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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 8, 2017

चर्चा प्लस ... मरती संवेदनाओं पर ठहाके लगाती अव्यवस्थाएं - डॉ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरा कॉलम ' चर्चा प्लस ' आज 'सागर दिनकर' में
(08.11.2017) ...
मरती संवेदनाओं पर ठहाके लगाती अव्यवस्थाएं
 - डॉ. शरद सिंह     
                                                                 
मां पुलिस में पिता पुलिस में फिर भी बेटी की अस्मत तार-तार होने पर रिपोर्ट लिखने के लिए पूरे परिवार को पुलिस के ही चक्कर काटने पड़ें। पीड़िता को एक महिला पुलिसकर्मी के माखौल का निशाना बनना पड़े। दूसरी ओर समाज पंचायत द्वारा पति से अलग रहने की अनुमति प्राप्त पत्नी को सरे बाज़ार पीटते हुए उसका जुलूस निकाला जाए और लोग सिर्फ़ मोबाईल से वीडियो बनाते रहें। लोगों का इस तरह असंवेदनशील होना न केवल धिक्कार योग्य है बल्कि ये घटनाएं बताती है कि संवेदनाएं किस तरह मरती जा रही हैं। क्या ऐसे वातावरण में कोई भी सभ्य संस्कृति लम्बे समय तक ज़िन्दा रह सकेगी? 
Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar

हमें गर्व रहा है अपनी संस्कृति पर। हमने दुनिया के सामने अपनी सभ्यता और सच्चरित्रता के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लेकिन आज यदि दुनिया हम पर हंस रही हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्यों कि हम उस सीमा पर जा पहुंचे हैं जहां व्यक्ति अपनी ही दृष्टि में गिरने लगता है फिर भी स्वयं को सम्हालना नहीं चाहता है ओर ढीठ की तरह अपनी महानता का ढिंढोरा पीटता रहता है। भारतीय संस्कृति स्त्रियों की प्रतिष्ठा एवं सम्मान की संस्कृति रही है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि स्त्री की प्रतिष्ठा, सम्मान और अस्मत तीनों की असुरक्षित हैं और ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है। देश हो या प्रदेश कहीं भी अकेली स्त्री स्वयं को सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। वह स्त्री चाहे जींस-टॉप पहनने वाली शहरी हो या माथे पर घूंघट डाल कर सोलह हाथ की साड़ी पहनने वाली निपट देहाती हो। वह चाहे दो-चार साल की बच्ची हो या नब्बे साल की वृद्धा। जब किसी भी जगह की और किसी भी आयु की स्त्री सुरक्षित न हो तो उस व्यवस्था को सामाजिक अराजकता के अतिरिक्त और भला क्या कहा जा सकता है? और इस सामाजिक अराजकता के बढ़ने में कानून व्यवस्था की शिथिलता भी कम जिम्मेदार नहीं है।
31 अक्टूबर 2017, स्थान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के हबीबगंज स्टेशन के निकट, एक छात्रा जो अपना भविष्य संवारने के लिए कोचिंग में शिक्षा ग्रहण कर के घर वापस लौट रही थी और एक ही झटके में उसका भविष्य ही नहीं वर्तमान भी गहरी खाई में धकेल दिया गया जिसके बारे में उसने जो लिखित बयान पुलिस को दिया वह उसी के शब्दों में इस प्रकार था-‘’मैं कक्षा 12 वीं पास कर चुकी हूं, अभी भोपाल में यूपीएससी की कोचिंग कर रही हूं। 