Campaign' was run. I was also involved in that. I also contributed in cleaning the old wells and step wells. But we could save only a few water sources. We had access only to public water sources. Water sources located on private land were dried up by their owners. We could only explain to them, but by the law could not take any action. 
According to the latest report of the United Nations, 26% of the world's people do not have access to clean water. 46% of the world's people do not get water for sanitation. At the same time, 200 crore people face water shortage for one month in a year. The number of people who are currently struggling with water scarcity in the world, soon that figure will also increase. Access to safe water, sanitation and hygiene is the most basic human need for health and life. Demand for water is rising owing to rapid population growth, urbanization and increasing water needs from agriculture, industry, and energy sectors. Decades of misuse, poor management, over extraction of groundwater and contamination of freshwater supplies has exacerbated water stress. In addition, countries are facing growing challenges linked to degraded water-related ecosystems, water scarcity caused by climate change, underinvestment in water and sanitation and insufficient cooperation on transboundary water. To reach universal access to drinking water, sanitation and hygiene by 2030, the current rates of progress would need to increase fourfold. Achieving these targets would save 829,000 people annually, who die from diseases directly attributable to unsafe water, inadequate sanitation and poor hygiene practices.
India is battling a double whammy in terms of drinking water. On one hand the water crisis is increasing in the country and on the other hand water is being wasted in the process of cleaning the water. In July 2020, NGT took tough decisions with the aim of stopping the wastage of water due to RO. National Green Tribunal (NGT) NGT had directed the Ministry of Environment to ban the use of RO in places where the amount of TDS in water (TDS) is less than 500 mg per liter and people People should also be made aware of the disadvantages of dematerialized water. It is clear from the decision of the court that RO is also causing wastage of water and after that there is a danger of minerals coming out of the clean water that you are getting, that is, that water seems clean to you, but this water should be healthy for you, it is not necessary because it is also necessary to keep the RO machine clean at all times.
A report named Global Water Security 2023 Assessment is going on, in which a serious water crisis has been pointed out in the coming times. In this report, the water security of 33 countries of three different geographical regions has been assessed. And it has been told that where there is a huge shortage of water and where the condition of water is good. The report states that three out of four people currently live in water-insecure countries. These countries include Solomon Islands, Sudan, Ethiopia, Afghanistan, Djibouti, Haiti, Papua New Guinea, including Pakistan. The condition of Somalia, Liberia, Saint Kitts and Nevis, Libya, Madagascar, South Sudan, Micronesia, Niger, Sierra Leone, Yemen, Chad, Comoros and Sri Lanka is also not good. Our country is also not away from this grave crisis.
It is best that we save our water sources and keep them clean because there is nothing better than natural clean water. If the water sources are clean then they will always be there and we will always get clean drinking water. There is still time to wake up and understand the coming water crisis. Save your future life by saving water sources.
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 (28.05.2023)
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Friday, May 26, 2023

ट्रेवलर डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग्राम नरवानी और एन एच 44

❤️ मेरी एक छोटी-सी घुमक्कड़ी का Part-1 ... 🐒
🚩मित्रो, इस पर अधिक दूर नहीं गई... सिर्फ़ चंद किलोमीटर.... लेकिन एक ग़ज़ब का अनुभव हुआ ... चलिए शुरू से बताती हूं... 
🚩 मकरोनिया से NH-44 के लिए रास्ता पकड़ा... लगभग 4 किलोमीटर दूर जहां से NH-44 जो 'फोर लाइन' (four lane) कहलाता है, वहां से 1.5 किलोमीटर दूर था... माइलस्टोन और सड़क के दोनों और हरी-भरी झाड़ियां बड़ी खूबसूरत लग रही थीं ... 1.5 किलोमीटर का रास्ता तय करके फोरलेन पर पहुंची तो वहां काली सफेद धारियों वाला Hazard marker यानी ख़तरे का निशान था जो मेरी ड्रेस से बिल्कुल मैच कर रहा था... अब ज़ाहिर है कि मैं ख़तरा उठाने को तैयार थी 😆 वैसे सच बताऊं तो मैंने कोई खतरा नहीं उठाया पहले दोनों और देख लिया कि कोई बड़ा वाहन तेजी से तो नहीं आ रहा है और फिर आराम से Hazard marker के पास खड़े होकर तस्वीरें खिंचवाईं.... एक स्टॉप का साइन भी था.... डिवाइडर पर लगे हरे भरे कनेर के पेड़ों ने भी मन मोह लिया...
🚩 वहां से आकर बढ़ने पर एक छोटे से गांव पास पहुंची। गांव का नाम है नरवानी (Narwani)। गांव के बाहर मुख्य सड़क के किनारे मुझे सेमल का वृक्ष (Bombax Tree) दिखाई दिया... उसके सुर्ख लाल फूल फलियां बनने के बाद अब रुई में बदल चुके थे... वर्षों बाद मैंने सेमल की रूई को हवा में झूलते और उड़ते हुए देखा... मैं कंफर्म कर लेना चाहती थी कि मैंने सही पहचाना है या नहीं... सो, वहीं से गुजर रहे एक दादाजी से मैंने पूछा कि यह सेमल है न?
   "हऔ ! बाकी ई कोनऊं काम को नोंई।" दादाजी ने उत्तर दिया। उनका उत्तर सुनकर मैं चकित रह गई, उन्होंने कहा यह किसी काम का नहीं है। जबकि सेमल की रूई बहुत ही मुलायम और अच्छी होती है। बचपन में मेरे पास सेमल की रूई की एक तकिया था जो मेरा सबसे प्रिय था। सेमल की रूई की यह विशेषता होती है कि वह आपस में चिपक कर बंधती नहीं है। हमेशा मुलायम रहती है।
   🔖मैंने वही खड़े-खड़े अमेजॉन पर सर्च करके देखा तो पाया कि 5 किलो सेमल की रूई की कीमत ₹2500 और इससे अधिक है.. और 1 किलो सेमल के फूल की कीमत ₹449... यानी उस अंचल के लोगों को सेमल के फूल और रुई की कीमत का अंदाज़ा नहीं होने के कारण या कहें कि उसकी मार्केटिंग का पता न होने के कारण, उन दादाजी ने यह कहा कि यह किसी काम का नहीं है... 
    🏋️यह सच है कि सेमल की रूई को इकट्ठा करना एक कठिन काम होता है क्योंकि रुई के पॉड्स हवा में बहुत ऊंचाई पर झूलते रहते हैं जिनसे रूई दूर-दूर तक उड़ जाती है... जिसे उड़ने से रोकने के लिए जाल का प्रयोग भी करते हैं।🕸️
   🔑मैंने जिज्ञासावश गूगल सर्च किया तो मुझे सेमल के बारे में यह जानकारी मिली, आप भी पढ़िए- "सेमल हर मौसम में एक समृद्ध बायोमास उत्पन्न करता है और इसका उपयोग बंजर भूमि को फिर से खेती योग्य बनाने के लिए किया जाता है। पारिस्थितिक रूप से सक्रिय सेमल का पेड़ कार्बन को शुद्ध करता है और फूल आने से पहले सभी पत्तियों को गिराकर कार्बन को अलग करने में मदद करता है।"   ..." यदि इसको व्यावसायिक स्तर देखा जाए तो इसका फैब्रिक में तथा दवाइयों में उपयोग होता है। सेमल को 'साइलेंट डॉक्टर' के नाम से भी जाना जाता है।  सेमल को आयुर्वेद में स्टिमुलेंट, हिमोस्टेटिक, एस्ट्रिंजेंट, डाययुरेटिक, एफोडीयासिक, एंटीडायरियल व एंटीपायरेटिक बताया गया है। सेमल के फूल से लेकर जड़ तक कोई ऐसा भाग नहीं है जिसका उपयोग न होता हो, सेमल के हर भाग का औषधि में उपयोग किया जाता है।"
  🚩ऐसे उपयोगी वृक्ष के बारे में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक से अधिक जानकारी देने और उन्हें संरक्षित करने की जरूरत है, ऐसा मुझे महसूस हुआ।
   🚩बहरहाल, सेमल के वृक्ष  के साथ ही ग्राम नरवानी में एक महत्वपूर्ण और सुंदर स्थान भी देखा जिसके बारे में मैं अपनी घुमक्कड़ी के Part-2 में आपको बताऊंगी 💁🐒😊🌹
   🚩 फ़िलहाल याद रखिए कि ... यात्रा चाहे छोटी हो या बड़ी, हमेशा कुछ नए अनुभव देती है, बिल्कुल किसी नई किताब को पढ़ने के समान 😊💡📖 
  🚩Everything is special if you explore. - Dr (Ms) Sharad Singh's advice 🙋🤩❤️
🚶🏃🚴🚙🚜🛤️

