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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 15, 2017

चर्चा प्लस ... लापता हुए बच्चों का स्मरण - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh

एक और बाल दिवस गुज़र गया......

चर्चा प्लस  (सागर दिनकर, 15.11.2017 )


लापता हुए बच्चों का स्मरण
- डॉ. शरद सिंह
एक और बाल दिवस गुज़र गया। उत्सवधर्मिता से मनाया हमने इस बार के बालदिवस को भी। बच्चों के हित-अहित पर ढेर सारी चर्चाएं कीं, भाषण दिए और चिंताएं व्यक्त कीं। किन्तु गिनती के लोग होंगे जिन्होंने लापता हुए बच्चों का स्मरण किया होगा और सोचा होगा कि क्या कारण है जो वे आज तक नहीं मिल सके। ग़ैरजरूरी मुद्दों पर तो बहुत शोर मचाया जाता है लेकिन लापता हुए बच्चों के बारे में एक सन्नाटा पसरा रहता है। बच्चे हमारा भविष्य हैं और यदि बच्चे ही सुरक्षित न रहें तो हमारा भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा? जबकि लापता होने वाले बच्चों के आंकड़े सिर्फ़ चौंकाने वाले नहीं अपितु डराने वाले भी हैं। 
Charcha Plus Column in Sagar Dinkar by Dr Miss Sharad Singh
हमें बचपन में यही कह कर डराया जाता था कि घर से बाहर दूर मत जाओ नही ंतो बाबा पकड़ ले जाएगा, कहना मानो नहीं तो बाबा पकड़ ले जाएगा, जल्दी सो जाओ नही ंतो बाबा पकड़ ले जाएगा। हमारी मांएं जानती थीं कि ‘‘बच्चा उठाने वाले बाबा’’ मोहल्लों में घूमते रहते हैं। वे बच्चों को बहला-फुसला कर अगवा कर लेते हैं। वे अपने बच्चों को भी ऐसे कथित बाबाओं से सजग रहने को कहती थीं।  बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं की ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नज़र से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है। यह भूल कर कि लापता होने वाले बच्चों में कभी हमारे परिवार का कोई बच्चा भी हुआ तो? नही ंहम यह कल्पना नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमने अपने परिवार के दायरे को ही बहुत छोटा कर लिया है। हमारे परिवार में हमारे पड़ोसी, हमारे मुहल्ले, हमारे शहर या हमारे समाज का बच्चा शामिल नहीं रहता है। अतः हमें उसकी चिन्ता भी क्यों होने लगी? 
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।  2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर ज़िलों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को ज़बरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है।  एक और आंकड़ा चौंका देने वाला है कि मध्यप्रदेश राज्य का इन्दौर जिला बच्चों के लिए सबसे ज़्यादा असुरक्षित माना गया है जहां 2010 के बाद 4 हजार से अधिक बच्चे लापता हो चुके हैं। इनमें 60 प्रतिशत संख्या लड़कियों की है यानी देश में लापता होने वाले 3.85 लाख बच्चों में से 61 प्रतिशत लड़कियां हैं। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि भारत की हिंदी पट्टी की लड़कियों को गायब कर उन्हें खाड़ी देशों में विवाह के लिए बेच दिया जाता है। चूंकि भारतीय स्त्री के सौन्दर्य को लेकर विश्व स्तर पर चर्चा रहती है, लिहाजा ऐसी कुछ रिपोर्ट्स सामने आई हैं कि इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
विगत वर्ष एक सम्मेलन के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री ने मानव तस्करी को बड़ी चुनौती बताते हुए स्वीकार किया था कि यौन पर्यटन और बाल पोर्नोग्राफी समेत अन्य मुद््दे बच्चों के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर उभरे हैं। बच्चों के खिलाफ हिंसा समाप्त करने के लिए दक्षिण एशियाई पहल की चतुर्थ मंत्रीस्तरीय बैठक को संबोधित करते हुए गृहमंत्री ने कहा कि बच्चों की सुरक्षा सबकी जिम्मेदारी है। इसलिए जितने भी संभव पक्ष हैं- जैसे माता-पिता, शिक्षक, बच्चे और समुदाय आदि उन सबको मिल कर काम करना चाहिए। मानव तस्करी हम सब के लिए एक अन्य बड़ी चुनौती है।