31 अक्टूबर को अपनी कोचिंग से शाम सात बजे एमपी नगर से रेल लाइन होते हुए हबीबगंज स्टेशन जा रही थी, तभी आउटर सिंग्नल से चालीस-पचास मीटर हबीबगंज स्टेशन की तरफ आई तो एक लड़का जो पटरियों के पास ही खड़ा था, मैं पटरियों की बीच से चलते हुए आगे बढ़ने लगी तो वह पटरियों के बीच में मेरे सामने खड़ा हो गया, मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने अपना हाथ छुड़ाने के लिए उसे एक लात मारी तो वह मेरे साथ पटरियों के बीच में ही जबरदस्ती करने लगा। वह लड़का छोटे कद का था और उसकी छोटी दाढ़ी थी तभी उसने अमर घंटू आवाज देकर अपने एक दोस्त को बुलाया। उसके बाद उन्होंने मुझे पटरी के बगल में नाले की तरफ खींच लिया तो नाले में जहां कचरा पड़ा था वहां पर मुझे उन दोनों लड़कों ने नाले के नीचे गिरा दिया। वो मुझे घसीट कर पुलिया के अंदर ले गए फिर मैंने उन्हें पत्थर उठा कर मारा तो एक लड़का जो थोड़ा लंबा सा था उसने मुझे पीठ पर पत्थर से बुरी तरह से मारा उसके बाद उन लोगों ने मेरे दोनों हाथ बांधे और दोनों ने बारी-बारी से बुरा काम किया। वो पुलिया की दूसरी तरफ लेकर गए जहां उनके साथ वाले दो व्यक्ति थे। उन लोगों ने भी मेरे साथ गंदा काम किया। उन्होंने मेरा मोबाइल फोन और मेरे कानों की सोने की बाली और मेरी घड़ी भी ले ली। फिर वे मुझे छोड़कर चले गए। उसके बाद मैं पास में आरपीएफ थाना हबीबगंज गई और वहां से अपने पिताजी को फोन किया।’’
लड़की बहादुर थी। वह इस जघन्य हादसे से टूटी नहीं और साहस कर के सीधे पुलिस थाने पहुंची। उसके मन में यह विश्वास था कि वह स्वयं भी पुलिस परिवार की बेटी है, कम से कम उसे तो पुलिस का सहारा मिलेगा। मगर उसका यह विचार एक भ्रम साबित हुआ। जिसे रिपोर्ट लिखना चाहिए था उस महिला पुलिस कर्मी ने पीड़िता की पीड़ा का मज़ाक उड़ाया। उस पर दुखद तथ्य यह कि वह कोई छोटे पद की कर्मचारी नहीं अपितु 2009 बैच की आईपीएस है। गैंगरेप की घटना की रिपोर्ट न लिखने पर जब मीडिया ने इस महिला अधिकारी से प्रश्न किए तो उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा कि इस बारे में पूछे गए सवालों से मेरा सिरदर्द करने लगा है।
मुख्यमंत्री को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा। चंद तबादले किए गए। इसके बाद आ गया एक अजीब सा आदेश कि कोचिंग सेंटर्स रात्रि आठ बजे के बाद बंद कर दिए जाएं। कोंचिंग सेंटर संचालकों ने विरोध करते हुए तर्क दिया कि यदि बस स्टेंड आते-जाते समय कोई घटना घट जाए तो क्या बस स्टेंड बंद कर दिए जाएंगे? इसके बाद शाम तक आदेश तनिक संशोधित हो कर इस रूप में सामने आया कि यदि कोचिंग सेंटर में रात्रि आठ बजे के बाद भी क्लासेस लगती हैं तो सेंटर्स की जिम्मेदारी होती छात्राओं को घर पहुंचाने की। यानी कानून व्यवस्था अभी भी आश्वस्त नहीं कर पा रही है कि ‘‘बेटियों तुम निर्भय हो कर घर से निकलो, हमारे रहते तुम्हें कोई छू भी नहीं सकता है।’’