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Thursday, May 25, 2023

बतकाव बिन्ना की | काए भैया, जो का हो रओ? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"काए भैया, जो का हो रओ?" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
काए भैया, जो का हो रओ?              
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     ‘और बिन्ना! कैसी हो?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘मोरी छोड़ो! आप तो जे बताओ के जो का हो रओ?’’मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘का हो रओ को का मतलब? हमें कछू समझ में ने आ रई के तुम का आ पूछ रईं?’’ भैयाजी अपनो मूंड़ खुजात भए बोले।
‘‘जे ई, के जो बुखार एक पार्टी वारन को चढ़त्तों, बा दूसरी पार्टी वारन खों चढ़न लगो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘कोन सो बुखार? कोन सी पार्टी? कछू साफ-साफ बोलो! हमें कछू समझ में ने आ रई।’’ भैयाजी फेर के बोले।
‘‘मैंने सुनी के अपने इते के दो मंत्रियन ने बड़े भैयाजी से कै दई के हमाई कई नईं सुनी, तो हम ओरें एकई संगे इस्तीफा दे देहैं।’’ मैंने कई।
‘‘अच्छा बो! सो तुम वा ऊ बारे में कै रईं! अब समझ में आई।’’ भैयाजी ने तनक चैन की सांस लई।
‘‘हऔ, मैं वोई की कै रई। आप ई सोचो, के जे सो उते होत्तो, बोई अब इते होन लगो! मने जे कोनऊं छूत की बिमारी कहाई।’’ मैंने कई।
‘‘अरे, जे सब होत रैत आए! तुम टेंशन ने लेओ। आज जे ओरें ऐसो कै रए, काल वैसो कैन लगहें। तुम जे सब ने सोचो।’’ भैयाजी सोई हंसत भए बोले।
‘‘काए ने सोचो? अपनई ने सो वोट दे के उन ओरन खों जिताओ औ अब आप बोल रए के उन ओरन के बारे में ने सोचो?’’ मोय भैयाजी की बात ने पोसाई।
‘‘अरे, वोट सो सबई देत आएं, सो का सब ओरें सोच फिकर कर रए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे का बात हुई? सब ओरें ने सोचें, सो का मोय सोई नईं सोचो चाइए?’’ मैंने पूछी।
‘‘औ का? बे ओरें अपन से पूछ के कर रए का? उने जो ठीक लगो, सो करन लगे।’’ भैयाजी बड़े निष्फिकर से बोले।
‘‘नईं, मने जे तो गलत आए?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘काए को गलत?’’भैयाजी ने पूछी।
‘‘जे ई के दो जने मिल के एक जने खों धमकान लगे। ऊ में एक सो पैलऊं नाएं से माएं वारे ठैरे।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘राम-राम, जो का कै रईं! कछू तो डरो! ऐसो नईं कहो जात आए!’’ भैयाजी मोए समझान लगे।
‘‘सो, मैंने का गलत कै दई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘देखो बिन्ना, टकला खों टकला नईं कओ जात आए! रई कहबे सुनने की, सो तुमने बा कहनात नई सुनी का, के लड़ाई औ मोहब्बत में जब जायज होत आए। बो कहाऊत आए अंग्रेजी में - एवरी थिंग जायज इन लव एंड वार!’’ भैयाजी बोले।
‘‘भैयाजी, जो अंग्रेजी वारी कहनात अंग्रेजी में बोल रए सो पूरी अंग्रेजी में बोलो! बो कहनात ऐसी आए- एवरी थिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार!’’ मैंने भैयाजी की कहनात सुधारी।
‘‘जे बताओ बिन्ना के जो हमने कहनात बोली, बा तुमें समझ में आई?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘हऔ! तभईं तो मैंने सुधारी।’’ मैंने कई।
‘‘बस, जेई सो सल्ल आए के जबरन के सुधारा-सुधूरी करन लगत हो! अरे, बिन्ना! भाषा को का मतलब भओ? के हमने जो कई, तुमें समझ में आ गई। औ तुमने जो कई, बा हमें समझ में आ गई। अब ऊमें सुधरयाई करबे से का बदल जेहे?’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो का? जो कछू गलत बोलो जा रओ होय, सो ऊको सुधारो ने जाए? आप कहबो का चा रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘काए खों सुधारने? चलन देओ ऊंसई!’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे वा! ऐसे-कैसे? जो मोय गलत लगहे सो मोय सौ दारे टोंकने।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हऔ, जे खूब चला रईं बिन्ना! तुम टोकों सो ठीक, औ कोनऊं औ टोंके सो तुमाओ पेट पिराए। जे कोन सी बात आए?’’ भैयाजी मोरो मजाक उड़ात भए बोले।