बाल मामलों के विशेषज्ञ सोहा मोइत्रा के अनुसार बच्चे के लापता होने के बाद पहले कुछ घण्टे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर बच्चों को राज्य की सीमाएं पार करके जल्द से जल्द तस्करों के द्वारा पड़ोसी राज्यों में भेज दिया जाता है। इसके बाद अधिकार क्षेत्र के मुद्दों के चलते बच्चों को खोजने में और देरी होती है। अप्रभावी ट्रैकिंग प्रणाली और अपर्याप्त जानकारी के चलते इन बच्चों के वापस घर लौटने की सम्भावनाएं न्यूनतम हो जाती हैं। दूसरी ओर सरकारी विभागों, बाल अधिकार एवं संरक्षण आयोग जैसी संस्थाओं और पुलिस के बीच तालमेल बच्चों के खिलाफ अपराध को सीमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दुर्भाग्य से हमारी प्रणाली में इसी तरह के तालमेल का अभाव है, जो हमारे बच्चों के कल्याण के लिए घातक साबित हो रहा है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि नीतियों, योजनाओं और बजट आवंटन की दृष्टि से हमारे बच्चों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि बच्चों की सुरक्षा को समाज के सभी हितधारकों के लिए प्राथमिक एजेण्डा बनाया जा सके। 
सन् 2012 में नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने अपनी संस्था ‘‘बचपन बचाओ आंदोलन’’ की ओर से लापता बच्चों के बारे में उच्चतम न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी। इसके जवाब में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों को खोए बच्चों के बारे में समय-समय पर सूचना देने का निर्देश दिया। इसी कड़ी में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भी एक वेबसाइट बनाई गई। इस वेबसाइट पर हर राज्य में लापता बच्चों की जानकारी रखी जाती है। फिर भी गुमशुदा बच्चों तक पहुंच नहीं बन पाती हैं। ‘‘बचपन बचाओ आंदोलन’’ की बात मानें, तो लापता बच्चों की दी गई संख्या से 10 गुना ज्यादा बच्चे लापता हैं। दरअसल, मानव तस्करी के जाल में फंस चुके बच्चों की गिनती न तो लापता बच्चों में होती है और न ही उनका कोई आधिकारिक दस्तावेज होता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार मानव तस्करी के पीछे अनेक कारण होते हैं। बलात् विवाह, बाल श्रम, घरेलू नौकर और लैंगिक शोषण इसके पीछे मुख्य कारण हैं। मार्च 2016 में लोकसभा में दिए गए एक प्रश्न के उत्तर के अनुसार 2014-15 में बड़ी संख्या में अवयस्क लड़कियों को मुक्त कराया गया। लेकिन गुम रह जाने वालों के आंकड़े इनसे कहीं बहुत अधिक हैं। हाईकोर्ट ने मध्य प्रदेश के गुम बच्चों की तलाश के लिए सिर्फ पुलिस के भरोसे बैठने के बजाय राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव के नेतृत्व में कमेटी बनाने तथा इसमें समाज के सभी वर्ग को शामिल करने का निर्देश दिया है।
गायब हुए नाबालिग बच्चों की तलाश के लिए प्रस्तुत जनहित याचिका में के तारतम्य में अदालत ने अपने निर्देश में कहा कि गायब बच्चों की तलाश के लिए सिर्फ पुलिस के भरोसे नहीं रहा जा सकता है। इसके लिए राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव के नेतृत्व में कमेटी बनाने, कमेटी में वकील, समाज के अन्य वर्ग को शामिल कर तलाश करने का निर्देश दिया। इसके अलावा ऐसे बच्चे जिन्हें लेने के लिए उनके अभिभावक नहीं आ रहे हैं उनके पुनर्वास की व्यवस्था करने का कहा। सच है, बच्चे सिर्फ़ पुलिस, कानून या शासन के ही नही ंहम सब के दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। हमें खुद के भीतर ललक जगानी होगी अपने लापता भविष्य को ढूंढने की और याद करते रहना होगा अपने खोए हुए बच्चों को।
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