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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, May 24, 2019

बुंदेलखंड की जैव विविधता पर गहराता संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
 
समाचारपत्र नवभारत में प्रकाशित मेरा लेख "बुंदेलखंड की जैव विविधता पर गहराता संकट" प्रकाशित हुआ है, इसे आप भी पढ़ें....
हार्दिक धन्यवाद नवभारत !!!


- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

वन, वन्यपशु और वनोपज का धनी बुंदेलखंड आज जैव विविधता(बायोडायवर्सिटी) पर गहराते संकट के दौर से गुज़र रहा है। प्रत्येक वर्ष 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता संरक्षण दिवस मनाए जाने के दौरान समूचे विश्व में जैव विविधता के आकलन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। विगत वर्ष यह तथ्य सामने आया था कि भारत में 450 प्रजातियों को संकटग्रस्त अथवा विलुप्त होने की कगार पर हैं। लगभग 150 स्तनधारी एवं 150 पक्षियों का अस्तित्व खतरे में है, और कीटों की अनेक प्रजातियां विलुप्ति-सूची में दर्ज़ हो चुकी हैं। सन् 2018 में ही यह भयावह सत्यता भी सामने आई कि विगत 10 वर्ष में बुंदेलखंड का तापमान औसत से डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है जोकि बुंदेलखंड की जैव विविधता के लिए संकट का सूचक है। वैसे यह तापमान अपने-आप नहीं बढ़ा है, इसके लिए जिम्मेदार स्वयं बुंदेलखंड के निवासी हैं जो प्रकृति को हानि पहुंचते देख कर भी मौन रहते आए हैं।
बुंदेलखंड की जैव विविधता पर गहराता संकट - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित Navbharat - Bundelkhand Ki Jaiv Vividhta Pr Gahrata Sankat - Dr Sharad Singh,
         बुंदेलखंड में नदियों से रेत का बेतहाशा अवैध खनन जैव विविधता को चोट पहुंचाने का एक सबसे बड़ा कारण है। कानून को धता बता कर मशीनों द्वारा जिस तरह रेत खनन किया जाता है उससे बेतवा, केन और यमुना में रहने वाले जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुंच रही हैं। जबकि एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण) की साफ गाईड लाइन है कि मशीनों से खनन नहीं किया जाएगा। फिर भी इस गाईड लाईन की अवहेलना की जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि बुंदेलखंड में केन और बेतवा और यमुना बड़ी नदियों में एक हैं और इनमें कुल 15 किस्म की मछलियों की 35 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से कई प्रजातियां मिलना दूभर है लेकिन अवैध खनन से ये प्रजातियां संकट में पड़ गई हैं। बड़ी मशीनों से रेत निकालने से सबसे अधिक हानि जैव विविधता की होती है। इससे जलीय जीव-जंतु मारे जाते हैं। इनमें से कई अब विलुप्त होते जा रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार अवैध खनन के कारण केन नदी में मछलियों की 35 प्रजातियों में कई विलुप्त हो चुकी हैं। केन और बेतवा में पाई जाने वाली निमेकाइलस, रीटी गोगरा, सिराइनस, रीबा आदि मछलियां लुप्त प्राय हैं।

मेरा स्वयं का एक दिलचस्प अनुभव है। मेरी कॉलोनी में एक भवन निर्माण के लिए डम्पर से रेत लाई गई। दूसरे दिन अचानक मुझे अपने घर में एक विचित्र जीव दिखाई पड़ा जिसकी चाल और आकृति सर्प की भांति थी किन्तु उसके चार पैर थे। ऐसा अजीब रेप्टाईल उससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। मैंने हिम्मत कर के उसे घर से बाहर भगाने का प्रयास किया किंतु ग़ज़ब का फुर्तीला वह जीव घर से निकलने का नाम नहीं ले रहा था। अंततः मुझे भवन निर्माण स्थल में काम करने वाले मज़दूरों को बुलाना पड़ा। उन लोगों ने उस जीव को देख कर मुझे बताया कि वह नदी की रेत में रहने वाला जीव है जिसे बुंदेलखंड में ‘चौगोड़ा’ (उसके चार पैरों के कारण) कहते हैं। वह डम्पर की रेत के साथ वहां आ पहुंचा था। चूंकि मेरा घर रेत के निकट था और घर में लगे पेड़ पौधों की ठंडक से आकर्षित हो कर वह घर में आ छिपा था। उन मजदूरों ने उसे पलक झपकते मार दिया। इससे मुझे बहुत दुख हुआ। मैं उसे मारना नहीं चाहती थी। वह तो स्वयं विस्थापित था। हम मनुष्यों के द्वारा उसे अपने प्राकृतिक आवास से अलग होना पड़ा था। वह इस प्रकार की मृत्यु का हकदार कतई नहीं था। उसके मारे जाने से मुझे अहसास हुआ कि आए दिन न जाने कितने जलजीव इसी तरह काल का ग्रास बन रहे हैं।

