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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, November 22, 2018

चर्चा प्लस .. बुंदेलखण्ड में राजनीति, चुनाव और महिलाएं - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

बुंदेलखण्ड में राजनीति, चुनाव और महिलाएं
- डॉ. शरद सिंह 

बात आती है महिला वोट उगाहने की तो महिलाओं के हित में बड़ी-बड़ी घोषणाएं होने लगती हैं और बड़ी तत्परता से अलग महिला बूथ भी बनाए जाने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर राजनीति में महिला आरक्षण को दरकिनार कर दिया जाता है। ऐसी दशा में बुंदेलखण्ड जैसा क्षेत्र जहां महिलाएं अपने बहुमुखी विकास के लिए अभी भी अनुकूल वातावरण की बाट जोह रही ह
ैं, राजनीतिक दलों द्वारा अविश्वास की शिकार हो रही हैं। बड़ी विचित्र स्थिति है। इस स्थिति से उबरने के लिए स्वयं महिलाओं को अभी लम्बा संघर्ष करना होगा और इसके लिए जरूरी है कि वे इस बार के चुनाव में बिना किसी प्रलोभन में आए सही उम्मीवार को चुन कर अपने भविष्य की रूपरेखा तय करें। यह आशा कठिन है लेकिन असंभव नहीं।
चर्चा प्लस .. बुंदेलखण्ड में राजनीति, चुनाव और महिलाएं - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus a column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar, Daily, Sagar M.P.
चुनावों की टिकट वितरण के पूर्व मैंने अपने इसी कॉलम में विगत 08 अगस्त 2018 को लिखा था -‘‘चुनावों के निकट आते ही सबसे पहले प्रश्न उठते हैं, किसको टिकट मिलेगी और किसको नहीं? कौन-सा राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाएगा? लेकिन क्या महिला उम्मीदवारों के आंकड़े बढ़ने से ही राजनीति में महिलाओं की पकड़ बढ़ जाएगी? सच तो यह है कि चुनाव निकट आते ही महिलाओं की तरफ़दारी करने वाले बयानों की बाढ़ आ जाती है किन्तु चुनाव होते ही किए गए वादे ठंडे बस्तों में बंधने लगते हैं, विशेषरूप से राजनीति में महिलाओं के प्रतिशत को ले कर। बुंदेलखंड के संदर्भ में देखा जाए तो बहुत ही विचित्र स्थिति दिखाई देती है। बुंदेलखंड जो दो राज्यों मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है, दोनों की एक साथ बात की जाए तो आंकड़ों के अनुसार राजनीति में महिलाओं की स्थिति काफी बेहतर दिखाई देती है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई आंकड़ों के परिदृश्य से अलग ही तस्वीर दिखाती है। .... इस बार आमसभा चुनावों में कौन-सा राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाएगा? यह एक अहम प्रश्न है जिसका उत्तर सूची जारी होने पर ही मिलेगा।’’
जब टिकटों की घोषणा हुई तो यह देख कर अत्यंत निराशा हुई कि किसी भी राजनीतिक दल ने महिला उम्मींदवारों पर विश्वास नहीं किया। उनकी संख्या आश्चर्यजनक आंकड़ों तक सीमित है। अतीत में झांक कर देखें तो 1957 से लेकर 2012 तक हुए पन्द्रह विधान सभा चुनावों में बुंदेलखण्ड के उत्तरप्रदेश वाले भाग में से लगभग 15 महिलाएं विधायक रही हैं। इनमें भी 11 दलित वर्ग से, 3 पिछड़े वर्ग से और एक सामान्य वर्ग से। यह आंकड़ा उस प्रदेश के बुंदेली भू-भाग का है जहां की मायावती के रूप में एक महिला मुख्यमंत्री के पद पर रह चुकी