‘‘इते तो मैंने ई आप के लाने टोंकी आए, इते औ को दिखा रओ आपको? औ कोन टोंक रओ आप लाने?’’ मोय भैयाजी की कई समझ में ने आ रई हती।
‘‘औ बे दो जने टोंका-टाकीं कर रए सो तुमें रहाई नई पड़ रई!’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘जेल्लो! आप सोई कां की कां ले गए!’’ कैत भई मैं सोई हंसन लगी। बतकाव खों गोल-गोल घुमाबे में भैयाजी घांई एक्सपर्ट कोनऊं नईयां।
‘‘बाकी भैयाजी आपने बताई नईं के आप के इते कित्ते नोट निकरे दो हजार वारे?’’मैंने भैया जी से पूछी।
‘‘एकऊं नई निकरे! अब कां धरे हजार-दो हजार वारे? हमने सो तुमाई भौजी से सोई पूछी के कऊं पिछली बेर घांईं लुका के धरो तो नईयां, के बाद में हमें जा के लेन से लगने परे। सो बे बोलीं के अब कां घरे धरे रुपैया? काए से, के घरे में धरे से कऊं चोरन खों डर, सो कऊं सरकार को डर। ईमानदारी के पईसा होत भए बी रद्दी बना दओ जात आए। सो, तब हमने तुमाई भौजी से कई के, धना! ई बेर सो मुतको टेम दओ गओ आए। तनक अच्छे से, फुरसत से थथोल लइयो, कऊं कोनऊं बटुआ में तुमने न दबा रखे होंएं! तुमाई भौजी बिचारी डरा गई औ एक बेर फेर के ऊने सबरे बटुआ झरा डारे!’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘हऔ, भैयाजी! मोय सोई पतो रओ के मोरे एंगर एक्कऊ ठइया दो हजार को नोट नईंयां, मनो पिछली बेर को जरो, ई बेरा बी फूंक-फूंक के पीहे! मैंने सोई अपने सबरे बटुआ झरा-झरा के देखे। पिछली बेर का भओ रओ के दस-बारा पांच सौ के नोट निकरे रए सो बे जा के बैंक में जमा करा दए रए। हम ओरें निष्फिकर हो गए रए। जे कछू चार-छै मईना बाद, एक दिना मैंने अपनी स्कूटी को डब्बा खोलो, जीमें स्कूटी के कागज धरे रैत्ते, बा खोलतई संगे मोरे होस उड़ गए। ऊमें ससुरो एक पांच सौ को नोट दबो मिलो। बा मैं ईसे रखत्ती के कोनऊं दिना बटुआ घरे भूल जाऊं, सो पेट्रोल डरवाने के लाने मोय कोनऊं से उधारी ने करनी परे। बा नोट मनो ऊ कागजन में दबो रै गओ। तब लौं जमा कराबे की डेट निकर गई हती। सो, बा नोट फटा के फेंकने परो। आज लौं बा नोट मोय सपना में दिखात आए। ऊको याद कर के करेजा दुखन लगत आए। बड़ो बुरौ भओ रओ! बा खून-पसीना की कमाई रई। करिया वारन की निकरी, ने निकरी मनो अपनी सो निपट गई।’’ बा नोट याद कर के मोरो जी दुखन लगो।
‘‘अरे गम्म खाओ बिन्ना! जो हो गओ, सो हो गओ! अब बा नोट सो फेर के आहे ना, सो काय के लाने अपनों जी दुखा रईं। दुखी ने होओ!’’ भैयाजी मोय समझान लगे। फेर बोलो,‘‘तुम अपनो एक नोट को दुखी मना रईं, हमाए सो पांच नोट चले गए रए। दो हमाए कोट के पाकेट से निकर आए रए औ तीन तुमाई भौजी की रमायण में दबे धरे हते। बे सोई जाने कां, कां लुकात रईं। हमने सो तुमाई भौजी से कई रई के जे पांचों हम मंदिर की दान पेटी में डारे आ रए, सो बे बमक परीं। बे बोलीं, तुमें पाप परहे! चलत भओ पईसा चढ़ाओ जात आए, ऐसो वारो नोंईं। हमने पूछी के ऐसो कां लिखो? जे सो मन की बात आए, के हमें जो जैसो चढ़ाने आए, सो चढ़ाबी! सो बे ठेन के बोलीं, हम तुमें ऐसो ने करन देंहैं! अब उनके आगूं हमाई कां चलती।’’ भैयाजी बोले।
‘‘खैर, बे नोटों की छोड़ो भैयाजी! हमें सो जे बताओ के जो का हो रओ?’’ मैंने भैयाजी से फेर पूछी।
‘‘का हो रओ?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘जेई, के दो मंत्री हल्ला बोल रए औ दो विधायक मों बांधे!’’ मैंने पूछी।
‘‘हमने का समझाई के ईमें ने परो! अबे सो देखत चलो, चुनाव आत-आत का-का हुइए। बस, मजो लेत चलो! कोन की बिमारी कोन खों लग रई, ईसे अपन को का? का समझीं?’’ भैयाजी हंसन लगे। मोय सोई हंसी फूट परी।
 मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, May 24, 2023

