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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, January 11, 2019

अधबीच ... आओ अब हम मनाएं ‘चिन्ता दिवस’ - डॉ. शरद सिंह

आज (11.01.2019) "नई दुनिया" के "अधबीच" कॉलम में मेरा व्यंग्य लेख प्रकाशित हुआ है जिसके लिए मैं "नई दुनिया" की हार्दिक आभारी हूं🙏 ....तो आइए, आप भी पढ़िए मेरा लेख...
Adhabeech ... Aao Ab Hum Manayen Chinta Diwas - Dr (Miss) Sharad Singh, Naidunia, 11.01.2019
आओ अब हम मनाएं ‘चिन्ता दिवस’
- डॉ. शरद सिंह

चिंता और चिता में भला क्या समानता हो सकती है? चिता पर चढ़ने से पहले ही इंसान एक मुद्रा में आ जाता है लेकिन चिंता तो कहीं भी बैठकर, लेट कर, या खड़े हो कर की जा सकती है। चिंता के लिए चाहे आप उकडूं बैठें या लंगडी दौड़ें, चाहे दो पल चिंता करें या दो साल, इसमें कोई बंदिश नहीं है। फिर आजकल फास्टफूडी जीवन में इतना समय ही कहा कि अधिक चिंता की जाए। फिर भी यदि चिंता किए बगैर गुजारा नहीं हो रहा है तो हफ्तों चिंता करने के बजाए एकदिवसीय क्रिकेट मैच के समान मात्र एक दिन चिंता कर ली जाए। जी हां, एक दिन चिंता करो और दूसरे दिन पॉपकॉर्न खाओ मस्त हो जाओ!
यूं भी एक दिवसीय चिन्ताओं का हमारा अद्भुत रिकॉर्ड पाया जाता है। अब देखिए न, हम हिन्दी की चिंता सिर्फ एक दिन करते हैं। उस एक दिन हम हिंदी के उद्भव, विकास, अवसान आदि सब के बारे में चिंता कर डालते हैं। यह ठीक भी है क्योंकि शेष दिनों में अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चलता। यदि इंग्लिश-विंग्लिश नहीं बनती तो हिंग्लिश से काम चला लेते हैं। लेकिन कम से कम हिन्दी से तो दूर रहने की कोशिश करते हैं। आखिर हिंदी हमारी आजकल की तड़क-भड़क लाइफ से बेमेल है। इसलिए कई दिन तक हिंदी की चिंता में अपना खून जलाते रहने से क्या फायदा? इसीलिए हम सिर्फ एक दिन पूर्ण समर्पित भाव से हिन्दी के पाले में जा खड़े होते हैं और सुबह से देर रात तक हिंदी की वाह-वाही करते रहते हैं। वैसे हमारी एकदिवसीय चिंताओं की कोई कमी नहीं है। एकदिवसीय चिंताओं की लंबी सूची के अंतर्गत् हम साल में एक दिन बच्चों की भी चिंता करते हैं। उसे एक दिन बाल मजदूरी का जमकर विरोध करते हैं। उस दिन हम घर या होटलों में बच्चों से नौकरों की तरह काम कराए जाने का खुलकर विरोध करते हैं। यही हमारा उस दिन का विशेष कर्तव्य होता है, वरना प्रतिदिन बाल मजदूरों की तरफदारी करने से क्या फायदा? सोचने की बात है यदि हम बाकी दिन भी बाल मजदूरी का विरोध करने लगेंगे तो जूता पालिश करने वाले छोकरों का भाव हो जाएगा। फिर हमारे जूताधारी जैंटलमैन गंदे जूतों में घूमते नजर आएंगे। कूड़ा बीनने वाले बच्चों का भाव हो जाएगा तो शहर के कूड़ेदान उसे काम की वस्तुओं की छटनी नहीं हो पाएगी। और तो और, होटलों में काम करने वाले लड़कों का अभाव हो जाएगा। फिर जूठे बर्तनों का ढेर लग जाएगा। झूठे बर्तनों के ढेर लगने से मक्खियां भिन्न-भिन्न आएंगी और मक्खियां भिन्न-भिन्न आने से बीमारियां फैलेंगी। इसीलिए इन बाल मजदूरों की चिंता के लिए एक दिन ही पर्याप्त है।
हिंदी और बच्चों की भांति हम शिक्षकों के लिए भी सिर्फ एक दिन चिंता करते हैं। जी हां, ‘शिक्षक दिवस’ को ही हमें शिक्षकों की दीनदशा अथवा गरिमा की चिंता होती है, शेष दिन में शिक्षक समुदाय से यही आशा की जाती है कि वह पढ़ाई-लिखाई कराए, मनुष्यों से लेकर ढोर-डांगर तक गिने। चाहे तो ट्यूशन-व्यूशन कोचिंग-वोचिंग भी कर लिया करे। शिक्षक वैसे ही बुद्धिजीवी प्राणी होता है। उसकी हर दिन क्या चिंता करना।
एक दिवसीय चिन्ताओं के क्रम में अब हम एक दिन पिता का मनाते हैं तो एक दिन मां का। एक दिन मलेरिया का एक दिन फाइलेरिया का, एक दिन पर्यावरण का एक दिन ऊर्जा संरक्षण का, एक दिन पुरातात्विक धरोहरों का, एक दिन जनसंख्या का। मेरे विचार से तो सभी चिंताओं की चिंता करने के लिए भी एक दिन तय किया जाए। तो आइए इसके लिए हम आवाज़ उठाएं और एक दिन ‘चिन्ता दिवस’ भी मनाएं।
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डॉ शरद सिंह

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