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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 29, 2018

चर्चा प्लस ... ऐजेंडा में सबसे ऊपर हो बलात्कार-मुक्त समाज ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
ऐजेंडा में सबसे ऊपर हो बलात्कार-मुक्त समाज
- डॉ. शरद सिंह
सन् 1919 का चुनावी महासमर सामने है और सभी महारथी अपनी-अपनी कमर कस रहे हैं। सभी के अपने ऐजेंडा तैयार हो रहे हैं। बेशक सभी का ध्यान जनता की जरूरतों की ओर अटका रहेगा। आश्वासनों की थैलियां खुलती रहेंगी। किन्तु एक मुद्दा ऐसा है जिसे झूठे आश्वासन नहीं बल्कि एक शपथ के रूप में राजनीतिक दलों को अपने ऐजेंडा में सबसे ऊपर रखना ही होगा, वह है - बलात्कार-मुक्त समाज। क्योंकि, हर पंद्रह मिनट में बलात्कार की एक घटना आंकड़े के साथ कोई भी राजनीतिक दल अच्छे शासन का दम भर सकता है?

चर्चा प्लस ... ऐजेंडा में सबसे ऊपर हो बलात्कार-मुक्त समाज ... डॉ. शरद सिंह , डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस  Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

कर्नाटक चुनाव ने देश के राजनीति परिदृश्य में एक नए अध्याय पर अपनी मुहर लगा दी है। जो दल पिछड़ते दिखाई पड़ रहे थे वे एक बार फिर ताल ठोंक कर सामने आ खड़े हुए हैं और जो सबसे आगे नज़र आ रहे थे वे लड़खड़ा गए। इसीलिए माना जाता है कि राजनीति में कुछ भी संभव है। अपने ही भ्रम में जीने वाला राजनीतिक दल कब जड़ से उखड़ जाए इसका ठिकाना नहीं है। लेकिन इस भ्रम को तोड़ने वाली सबसे बड़ी शक्ति है जनता की इच्छाशक्ति। जनता क्या चाहती है इसका ध्यान रखना हर राजनीतिक दल के लिए जरूरी है। जो यह ध्यान नहीं रखता है, जनता भी उसका ध्यान नहीं रखती है। यही तो लोकतंत्र है। सन् 1919 का चुनावी महासमर सामने है और सभी महारथी अपनी-अपनी कमर कस रहे हैं। सभी के अपने ऐजेंडा तैयार हो रहे हैं। बेशक सभी का ध्यान जनता की जरूरतों की ओर अटका रहेगा। आश्वासनों की थैलियां खुलती रहेंगी। किन्तु एक मुद्दा ऐसा है जिसे झूठे आश्वासन नहीं बल्कि एक शपथ के रूप में राजनीतिक दलों को अपने ऐजेंडा में रखना ही होगा, वह है - बलात्कार-मुक्त समाज।
मध्यप्रदेश सरकार ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के मुद्दे को ले कर बड़ी जागरूक रही है किन्तु इसी मध्यप्रदेश में लगभग हर दूसरे दिन बलात्कार की एक घटना घटित होने लगी है। ऐसा नहीं है कि यह अपराध सिर्फ़ मध्यप्रदेश में नहीं वरन् समूचे देश को कलंकित कर रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश प्रदेश के पुलिस मुख्यालय ने विगत मार्च 2018 में एक चौंकाने वाला खुलासा किया कि मध्यप्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जहां साल भर में पांच हजार से अधिक महिलाओं और नाबालिगों से बलात्कार और छेड़छाड़ के मामले सामने आये हैं। आंकड़े के अनुसार वर्ष 2017 में 5310 बलात्कार की घटनाएं प्रदेशभर के थानों में दर्ज हुई हैं। यानी हर दिन लगभग 15 बलात्कार की घटनाएं। वर्ष 2016 के मुकाबले वर्ष 2017 में यहां महिलाओं और नाबालिगों से बलात्कार की घटनाओं में 8.76 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एनसीआरबी की क्राइम इन इंडिया-2016 रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में उत्तरप्रदेश में हत्या और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराध सबसे ज्यादा हुए थे। यहां हत्या के 4,889 (16.1 प्रतिशत ) और महिलाओं के खिलाफ हिंसा व अपराध के 49,262 मामले (14.5 प्रतिशत ) दर्ज किए गए। वहीं, बलात्कार के सबसे ज्यादा 4,882 मामले मध्य प्रदेश में दर्ज हुए, जो कुल घटनाओं का 12.5 प्रतिशत है। 2014 और 15 में भी मध्यप्रदेश में बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए थे।
बलात्कार हत्या से भी जघन्य अपराध है। हत्यारा हत्या कर के एक जीवन का अंत कर देता है किन्तु बलात्कारी बलात्कार कर के एक जीवन को एक झटके में सारे समाज से काट देता है और एकाकी , भयभीत जीवन जीने को विवश कर देता है। मध्य प्रदेश सरकार ने 12 साल या उससे कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार के दोषियों को फांसी की सजा देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। दण्ड संहिता की धारा 376 ।। और 376 क्। के रूप में संशोधन किया गया और सजा में वृद्धि के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है। इसके अलावा लोक अभियोजन की सुनवाई का अवसर दिए बिना जमानत नहीं होगी। इस विधेयक को विधानसभा में पारित कर केंद्र सरकार को भेजा जाएगा। मृत्युदंड को अमल में लाने के लिए दुष्कर्म की धारा 376 में ए और एडी को जोड़ा जाएगा, जिसमें मृत्युदंड का प्रावधान होगा। सरकार ने बलात्कार मामले में सख्त फैसला लेते हुए आरोपियों के जमानत की राशि बढ़ाकर एक लाख रुपये कर दी है। इस तरह मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य बन गया है, जहां बलात्कार के मामले में इस तरह के कानून के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है। साथ ही शादी का प्रलोभन देकर शारीरिक शोषण करने के आरोपी को सजा के लिए 493 क में संशोधन करके संज्ञेय अपराध बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है। महिलाओं के खिलाफ आदतन अपराधी को धारा 110 के तहत गैर जमानती अपराध और जुर्माने की सजा का प्रावधान किया गया है। महिलाओं का पीछा करने, छेड़छाड़, निर्वस्त्र करने, हमला करने और बलात्कार का आरोप साबित होने पर न्यूनतम जुर्माना एक लाख रुपए लगाया जाएगा। भाजपा ने 12 वर्ष से कम आयु की बच्ची से बलात्कार के मामले में दोषी पाए जाने पर मृत्युदंड सहित कठोर दंड वाले प्रावधान संबंधी इस अध्यादेश को ऐतिहासिक करार दिया था तब वहीं विपक्षी दलों ने सवाल किया था कि सरकार को यह कदम उठाने में इतना समय क्यों लग गया? दूसरी ओर देश भर के बाल अधिकार कार्यकर्ताओं ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के मामले में मौत की सजा का प्रावधान करने के लिए पॉक्सो कानून में संशोधन के सरकार के फैसले का विरोध किया। केंद्रीय कैबिनेट ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा देने की अनुमति देने वाले एक अध्यादेश को मंजूरी दी। इसके साथ ही देश की राजनीति गरमा उठी। पक्ष अपनी पीठ ठोंकता रहा तो विपक्ष खामियां गिनाता रहा। इसी दौरान राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के पूर्व सदस्य विनोद टिक्कू ने कहा कि ‘‘मुझे आशंका है कि मौत की सजा का प्रावधान हो जाने पर ज्यादातर लोग बच्चियों से बलात्कार के मामले दर्ज नहीं कराएंगे क्योंकि ज्यादातर मामलों में परिवार के सदस्य ही आरोपी होते हैं। दोषसिद्धि दर भी और कम हो जाएगी।’’
वहीं नोबल प्राईज से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी के चिल्ड्रेंस फाउंडेशन ने अपने एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार यह कहा कि बाल यौन अपराधों से जुड़े लंबित मामलों का निपटारा करने में अदालतों को दो दशक लग जाएगा। कार्यकर्ताओं का कहना था कि सरकार को मौजूदा कानूनों को मजबूत करने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, पीड़िताओं और गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए, मुकदमों की त्वरित सुनवाई करानी चाहिए और जागरूकता पैदा करना चाहिए।
देश में पिछले तीन साल के आंकड़े जिस भयावहता की ओर संकेत कर रहे हैं वह कंपकंपा देने वाला है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2014 के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर एक घंटे में 4 बलात्कार की वारदात होती हैं। एनसीआरबी द्वारा सन् 2015 के प्रस्तुत किए गए अांकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाए तो यह सोच कर हैरानी होगी कि देश का सामाजिक स्तर किस रसातल में जा रहा है। सन् 2015 में देश में 34651 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था। वहीं 2113 सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हुईं। यानी हर चार घंटे में एक सामूहिक बलात्कार। इन आंकड़ों की तुलना में यदि कानून पर ध्यान दिया जाए तो सन् 2015 में बलात्कार के 32 प्रतिशत मामले लंबित रहे, 29 प्रतिशत को सजा मिली और पिछले सालों के मामले मिलाकर कुल 86 प्रतिशत मामले लंबित रहे। संक्षेप में कहा जाए तो इन आंकड़ों के अनुसार देश में हर घंटे में चार बलात्कार हुए, अर्थात हर पंद्रह मिनट में एक बलात्कार। निर्भया बलात्कार (16 दिसंबर 2012) केस के बाद कानूनों में बदलाव किये गये, कानूनों को पहले से ज्यादा सख्त बनाया गया इस उम्मीद में कि शायद महिलाओं के साथ होने वाली आपराधिक वारदात कुछ कम होंगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देश की राजधानी दिल्ली में वर्ष 2011 से 2016 के बीच महिलाओं के साथ दुष्कर्म के मामलों में 277 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। दिल्ली में वर्ष 2011 में जहां इस तरह के 572 मामले दर्ज किये गए थे, वहीं साल 2016 में यह आंकड़ा 2155 रहा। सन् 2017 और सन् 2018 के अब तक के आंकड़े भी इस तथ्य को लगातार रेखांकित कर रहे हैं कि बलात्कारियों को किसी भी कानून का कोई खौफ़ नहीं रह गया है। जितने कानून बन रहे हैं उससे दोगुनी गति से अपराध कारित हो रहे हैं। क्या कानून को लागू करने में कहीं कोई चूक हो रही है या फिर कोई और कारण है? इस कारण का पता लगाना और इसे दूर कर महिलाओं के लिए स्वच्छ, निर्भय समाज बनाना अब जरूरी हो चला है।
आज के ग्लोबल युग में भारत में घटने वाली घटना विश्व के कोने-कोने तक असर डालती है। विचारणीय है कि दुनिया के लगभग हर देश में भारतीय समुदाय रहता है। वह समुदाय क्या इन घटनाओं पर विदेशियों के सामने अपना सिर उठा पाता होगा? दुनिया के सामने देश की छवि तो बिगड़ ही रही है और स्वयं देश के अंदर महिलाएं भयभीत हो कर जीने को विवश हो रही हैं। जब आंकड़े हर पंद्रह मिनट में एक बलात्कार तक जा पहुंचे हों तो क्या इस आंकड़े के साथ कोई भी राजनीतिक दल अच्छे शासन का दम भर सकता है? इस मुद्दे पर तमाम राजनीतिक दलों को आत्ममंथन करना होगा अपना चुनावी एजेंडा तय करने से पहले और इसे प्रथमिकता देनी होगी।
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( दैनिक सागर दिनकर, 23.05.2018 )
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Monday, May 21, 2018