चर्चा प्लस | नोट, नोटा, नौटंकी के अब आगे क्या ? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
नोट, नोटा, नौटंकी के अब आगे क्या ?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         नोट, नोटा, नौटंकी... ये तीनों हमारे प्रजातंत्र को अपनी नोंक पर उठाए हुए हैं। नोट यानी नोटबंदी। नोटा यानी अनिर्णय की स्थिति पर परिणाम का बोझा और रहा नौटंकी का सवाल तो उसे मीडिया के शब्दों में राजनीतिक ड्रामा कहा जाता है। यह राजनीतिक ड्रामा या राजनीतिक नौटंकी अब हमें हर चुनाव के पहले और बाद में देखने को मिलने लगी है। 21 वीं सदी में प्रजातंत्र को मिले ये तीनों उपहार आमजन अथवा आम मतदाता के लिए मनोरंजन पैदा करते हैं अथवा मन को रंज से भर देते हैं, यह अपने-अपने दृष्टिकोण का मामला है। फ़िलहाल तीनों की झलकियां हमें ताज़ा-ताज़ा देखने को मिल चुकी हैं। चलिए, फिर से इन पर नज़र डालें।    
   एक ताज़ा नोटबंदी। कोई हंगामा नहीं। कोई सनसनी नहीं। कोई घबराहट नहीं। इस बार आमजनता में इस नोटबंदी को ले कर हंसी-मज़ाक का दौर चला। कारण कि अब लोगों को पता है कि नोटबंदी क्या है? और उन्हें रुपये बदलने, लौटाने, जमा करने के लिए भरपूर समय दिया गया है। जी हां, ताज़ा नोटबंदी में रुपये 2000 के नोट बंद किए जाने की घोषणा की गई है। साथ ही, सितम्बर 2023 तक उन्हें बैंकों में लौटाने का अवसर दिया गया है। इसीलिए किसी को भी उस तरह की घबराहट का सामना नहीं करना पड़ा जिस तरह पिछली नोटबंदी में झेलना पड़ा था। शायद आरबीआई ने सबक लिया अपने पिछले अनुभवों से। सन् 2016 में हुई नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नए नोट जारी किए थे। तब 500 और 1000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर किया गया था। रिजर्व बैंक ने अब 2000 रुपये के नोटों को वापस मंगाया है। लोगों से कहा गया है कि जिनके पास भी 2000 रुपये के नोट हैं, वे उसे 23 मई से लेकर 30 सितंबर के बीच बदलवा सकते हैं। सन 2023 की 2000 के नोटों की इस नोटबंदी और 2016 की नोटबंदी में पर्याप्त अंतर है। जैसे- 2016 में 500 और 1000 के नोट 86 प्रतिशत चलन में थे। जबकि 2000 के नोट प्रत्यक्ष चलन में न्यूनतम हैं। 2016 में सरकार ने रातों-रात 500 और 1000 के नोट चलन से बाहर करने का फैसला किया था। लेकिन इस बार 2000 के नोटों को तुरंत चलन से बाहर नहीं किया गया है। 2016 में 500 रुपये, 1000 रुपये के नोट रातों-रात अमान्य हो गए थे। इस बार नोट बदलने के लिए पर्याप्त समय दिया गया है। दरअसल, नोटबंदी एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें देश की वर्तमान मुद्रा में से कुछ का कानूनी दर्जा निकाल दिया जाता है और यह सिक्कों पर भी लागू होता है। पुराने नोटों और सिक्कों को बदलकर उनकी जगह नए नोटों और सिक्कों को लागू कर दिया जाता है। जब नोटबंदी के बाद पुराने नोटों की कोई कीमत नहीं रहती है।
देश में पहली नोटबंदी ब्रिटिश साम्राज्य के समय सन् 1946 में हुई थी। भारत के तत्कालीन वायसराय और गर्वनर जनरल सर आर्चीबाल्ड वेवेल ने 12 जनवरी 1946 में हाई करेंसी वाले बैंक नोटबंदी (डिमोनेटाइज) करने को लेकर अध्यादेश प्रस्तावित किया था। इसके 13 दिन बाद यानी 26 जनवरी रात 12 बजे के बाद से ब्रिटिश काल में जारी 500 रुपये, 1000 रुपये और 10000 रुपये के हाई करेंसी के नोट प्रचलन से बाहर हो गए थे। आजादी से पहले 100 रुपये से ऊपर के नोटों पर प्रतिबंध लगाया गया था। सरकार ने उस समय भी यह फैसला लोगों के पास जमा कालाधन वापस लाने के लिए किया था।
दूसरी नोटबंदी सन् 1978 में जनता पार्टी के शासनकाल में की गई थी। सन् 1978 में मोरारजी देसाई सरकार ने बड़े नोटों को डिमोनेटाइज किया था। तब 16 जनवरी 1978 को 1000 रुपये, 5000 रुपये और 10 हजार रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा की थी। सरकार ने इस नोटबंदी की घोषणा के अगले दिन यानी 17 जनवरी को लेनदेन के लिए सभी बैंकों और उनकी ब्रांचों के अलावा सरकारों के खजाने को बंद रखने का फैसला किया था। उस समय भी नोटबंदी का उद्देश्य कालेधन को बाहर लाना बताया गया था। तत्कालीन समाचारों के अनुसार उस समय भी इससे आमजन को बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा था।
 सन 2023 की इस बार की नोटबंदी में स्थिति पहले से ही लगभग नोटबंदी जैसी हो चली थी। रुपये 2000 के नोट धीरे-धीरे बाज़ार से गायब हो रहे थे। लंबे समय से ये एटीएम से भी नहीं निकल रहे थे। रिजर्व बैंक धीरे-धीरे 2000 रुपये के नोटों को वापस ले रहा था। इसलिए यह शंका जागने लगी थी कि 200 के नोट चलन से बाहर होने वाले हैं। यहां तक की ये सवाल संसद में भी उठा था। तब इस बात की जानकारी दी गई थी कि रिजर्व बैंक ने साल 2018-19 के बाद से 2000 रुपये के नए नोटों की छपाई नहीं की है। अतः 2016 में चोट खाई आमजनता अब की बार सतर्क थी।
वैसे यह पहली बार नहीं है जब आरबीआई ने नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला किया है। साल 2013-14 में आरबीआई ने कहा था कि वह मार्च, 2014 के बाद 2005 से पहले जारी किए गए सभी बैंकनोटों को पूरी तरह से वापस लेगा। बैंक ने एक जुलाई 2014 तक का समय दिया था। ‘‘क्लीन नोट पॉलिसी’’ तहत बैंक समय-समय पर ऐसे कदम उठाता रहा है। यदि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह उचित है तो रिर्जवबैंक को इस प्रकार के कदम उठाने चाहिए लेकिन इसी तरह पहले से माहौल तैयार कर के, पर्याप्त समय देते हुए। सन् 2016 की भांति नहीं कि नोट बदलने के लिए प्राथमिक रूप से चंद घंटे दिए गए और वह भी रात के समय। बाद में बढ़ाए गए समय में इतनी अधिक भीड़ और घबराहट रही कि नोट बदलने की लाईन में खड़े-खड़े कई लोगों अपने प्राण गंवा दिए। इसीलिए उसे एक अदूरदर्शी निर्णय कहा गया था।
जहां तक प्रजातंत्र का सवाल है तो इसमें जनता और अर्थतंत्र के बीच पारदर्शिता होनी चाहिए। आमजन इस बात को ले कर आश्वस्त रह सके के उसकी खून-पसीने की कमाई के रुपयों को अचानक रद्दी काग़ज़ के टुकड़ों में नहीं बदला जाएगा।