है और साबित कर चुकी है कि महिलाएं राजनीति में अपना सिकका जमा सकती हैं। सन् 1957 में हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार कांग्रेस की बेनीबाई झांसी जिले की मऊरानीपुर (अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित) सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा में अपनी आमद दर्ज कराई थी। इसके बाद 1962 में इसी दल की सियादुलारी ने बांदा जिले की मऊ-मानिकपुर (अब चित्रकूट जिला) सीट से और बेनीबाई दोबारा मऊरानीपुर से विधायक बनी थीं। सन् 1967 में बेनीबाई तीसरी बार चुनी गईं और 1969 के चुनाव में कांग्रेस की ही सियादुलारी दोबारा अपनी सीट से विधायक चुनी गईं.। 1974 के चुनाव में जहां बेनीबाई चौथी बार चुनाव जीतीं। वहीं जेपी आंदोलन के चलते उन्हें 1977 में हार का सामना भी करना पड़ा। वर्ष 1980 के चुनाव में बेनीबाई झांसी की बबीना सीट से जीत दर्ज की और छठीं बार वह इसी सीट से 1985 के चुनाव में विधायक बनीं। इस प्रकार कांग्रेस के टिकट पर वह छह बार विधायक बनीं। वर्ष 1989 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सियादुलारी मऊ-मानिकपुर सीट से तीसरी बार विधायक चुनी गईं। साल 2002 के चुनाव में अंब्रेस कुमारी समाजवादी पार्टी के टिकट पर महोबा जिले की चरखारी सुरक्षित सीट से विधायक चुनी गईं थी और 2012 के चुनाव में झांसी के मऊरानीपुर (अनुसूचित जाति सुरक्षित) सीट से सपा की डॉ. रश्मि आर्या चुनी गईं थी। वर्ष 1977 में जेएनपी के टिकट पर सूर्यमुखी शर्मा झांसी सीट से चुनाव जीता था और 2012 के चुनाव में भाजपा की उमा भारती चरखारी सीट और हमीरपुर सीट से भाजपा की ही साध्वी निरंजन ज्योति ने चुनाव जीता था। वर्ष 2015 में चरखारी सीट में हुए उप चुनाव में सपा की उर्मिला राजपूत ने जीत हासिल कर के अपने राजनीतिक दखल को साबित किया था। ये आंकड़े और इतिहास था बुंदेलखण्ड के उत्तर प्रदेश के भू-भाग का। मध्यप्रदेश के बुंदेली भू-भाग की दशा इससे अलग नहीं है।
बुंदेलखंड के संदर्भ में कहा जाता है कि मंच पर महिलाओं को लुभाने की बातें करना, योजनाएं बनाना अलग बात है और चुनाव जीतकर सत्ता पाना अलग। महिलाओं को पर्याप्त संख्या में चुनाव में उम्मीदवार न बनाया जाना अपने आप में राजनीतिक दलों के महिला हितों के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगता है। मध्यप्रदेश में भी टीकमगढ़ ऐसा क्षेत्र है जहां से उमा भारती के रूप में महिला मुख्यमंत्री प्रदेश को मिली। उनका अल्पकालिक कार्यकाल भी इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उनके कार्यकाल में ‘पंचज’ योजना (जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर) पर ध्यान दिया गया। इसके बावजूद किसी भी राजनीतिक दल ने राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विधानसभा चुनावों में महिला उम्मींदवार नहीं बढ़ाए। वर्तमान में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना और चंबल संभाग में दतिया एवं शिवपुरी की 30 विधानसभा सीटों में से भाजपा के पास 22 और कांग्रेस के पास आठ सीटें हैं।
