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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, January 10, 2019

पूर्वांचल के गांधी बाबा राघवदास पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

पुस्तक समीक्षा 
पूर्वांचल के गांधी पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक

     - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक   - पूर्वांचल के गांधी : बाबा राघवदास       
प्रकाशक - अनामिका प्रकाशन, 52, तुलाराम बाग, इलाहाबाद, उ.प्र. 
लेखक  - डॉ. आमोद नाथ त्रिपाठी                   
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इतिहास लेखन में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता होती है। तथ्यों का पता लगाना, उन्हें जांचना और फिर क्रमबद्ध रूप से उन्हें प्रस्तुत करना एक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य होता है। अतीत को न तो बदला जा सकता है और न ही उसके किसी चरित्र को बढ़ा-चढ़ा कर अथवा घटा कर प्रस्तुत किया जा सकता है। जो जैसा है, वैसे ही उसे लिपिबद्ध करना इतिहास लेखन का सीधा सरल अर्थ है। उस पर यदि इतिहास के साथ-साथ किसी ऐसे ऐतिहासिक व्यक्ति के बारे में लिखा जा रहा हो जिससे संबंधित अनेकानेक तथ्य मौजूद हैं, उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानने वाले लोग मौजूद हैं तो लापरवाही की कोई गुंजरइश नहीं रह जाती है। यूं भी इतिहासकार जो भी लिखता है, उस पर पढ़ने वाला पूर्ण विश्वास करता है अतः इतिहासलेखन में त्रुटि करना विश्वासघात से कम नहीं होता है। इस सिद्धांत को डॉ. आमोद नाथ त्रिपाठी ने अपनी नवीनतम पुस्तक ‘‘पूर्वांचल के गांधी : बाबा राघवदास’’ लिखते समय आधार मान कर आत्मसात किया है। डॉ. आमोद नाथ त्रिपाठी ने उन सभी स्थानों का भ्रमण किया जहां बाबा राघवदास रहे थे तथा उन सभी दस्तावेजों का अध्ययन किया जो बाबा राघवदास के समय एवं परिस्थितियों को प्रमाणित करते हैं। 
Baba Raghav Das in Indian Stamp-1998
 बाबा राघवदास महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच स्थित बेलगांव में 12 दिसम्बर 1896 को जन्मे थे। उसी वर्ष मुंबई में प्लेग की महामारी फैली और उसने दूर-दूर तक के क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले लिया। इस महामारी में बाबा राघव दास ने अपने परिवार के सदस्यों को एक-एक कर के खो दिया। एक समय ऐसा आया जब उनका अपना कहने को कोई नहीं बचा। इस सदमें के कारण वे सांसारिकता से विरक्त होने लगे। उन्हीं दिनों वे लोकमान्य गंगाधर तिलक से प्रभावित हुए और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए। उन्हें लगा कि उनकी आध्यात्मिक प्यास तभी बुझ सकती है जबकि उन्हें एक सच्चा गुरु मिल जाए। वे गुरु की खोज में वाराणसी, हरिद्वार, प्रयाग आदि स्थानों में भटकते रहे। अंततः अनन्त महाप्रभु के रूप में गुरु प्राप्त हुए। अनन्त महाप्रभु देवरिया के बरहज नामक स्थान में निवास कर रहे थे। बाबा राघवदास ने बरहज में महाप्रभु की शिष्यता ग्रहण की। अनन्त महाप्रभु के देहावसान के बाद बरहज आश्रम बाबा राघवदास को सौंपा गया। इसी आश्रम में गुफा बना कर अत्यंत सादगी से जीवनयापन करते हुए बाबा राघवदास ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन सभी तथ्यों को डॉ. आमोद नाथ त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक में इतनी कुशल क्रमबद्धता से लेखबद्ध किया है कि बाबा राघवदास का व्यक्तित्व और कृतित्व अपनी पूरी दृश्यात्मकता के साथ उभर कर सामने आता है। जो पाठक बाबा राघवदास से अपरिचित है, वह भी इस पुस्तक को पढ़ने के बाद इस प्रकार अनुभव करेगा मानो उसने बाबा राघवदास को न केवल देखा हो अपितु उनके साथ देशहित में संघर्ष किया हो। इसे लेखक की लेखकीय निपुणता ही कहा जाएगा।