प्रजातंत्र में 21 वीं सदी में चुनाव प्रणाली में एक नया तरीका चुनाव आयोग द्वारा मतदाताओं को सौंपा गया है, वह है- नोटा। इस ‘नोटा’ शब्द का अर्थ है, उपरोक्त में से कोई नहीं (नन ऑफ द एबोव)। मतलब अब चुनाव में आपके पास एक विकल्प होता है कि आप ‘‘इनमें से कोई नहीं’’ का बटन दबा सकते हैं। इसे दबाने का मतलब यह है कि आप यह बता सकते हैं कि आपको चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप फिर से चुनाव की मांग कर सकें। अगर आपको कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आ रहा है तो यह आपका सिरदर्द है। क्योकि अंततः जो भी विजयी उम्मीदवार रहेगा उसी को आपको  स्वीकार करना पड़ेगा। ‘‘द इलेक्शन हब डॉट कॉम’’ में नोटा के बारे में स्पष्ट शब्दों में जानकारी दी गई है- ‘‘भारत में नोटा, जीतने वाले उम्मीदवार को बर्खास्त करने की गारंटी नहीं देता है। इसलिए, यह केवल एक नकारात्मक प्रतिक्रिया देने की विधि है। नोटा का कोई चुनावी मूल्य नहीं होता है, भले ही नोटा के लिए अधिकतम वोट हों, लेकिन अधिकतम वोट शेयर वाला उम्मीदवार अब भी विजेता होगा।’’
सन 2014 में नोटा को लागू करते समय इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया ने भी साफ शब्दों में कहा था कि-‘‘भले ही, किसी भी चरम मामले में, नोटा के खिलाफ वोटों की संख्या उम्मीदवारों द्वारा सुरक्षित वोटों की संख्या से अधिक हो, जो उम्मीदवार चुनाव लड़ने वालों में सबसे बड़ी संख्या में वोट हासिल करते हैं, उन्हें ही निर्वाचित होना घोषित किया जाएगा।’’
यद्यपि नोटा को लेकर कुछ विवाद भी हुए जब प्रथम और द्वितीय स्थान के उम्मीदवारों के मुकाबले नोटा की संख्या अधिक रही अथवा प्रथम और द्वितीय स्थान पर आने वाले उम्मीदवारों के बीच का अंतर नोटा के कारण स्पष्ट करना कठिन हो गया। सन 2014 के लोकसभा चुनावों में, 2 जी घोटाले के आरोपी सांसद ए. राजा (डीएमके उम्मीदवार) एआईडीएमके उम्मीदवार से हार गए, जबकि नोटा तीसरे सबसे बड़े वोट संख्या के साथ उभरा।  सन 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों में, नोटा का कुल वोट शेयर केवल भाजपा, कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवारों से कम था। 118 निर्वाचन क्षेत्रों में, नोटा ने भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरा सबसे बड़ा वोट पाया। वहीं, 2018 में हुए मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में, (जीतने वाले) भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर के बीच का अंतर केवल 0.1 था, जबकि नोटा ने 1.4 के वोट संख्या पर मतदान किया। नोटा के कारण जीतने और हारने दोनों पक्ष के उम्मीदवारों को मलाल रहता है। जीतने वाला सोचता है कि यदि नोटा के सारे वोट उसे मिल जाते तो वह बड़ी संख्या से जीत जाता। वही हारने वाले उम्मीदवार को यह दुख रहता है कि यदि नोटा के वोट उसकी झोली में गिरते तो उसे या तो हार का मुंह नहीं देखना पड़ता या फिर कम अंतर से उसकी पराजय होती।
दरअसल, हमारी प्रजातांत्रिक चुनाव प्रणाली में नोटा हमारी 21वीं सदी की एक ऐसी उपलब्धि है जो हमें इनकार करने का अधिकार तो देती है लेकिन साथ में परिणाम भी स्वीकार करने को विवश करती है। यानी ‘‘न-न’’ करके प्यार करवा ही देती है।
अब बात आती है नौटंकी की। जी हां, राजनीति में बढ़ती नौटंकी। आप कह सकते हैं कि ‘नौटंकी’ शब्द कुछ अधिक कठोर है। लेकिन इसी 21 वीं सदी में इतनी राजनीतिक नौटंकियां आंखों के सामने से गुज़र चुकी हैं कि यह शब्द कम से कम मुझे कठोर नहीं लगता है। जब राजनीतिक दल के सदस्य राजनीति और दल को एक किनारे सरका कर स्वार्थ का झंडा उठा कर नारे लगाने लगें तो इसे नौटंकी नहीं तो और क्या कहा जाए? क्योंकि उनकी मांगे मान लिए जाते ही झंडा लपेट कर रख दिया जाता है और मंच पर सभी मुस्कुरा कर गले मिलते हुए दिखाई देते हैं। हाल ही में कर्नाटक में इसी तरह का दृश्य देखने को मिला जब 100 घंटे से अधिक समय तक कुर्सी के लिए नौटंकी चलती रही और फिर सब कुछ शांत हो गया। उतने घंटे मतदाता मुंहबाए देखते रहे कि उन्हें कुर्सी पर किसका चेहरा देखने को मिलने वाला है? यह कोई पहली बार नहीं हुआ है।
मध्यप्रदेश में तो इससे भी लंबी नौटंकी (ड्रामा) मतदाताओं ने देखी है। कांग्रेस की 15 साल बाद सत्ता-वापसी हुई और 15 महीने में हो गया था सत्ता से बाहरनिकाला। कुल 17 दिन चला था मध्यप्रदेश का सियासी ड्रामा। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही सिंधिया और कमलनाथ के बीच कई मुद्दों पर शायद सहमति नहीं बन रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी ही सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरने की बात कही। फिर 5 मार्च 2020 को मध्य प्रदेश के निर्दलीय, बसपा, सपा और कांग्रेस के करीब 11 विधायकों के गायब होने की खबर आई। बताया गया ये विधायक मानेसर और बेंगलुरू की होटल में रुके हुए हैं। इसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 11 मार्च को बीजेपी ज्वाइन कर ली। इस ड्रामे का अंत हुआ कमलनाथ के इस्तीफे से। फिर 23 मार्च 2020 को शिवराज सिंह चौहान चैथी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। भारतीय प्रजातंत्र में यह सब कोई पहली बार नहीं हुआ। लेकिन यह कहा जा सकता है कि इधर इस प्रवृत्ति उन राज्यों में भी बढ़ गई है जहां पहले ऐसा माहौल नहीं था।
भारतीय प्रजातंत्र फिलहाल नोट, नोटा और नौटंकी में के रंगों को देख रहा है, अब आगे क्या देखने को मिलेगा, यह कहना अभी कठिन है। यूं भी राजनीति का हर खिलाड़ी एक ऊंट के समान होता है जो कब किस करवट बैठेगा, यह नहीं कहा जा सकता है। बकौल इस नाचीज़ (यानी बकौल मेरे) -
सियासत, हुकूमत का  किस्सा अज़ब है
जो इसका हुआ, वो किसी का न होगा।
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Tuesday, May 23, 2023