चर्चा प्लस ... कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक ... डॉ. शरद सिंह

मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....

http://dabangmedia.com/news.php?post_id=128527&title=
 कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक - डाॅ. शरद सिंह in Dabang Media



चर्चा प्लस ... कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक
- डॉ. शरद सिंह
कर्नाटक ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस ने अभी भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है। जोश और जमीनी सच्चाई में अंतर होता है, यह अंतर कांग्रेस को समझना होगा यदि वह भावी चुनाव में खुद को बचाए रखना चाहती है तो। वहीं दूसरी ओर भाजपा को अपनी जीत का जश्न मनाते हुए चिन्तन करना होगा कि उन्होंने जो सीटें गंवाईं, वे क्यों गंवाईं। साथ ही यह भी मनन करना होगा कि प्रदेशिक चुनावों के लिए यदि हर बार उसे अपने बड़े-बड़े महारथी ही सामने लाने पड़ रहे हैं तो कहीं उसके प्रादेशिक ढांचे में आत्मबल की कमी तो नहीं है? कुलमिला कर कर्नाटक का यह चुनाव-परिणाम भावी लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाला साबित हो सकता है यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही इससे सबक ले कर आगे की रणनीति तैयार करें।

 
कर्नाटक चुनाव से सभी को लेने होंगे सबक - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस  Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

