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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, August 17, 2016

चर्चा प्लस ... स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्त्री .... डाॅ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh
मेरा कॉलम  "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (17. 08. 2016) .....
 
My Column Charcha Plus‬ in "Dainik Sagar Dinkar" .....
  स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्त्री
- डॉ शरद सिंह
समाज की भांति हिन्दी व्याकरण भी पुरुष प्रधान है। अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ ‘पर्सन’ अर्थात् ‘व्यक्ति’ जुड़ा होता है। यह ‘पर्सन’ (व्यक्ति) पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी किन्तु, हिन्दी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है और न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष, फिर स्त्री के लिए जगह कहां हैं? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित हैं? मैं न तो व्याकारण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न आधिकारित व्याख्याकार, लेकिन एक स्त्री होने के नाते यह बात मुझे सदैव चुभती है।
स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं, असीमित संभावनाओं एवं असीमित सकारात्मकता के द्वार की चाबी है। इस चाबी से देष के बहुमुखी विकास का द्वार तो खुला ही, स्त्री के अधिकारों का द्वार भी खुला। सन् 1947 से सन् 2016 तक के लम्बे सफर में स्त्री ने प्रगति के अनेक सोपान चढ़े हैं। फिर भी बहुत कुछ बुनियादी स्तर पर छूटा हुआ है। विषेष रूप से मध्यमवर्गीय और ग्रामीण अंचलों में तस्वीर अभी श्वेत-ष्याम दिखाई देती है। इन तबकों में बेटे की ललक स्त्री को आज भी बाध्य करता है कि वह बेटी पैदा करने के बारे में सोचे भी नहीं। विवाह के समय बहू के साथ ढेर सारा दहेज मिले। स्त्री परिवार की सदस्य तो रहे किन्तु मुखिया बनने का स्वप्न न देखे। अर्थात् स्त्री परिवार की अनुमति के बिना न तो कमाने की सोचे और न खर्च करने के बारे में विचार करे, परिवार से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय भी लेने के बारे में न सोचे। आज भी यह कटुसत्य स्त्रीप्रगति की तस्वीर को मुंहचिढ़ाता रहता है। स्त्री के विरुद्ध होने वाले अपराधों के आंकड़े भी घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। जिस तरह महाभारत काल में भरे दरबार में दुश्शासन ने द्रौपदी का चीर हरण करने का दुस्साहस किया था, वैसा दुस्साहस आजकल बलात्कार के रूप में समाचारों की सुर्खियां बनता रहता है। उस जमाने में कृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा की थी लेकिन इस जमाने में दुश्शासन तो बहुतेरे हैं लेकिन कृष्ण जैसे साहस का अभाव है।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
 स्वास्थ्य की बुनियाद
स्त्री बुनियाद है परिवार की। वह बच्चों को जन्म देती है और उनकी परवरिष करती है। लेकिन इसी स्त्री की षिक्षा और स्वास्थ्य के बारे में आंकड़े अधिक बोलते हैं, सच्चाई कम। राजनीतिक हलकों अथवा सरकारों को स्त्री-स्वास्थ्य जच्चा-बच्चा के टीकाकरण तक ही सीमित दिखाई देता रहा है। पहली बार मध्यप्रदेष सरकार ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की कि छात्राओं को सैनेटरी पेड्स मुफ़्त उपलब्ध कराए जाएंगे। स्त्री-जीवन के जिस सबसे महत्वपूर्ण पक्ष की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया उस ओर ध्यान दिया जाना इस बात का द्योतक कहा जा सकता है कि स्त्री के स्वास्थ्य के प्रति एक राज्य-सरकार का ध्यान आकृष्ट तो हुआ। बाकी राज्य सरकारों को भी बिना किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के इस कदम को अपनाना चाहिए। क्योंकि जो परिवार गरीबीरेखा ने नीचे जी रहे हैं अथवा जिनमें स्त्री-स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता नहीं है, उन परिवारों की बेटियों को मासिकधर्म के समय स्वच्छ साधन उपलब्ध हो सके। मासिकधर्म वह प्रक्रिया है जो स्त्री के जननी बनने में अहम भूमिका निभाती है।
नई दिल्ली लोधी रोड स्थित सभागार में 15 फरवरी, 2012 को केन्द्रीय पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय द्वारा ग्रामीण स्वच्छता प्रवर्द्धन हेतु राष्ट्रीय परामर्श का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा शौचालय था। चर्चा में हिस्सा लेने वाले प्रमुख गैर-सरकारी संगठनों ने बहुत विस्तार से इस मुद्दे पर बातचीत की कि भारत की निरन्तर बढ़ती मलिन बस्तियों और ताल-तलैयों में बैक्टीरिया के बढ़ने से अनेक बीमारियां पैदा होती हैं और देशभर में ग्रामीण इलाके के लोग उससे प्रभावित होते हैं।
02 अक्टूबर 2014 को मोदी सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के अंतर्गत ख्ुाले में शौच से मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने का खुला आह्वान किया। स्त्री-जीवन की सुऱक्षात्मक प्रगति के पक्ष में ‘‘सोच से शौचालय तक’’ का यह कदम स्वागत योग्य रहा है। किन्तु इसके लिए जनजागरूकता सबसे अधिक जरूरी है। यह तो आमजनता को ही समझना पड़ेगा न कि एक स्वस्थ औरत ही स्वस्थ पीढ़ी को जन्म दे सकती है और एक स्वस्थ औरत ही बहुमुखी प्रगति कर सकती है। 

