आज 18.03.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित -
पुस्तक समीक्षा
कबीर के तेवर हैं कवि शिवनारायण के दोहों मेें
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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दोहा संग्रह - धार के आर पार
कवि - शिवनारायण
प्रकाशक - सर्व भाषा ट्रस्ट, जे-49,स्ट्रीट नं.38, राजापुरी, मेनरोड उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मूल्य - 250/-
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हिंदी काव्य विधा में दोहा सबसे प्राचीनतम विधा मानी जाती है। दो पंक्तियों में सब कुछ कह देने की कला। हर काल में यह विधा लोकप्रिय रही। सूरदास ने इसे ईश्वर के प्रति सखाभाव आराधना का माध्यम बनाया, वहीं कबीर ने समाज में विरुपता लाने वाले लोगों को ललकारने के लिए दोहा की विधा को शस्त्र की भांति अपनाया। दोहा के लिए कहा गया है कि “देखत में छोटे लगे घाव करें गंभीर”। यही दोहे की खूबी है। विडंबना देखिए कि सबसे अधिक दलित अवस्था में मौजूद सत्य के पास आज स्वर का अभाव होता जा रहा है। सत्य को पहचानने और उसे व्यक्त करने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है वह साहस आज नेपथ्य में मुंह छुपाए खड़ा है। बुद्धिजीवी वर्ग में एक बड़ा खेमा ऐसा है जो राजनीति में गहराते स्याह चरित्र को समझते हुए भी उसे झूठ का चश्मा लगाकर देखने की आदत डाल चुका है। ऐसे कठोर विपरीत समय में कवि, लेखक, संपादक और एक जीवट व्यक्तित्व के धनी शिवनारायण के दोहे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें वही प्रहारक की क्षमता है जो कबीर के दोहों में पाई जाती है यानी निडर होकर खरी-खरी बात कहना और ललकारना -‘‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाटी हाथ। जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ।।‘‘
“धार के आर पार” यह कवि शिवनारायण का प्रथम दोहा संग्रह है। इससे पूर्व उनकी कविताएं एवं गजलें हिंदी साहित्य जगत द्वारा अत्यंत सराही एवं स्वीकार की गई हैं। इस दोहा संग्रह में भी कवि के वही तेवर हैं जो उनके पूर्व लेखन में देखे जा सकते हैं यानी सत्य की पक्षधारिता। वे भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध है तथा किसान आंदोलन में किसानों के पक्ष में अपनी कलम चलाते दिखाई देते हैं। मानो सत्य का पक्ष लेते समय उन्हें किसी बात का भय नहीं है। पुस्तक की भूमिका लिखते हुए वरिष्ठ कवि राजेंद्र गौतम ने “जगबीती के दोहे” शीर्षक से बहुत सही लिखा है कि - “शिवनारायण ने अपनी बात बहुत आवरण चढ़ा कर नहीं कही है बल्कि वह जब उसको जो लग रहा है या जो उसे दिख रहा है, उसे वह सीधे-सीधे सहज भाषा में कह रहा है। वर्तमान की विसंगतियों और त्रासदी का दायित्व शीर्ष सत्ता पर ही डालता है और नीति-निर्माता की नियत पर ही सवाल खड़ा करता है। वह जन के मन के दुख को अभिव्यक्ति देता है।”
साक्ष्य के लिए शिवनारायण का यह दोहा देखिए जिसमें ‘‘साँच चला जब राह पे’’ कहते हुए वे अपनी बात इन शब्दों में कहते हैं-
साँच चला जब राह पे, लगे ठोकने कील।