समूचा देश कर्नाटक के चुनाव की ओर कटकी लगाए देख रहा था। जब से चुनाव की रणभेरी बजी थी तब से अटकलों का बाजार भी गर्म हो गया था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक्जिट पोल अपने-अपने राग अलापने लगे थे। कुछ ने तो त्रिशंकु सरकार की संभावना भी व्यक्त कर दी थी। किन्तु परिणामों ने एक झअके में सब कुछ स्पष्ट कर दिया। मतगणना के प्रथम चौथाई दौर में ही यह बात खुल कर सामने आ कई थी कि कर्नाटक में भाजपा को बहुमत मिलने जा रहा है। बेशक कांग्रेस को पिछली बार से ज्यादा वोट मिले, फिर भी उसने अपनी आधी सीटें गंवाई दीं।
कर्नाटक की 224 विधानसभा सीटों में से 222 पर चुनाव 12 मई को हुए थे। इस दौरान 72.13 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि पिछली बार 71.45 प्रतिशत हुआ था। 2008 में हुए चुनावों के परिणामस्वरूप प्रदेश में सरकार बदल गई थी और भाजपा ने पहली बार राज्य में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। इस बार भी ऐसा ही हुआ। कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। कर्नाटक विधानसभा की 224 में से 222 सीटों पर हुए चुनावों पर भाजपा को बहुमत मिलना जहां प्रदेश में एक राजनीतिक स्थिरता का संकेत देता है वहीं इस बात को साबित करता है कि भाजपा के प्रति जनता का रुझान अभी भी कायम है। मतगणना के शुरुआती आधे घंटे में कांग्रेस ने बढ़त बनाई थी। इसके बाद एक घंटे तक उसकी भाजपा से कड़ी टक्कर देखने को मिली। लेकिन साढ़े नौ बजे के बाद भाजपा आगे निकलकर बहुमत तक पहुंच गई। मानो कोई तेज आंधी चली हो और जिसने मजबूत दिखने वाले पेड़ों की जडे़ं हिला दी हों। राज्य में भाजपा से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बाद भी कांग्रेस उसे पराजित नहीं कर पाई। वहीं सत्ताधारी पार्टी की सीटें पिछली बार से आधी रह गईं। कर्नाटक हारने के बाद कांग्रेस की सरकार पंजाब, मिजोरम और पुडुचेरी में बची है। वहीं, भाजपा अब 31 राज्यों में से 21 में सत्ता में पहुंची है। राजराजेश्वरी, जयनगर मात्र इन दो स्थानों के चुनाव रोके गए हैं।
राजनीतिक आकलनकर्ताओं के त्वरित आकलन के अनुसार जिन दो कारणों से भाजपा ने कांग्रेस पर बढ़त बनाई वे हैं- (1) कर्नाटक की जनता पर येदियुरप्पा का प्रभाव जो खनन घोटाले के बाद भी कम नहीं हुआ। कर्नाटक में भाजपा ने जब पहली बार अपने बूते सरकार बनाई थी तो 2008 में कमान येदियुरप्पा को सौंपी थी। लेकिन बाद में खनन घोटालों में आरोपों के चलते येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उन्होंने कर्नाटक जनता पक्ष नाम से अलग पार्टी बना ली और 2013 का चुनाव अलग लड़ा। 2013 के चुनाव में भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई। येदियुरप्पा की पार्टी को 9.8 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 6 सीटें मिलीं। माना गया कि इससे भाजपा को नुकसान हुआ। उसका वोट शेयर सिर्फ 19.9 प्रतिशत रहा और वह 40 सीटें ही हासिल कर सकी। इस बार येदियुरप्पा की भाजपा में वापसी हुई। उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया तो पार्टी का वोट शेयर 35 प्रतिशत से ज्यादा हो गया। यानी इसमें येदियुरप्पा की पार्टी का वोट शेयर जुड़ गया जिसने भाजपा को सीधे लाभ पहुंचाया। (2) भाजपा की जीत का दूसरा कारण माना जा रहा है सिद्धारमैया का लिंगायत कार्ड उलटा पड़ना। सिद्धारमैया ने चुनाव की तिथियों के घोषित होने से ठीक पहले राज्य में लिंगायत कार्ड खेला। इस समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र की मंजूरी के लिए भेजा। किन्तु इसका लाभ उन्हें नहीं मिल सका। राज्य में लिंगायतों की आबादी 17 प्रतिशत से घटाकर 9 प्रतिशत मानी गई। इस कदम से वोक्कालिगा समुदाय और लिंगायतों के एक धड़े वीराशैव में भी नाराजगी थी। इससे उनका झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा।
उपरोक्त दो कारणों के अलावा एक और कारण है जिसने भाजपा को लाभ दिलाया, वह है प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की धुंआधार रैलियां। प्रधान मंत्री मोदी ने इस चुनाव में 21 रैलियां कीं। कर्नाटक में किसी प्रधानमंत्री की सबसे ज्यादा रैलियां थीं। इसके अलावा उन्होंने दो बार ‘नमो एप’ के माध्यम से जनता को संबोधित किया। उन्होंने अपनी रैलियों के दौरान लगभग 29 हजार किलोमीटर की दूरी तय की। यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो पता चलता है कि भाजपा ने कर्नाटक चुनाव को कितनी गंभीरता से लिया। लगभग 20 करोड़ की जनसंख्या और 403 सीट वाले उत्तरप्रदेश में प्रधान मंत्री मोदी 24 रैलियां की थीं। वहीं 6.4 करोड़ की जनसंख्या और 224 सीटों वाले कर्नाटक में 21 रैलियां कीं। उल्लेखनीय है कि इस दौरान प्रधान मंत्री मोदी एक भी धार्मिक स्थल पर नहीं गए।