भोपाल की इस घटना के बाद एक और घटना वीडियो के रूप में सामने आई। यह बलात्कार की घटना नहीं थी लेकिन स्त्री के सार्वजनिक अपमान की ऐसी घटना थी जिसमें सामाजिक असंवेदनशीलता अपनी सारी सीमाओं को लांघती हुई दिखाई दी। घटना झाबुआ के खेड़ी गांव की है। जो वीडियो वायरल हुआ उसमें एक युवक अपनी पत्नी के कंधे पर चढ़ कर उसे सरेआम पीटता जा रहा है। पत्नी के चेहरे पर घाघट डला हुआ है जिससे वह ठीक से देख भी नहीं पा रही है। बेरहमी से पड़ती मार और पति के बोझ से वह रो रही है, चींख रही है। भीड़ उसकी दशा देख-देख कर मजे ले रही है और कुछ लोग अपने-अपने मोबाईल से उस मार-पीट की वीडियो बना रहे हैं। मीडिया के सामने आई जानकारी के अनुसार खेड़ी गांव की 32 वर्षीया पत्नी के साथ उसका पति मारपीट करता था। मारपीट से तंग आ कर पत्नी पति और बच्चों को छोड़ कर चली गई। पति को संदेह था कि उसकी पत्नी का किसी से अनैतिक संबंध है। कहा जाता है कि समाज-पंचायत ने पति के पक्ष को समझौता रकम दिलाने के बाद पत्नी को उसके परिजनों को सौंप दिया था। लेकिन फिर उसके ससुराल पक्ष के लोग उसे समझा-बुझा कर अपने गांव ले आए और गांव में पहुंचते ही पंचायत भवन के पास पत्नी के कंधों पर पति को बैठा दिया। इसके बाद लगभग 500 मीटर दूर घर तक मारपीट करते हुए ले गए। उस दौरान पूरा गांव-समाज इस तमाशे का मजा लेता रहा। यह भूल कर कि इस तरह के चलन से कभी उनके घर की बेटियों को भी गुज़रना पड़ सकता है।
दो भिन्न घटनाएं, एक ही प्रदेश में, लगभग एक ही समय। यूं तो दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं है। एक छात्रा और एक विवाहिता। एक की पीड़ा को उसके गांव-समाज ने तमाशे की तरह देखा जबकि छात्रा के समर्थन में समाज भर्त्सना की बल्कि कैंडलमार्च भी निकाला। मगर हुईं तो दोनों प्रताड़ना की शिकार। एक शहर की, एक गांव की लेकिन दोनों ने दुर्दम्य असंवेदनशीलता को झेला और दोनों का भविष्य अंधकारमय है यदि आगे भी उन्हें समाज का सहारा नहीं मिला तो। एक का अपराध यह था कि वह पढ़ाई करके अपना भविष्य संवारने में जुटी हुई थी और दूसरी का गुनाह यह था कि उसने अपने पति के मार-पीट से त्रस्त हो कर पलायन का रास्ता अपनाया और अपने ढंग से जीने का एक प्रयास किया। उसके पति और ससुरालवालों की क्रूर मानसिकता का साक्ष्य तो वह वीडियो ही है जो वायरल हो कर जन-जन तक पहुंच चुका है। वहीं भोपाल की उस छात्रा के प्रति पुलिस का कर्त्तव्यहीन रवैया सभी बेटियों को डरा देने वाला है। जब पुलिसवालों की बेटी को ही पुलिस से तत्काल सहयोग न मिले तो सामान्य बेटियों को सहयोग कैसे मिलेगा? प्रश्न यह भी है कि यदि ऐसे संवेदनशील मामले में मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप किए बिना मामले की गंभीरता न समझी जाए तो क्या प्रत्येक पीड़िता को थाने के बजाए मुख्यमंत्री के दरवाज़े पर जा कर गुहार लगानी चाहिए?
ज़रा सोचिए, मां पुलिस में पिता पुलिस में फिर भी बेटी की अस्मत तार-तार होने पर रिपोर्ट लिखने के लिए पूरे परिवार को पुलिस के ही चक्कर काटने पड़ें। पीड़िता को एक महिला पुलिसकर्मी के माखौल का निशाना बनना पड़े। दूसरी ओर समाज पंचायत द्वारा पति से अलग रहने की अनुमति प्राप्त पत्नी को सरे बाज़ार पीटते हुए उसका जुलूस निकाला जाए और लोग सिर्फ़ मोबाईल से वीडियो बनाते रहें। लोगों का इस तरह असंवेदनशील होना न केवल धिक्कार योग्य है बल्कि ये घटनाएं बताती है कि संवेदनाएं किस तरह मरती जा रही हैं। वस्तुतः यह तो मरती संवेदनाओं पर अव्यवस्थाओं के ठहाके लगाने जैसा दृश्य है।
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