कर परेशान तुम उसे, चले मील पर मील।।
ठोकरों पे रख तृण को, साहिब मालामाल।
आँखों में जब तृण पड़े, साहिब काल अकाल।।
कील ठोकते युग भया, जनतंत्र शर्मसार।
रख रेहन श्रीराम को, देश रसातल पार।।
एक सधुक्कड़ी लहज़ा है शिवनारायण के कहन में। वे कथ्य को पकड़ कर चलते हैं। यह पकड़ बहुत मजबूत है। ‘‘धार के आर पार’’ दोहा संग्रह में 96 शीर्षकों के अंतर्गत कुल 576 दोहों में कवि के एक से तेवर देखे जा सकते हैं। उनके शब्दों की लुकाठी हर उस व्यक्ति की सुप्त चेतना को चुनौती दे कर जगाने के लिए कटिबद्ध है जो अमान्य परिस्थितियों से समझौता कर के जीवन जीने की आदत डाल चुके हैं। वे सत्तापक्ष को आईना दिखाने से भी नहीं चूकते हैं। यह निडरता आज के दौर में आमतौर पर कम ही देखने को मिलती है। इस संबंध में संग्रह की द्वितीय भूमिका ‘‘योगडीहा के बांके की आवाज़’’ शीर्षक से सुभाष राय ने शिवनारायण के दोहों पर सटीक टिप्पणी की है-‘‘धार के आर पार - के दोहे भी ऐसी ध्वनियों से भरे हुए हैं। ‘सांच चला जब राह पे, लगे ठोकने कील’, ‘रख रेहन श्रीराम को, देश रसातल पार’ या ‘डर की खेती कर रही, डरी हुई सरकार’ जैसी पंक्तियाँ इस बात की गवाह हैं कि वे एक कवि की अपनी भूमिका के निर्वाह में एक निडर योद्धा की तरह विभाजनकारी शक्तियों के विरुद्ध खड़े हैं। वे सत्ता और उसकी समर्थक ताकतों को चुनौती देने से नहीं डरते। ‘सीख गया जो फेंकना, उसकी बल्ले यार’। सत्ता को चलाने वाले लल्लू-पंजू भी उनके वार के दायरे से बाहर नहीं हैं, ‘जो जो अफसर कह रहे, बोल रही सरकार’। ये अफसर नाम के जीव ही सत्ता के खूनी पंजों की तरह काम करते हैं और शोषण का हथियार बनते हैं। वे अपनी जिम्मेदारी का कभी निर्वाह नहीं करते और जनता को हमेशा अटकाने-भटकाने का काम करते हैं। तभी तो ऐसे दृश्य आम तौर पर देखने को मिलते हैं, ‘पहली ही बरसात में, हुआ शहर जलमग्न’।’’
‘‘राम राम सरकार’’ के रूप में लिखे गए दोहों में जो आंच है, वह साफ़-साफ़ महसूस की जा सकती है-
पालतु मैना हो गई, स्वामी के हित काम।
विरोधी को तंग करे, करे वह राम राम ।।
डर की खेती कर रही, डरी हुई सरकार ।
जन जन में दहशत भरे, राम राम सरकार।।
सनातन सनातन करे, सनातन की न चाह।
जाप नाम श्रीराम का, फेंक हिंसा डाह ।।
कवि ने लगभग हर पृष्ठ पर अपने दोहों की सृजनतिथि भी दी है जिससे पाठक को यह पता चल सकता है कि वे दोहे किस घटनाक्रम और किस मनःस्थिति में लिखे गए होंगे। ‘‘अपनी बात’’ लिखते हुए कवि शिवनारायण ने ‘‘मैं दोहे के या दोहा मेरे साथ’’ के तादात्म्य को उद्घाटित करते हुए यह भी बताया है वे दोहा लिखने के लिए क्यों और कैसे प्रेरित हुए। यह सहजता भी कवि की एक विशेषता है अन्यथा आज तो प्रेरक व्यक्ति या पुस्तक का उल्लेख करना तो दूर उसका नाम भी कोई नहीं लेता है। शिवनारायण के शब्दों में-‘‘आधुनिक साहित्य में दोहा के शिल्प में चाहे बहुत बदलाव न हुए, लेकिन कथ्य संप्रेषण में प्रयोग पर प्रयोग होते रहे। कथाकार पाल भसीन तो इसके इतने दीवाने हुए कि उनका ‘‘अमलतास की छाँव’’ नाम से एक संग्रह ही आ गया। इस संग्रह को आधुनिक दोहे की पहली किताब का सम्मान भी मिला। इस पुस्तक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। अन्य कवियों के दोहे भी पढ़ता रहा। उन दोहों में तिरता हुआ कब दोहा मेरे अंदर पैठ कर मन-प्राणों को सुवासित करने लगा, कहाँ पता चल पाया! जब तक उसका संज्ञान होता, जाने कितने ही दोहे लिख चुका था। अब मैं दोहे के साथ हूँ अथवा दोहा मेरे साथ, कहना मुश्किल है! अच्छा भला मैं गजलें कह रहा था कि दोहों ने मुझे अपने प्रभाव में ले लिया।’’