भाजपा के दूसरे महारथी अर्थात् भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 27 रैलियां और 26 रोड शो किए। करीब 50 हजार किलोमीटर की यात्रा की। 40 केंद्रीय मंत्री, 500 सांसद-विधायक और 10 मुख्यमंत्रियों ने कर्नाटक में प्रचार किया। भाजपा नेताओं ने 50 से ज्यादा रोड शो किए। 400 से ज्यादा रैलियां कीं। भाजपा के इस तूफानी अभियान के विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 20 रैलियां और 40 रोड शो एवं नुक्कड़ सभाएं कीं। वैसे राहुल गांधी ने कांग्रेस के पक्ष में प्रचार के लिए 55 हजार किमी की यात्रा करते हुए प्रधान मंत्री मोदी से दो गुना अधिक दूरी तय की। उत्तरप्रदेश के चुनाव-प्रचार में सोनिया गांधी ने हिस्सा नहीं लिया था किन्तु कर्नाटक चुनाव-प्रचार में वे भी शामिल हुईं।
यदि राजनीतिक धड़ों के प्रभाव के अनुसार कुल परिणाम देखे जाएं तो विगत 4 साल में भाजपा-एनडीए 8 से 21 राज्यों में पहुंची, वहीं कांग्रेस 14 से घटकर 3 राज्यों में सिमट गई।
कर्नाटक के नवीन परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि येदियुरप्पा ने ’कर्नाटक के किंग’ का दर्जा हासिल कर लिया है क्योंकि कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा एक ऐसा नाम जिसके बिना बीजेपी का अस्तित्व अधूरा माना जा रहा है। राजनीतिक समीकरण हों या फिर जातीय जोड़-तोड़ येदियुरप्पा ने खुद को राज्य में स्थापित करने और विकसित करने में किसी तरह की कमी नहीं छोड़ी है। मांड्या जिले के बुकानाकेरे में 27 फरवरी 1943 को लिंगायत परिवार में जन्में येदियुरप्पा छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे। सन् 1965 में सामाजिक कल्याण विभाग में प्रथम श्रेणी क्लर्क के रूप में नियुक्त येदियुरप्पा नौकरी छोड़कर और शिकारीपुरा चले गए जहां उन्होंने वीरभद्र शास्त्री की शंकर चावल मिल में एक क्लर्क के रूप में कार्य किया। अपने कॉलेज के दिनों में वे आरएसएस में सक्रिय हुए। सन् 1970 में उन्होंने आरएसएस की सार्वजनिक सेवाएं शुरू की, जिसके बाद उन्हें कार्यवाहक नियुक्त किया गया। येदियुरप्पा भाजपा के एक ऐसे नेता हैं, जिनके बल पर भाजपा ने पहली बार दक्षिण भारत में ना सिर्फ जीत का स्वाद चखा बल्कि सत्ता पर शासन भी किया था। यूं भी, शिकारीपुरा सीट को येदियुरप्पा का गढ़ कहा जाता है। येदियुरप्पा इस सीट से 1983 से जीतते आ रहे हैं। मात्र एक बार सन् 1999 में उन्हें कांग्रेस के महालिंगप्पा से हार का सामना करना पड़ा था।
खनन घोटाले पर मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद येदियुरप्पा भाजपा से अलग हो गए। इसके बाद मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने के बाद जनवरी 2013 में पार्टी में दोबारा उनकी वापसी हुई। इतना ही नहीं 2018 में भाजपा ने दोबारा येदियुरप्पा पर ही दांव खेला और उन्हें सीएम पद का उम्मीदवार बनाया।
कर्नाटक ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस ने अभी भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है। जोश और जमीनी सच्चाई में अंतर होता है, यह अंतर कांग्रेस को समझना होगा यदि वह भावी चुनाव में खुद को बचाए रखना चाहती है तो। कांग्रेस को उस वजह को समझना होगा कि इतिहास के बारे में गलतबयानी करके भी भाजपा जंग कैसे जीत ली? क्या कांग्रेस ने अपने उम्मींदवारों को चुनने में गलती कर दी या वे अपने पक्ष को प्रभावशाली ढंग से जनता के सामने नहीं रख पाए? अब कांग्रेस के लिए महाआत्ममंथन का समय आरम्भ हो चुका है। यदि कांग्रेस सचमुच नहीं चाहती है कि वह अतीत के पन्नों में समा जाए तो उसे बड़ी कठोरता से अपने उम्मींदवारों, अपने नेतृत्व और अपनी योजनाओं का पुनःआकलन करना होगा। यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रजातंत्र में एक मजबूत विपक्ष भी बहुत मायने रखता है। वहीं दूसरी ओर भाजपा को अपनी जीत का जश्न मनाते हुए चिन्तन करना होगा कि उन्होंने जो सीटें गंवाईं, वे क्यों गंवाईं। साथ ही यह भी मनन करना होगा कि प्रादेशिक चुनावों के लिए यदि हर बार उसे अपने बड़े-बड़े महारथी ही सामने लाने पड़ रहे हैं तो कहीं उसके प्रदेशिक ढांचे में आत्मबल की कमी तो नहीं है?
कुलमिला कर कर्नाटक का यह चुनाव-परिणाम भावी लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाला साबित हो सकता है यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही इस चुनाव से सबक ले कर आगे की रणनीति तैयार करें।
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( दैनिक सागर दिनकर, 16.05.2018 )
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Tuesday, May 15, 2018