बाबा राघवदास के जीवन की घटनाओं के साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के प्रयासों को तिथिवार पिरोया गया है। पुस्तक का सम्पूर्ण कलेवर नौ अध्यायों में (प्राक्कथन और संदर्भ-सूची छोड़ कर) विभक्त है। इसमें सबसे पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक सर्वेक्षण (1850-1920) दिया गया है। इसके बाद क्रमशः बाबा राघवदास का प्रारम्भिक जीवन, स्वतंत्रता आन्दोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश का योगदान और बाबा राघव दास का नेतृत्व (1920-1930), स्वतंत्रता आन्दोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश का योगदान और बाबा राघव दास का नेतृत्व (1931-1947), राजनीति से सर्वोदय की ओर, भूदान-यज्ञ में आत्माहुति, रचनात्मक कार्य एवं जनसेवाः भाग-1, रचनात्मक कार्य एवं जनसेवाः भाग-2 तथा अंत में मूल्यांकनः कृतित्व एवं व्यक्तित्व प्रस्तुत किया गया है।
बाबा राघवदास वे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने जीवन को एक सन्यासी की भांति जिया किन्तु जनहित में सबसे आगे बढ़ कर कार्य किया। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन की भांति देवरिया में स्थापित ‘वोटर्स असोसिएशन’ की ओर से आयोजित 31 जुलाई और 1 अगस्त की सभाओं की अध्यक्षता की। वे इतने अच्छे वक्ता थे कि उनका भाषण सुनने के लिए हजारों स्त्री-पुरुषों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ‘‘19 जुलाई 1921 को उन्हें एक साल के सपरिश्रम कारावास का दण्ड दिया गया।’’ (पृ.62) ‘संयुक्त प्रांत के गुप्तचर विभाग के अभिलेख में बाबा राघवदास को एक खतरनाक वक्ता बताया गया था। (पृ.63) ‘अपने जेल जीवन के दौरान ही बाबा राघवदास गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुन लिए गए थे।’ (पृ.63)
राजनीति में रह कर राजनीति से विरक्त रहने वाले बाबा राघवदास ने अहिंसावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए एक विशेष नारा दिया था। लेखक के अनुसार,‘‘गोरखपुर जिला कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष बाबा राघवदास के नेतृत्व में चलने वाले ‘‘सनहा आन्दोलन’’ का नारा था-मर जाएंगे, पर मारेंगे नहीं।’’ (पृ.73) इस आन्दोलन के संबंध में लेखक ने एक दिलचस्प घटना का उल्लेख किया है-‘‘यह आन्दोलन सनहा ग्राम के कासिम अली द्वारा नोआडुमरी गांव के एक गरीब कांग्रेसी कार्यकर्ता की कुर्क की गई भैंस एक रुपए के प्रतीक मूल्य पर लेने, और फिर उसी दिन उसे गायब करा देने के विरुद्ध प्रारम्भ किया गया था। कांग्रेस के स्वयं सेवकों ने सनहा में कासिम अली के घर के पास घरना दे कर ‘हाय-तौबा’ के नारे लगाना प्रारम्भ किया। 45 दिनों तक चलने वाले इस आन्दोलन में स्वयं सेवकों पर पुलिस ने कई बार लाठीचार्ज किया और पन्द्रह स्वयं सेवकों को गिरफ्तार कर मुकद्दमा चलाया। गिरफ्तार स्वयं सेवकों को 6-6 महीने का कारावास का दण्ड दिया गया। पुलिस की इन कार्यवाहियों का कोई उत्तर न देकर स्वयं सेवक आन्दोलन में लगे रहे। ‘हाय-तौबा’ के निरन्तर लग रहे नारे से पागल हो जाने की स्थिति में पहुंच गया कासिम अली बाबा राघवदास के पास आया। उसके द्वारा लिखित रूप से क्षमायाचना करने पर ही यह आन्दोलन समाप्त हुआ।’’ (पृ.73)
डिग्बोई में सन् 1938-39 की मजदूर हड़ताल में भी बाबा राघवदास की अहम भूमिका रही। बाबा राघवदास की क्रियाशीलता से घबरा कर देवरिया के एस.डी.एम. ने उन पर गबन का झूठा मुकद्दमा चलाया। उन्हें दो वर्ष का कारावास का दण्ड दिया गया। इस दण्ड के विरुद्ध कैलाशनाथ काटजू ने बाबा राघवदास की ओर से अपील करते हुए मुकद्दमा लड़ा।
