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My Editorials - Dr Sharad Singh

Monday, September 10, 2018

लियो टॉल्सटाय की जन्मतिथि 9 सितम्बर पर मेरा एक पत्र अन्ना करेनिना के नाम...

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय अन्ना करेनिना,
तुम्हारे अस्तित्व ने कब जन्म लिया यह तो मात्र लियो टॉल्सटाय ही बता सकते थे। उन्होंने तुम्हारी कल्पना की, तुम्हें अपने समय से आगे की स्त्री के रूप में आकार दिया और संवारा। कल ही तो थी वह तारीख जो तुम्हारे सर्जक लियो टॉल्सटाय की जन्मतिथि थी यानी 9 सितम्बर 1828। यह पत्र मैं तुम्हें कल भी लिख सकती थी लेकिन कल दिन भर मैंने बिता दिया तुम्हारे बारे में सोचते हुए। तुम हमेशा मेरे दिल के बहुत करीब रही हो। अपनी कॉलेजियट उम्र के साथ तुम्हें पढ़ कर मैंने सुना और समझा था स़्त्री आंकांक्षा का वह स्वर जो मुझे मेरे आस-पास कहीं दिखाई नहीं दिया था। 
From Anna Karenina movie

तुम्हें मिला एक स्वछन्द चरित्र। इतना स्वच्छंद भी नहीं कि तुम एक ‘बिगड़ी हुई औरत’ कहलाओ। मगर टॉल्सटाय ने पाया कि तुम्हें तो तत्कालीन सामाजिक ठेकेदार ‘बिगडी हुई औरत’ ही मान रहे हैं। क्योंकि टॉल्सटाय ने तुम्हें अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने की आजादी दी। तुम कॉर्सेट मेें भर कर उभारे गए शरीर के भीतर सांसों की घुटन के साथ जीना नहीं चाहती थी। तुम्हें अच्छा लगता था खुली हवा में घोड़े पर सवारी करते हुए प्रकृति की सुंदरता को अपनी आंखों में समा लेना। वहीं आंखें जिन्हें तुम्हारा पति कभी पढ़ नहीं सका। जानती हो अन्ना, आज भी न जाने कितनी औरतें जीना चाहती है तुम्हारी तरह अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से। क्यों कि उनकी आंखों को भी कोई नहीं पढ़ता है। सदियां बीत गईं। तुम्हारी जन्मभूमि ने भी सामाजिक और राजनीतिक चोला बदला, एक नहीं दो बार। उन्होंने सन् 1875 से 1877 में तुम्हारे जीवन को विस्तार दिया। वह समय अलग था आज से लेकिन पूरा तरह से नहीं। आज भी औरतें सिसक रही हैं घर की चौखटों के भीतर, यहां भारतीय उपमहाद्वीप में। आज जितनी भी औरतें व्यवसाय या नौकरी के द्वारा पैसे कमा रही हैं, उनमें से गिनती की ही हैं जिन्हें अपने परिवार में निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों के बराबर मिला है। तुम्हारी जैसी आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त स्त्रियों की दशा भी जो दिखती है, वह नहीं है। वे तुम्हारी तरह खुले आकाश में उड़ना चाहती हैं लेकिन नहीं उड़ पाती हैं। 
Title page of first edition of Anna Karenina

अन्ना, शायद मैं भावुक हो गई हूं तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर। एक टीस है मन में जो आज मैं तुमसे साझा करना चाहती हूं। मुझे तुम्हारा अंत कभी पसंद नहीं आया। नारी दृढ़ता की प्रतिमूर्ति अन्ना रेल के पहिए से कट कर अपनी जान दे दे, भला यह कैसा अंत? यह तो अन्याय है तुम्हारे चरित्र के साथ, तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ। तुम्हें तो जीवित रखा जाना चाहिए था तुमहारी स्वाभाविक मृत्यु तक। भले ही तुम्हारा शरीर शिथिल पढ़ चुका होता, भले ही तुम्हारे बातों में सफेदी छा चुकी होती, भले ही तुम्हारी चंचलता आयुगत गंभीरता में दब चुकी होती फिर भी तुम्हें जीवित रहते देखना मुझे सुखद लगता। जब मैंने तुम्हारे बारे में पहली बार पढ़ा था तो तुम्हारे अंत ने मेरी आंखों में आंसू ला दिया था लेकिन आज जब दुनिया के अनेक रंग देख चुकी हूं तो मुझे तुम्हारे अंत कें बारे में साचे कर क्रोध आता है। अगर आज लियो टॉल्सटाय होते तो शायद मैं उनसे झगड़ा करती कि अन्ना का अंत इस तरह मत करिए। भले ही मैं उन्हें अपना प्रेरक-लेखक मानती फिर भी उनसे लड़ती। एक जुझारू औरत का अंत भला आत्महत्या के रूप में? चुभता है मुझे आज भी।
आज मैं चाहती हूं कि मैं जब भी तुम्हारे बारे में पढूं, या सोचूं तो तुम्हारे अंत को बदला हुआ देखूं। मेरी अन्ना करेनिना रेल के पहिए के नीचे कट कर अपना अंत नहीं कर सकती, वह तो डटी रहेगी अंतिम सांस तक।
तो अन्ना, जान लो कि तुम मेरी आशाओं में हमेशा जीवित रहोगी एक अडिग स्त्री की तरह।
तुम्हें हमेशा याद करती हूं आन्ना!
तुम्हारी - 
शरद सिंह
 

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