पिछले चुनाव में पन्ना से कुसुम सिंह मेहदेले चुनाव जीतीं और मंत्री पद भी उन्हें प्रदान किया गया। जहां तक बुंदेलखण्ड के मध्यप्रदेशीय सम्भागीय मुख्यालय सागर का प्रश्न है तो यहां का इतिहास महिलाओं की दृष्टि से गौरवपूर्ण रहा है। केंद्र में बनीं अंतरिम सरकार में सागर की विदुषी कलावती दीक्षित को सदस्य मनोनीत किया गया था। केंद्र की अंतरिम सरकार में सागर सपूत डा. हरीसिंह गौर सदस्य थे। 25 दिसंबर 1948 को उनके आकस्मिक निधन के बाद कलावती दीक्षित को संविद सरकार में सदस्य बनाया गया था। इस तरह सागर से सांसद बनने वाली वे पहली महिला थीं। इसके बाद गोवा क्रांति में गोली खाकर भी तिरंगा थामने वाली सहोद्राबाई राय सागर से 1957 में पहली बार सांसद बनीं। वे सागर से तीन बार सांसद चुनी गईं। बुंदेलखंड से उमा भारती ने 2003 में मुख्यमंत्री का पद संभाला। वे इस क्षेत्र से मुख्यमंत्री पद पर पहुंचने वाली पहली महिला थीं। 1993 में सागर से सुधा जैन विधायक निर्वाचित हुईं। वे भी 1998 और 2003 में लगातार सागर से विधायक चुनी गईं।
विगत चुनाव में भाजपा टिकट से पारुल साहू ने सुरखी विधान सभा से चुनाव जीता था किन्तु इस बार उन्होंने स्वयं ही चुनाव न लड़ने का फैसला किया। सवाल इस बात का नहीं है वे किस पार्टी से संबंद्ध हैं, सवाल यह है कि एक तो महिलाओं को राजनीति में यूं भी कम स्थान दिया जाता है उस पर एक सुशिक्षित, कर्मठ महिला का चुनाव से पीछे हटना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। पिछले चुनाव में पृथ्वीपुर विधान सभा की अनितानायक चुनाव जीत कर विधायक बनीं। छतरपुर की ललिता यादव को इस बार उनका पिछला क्षेत्र बदल कर बड़ामलहरा क्षेत्र दे दिया गया। ज़मीनी तौर पर देखा जाए तो अकेले सागर में कई ऐसी महिलाएं हैं जो विभिन्न दलों में रहती हुई निरंतर सक्रिय रहती हैं फिर भी टिकट के समय उन्हें समीकरण से बाहर ही रखा गया। रेखा चौधरी, इन्दु चौधरी, लता वानखेड़े, शारदा खटीक, कुसुम सुरभि, रंजीता राणा आदि ऐसी कई महिलाएं हैं जिनकी राजनीतिक सक्रियता अख़बारों की सुर्खियों में रहती है और इनमें से कुछ तो राजनीतिक परिवारों से भी हैं। राजनीतिकदल चाहते तो इन महिलाओं को ले कर भी चुनावी समर लड़ सकते थे, क्यों कि जीत का शत प्रतिशत दावा तो कोई भी उम्मीदवार नहीं कर सकता है। यही तो लोकतंत्र की विशेषता है।
चुनाव आते ही स्टारप्रचारक और राष्ट्रीय स्तर के नेता बड़ी-बड़ी बातें ले कर हाजिर होने लगते हैं। फिर बात आती है महिला वोट उगाहने की तो महिलाओं के हित में बड़ी-बड़ी घोषणाएं होने लगती हैं और बड़ी तत्परता से अलग महिला बूथ भी बनाए जाने लगते हैं। वहीं दूसरी ओर राजनीति में महिला आरक्षण को दरकिनार कर दिया जाता है। ऐसी दशा में बुंदेलखण्ड जैसा क्षेत्र जहां महिलाएं अपने बहुमुखी विकास के लिए अभी भी अनुकूल वातावरण की बाट जोह रही हैं, राजनीतिक दलों द्वारा अविश्वास की शिकार हो रही हैं। बड़ी विचित्र स्थिति है। इस स्थिति से उबरने के लिए स्वयं महिलाओं को अभी लम्बा संघर्ष करना होगा और इसके लिए जरूरी है कि वे इस बार के चुनाव में बिना किसी प्रलोभन में आए सही उम्मीवार को चुन कर अपने भविष्य की रूपरेखा तय करें। यह आशा कठिन है लेकिन असंभव नहीं।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 21.11.2018)

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