दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"- प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
प्रेम बड़ा ही कौतूहल भरा और गुदगुदाने वाला शब्द है। यह शब्द अपने आप में रहस्यमय लगता है। आज के भौतिकवादी वैश्विक समय में परस्पर संपर्क को भले ही विस्तार मिला है, लेकिन प्रेम संकुचित और भौतिकता से ग्रसित हो गया है। ‘पैंचअप” और “ब्रेकअप” के चलन में आज प्रेम को दैहिक वस्तु मान लिया जाता है। जबकि वास्तविक प्रेम में देह आवश्यक नहीं है। अपने प्रिय को अपनी "संपत्ति" समझना भी एक बड़ी भूल है। यदि भावना में “व्यक्ति” को “संपत्ति” बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। यदि प्रेम को समझना है तो श्रीकृष्ण के महारास को समझना जरूरी है। क्योंकि प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में।
कुछ वर्ष पूर्व कानपुर में एक हृदय विदारक घटना घटी थी जिसमें एक कथित युवा प्रेमी ने कॉलेज में पढ़ने वाली एक युवती को चाकू मार कर मौत के घाट उतार दिया था। वह भी सिर्फ इसलिए कि उस युवती ने उस युवक का प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। युवक पकड़ा गया। उस पर इरादतन हत्या का अपराध दर्ज हुआ। उसने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने यही कहा कि वह उस युवती से बेइंतहा प्रेम करता था। न्यायाधीश भी चकित रह गए कि यह किस तरह का प्रेम था? क्या कोई प्रेमी उस युवती को किसी भी तरह से चोट पहुंचा सकता है जिससे वह प्रेम करता हो? सच्चा प्रेम हर हाल में अपने प्रिय की सलामती चाहता है उसकी खुशी चाहता है उसके हर निर्णय को स्वीकार करता है। वस्तुतः वह युवक प्रेम में नहीं था, सिर्फ एक आकर्षण और अधिकार की भावना उसे पर हावी थी। वह युवती पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था। ऐसा अधिकार जिसमें वह युवती किसी अन्य से बात न करें, किसी अन्य से न मिले, किसी अन्य की ओर न देखें। सिर्फ उस युवक की ‘संपत्ति’ बन कर रहे। यदि भावना में ‘‘व्यक्ति’’ को ‘‘संपत्ति’’ बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। जब यह प्रभाव व्यक्ति को पूरी तरह से अपने जाल में जकड़ लेता है तो फिर उस व्यक्ति की उचित, अनुचित में भेद करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। अमानवीय और क्रूरतापूर्ण उठाया गया अपना हर कदम उसे सही लगता है। यही सच था उस युवा का, जो अपनी आपराधिक मनोवृत्ति को प्रेम समझने की भूल कर रहा था। ऐसा व्यक्ति किसी से भी प्रेम नहीं कर सकता है न अपने माता-पिता से, न अपने परिजन से और न किसी अन्य व्यक्ति से। उसके द्वारा ईश्वर से प्रेम किए जाने का तो सवाल ही नहीं उठाता है क्योंकि ईश्वर तो दिखाई ही नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता उस पर वह अधिकार कैसे जमा सकता है? जहां अधिकार की भावना हो वहां प्रेम नहीं होता है।
प्रेम विश्वास समर्पण और समानता की भावना से भरा होता है। वास्तविक प्रेम में कुछ पाने की नहीं बल्कि देने की भावना प्रबल होती है। सूफी संत कवि लुत्फी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के मैं मोम की बाती हूं।
यक पांव पर खड़ी हूं जलने पिरत पाती हूं।।
सब निस घड़ी जलूंगी, जागा सूं न हिलूंगी,
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।।
यदि समर्पण स्वेच्छा से हो, तभी उसमें प्रेम की उपस्थिति होती है, अन्यथा समर्पण तो एक आक्रमणकर्ता शस्त्रबल से भी करा लेता है। सच्चे प्रेम की सबसे सटीक व्याख्या श्रीकृष्ण के महारास में मौजूद है। जिसने महारास का मर्म समझ लिया, वह प्रेम के मर्म को गहराई से समझ सकता है। श्रीमद्भागवत के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम श्लोक में लिखा है- ‘‘भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमिलका।’’ भावार्थ है कि इस मधुर रासलीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है।
श्रीकृष्ण द्वारा महारास रचाए जाने की कथा भी अत्यंत रोचक है। कथा इस प्रकार है कि कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो वह घमंड से भर उठा। कामदेव ने श्रीकृष्ण को चुनौती देते हुए कहा कि ‘‘मैं आपसे भी प्रतिस्पर्द्धा करना चाहता हूं।’’
श्रीकृष्ण ने चुनौती स्वीकार कर ली लेकिन कामदेव ने इस प्रतिस्पर्द्धा के लिए कृष्ण के सामने एक शर्त भी रखी कि ‘‘इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं-सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा और एक ही समय में सभी गोपिकाओं के साथ महारास करना होगा।’’