चर्चा प्लस ... लाखा बंजारा झील: एक संघर्ष कथा ... - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
लाखा बंजारा झील: एक संघर्ष कथा .....
    - डाॅ. शरद सिंह
       एक तालाब जिसने कई सदियां देखीं और लाखों लोगों की प्यास बुझाई, वर्षों से  अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। हालात् यहां तक पहुंचे कि यह सूख कर मैदान में तब्दील हो गया और इस पर क्रिकेट मैच भी खेला गया। समय ने करवट ली तो यह एक बार फिर लबालब हुआ। लेकिन आज यह फिर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। ...यूं तो कहने को यह लाखा बंजारा झील उर्फ़ सागर झील की संघर्ष कथा है लेकिन यह कथा वो आईना है जिसमें देश के हर शहर, गांव और कस्बे के तालाबों, कुओं सहित तमाम जलस्रोतों की अंतर्कथा देखी जा सकती है....
लाखा बंजारा झील: एक संघर्ष कथा - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस  Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik

लाखा बंजारा झील अर्थात् सागर झील, सागर नगर की पहचान ही नहीं बल्कि इसके अस्तित्व की परिचायक भी है। यह काफी प्राचीन है। राजा ऊदनशाह ने जब 1660 में यहां छोटा किला बनवाकर पहली बस्ती यानि परकोटा गांव बसाया, तो तालाब पहले से ही मौजूद था। सागर के बारे में यह मान्यता है कि इसका नाम सागर इसलिए पड़ा क्योंकि यहां एक विशाल झील है। सागर झील की उत्पत्ति के बारे में वैसे तो कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इनमें सबसे मशहूर कहानी लाखा बंजारा के बहू-बेटे के बलिदान के बारे में है। इस कथा के अनुसार एक बंजारा दल घूमता-फिरता सागर आया। उसके सरदार ने पाया कि सागर में पानी का भीषण संकट है। उसने अपने पुत्र लाखा बंजारा से विचार-विमर्श किया। दोनों ने तय किया जिस भूमि पर उन्होंने डेरा उाला है और जहां का वे नमक खा रहे हैं, उस भूमि के नमक का हक अदा करने के लिए एक झील बनाई जाए जिससे सागर के निवासियों को कभी पानी के संकट से नहीं जूझना पड़े। स्थानीय लोगों की मदद से उन बंजारों ने भूमि की खुदाई कर के एक विशाल झील तैयार कर ली। किन्तु समस्या यह थी कि उसमें पानी ठहरता ही नहीं था। झील सूखी की सूखी बनी रहती थी। तब किसी तांत्रिक ने बंजारा सरदार को सलाह दी कि यदि वह अपने बेटे और बहू की बलि देगा तो झील में पानी भर जाएगा। सरदार हिचका। लेकिन उसके बेटे और बहू ने अपना बलिदान देना स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि लाखा और उसकी पत्नी के बलिदान के बाद झील में पानी हिलोरें लेने लगा। लाखा के नाम पर ही सागर झील को लाखा बंजारा झील भी कहा जाता है। बलिदान से सहेजी गई झील की देखभाल भी बड़े जतन से की जानी चाहिए थी, मगर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।  
भौगोलिक तौर पर सागर नगर इस झील के उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी किनारों पर बसा है। दक्षिण में पथरिया पहाड़ी है, जहां विश्वविद्यालय परिसर है। इसके उत्तर-पश्चिम में सागर का किला है। सरकारी अभिलेखों में करीब चार दशक पूर्व इसे लगभग 1 वर्गमील क्षेत्र में फैला बताया गया है। एक समय था जब विश्वविद्यालय की पहाड़ी के नीचे तक झील फैली हुई थी और दूसरी ओर किले की प्राचीर से इसकी लहरें टकराती थीं। चूंकि किले में जवाहरलाल नेहरू पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित कर दिया गया जिससे किले की ओर का किनारा सुरक्षित बच गया। लेकिन विश्वविद्यालय की ओर का किनारा इस तरह सिमटना शुरू हुआ कि आज विश्वविद्यालय की पहाड़ी और तालाब के बीच अनेक काॅलोनीज़ बन गई हैं। झील के एक हिस्से को सुखा कर उस पर सरकारी बसस्टैंड बना दिया गया। ठीक दूसरी ओर झील दो भागों में बांट दी गई-छोटा तालाब और बड़ा तालाब। छोटे तालाब वाला हिस्सा मत्स्य उद्योग और सिंघाड़ा उत्पादन के सुपुर्द कर दिया गया। जबकि बड़े तालाब का हिस्सा झील के रूप में अपने अस्तित्व के लिए जूझता रहा। लंबे समय तक झील नगर के पेयजल का स्रोत रही लेकिन अब प्रदूषण के कारण इसका पानी इस्तेमाल नहीं किया जाता। कहा जाता है कि शहर के कई कुए इसी झील के अंतःस्रोतों से रीचार्ज होते रहे हैं।
लाखा बंजारा झील की दुदर्शा क्यों हुई इसके मूल रूप से दो कारण हैं- पहला बस्तियां बसाने के लिए झील की सीमा में कटौती और दूसरा नगरवासियों में अपनी विरासत को सहेजने के प्रति चेतना की कमी। ऐसा नहीं है कि नगरवासियों को अपनी झील से प्यार नहीं है, वे इसे अपना गौरव मानते हैं लेकिन इस गौरव को बचाए रखने के प्रति घनघोर लावपरवाहियां भी हुई हैं। जिसका उदाहरण है कि झील में प्रदूषण का चिंताजनक स्तर तक जा पहुंचा है और अतिक्रमण के पंजे उसके गले तक पहुंचने लगे हैं। नगर का जो विस्तार झील से परे बाहर की ओर होना चाहिए था वह झील की सीमाओं को तोड़ता हुआ झील को सीमित करता गया। गूगल अर्थ में झील पर चढ़ आए अतिक्रमण को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