लेखक ने बाबा राघवदास के उन महत्वपूर्ण कार्यों को भी सहेजा है जो प्रायः अनदेखे कर दिए जाते हैं। राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दिए जाने की घटना का उल्लेख अधिकांश पाठ्यपुस्तकों में भी समाहित है किन्तु उनके अंतिम संस्कार किए जाने का जोखिम भरा कार्य किसने किया, यह कम ही पढ़ने को मिलता है। जबकि उन दिनों क्रांतिकारियों के शवों को जेलअधिकारियों द्वारा अनादरपूर्वक नष्ट कर दिया जाता था। परिवारजन को छोड़ कर अन्य लोग क्रांतिकारियों के शवों को अंतिमसंस्कार के लिए लेने से डरते थे कि कहीं अंग्रेज सरकार के कोप का भाजन न बनना पड़े। किन्तु ‘‘18 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ को फांसी दिए जाने के बाद उनके शव का दाहसंस्कार बाबा राघवदास ने ‘स्वदेश’(गोरखपुर) के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी के सहयोग से किया था।’’ (पृ.94)
बाबा राघवदास द्वारा कराए गए ‘वरुण यज्ञ’, ‘कोल्हू सत्याग्रह’ तथा भू-दान आन्दोलन का उनके द्वारा संचालन जैसे ऐतिहासिक महत्व के तथ्यों को लेखक ने विस्तार से स्थान दिया है। बाबा राघवदास ने ‘कुष्ठ सेवाश्रम’ भी खोले। वे स्त्रियों के अधिकार और सम्मान के पक्षधर थे। स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने वाले बाबा राघवदास के कार्यों पर स्त्रियों को अगाध श्रद्धा थी। जिस प्रकार स्त्रियां महात्मा गांधी के विचारों पर विश्वास करती थीं, ठीक उसी तरह बाबा राघवदास के विचारों पर उन्हें विश्वास था। वे बाबा को अपना हितैषी मानती थीं। इस संबंध में लेखक ने उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी का उद्गार दिया है-‘‘बापू के उठ जाने के बाद हम नारियों के एकमात्र सच्चे नेता बाबा राघवदास ही रह गए हैं।’’ (पृ.185) 
‘‘मूल्यांकनःकृतित्व एवं व्यक्तित्व’’ अध्याय में लेखक ने बाबा राघवदास को ‘पूर्वांचल का गांधी’’ कहलाए जाने को सार रूप में रखा है। इस संबंध में अनेक विद्वानों के कथन के साथ ही आचार्य विनोबा का यह कथन बाबा राघवदास के व्यक्तित्व पर सटीक बैठता है -‘‘वे अत्यंत निर्मल पुरुष थे-बिलकुल औलिया। उनके हृदय को द्वेष या बैर कभी छू भी नहीं गया।’’ (पृ.188) स्वयं लेखक की यह टिप्पणी भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि ‘‘यद्यपि बाबा राघवदास मूलरूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़े हुए थे, तथापि उनका हृदय भारतमय था, जो भाषा, धर्म, जाति, प्रांत आदि सभी भेदों से परे था। सेवा की व्यापकता, विविधता और महत्व की दृष्टि से वह निश्चय ही अखिल भारतीय स्तर के कुछ इने-गिने कार्यकर्त्ताओं में एक थे।’’(पृ.188)
बाबा राघवदास के कृतित्व और व्यक्तित्व पर लिखी गई यह पुस्तक इस बात का स्मरण कराती है कि स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम पंक्ति में अनेक ऐसे सेनानी थे जिन्हें राजनीतिक चमक-दमक में पड़ कर लगभग भुला दिया गया। जिन लोगों ने पूरे देश के लिए अपना सर्वस्व दिया, उन्हें देशवासियों की स्मृतियों से दूर कर दिया गया। सचमुच डॉ. आमोद नाथ त्रिपाठी ने ‘‘पूर्वांचल के गांधी : बाबा राघवदास’’ लिख कर एक विशिष्ठ कार्य किया है। पुस्तक में ‘शुभाशीष’ लिखते हुए डॉ.चन्द्रभूषण त्रिपाठी ने सही टिप्पणी की है कि ‘‘आज के विद्यार्थी शोध प्रबन्धों का महत्व समझते ही नहीं, और न समुचित परिश्रम करना चाहते हैं। उनके लिए यह शोध ग्रंथ पथप्रदर्शन का कार्य करेगा, ऐसी मेरी आशा है।’’
पुस्तक की भाषा, प्रवाह एवं मुद्रण चित्ताकर्षक है। भारतीय इतिहास एवं राजनीति में रुचि रखने वालों के साथ ही जीवनी पढ़ने वालों के लिए भी एक अत्यंत उपयोगी पुस्तक है।
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1 comment:

  1. Wonderful and authentic review .This book is written by my father ,a biographical memoir book on Late Dr Maine Nath Tripathi is coming. Want to speak to you regarding it. Thanks

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