श्रीकृष्ण ने शर्त मान ली। शरद पूर्णिमा की रात को श्रीकृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर अपनी बांसुरी बजाई। निधिवन मथुरा के निकट स्थित है। यह मान्यता है कि आज भी श्रीकृष्ण राधा एवं गोपियों के साथ दिव्य रासलीला रचाने आते हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि निधिवन को परम कृष्णभक्त स्वामी हरिदास ने बसाया था। निधिवन मंदिर में राधा कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और एक रंग महल है जो जंगल से घिरा हुआ है। इस रंग महल में रास लीला खत्म होने के बाद भगवान कृष्ण और राधा रानी विश्राम करते हैं। रंग महल एक छोटा सा मंदिर है जहां माना जाता है कि श्रीकृष्ण राधा को अपने हाथों से सजाते हैं। मंदिर में उनके विश्राम के लिए बिस्तर भी है। रंग महल मंदिर के पुजारी हर रात आरती के बाद इसके दरवाजे बंद करने से पहले नीम की दातुन, एक साड़ी, चूड़ियां, पान के पत्ते, मिठाई और पानी रखते हैं। माना जाता है कि रात में राधा-कृष्ण यहां आते हैं और आराम करते हैं। इस कारण सुबह सब कुछ बिखरा हुआ पाया जाता है जैसे कि किसी ने उनका उपयोग किया हो।
कामदेव की चुनौती स्वीकार करते हुए श्री कृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर ‘‘क्लीं बीजमंत्र’’ फूंकते हुए 32 राग, 64 रागिनियां बजाईं। श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि सुनकर राधा एवं गोपियां अपने-अपने घरों से निकलकर मंत्रमुग्ध-सी निधिवन पहुंच गईं। सभी गोपियां चाहती थीं कि जिस तरह कृष्ण राधा के साथ नृत्य कर रहे हैं, उनके साथ भी नृत्य करें। वस्तुतः यही चुनौती कामदेव ने रखी थी। कामदेव को लगा था कि कृष्ण का राधा एवं गोपियों के साथ महारास नहीं हो सकेगा। कामदेव दैहिक और मानसिक प्रेम में अंतर नहीं समझ सका था। जब व्यक्ति किसी के प्रेम में इस तरह डूब जाता है कि उसे उसके न होने पर भी उसके होने का अहसास होने लगे तो वह स्थिति मानसिक प्रेम एवं अलौकिक प्रेम की चरम स्थिति होती है। ठीक यही स्थिति निर्मित हुई थी महारास के समय जब प्रत्येक गोपियों को यह प्रतीत हुआ कि कृष्ण उनके साथ नृत्य कर रहे हैं। कामदेव यह देख कर हतप्रभ रह गया। स्वर्ग में स्थित देवता भी महारास को देख कर नृत्य कर उठे।
यूं भी जब हम ईश्वर के किसी रूप की भक्ति करते हैं तो यह जानते हैं कि वह रूप सभी को प्रिय है, किन्तु साथ ही यह मानते हैं कि उस रूप की हम पर विशेष कृपा है क्योंकि हम उसे अपना मानते हैं। यह अलौकिक भावना जैसे ही लौकिक विचार के धरातल पर पहुंचती है, प्रेम को समझना ही बंद कर देती है क्योंकि वहां व्यक्ति नहीं ‘संपत्ति’ की भावना प्रभावी हो जाती है। जबकि श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि यदि प्रेम सच्चा है तो तमाम सांसारिकता के बाद भी दो प्रेमियों के बीच तीसरा नहीं आ सकता है। रसखान कहते हैं कि -
अकथ कहानी प्रेम की जानत लैली खूब।
दो तनहुं जहं एक भे मन मिलाई महबूब।।
- प्रेम की अकथ है, कहानी को व्यक्त नहीं किया जा सकता है इस कहानी में आत्मा एवं परमात्मा अथवा दो आत्माओं का परस्पर मिलन ही दैहिक मिलन का संकेत होता है
विद्वानों ने महारास या रासलीला के अनेक अर्थ किए हैं। जैसे, गोपियां वेद की ऋचाएं हैं और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष। जिस प्रकार शब्द और अर्थ का नित्य संबंध है, ऋषियों और वेद का नित्य संबंध हैं, इसी प्रकार गोपियों और कृष्ण का नित्य संबंध और विहार ही रासलीला है। सांख्यवादियों के अनुसार, रासलीला प्रकृति के साथ पुरुष का विलास है। गोपियां प्रकृति स्वरूप में अंतःकरण की वृत्तियां हैं, भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं। प्रकृति के अनेक विलास देख लेने के बाद अपने स्वरूप में स्थित होना रासलीला का रहस्य है। योग शास्त्र के अनुसार, अनहद नाद भगवान श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है। अनेक नाड़ियां गोपियां हैं। कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं। सहस्र दल कमल ही सुरम्य वृंदावन है, जहां आत्मा-परमात्मा का आनंदमय सम्मिलन रासलीला है।
श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि प्रेम में दैहिक अधिकार से कहीं अधिक महत्व है मानसिक अधिकार का। जिसको बहुत ही सरल और आम बोलचाल की भाषा में कहते हैं ‘‘दिल जीतना’’। वास्तविक प्रेम देह से नहीं मन और आत्मा से हो कर गुज़रता है। आज के बाजारवादी समय में प्रेम के अस्तित्व को भी ‘‘बाज़ारू बनाने’’ की भूल की जाने लगी है, जिससे ‘ब्रेकअप’ और उसके बाद ‘डिप्रेशन’ आम बात हो चली है। प्रेम छोटे-छोटी बातों में, दूसरों के बहकावे में टूट जाए तो वह प्रेम नहीं है। इसीलिए सतसई परंपरा के नीति कवि दयाराम कहते हैं-
मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू।
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु।।
- अर्थात् हे श्रीकृष्ण! जैसे लौटन दीपक से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एवं प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे। ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।
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