लगभग 25 साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के कार्यकाल में सागर झील की सफाई के लिए डिसिलिं्टग का प्लान बना था, लेकिन योजनानुसार अमल नहीं हो सका था। दूसरी तरफ झील के सौंदर्यीकरण के लिए केंद्र से 21 करोड़ की राशि आई थी। इस योजना पर कुछ ही काम हुआ और प्रशासनिक लापरवाहियों के चलते राशि लौटानी पड़ी। एक बार फिर झील की किस्मत संवारने का काम शुरू किया गया है। इस संबंध में प्राथमिकतौर पर शासन से 10 करोड़ की राशि मंजूरी हुई है। विगत 01 मई से प्रदेश के जलाशयों के गहरीकरण का काम शुरू हो चुका है, साथ ही सागर की लाखा बंजारा झील का भी गहरीकरण किए जाने की दिशा में काम शुरू हो गया है। सागर के महापौर अभय दरे इस अभियान को ले कर बेहद उत्साहित हैं। उनका यह उत्साह स्वाभाविक है। महापौर अभय दरे ने सन् 2016 में हैदराबाद जाकर केवल इस पूरे प्लान को समझा था, बल्कि गाद घोलने वाली फ्लोटिंग ड्रेजिंग मशीन को लाने का भी मन बना लिया था। हैदराबाद में ड्रेजिंग कॉपोरेशन ऑफ इंडिया के माध्यम से झील की सफाई हुई थी। इस मशीन की खासियत यह है कि यह पानी में नाव की तरह तैरती है। इसमें नीचे मथनीनुमा उपकरण लगे हुए हैं जो कि गाद को पानी में घोल देते हैं। झील से गंदगी निकालने के लिए मोंगा बंधान का विकल्प भी है। जांचकत्र्ताओं के अनुमान के अनुसार झील में चार फीट से ज्यादा गाद जमी हुई है।
झील की सफाई के लिए शासन से मिलने जा रहे 10 करोड़ रुपए झील के प्रदूषित हरे पानी का रंग बदलने और किनारों के आसपास की सिल्ट हटाने पर खर्च होंगे, लेकिन इसमें मिलने वाले 4 बड़े नालों के ट्रैपिंग व चैलनाइजेशन का काम केंद्र से 240 करोड़ के प्रोजेक्ट को मंजूरी मिलने के बाद ही संभव है। शहर के जनप्रतिनिधियों का दावा है कि अगली बार मैकेनाइज्ड सिस्टम से डि-सिलिं्टग और नालों से सिल्ट व सीवर जाने से रोकने के लिए नाला ट्रैपिंग का काम भी कराया जाएगा। इसके लिए केंद्र से राशि लाएंगे। वैसे झील-सफाई के मार्ग में चार बड़े नाले बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। शनिचरी, शुक्रवारी से नालियों से बहकर आने वाला पानी और चार बड़े नाले इसे लगातार भर रहे हैं। ये चारों बड़े नाले वर्षों से झील में गंदगी और गाद उड़ेल रहे हैं-जैन हाई स्कूल के सामने से निकलने वाला नाला, डॉ. मौर्य हॉस्पिटल के बाजे से बहने वाला नाला, बॉलक कॉम्पलेक्स से निकला नाला और बरियाघाट से बहने वाला नाला। ध्यान रहे कि ये नाले अपनेआप अवतरित नहीं हुए। प्रशासनिक एवं जनता की लापरवाहियों ने इन्हें झील से जोड़े रखा।
वर्तमान में एक महत्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत् झील का पानी आधा खाली करने के बाद इसके किनारे से सिल्ट को जेसीबी से निकालकर डंपर व ट्रकों से बाहर किया जाएगा। झील के बड़े हिस्से से सिल्ट हटाने के लिए मैकेनाइज्ड सिस्टम का प्रयोग किया जाएगा। अनुमान है कि लगभग 240 करोड़ के प्लान में लगभग 27.83 करोड़ रुपए डि-सिलिं्टग पर खर्च होना है। ड्रेजिंग मशीन के जरिए गाद को पानी में घोलकर पंप आउट किया जाएगा। यह तकनीक सामान्यतः बंदरगाहों के आसपास जमी सिल्ट को हटाने के लिए अपनाई जाती है। महापौर अभय दरे के अनुसार हैदराबाद की हुसैन सागर झील की तर्ज पर सागर झील की डि-सिलिं्टग ड्रेजिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया की मदद से ही संभव है। इस पर बड़ी राशि खर्च होगी। नगर के महापौर अभय दरे के साथ ही स्थानीय नेताओं, समाजसेवियों को भी इस झील संरक्षण के महायज्ञ के सलतापूर्वक निर्विध्न पूरा हो जाने की आकांक्षा है।
एक तालाब जिसने कई सदियां देखीं और लााखों लोगों की प्यास बुझाई, वर्षों से  अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। हालात् यहां तक पहुंचे कि यह सूख कर मैदान में तब्दील हो गया और इस पर क्रिकेट मैच भी खेला गया। समय ने करवट ली तो यह एक बार फिर लबालब हुआ। लेकिन आज यह फिर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। यूं तो कहने को यह लाखा बंजारा झील उर्फ़ सागर झील की संघर्ष कथा है लेकिन यह कथा वो आईना है जिसमें देश के हर शहर, गांव और कस्बे के तालाबों, कुओं सहित तमाम जलस्रोतों की अंतर्कथा देखी जा सकती है। वैसे, जिस झील ने सदियों से नगर को अपने पानी से सींचा है, उसे एक बार फिर प्रदूषणमुक्त और अतिक्रमणमुक्त हो कर जीने का अधिकार है। यदि झील गहरीकरण अभियान सफल रहता है तो झील की इस कथा में एक सुखद अध्याय जुड़ सकेगा, इसकी संघर्ष कथा समाप्त हो सकेगी, और यह निश्चिंतभाव से हिलोरें ले सकेगा।
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( दैनिक सागर दिनकर, 09.05.2018 )
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Thursday, May 3, 2018