विचारणीय प्रश्न ये है कि दोहों ने शिवनारायण को प्रभाव में ले लिया, या फिर शिवनारायण ने दोहों को अपने प्रभाव में ले लिया? इस प्रश्न का उत्तर उनके दोहों में ही मौज़ूद है, ज़रा ‘‘कहे नमोजी संत’’ शीर्षक के दोहों पर दृष्टिपात कीजिए-
मंडी में कीमत मिले, यही सबन की चाह।
जब कीमत मिलि ही गयो, तब काहे बौराह।।
काले को सफेद करे, नोटबंदी मशीन ।
लोग तबाही में मरे, सब हों काल अधीन।।
तानाशाही हटा यहाँ, बचाओ लोकतंत्र ।
जन जन की सत्ता रहे, लाओ रे जनतंत्र।।
वाशिंग मशीन अजुबा, भ्रष्ट हो रहे संत
कीचड़ में ही कमल खिले, कहे नमोजी संत
श्रीराम रण में उतरे, घर-घर करें प्रचार
कमल खिलाओ देश में, बन सनातन प्रचार।
संग्रह के दोहों की विशेषता यह भी है कि इनमें तीखेपन के साथ बिहार के बांका की बोली-भाषा की छाप भी उपस्थित है, जहां की माटी ने कवि को गढ़ा है। वे भिखारी ठाकुर के नाटकों का भी स्मरण करते हैं ‘‘भिखारी के नाटक में’’ के अंतर्गत रखे गए दोहों में। कुछ दोहे देखिए -
पति-पत्नी बीच रिश्ते, कडुवा गबरधिचोर।
बेकारी पलायन भी, चर्चा बीच अछोर ।।
देहाती लुगाई को, रखें नहीं वह याद।
गाँव में स्त्री बिलख रही, कौन सुने फरियाद।।
भिखारी के नाटक में, ग्राम समाजन चित्र।
दर्द पीड़ा बिछोह सब, वहां मिलेगा मित्र।।
"लगे फेरने राम’’ कहते हुए कवि शिवनारायण वर्तमान परिदृश्य पर तीखी चोट करते हैं। वे कुछ भी घुमा-फिरा कर नहीं कहते हैं, वरन हर बात आईने के समान ऐसे सामने रख देते हैं कि गोया कह रहे हों कि दम है तो इसमें अपना प्रतिबिम्ब देखो और खुद को समझो, वरना जय राम जी की!-
लोकतंत्र में आम ही, होता सब कुछ यार।
जो खास की बात करे, रहे देश के द्वार।
दो ने दो ही के लिए,किये खटाखट काम।
दुनिया ने देखा उसे, दिया सटासट धाम।।
वोट काम पर माँगिए, रण पर न सरकार।
मिले राम के नाम से, जगत पार सरकार।।
लख चुनाव में हार वे, लगे फेरने राम।
काम दसक का दे नहीं, बजा झुनझुना राम।।
‘‘धार के आर पार’’ के पूरे दोहों से गुज़रने के बाद दावे से कहा जा सकता है कि शिवनारायण चेतना के कवि हैं। आधुनिक भारतीय समाज और राजनीति के मुद्दों पर बेझिझक चिंतन के साथ ही सामंती बोध एवं पूँजीवादी छल-छद्म दोनों का प्रतिकार है उनके दोहों में। उनकी भाषा पारदर्शी है उस निर्मल धार की तरह जिसके आर पार झांक कर तलछट के सत्य से भी साक्षात्कार किया जा सकता है। यह दोहा संग्रह निश्चित रूप से पढ़े जाने योग्य है। यह राजनीति के किसी एक पक्ष से प्रेरित नहीं है वरन राजनीतिक स्वच्छता का आग्रह करता है, जिससे आम जन जीवन सुंदर, निष्कंटक और सुगम बन सके।
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