जितना संकट जलजीवों पर है उतना ही वनों की अवैध कटाई के कारण वन्य जीवों पर संकट है। जनपद महोबा में 5.45 प्रतिशत वन क्षेत्र है और यहां तेंदुआ, भेड़िया, बाज विलुप्त होने की कगार पर हैं। कहा जाता है कि वहां पहले काला हिरन भी पाया जाता था जो कि अब दिखाई नहीं देता है। महोबा के निकट के वनों में पाई जाने वाली सफेद मूसली, सतावर, ब्राम्ही, गुड़मार, हरसिंगार, पिपली आदि वन्य औषधियां भी विलुप्ति की कगार में जा पहुंची हैं।

राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार किसी भी भू-भाग में 33 प्रतिशत वन क्षेत्र होना चाहिए किंतु बांदा जनपद में आज कुल वन क्षेत्र 1.21 प्रतिशत ही बचा है। यहां विलुप्त होने वाले जीवां में चील, गिद्ध, गौरेया व तेंदुआ है। वर्ष 2009 में दुर्लभ प्रजाति के काले हिरन की संख्या जनपद बांदा में लगभग 59 थी। जनपद चित्रकूट में 21.8 प्रतिशत वन क्षेत्र है। यहां का रानीपुर वन्य जीवन विहार 263.2283 वर्ग किमी के बीहड़ व जंगली परिक्षेत्र में फैला है जिसे कैमूर वन्य जीव प्रभाग मिर्जापुर की देखरेख में रखा गया है। इसीलिए वर्ष 2009 की गणना के अनुसार यहां काले व अन्य हिरनों की कुल संख्या 1409 थी। संरक्षित क्षेत्र होने के कारण यहां पाई जाने वाली अतिमहत्वपूर्ण वन औषधियां गुलमार, मरोड़फली, कोरैया, मुसली, वन प्याज, सालम पंजा, अर्जुन, हर्रा, बहेड़ा, आंवला और निर्गुड़ी भी अभी सुरक्षित हैं।

जनपद हमीरपुर में कुल 3.6 प्रतिशत ही वन क्षेत्र शेष हैं यहां भालू, चिंकारा, चीतल, तेंदुआ, बाज, भेड़िया, गिद्ध जैसे वन्य जीव आज शिकारियों के कारण विलुप्त होने की कगार पर हैं। दुर्लभ प्रजाति का काला हिरन यहां के मौदहा कस्बे के कुनेहटा के जंगलों में ही पाया जाता है। इनकी संख्या अत्यंत सीमित है। जनपद जालौन में 5.6 प्रतिशत वन क्षेत्र है और यहां पर काले हिरन अब नज़र नहीं आते हैं। झांसी जनपद की भी लगभग यही स्थिति है कि शहर फैल रहे हैं और वनक्षेत्र सिकुड़ रहे हैं।


वन, वनोपज और वन्यजीवों की दृष्टि से पन्ना नेशनल पार्क के वनक्षेत्र की दशा संतोषजनक है। यहां संरक्षित वातावरण में जैव विविधता बनी हुई है। इसी प्रकार सागर जिले के नौरादेही अभ्यारण्य में वनक्षेत्र सुरक्षित है। जहां संरक्षित क्षेत्र हैं वहीं जैव विवधिता अभी शेष है। किंतु क्या वनों और जैवविविधता की रक्षा करना सिर्फ कानून और दण्ड का दायित्व है? आम नागरिकों का भी तो यह दायित्व बनता है कि वे कम से कम उस जैव विविधता को बचाए रखने के लिए सजग रहें जो पृथ्वी पर मानव जीवन के भविष्य के लिए जरूरी है। मानवीय लापरवाहियों एवं अवैध कार्यों के कारण गिरते हुए जलस्तर, बढ़ते हुए तापमान, घटते हुए वन के साथ दुर्लभ प्रजाति के वन जीवों का विलुप्त होना और पहाड़ों के खनन से उनका विस्थापन जैव विविधता के लिए संकट सूचक है।

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( नवभारत, 24.05.2019 )


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