चर्चा प्लस ... तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी - डॉ. शरद सिंह

चर्चा प्लस

Dr (Miss) Sharad Singh

तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी
- डॉ. शरद सिंह
भारत में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूक नहीं है। वहीं यूनाईटेड नेशन्स के अनुसार ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण सन् 2020 तक दुनिया में पांच करोड़ से ज्यादा पर्यावरणीय शरणार्थी होंगे। लिहाजा यदि अभी भी नहीं जागे तो शायद सवेरा कभी नहीं हो सकेगा। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
तेजी से बढ़ रहे हैं इंवायरमेंटल रिफ्यूजी - डाॅ. शरद सिंह ... चर्चा प्लस  Article for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik
इंवायरमेंटल रिफ्यूजी यानी पर्यावरणीय शरणार्थी अर्थात् वह व्यक्ति जो पर्यावरण में हुए प्राकृतिक एवं मानवजनित परिवर्तनों के कारण शरणार्थी बन गया हो। पहले सिर्फ़ युद्ध-शरणार्थी हुआ करते थे लेकिन अब पर्यावरणीय शरणार्थी यानी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी होने लगे हैं। सूडान और सोमालिया जैसे अफ्रिकी देशों में गृहयुद्ध से कहीं अधिक लोग शरणार्थी जीवन बिताने को विवश हुए हैं प्राकृतिक आपदा के कारण। उनके गांवों के जलस्रोत सूख गए, पानी उपलब्ध न होने के कारण उनके मवेशी मरने लगे और उनके स्वयं के प्राणों पर संकट आ गया। जिससे मजबूर हो कर उन्हें अपना गांव, घर छोड़ कर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। लेकिन उनका यह विस्थापन अवैध है क्योंकि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी को शरण देने का कानून अभी किसी भी देश में नहीं बनाया गया है। ऐसे शरणार्थी वास्तविक शराणार्थी होने पर भी न तो शराणार्थी कहलाते हैं और न उन्हें कोई सहायता मिल पाती है। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि पर्यावरण परिवर्तन के कारण सन् 2050 तक अफ्रिका, लैटिन अमरीका और दक्षिण एशिया से लगभग 140 मिलियन लोग इंवायरमेंटल रिफ्यूजी के रूप में अपनी मुख्य भूमि छोड़ कर दूसरे भू भाग में विस्थापित हो जाएंगे।
भारत में भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी बढ़ते जा रहे हैं। ये रिफ्यूजी पानी की अनुपलब्धता के कारण अपना गांव छोड़ कर बड़े शहरों में काम की तलाश में भटक रहे हैं और दिहाड़ी मजदूर बन कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण देखें कि आए दिन किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का समाचार मिलता है। सरकार किसानों को हर संभव सहायता देती है। तो फिर यह आत्महत्या क्यों? यदि राजनीतिक चश्मा उतार कर देखा जाए तो कारण समझ में आ जाएगा। आखिर सरकार द्वारा दी जाने वाली रुपयों की सहायता से न तो फसल उगाई जा सकती है और न बचाई जा सकती है। फसल उगाने के लिए बुनियादी जरूरत है पानी की। जिसे हम लगभग गंवाते जा रहे हैं।
मई माह के आरम्भ में ही जो गर्मी पड़ रही है वह अपने पिछले रिकॉर्ड तोड़ती हुई नज़र आ रही है। जल स्रोत तेजी से सूख रहे हैं या फिर उनका जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है। वृक्षों और पोखरों में स्वच्छन्द जीवन बिताने वाले पक्षियों के लिए मुट्ठी भर दाने और एक सकोरा पानी रख देने भर से हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह एक सकोरा पानी भी तब तक ही हम पक्षियों को दे सकेंगे जब तक हमारे पास अपनी प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी होगा लेकिन हमारी प्यास भी अब संकट के दायरे में आती जा रही है। हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए मौजूदा पीढ़ीं के लिए ही गंभीर संकट खड़े कर दिए हैं। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, नदियों से रेत का असीमित उत्खनन, जहरीली गैस उत्सर्जन करने वाले वाहनों की सीमा तोड़ती संख्या, खाद्यान्न की आपूर्ति पर जनसंख्यावृद्धि का भारी दबाव जैसे वे प्रमुख कारण हैं जो आज पानी की उपलब्धता, सांस लेने को शुद्ध हवा और तापमान के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और देश का पढ़ा-लिखा तबका यह सब देख कर भी अनदेखा कर रहा है।
सन् 1992 में जब रियो में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु कंवेशन पर दस्तखत हुए, तो अमेरिका ने ग्रीनहाउस गैस पर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया। इसके विपरीत वाशिंगटन ने हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की, जब भी यह तय करने की बात हुई कि किस गैस को कम करना है, किस तरह, कितना और कब। सन् 1997 में अमेरिका ज्यादातर देशों की तरह क्योटो संधि में शामिल होने को तैयार हो गया, जिसमें सिर्फ धनी देशों के लिए उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किये गये थे, जो ग्लोबल वॉर्मिंग का स्रोत समझे जाने वाले कार्बन प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माने जाते हैं। अमेरिका कई रियायतें हासिल करने के बाद इसके लिए तैयार हुआ.बिल क्लिंटन के उपराष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किये, लेकिन डेमोक्रैटिक प्राशासन इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिये सीनेट में जरूरी दो तिहाई बहुमत कभी नहीं जुटा पाया। और जब बिल क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति बने तो सारी स्थिति बदल गई.पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी ऐसी संधि के विरोधी थे जो उनके विचार में विकासशील देशों को फोसिल इंधन जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देता था जबकि धनी देशों के हाथ उत्सर्जन की सीमाओं के साथ बांध दिये गये थे। यह संधि 2005 में अमेरिका की भागीदारी के बिना शुरू हुई। रूस के हस्ताक्षर के साथ संधि को लागू करने के लिए जरूरी 55 देशों ने इस पर अनुमोदन के बाद दस्तखत कर दिये थे। कनाडा बाद में संधि से बाहर निकल आया जबकि न्यूजीलैंड, जापान और रूस ने कार्बन कटौती के दूसरे चरण में भाग नहीं लिया। सन् 2009 में दुनिया भर के देश क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पर एक नई संधि करने के लिए इकट्ठा हुए जिसमें अमेरिका, चीन और भारत सहित सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने थे। लेकिन धनी और गरीब देशों के बीच बोझ के बांटने के मुद्दे पर मतभेदों के बीच कोपेनहैगन सम्मेलन विफल हो गया। कुछ दूसरे देशों के समर्थन के साथ अमेरिका ने इस पर जोर दिया कि डील को संधि न कहा जाए। अंत में बैठक में एक अनौपचारिक समझौता हुआ जिसमें औसत ग्लोबल वॉर्मिंग को औद्योगिक पूर्व स्तर से 2 डिग्री पर रोकने पर सहमति हुई, लेकिन उत्सर्जन में कटौती का कोई लक्ष्य तय नहीं हुआ.अगला लक्ष्य 2015 तक वैश्विक संधि कर लेने का हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के शी जिनपिंग के साथ मिलकर भारत सहित 195 देशों को जलवायु संधि के लिए इकट्ठा किया। उत्सर्जन लक्ष्यों को प्रतिबद्धता के बदले योगदान कहा गया जिसकी वजह से ओबामा इस संधि का अनुमोदन कर पाए। अब डोनाल्ड ट्रम्प इसके लिए प्रयासरत हैं।
भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार दिखने लगी है। बारिश के स्वभाव में आए बदलाव की वजह से हिमालयी राज्यों में कई नदियां रास्ता बदल चुकी हैं। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है। बीते कुछ दशकों में अरुणाचल प्रदेश और असम के कई गांव बह चुके हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से कई नदियों ने अपना रास्ता बदल दिया है। पूर्वोत्तर भारत में काफी बारिश होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक बीते कुछ दशकों में बारिश का स्वभाव बदला है। अब बारिश बहुत ज्यादा और लंबे समय तक हो रही है। इसकी वजह से नदियां लबालब हो रही हैं। नदियों के रास्ता बदलने से असम के लखीमपुर और धेमाजी जिले के कई गांव साफ हो चुके हैं। भूगर्भीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि कुछ नदियों ने अपना रास्ता 300 मीटर दूर तक बदला है तो कहीं कहीं नदियां 1.8 किलोमीटर दूर जा चुकी हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) के अनुसार जलवायु की सामान्य स्थिति में बरसात पूरे साल अच्छे ढंग से बंटी रहती है। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका स्वभाव बदला है। भारत सहित पूरी दुनिया में बड़े शहरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में यह सिर्फ शुरुआत है। सन् 2050 तक दुनिया की सत्तर फीसदी आबादी शहरों में रहेगी। भारत जैसे देश जिसकी आबादी सवा अरब है। तेजी से बढ़ती जा रही है, इन बड़े शहरों के पर्यावरण को बचाने के लिए काम करना होगा। सवा करोड़ के भारत में शहरों की घनी आबादी पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बजा रही है। आबादी के मामले में साठ सत्तर लाख से लेकर करोड़ के आंकड़े को छूते इन शहरों में अगर फौरन पर्यावरण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति बेहद गंभीर हो सकती है। पहले से ही घनी आबादी वाले इन शहरों पर दबाव बढ़ेगा। बिजली की जरूरत के अलावा बुनियादी सुविधाओं की भी व्यवस्था करनी होगी। नासा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2060 तक धरती का औसत तापमान चार डिग्री बढ़ जाएगा, जिससे एक तरफ प्राकृतिक जलस्त्रोत गर्माने लगेंगे, तो दूसरी तरफ लोगों का विस्थापन भी बढ़ेगा। दिल्ली की आबादी डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। वहीं मुंबई की भी आबादी लगभग दो करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही है।
यदि इंवायरमेंटल रिफ्यूजी की बढ़ती दर को रोकना है तो हमें सबसे पहले उन सब कामों को रोकना होगा जिनसे पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। वृक्षों को बचाना होगा तथा नए वृक्षों की पौध लगानी होगी तथा उस पौध की ईमानदारी से रक्षा करनी होगी। सिर्फ तस्वीरें खिंचा कर और मीडिया में प्रचार करके पर्यावरण नहीं बच सकता है, इसके लिए सच्ची कोशिशें करनी होंगी, यदि हमें भी इंवायरमेंटल रिफ्यूजी नहीं बनना है तो।
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( दैनिक सागर दिनकर, 03.05.2018 )
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