पुस्तक समीक्षा | सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 23.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई   कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के काव्य संग्रह "फूलों के अधरों पर कीलें" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
सजल विधा में बुनी हुईं कवि "प्रभाकर" की प्रखर कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - फूलों के अधरों पर कीलें
कवि        - ज. ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’
प्रकाशक     - पाथेय प्रकाशन, 112, सराफा वार्ड, जबलपुर (म.प्र.)
मूल्य        - 250/-
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विधाएं साहित्य को समृद्ध करती हैं। किसी भी साहित्य में गद्य और पद्य की जितनी अधिक विधाएं रहती हैं वह उतना ही अधिक विस्तार पाता है। हिंदी साहित्य में गद्य विधा में अनेक विधाएं समानांतर क्रियाशील है जिनमें छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों तरह की विधाएं हैं। यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में किस विधा को चुनता है। स्पष्ट है कि रचनाकार जिस विधा में स्वयं की आश्वस्ति और सहजता अनुभव करता है वही विधा उसे रुचिकर लगती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो एक रचनाकार किस विधा के साथ स्वयं को ‘‘कंफर्टेबल’’ महसूस करता है उसे ही अपनाता है। किसी भी रचनाकार को किसी विशेष विधा को चुनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि नई-नई विधाएं जन्म लेती हैं और अपना मार्ग प्रशस्त करती हैं। सागर के कवि ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम के लिए नवोदित विधा सजल को चुना। उनका काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ नवोदित सजल विधा में निबद्ध कविताओं का संग्रह है। संग्रह के संबंध में चर्चा करने से पूर्व सजल विधा के बारे में चर्चा कर लेना उचित होगा।
सजल विधा को उत्तर प्रदेश के मथुरा में सन् 2017 को स्थापना मिली, जब मथुरा में हिन्दी सजल सर्जना समिति के तत्वावधान में प्रथम हिन्दी सजल महोत्सव-2017 का आयोजन किया गया। हिन्दी काव्य की नई विधा इसी समारोह में ‘सजल’ को अपने व्याकरण और मानकों के साथ हिन्दी के उपस्थित विद्वानों ने मान्यता प्रदान की थी। इस अवसर पर पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कहा था कि, ‘‘हिन्दी में बहुत ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। मैंने भी लिखीं थीं। परन्तु मुझे लगा कि यह हिन्दी के साथ न्याय नहीं है। अतः मैंने इसे एक नाम ‘गीतिका’ दिया। इसका कोई मानक निर्धारित न होने कारण सर्वमान्य न हो सकी। आज मथुरा से डॉ. अनिल गहलौत ने ‘हिन्दी सजल’ का शुभारम्भ किया है। इसका मानक और व्याकरण भी तय किया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह विधा सर्वमान्य होगी और काव्य जगत में अपना ऊंचा स्थान बनाएगी।’’
इसी आयोजन में सजल विधा के प्रवर्तक माने जाने वाले डॉ. अनिल गहलौत ने ‘सजल’ की अवधारणा और उसके मानकों पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि ‘‘हिन्दी में ग़ज़ल के कारण हिन्दी वाले उर्दू भाषी होते चले गए। अनेक कवियों ने उर्दू के उपनाम धारण कर लिए। अनेक हिन्दी ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए परन्तु उर्दू शाइरों ने उन्हें ग़ज़ल नहीं माना। यह ठीक भी है। जब ग़ज़ल के व्याकरण को आप जानते ही नहीं तो आपकी ग़ज़ल कैसे सही हो सकती है। अतः हिन्दी कवि ग़ज़लकार या शाइर नहीं बन सके। ‘सजल’ विधा इस मानसिकता से हमें उबारेगी और इसके माध्यम से हम हिन्दी की सच्ची सेवा भी कर सकेंगे।’’
पद्मश्री ‘‘नीरज’’ तथा डॉ. गहलौत के वक्तव्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो सजल विधा को ग़ज़ल के समकक्ष खड़ी की गई विधा माना जा सकता है। निश्चित रूप से अनेक कवियों को सजल विधा ने आकर्षित किया है और अब तक कई संग्रह इस विधा में प्रकाशित हो चुके हैं। कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ के आरंभिक पृष्ठों पर भूमिका एवं शुभकामनाओं के रूप में डॉ. अनिल गहलौत, विजय राठौर, डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया, ईश्वरीप्रसाद यादव तथा विजय बागरी विजय ने सजल विधा और उसके व्याकरण पर समुचित प्रकाश डाला है। इनमें डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने कवि प्रभाकर के सजलों के तारतम्य में सजल विधा के संबंध में लिखा है- ‘‘सजल विधा में छंदों की तरह मात्राभार का कोई स्थाई विधान नहीं है। लेकिन इसमें आदिक से लेकर अंतिम तक मात्रा भार की समानता और लय की समरूपता की अनिवार्यता है। इसीलिए सजल का मीटर छोटा या बड़ा कैसा भी हो सकता है। इसमें समांत एवं पदांत में तुक की अनिवार्यता भी रखी गई है। सजलकार ने इस सजल संग्रह में छोटे मीटर से लेकर बड़े मीटर तक की सजलें सम्मिलित की हैं।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘यद्यपि अभी हिंदी जगत सजल की विशिष्टताओं से भली भांति परिचित नहीं हो पाया है एवं सजल अपने स्वाभिमान के साथ स्थापित होने के लिए संघर्षरत है, लेकिन अल्प समय में ही उसने जो सर्वस्वीकार्यता एवं लोकप्रियता प्राप्त की है, उससे उसके उज्जवल भविष्य की सम्भावनाएं प्रबल होती जा रही हैं।’’
विधा चाहे कोई भी हो उसे विस्तार पाने तथा लोकप्रिय होने में समय लगता है। हिंदी में ग़ज़ल विधा अल्पावधि में लोकप्रिय नहीं हुई उसका इतिहास अमीर खुसरो की ग़ज़लों से शुरू होता है। सजल विधा के साथ एक धनात्मक स्थिति यह है कि आज उसे सोशल मीडिया का प्लेटफार्म मिला हुआ है जिससे वह शीघ्र ही अधिक से अधिक रचनाकारों तक अपनी पहुंच बना पा रही है। ज़ाहिर है कि जिसे यह विधा रुचिकर लगेगी वह सहज भाव से इसे अपनाता जाएगा। सन् 1956 में सागर संभाग के ही दमोह जिले के बांसातारखेडा जन्मे कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ ने भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त की तथा शिक्षण कार्य से जुड़कर, प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। आरंभ से ही साहित्यिक लगाव होने के कारण वे कविताएं लिखने लगे थे। सन 1972 में ‘‘जय बंग’’ शीर्षक उनकी प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी। इसके बाद वे मुक्त रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे किंतु एक लंबे अंतराल के बाद उनका दूसरा काव्य संग्रह सजल संग्रह के रूप में प्रकाशित हुआ है।
   कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने दोहा, कुंडलिया, मुक्तक तथा गीत भी लिखे हैं किंतु सजल के प्रति उनका रुझान बढ़ा और वर्तमान में वे सजल विधा में ही सृजनकार्य कर रहे हैं। काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ में यूं तो हर शेड्स की कविताएं मौजूद हैं, लेकिन विसंगतियों के विरुद्ध कटाक्ष भरा स्वर मुखरता से उभरा है। संग्रह के नाम ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह की रचनाएं व्यंजनात्मक हैं। यह रचनाएं स्थितियों की ओर संकेत करती है जहां फूल जैसे नाजुक तत्व के अत्यंत नाजुक अधरों पर किलें ठोंक दी गई हों। अव्यवस्थाओं को देखकर कभी हृदय का द्रवित हो उठना स्वाभाविक है कवि ‘‘प्रभाकर’’ प्रश्न करते हैं कि वे लोग कहां हैं जो सुव्यवस्था स्थापित कर सकते हैं-
नीतिवान गुणवंत कहां हैं?
सच्चरित्र अब संत कहां हैं?
भूले हम कबिरा, तुलसी को।
गुप्त, निराला, पंत कहां हैं ?
कौन करे चिंता दीनों की ?
दयावंत, श्रीमंत कहां हैं ?