सुरक्षा का प्रश्न
एक और बुनियादी समस्या जिसके बारे में लगभग दस वर्ष से भी पहले मैंने एक कहानी लिखी थी ‘मरद’। कहानी का सार यही था कि सुंदरा नाम की एक नवयुवती विवाह के उपरान्त अपने ससुराल आती है, जहां उसे खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। जब तक उसकी सास या उसकी सहेलियां उसके साथ जाती हैं तब तक वह सरपंच की कुदुष्टि से बची रहती है। लेकिन एक दिन अकेले जाने पर सुंदरा सरपंच की हवस की षिकार हो जाती है। वह पुलिस के पास जाना चाहती है लेकिन उसकी सास उसे चुप रहने को मना लेती है, उसका पति भी उसे चुप रहने को कहता है। कुछ वर्ष बाद जब कुदृष्टि के काले साए सुंदरा की अवयस्क बेटी चमेली पर मंडराने लगते हैं तो वह चुप न बैठ कर रौद्र रूप धारण कर लेती है और अपने दम पर शौचालय बनवाने की घोषणा करती हुई ललकार कर अपने पति से कहती है -‘‘‘‘तू बैठ के सोच! आ के देखे तो साला सरपंच, गाड़ दूंगी उसे खुड्डी में...अब मैं वो सुंदरा नहीं कि तेरे कहे से चुप बैठूं, अब मैं मंा हूं चमेली की! समझे!’’
यह सभी जानते हैं कि सारे के सारे अपराध पुलिस के रोजनामचे तक नहीं पहुंच पाते हैं, कुछ पहुचते हैं तो दर्ज़ नहीं हो पाते हैं और कुछ दर्ज़ होते भी हैं तो वे या तो वापस ले लिए जाते हैं अथवा प्रताड़ित को लांछन की असीम वेदना सहते हुए दम तोड़ देना पड़ता है। एक ओर देश की आजादी का उत्सव और दूसरी ओर यह अप्रिय लगने वाला दुखद प्रसंग। लेकिन सच तो सच ही रहेगा कि जिस घड़ी कल्पना चावला अंतरिक्ष में उड़ान भर रही थी, ठीक उसी समय देष के किसी दूर-दराज़ ग्रामीण क्षेत्र में शौच के लिए जाती स्त्री बलात्कार की षिकार हो रही थी। कल्पना चावला के रूप में स्त्री की वैष्विक प्रगति को सबने देखा किन्तु उस बलत्कृत स्त्री की तो रिपोर्ट भी दर्ज़ नहीं हो पाई। भारतीय स्त्री के जीवन का यह स्याह पक्ष एक धब्बा है देश की तमाम प्रगति पर। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता। लिहाजा प्रश्न उठता है कि महिला एवं बालविकास मंत्रालय कार्य कर रहा है, राष्ट्रीय महिला आयोग दायित्व निभा रहा है तथा स्वयंसेवी संस्थाएं समर्पित भाव से काम कर रही हैं तो फिर विगत 53 वर्ष में देश की समस्त महिलाओं का विकास क्यों नहीं हो पाया? कहीं कोई कमी तो है जो स्त्रियों के समुचित विकास के मार्ग में बाधा बन रही है। जाहिर है कि यह कमी स्त्री के प्रति सुरक्षा में कमी की है। 

वास्तविक अधिकारों की जरूरत
राजनीतिक क्षेत्र में स्त्रियों की संख्या के आंकड़ों पर अकसर विवाद होता रहता है। फलां राजनीतिक दल महिलाओं को उतना स्थान नहीं देता, जितना कि हम देते हैं, जैसे दावे हास्यास्पद ढंग से जब तक उछलते रहते हैं। कम से कम हिन्दी पट्टी में तो यह आम दृष्य है कि महिला सरपंच के सारे संवैधानिक निर्णय उसका पति अर्थात् ‘सरपंच पति’ लेता है। उत्तर प्रदेष में ‘प्रधानपति’ का पद इसी हेतु है कि ‘प्रधान’ के पति महोदय प्रधान को निर्णय लेने में मदद कर सके। अब यदि पुरुष-बैसाखियों के सहारे स्त्री की प्रगति खड़ी है तो यह काहे की प्रगति? स्वनिर्णय लेने के अधिकार से बढ़ कर और कोई अधिकार नहीं होता है। यह अधिकार अभी भी स्त्री से कोसों दूर है।
अंत में मैं उस तथ्य को एक बार फिर दोहराना चाहूंगी जिसे मैंने अपने उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ की भूमिका में सामने रखा था कि समाज की भांति हिन्दी व्याकरण भी पुरुष प्रधान है। अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ ‘पर्सन’ अर्थात् ‘व्यक्ति’ जुड़ा होता है। यह ‘पर्सन’ (व्यक्ति) पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी किन्तु, हिन्दी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है और न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष, फिर स्त्री के लिए जगह कहां हैं? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित हैं? मैं न तो व्याकारण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न आधिकारित व्याख्याकार, लेकिन एक स्त्री होने के नाते यह बात मुझे सदैव चुभती है।’
अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।
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