कवि ने इस बात का भी आग्रह किया है कि यदि मूल्यों का पतन हो रहा है तो उसका कारण क्या है, इस पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं तटस्थता या निर्लिप्तता ही इन सब के लिए जिम्मेदार होती है। कवि की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए जोकि कोविड-19 की वैश्विक आपदा के दौरान लिखी गईं-
क्यों हो रहे सुमूल्य पतित आप सोचिए ।
आदर्श आज लुप्त व्यथित आप सोचिए।।
निज स्वार्थ सिद्धि हेतु अहो!आत्मा बिकी
वे बेच दें न देश त्वरित आप सोचिए।।

कवि ‘‘प्रभाकर’’ का विचार संसार सुदीर्घ है। वे राजनीति में आती जा रही संवेदनहीनता, चारित्रिक पतन और दोहरेपन पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं -
उभय तरफ वह मिला हुआ है।
अतः सर्वदा खिला हुआ है।।
करता है वह काला-पीला ।
भवन कई मंजिला हुआ है।।
चांदी के टुकड़े क्या पाए!
उसका मुख अब सिला हुआ है।।

जीवन में प्रत्येक मूल्यों के साथ आपसी सद्भाव का भी क्षरण हुआ है। जहां एकता और भाईचारा पाया जाता था, वहां अब आपसी विवाद और वैमनस्य की बातें होती है। घर के आंगन के बीच दीवार खड़ी करना आम बात हो गई है। इस विषम वातावरण को लक्ष्य करते हुए कवि ने लिखा है कि -
अमराई में गूंजते, कांव-कांव के बोल ।
लुप्तप्राय हैं हो गए, पिक-स्वर मधुर अमोल।।
करुणा और मनुष्यता,हुए उभय क्षतिग्रस्त।
शांति-द्वीप में आ गया, आतंकी भूडोल।।

कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने अपनी वेदना को व्यक्त करते हुए देशज शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग किया है। जैसे इस सजल में आप ‘‘कजलियां’’ शब्द का प्रयोग देख सकते हैं। कजलियां गेहूं की वे कोमल नवांकुरित पत्तियां होती है जिन्हें सावन में परस्पर एक दूसरे को दे कर अपनत्व प्रकट किया जाता है। ज़ाहिर है कि जब अपनत्व समाप्त होने लगे तो कजलियों की आंखों में आंसू आएंगे ही। यह पंक्तियां देखिए-
प्रेम-अपनत्व की कजलियां रो पड़ीं।
इसलिए शांति की मुरलियां रो पड़ीं।।
संतुलन हीन पावन प्रकृति हो चली।
अब बिना नीर के बदलियां रो पड़ीं।।

ऐसा नहीं है की कवि ‘‘प्रभाकर’’ ने सिर्फ आक्रोश और वेदना की ही रचनाएं लिखी हो, उन्होंने अपने सजल के द्वारा प्रसन्न रहने और वातावरण सुधारने का रास्ता भी सुझाया है-
बीन वेदना खुशियां बोना ।
महकेगा तब कोना-कोना।।
प्रगति- पतंग उड़ाना ऊंची।
पड़े पतन का भार न ढोना।।
सोने वाला बस खोता है।
जगने वाला पाता सोना।।

किसी भी रचना के लिए महत्वपूर्ण होती है उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता। विधा चाहे कोई भी हो किंतु यदि रचना में वैचारिक आंदोलन एवं आग्रह का स्वर है तो उसे एक समृद्ध रचना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ का काव्य संग्रह ‘‘फूलों के अधरों पर कीलें’’ एक समृद्ध काव्य संग्रह कहा जा सकता है। सजल विधा को समझने की दृष्टि से भी यह संग्रह महत्वपूर्ण है।    
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Monday, May 22, 2023

पौराणिक किताबें मात्र धार्मिक महत्व की नहीं है वरन् उनमें उस जीवनशैली, दर्शन और विचारों का ज्ञान मिलता है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने जिया है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जी हां, बड़े काम की चीजें मिलती हैं ऐसी चलित दूकानों में... तुलसी, रुद्राक्ष, चंदन आदि हर तरह की मालाएं, पूजा की रेशमी मालाएं, घिसकर तिलक लगाने वाला चंदन, राशि के पत्थर, अंगूठियां आदि आदि... और मैं ऐसी दुकानों में तलाशती हूं पौराणिक पुस्तकें ... फिर यह तो गीता प्रेस (गोरखपुर) की  व्हीलर शॉप थी अतः मुझे कुछ न कुछ तो पढ़ने लायक मिलना ही था... बाकी जो नहीं मिला उसके लिए मैं उनसे कैटलॉग ले आई ताकि उसमें देख कर मंगा सकूं...
     🚩इस समय जब अन्य किताबें आसमान छूती कीमतों वाली होती हैं ऐसे समय में मोटी-मोटी किताबें बहुत कम कीमत में उपलब्ध कराना, वास्तव में पठनीयता की दिशा में गीता प्रेस का एक बहुत ही सराहनीय योगदान है....
     🚩वस्तुतः पौराणिक किताबें मात्र धार्मिक महत्व की नहीं है वरन् उनमें उस जीवनशैली, दर्शन और विचारों का ज्ञान मिलता है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने जिया है... यदि हम इन्हें इतिहास की कथात्मक पुस्तकें माने तो इन में बहुत सारे तथ्य मिल जाते हैं जो यह साबित करते हैं कि इनमें सभी कुछ कपोल कल्पित नहीं है बल्कि इनमें अतीत के जीवन का यथार्थ हैं... वैसे, ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं क्योंकि मैं इन्हें एक इतिहास के विद्यार्थी के रूप में पढ़ती हूं और इनमें अतीत की जीवन शैली को तलाशती हूं ...
    🚩वस्तुतः इसी प्रक्रिया में मुझे शिखंडी का यथार्थ भी मिला था जिसे मैंने अपने उपन्यास का आधार बनाया। दिलचस्प बात यह है कि शिखंडी का वह यथार्थ आज के वैज्ञानिक मानकों पर एकदम खरा उतरता है।
      🙄 अभी मैंने कौन सी पुस्तक खरीदी, फिलहाल यह सीक्रेट है...🤫
... फिर कभी बताऊंगी 💁😀
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Sunday, May 21, 2023

Article | A Small Garden Can Be Solved Big Problem | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article

A Small Garden Can Be Solved Big Problem
        -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

*The continuous changes in the weather and the sprinkling of rain in the summer are creating a lack of moisture in the soil, which we can reduce by removing this big effect with our small efforts. Ever wondered why this problem didn't come before? Because earlier there used to be a lot of trees and almost every house used to have a small courtyard, which used to have grass and small trees and plants which did a great job of maintaining moisture in the land. Once again we can save soil moisture by removing the place of fire in the house. Just think, the days of our grandparents when we used to spend summer evenings in the cool gardens!*

Climate is such an aspect which is related to the life of every human being in the world and the condition of climate greatly affects our life. This fact can be understood from the fact that life on earth has been possible only due to favorable climate, but due to human and some natural activities, the climate conditions are changing. This situation is termed as climate change. There is no doubt that the negative changes taking place in the climate will be very fatal for the living beings on the earth. Governments are becoming aware of the dangers associated with climate change and people also need to be warned about the dangers associated with climate change. What is climate, first it needs to be understood. The average weather condition over a large land area over a long period of time is called climate. The climate of a region has the greatest impact on its geographical location. In European countries, where the summer season is short and there is severe cold, whereas in India, there is a predominance of hot summer season. Except for 3-4 months of winter, the climate remains warm for the rest of the time. In the coastal regions of India, the winter season temperature is average. Thus the climate of an area depends on its location. But nowadays we are seeing that the summer season has become erratic. It starts raining as soon as the heat rises and after two days of rain suddenly the heat starts rising again. This is not a good sign of the weather. These changes show that now the weather cycle is changing, that too fast.
Due to increasing environmental pollution, the temperature of the earth is increasing continuously. Rising temperature due to environmental pollution has made the situation of climate change more serious. According to the Climate Report, every subsequent decade since the 1980s has been warmer than any decade since 1850. This can also be understood in the statement of the Secretary-General of the World Meteorological Organization, Peteri Taalas – “2016 was the warmest year on record, but we may soon see hotter years. As levels continue to rise, global warming will continue. A recent forecast for the coming decades indicates that a new annual global temperature record is expected within the next five years."
After this we saw that the year 2019 was hot by breaking all its previous records. The UN Climate Report 2019 confirms that 2019 was the second warmest year on record, and 2010–2019 the warmest decade. In the year 2019, carbon dioxide (CO2) and other greenhouse gases in the atmosphere reached new record levels.
We are looking at different situations in 2022 and 2023. The temperature is going up to 48-50 degree Celsius but there are sprinkles of rain in between. An erratic weather system is before us. We can be happy with the joy of rain in hot summer, but have you ever thought that how harmful is this rain of very short duration? Small vegetation that sprouts automatically in the rain, preserves the soil of the upper surface of the land, gives it moisture, and grows before time. Then they start getting destroyed in the hot summer. In this way flora and fauna are being affected badly. Another example can be seen that grass seeds are lying in the soil and they start sprouting automatically as soon as the rains come. A carpet of green grass is spread on the ground. If it rains and moisture continues, this grass survives until its next beach is ready, but if there is strong sunlight after two days, that grass will get scorched and its life cycle will end. She will not be able to prepare the seeds of her next generation. This will affect the land and its softness. Barrenness will increase in the land.
It is as easy for us to ignore the quality of the soil as the dust on our shoes. If you are not a farmer or a gardener, you never care about the health of the soil. However, it is very important for us to care about the health of the soil. It is a question of our existence. If the soil is not healthy, it will be difficult to produce food and the food crisis in the world may deepen. Soil consists of a mixture of mineral and organic wastes, which contain micro-organisms. It takes hundreds of years for the top one inch of the nutrient-rich soil layer to develop. This one inch part is an integral part of agricultural land, due to which grains are produced and billions of people get food. However, due to excessive heat and drought, this layer of soil starts to be destroyed, like the severe heat in Europe this year has damaged the soil.

"What we are seeing is that there is now much more drought. At the same time, soil erosion is also intensifying," said researcher Lizeth Vasconez Navas of the Institute of Soil Science at the University of Hamburg.
To save moisture in the soil, there is a need to join the save soil campaign. In March 2022, the Save the Soil movement was launched by Sadhguru, who embarked on a 100-day motorcycle journey through 27 countries. But if someone does not have time, then it is not necessary that he should join any campaign and do the work of saving the soil. The easiest way is to plant trees and do water conservation to save water in the land. We have given up building a small courtyard in front of our houses which used to have grass, plants and moisture. Just, there is a need to re-create that courtyard in our homes which is also called kitchen garden. All that is needed is a lush green garden between the multistory buildings, which preserves the moisture of the earth. The greater the number of these two things, the more we can save the soil and its moisture. So now when building or renovate your house, make sure to keep a place for a small garden as well. This will be our very small right, but very important help against the bad effect of climate change.
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(21.05.2023)
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Friday, May 19, 2023

कला और सुंदरता हर जगह होती है, बस, हमें उसे देखने और महसूस करने की जरूरत होती है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मित्रो, कला हमेशा सुकून देती है.. कुछ जगहें खूबसूरत होती हैं और कुछ कला के द्वारा खूबसूरत बना दी जाती हैं... जब प्रकृति और परम्परा को दीवार पर ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया जाए  वह जगह ख़ूबसूरत बन जाती है ...चाहे वह कोई होटल या रेस्टोरेंट ही क्यों न हो... 🚩🎌🎭🧩🎊
   सो, जब आप किसी होटल या रेस्टोरेंट में जाएं तो वहां सिर्फ अपने खाने की टेबल पर अपने नाश्ते की प्लेट या भोजन की प्लेट ही न देखें बल्कि अपने आसपास के माहौल की सुंदरता को भी देखें यक़ीन मानिए बहुत रिलैक्स महसूस होगा... वहां अपनी तस्वीरें थे खींचे, अपनी मेमोरीज़ बनाएं और पसंद आने पर होटल के रिसेप्शन पर अपना कॉम्लीमेंट भी छोड़ें... आप चाहें तो हर पल को यादगार बना सकते हैं ...अपने लिए भी, दूसरों के लिए भी... 💁👌🎶🎉🚩
  🚩 Be happy and enjoy your life.  - Dr (Ms) Sharad Singh's advice 🙋🤩❤️

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