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My Editorials - Dr Sharad Singh

Monday, June 3, 2019

चर्चा प्लस ... सूखती नदियां, बदरंग तालाब और हमारा जलसंरक्षण - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... सूखती नदियां, बदरंग तालाब और हमारा जलसंरक्षण
- डॉ. शरद सिंह
 

‘मन की बात’ के 19वें कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूखे के संकट पर अपने विचार रखे थे और कहा था कि जल संकट से निपटने के लिए सामूहिक प्रयत्नों की जरूरत है। बेशक सामूहिक प्रयत्न से सब कुछ संभव है लेकिन जब नदियां सूखती हुईं और तालाब जलकुंभी या काई से बदरंग होते हुए दिखाई देते हैं तो यह सिद्ध होने लगता है कि हमने न तो अपने प्रधानमंत्री के मन की बात को स्मरण रखा और न अपनी इच्छाशक्ति को कायम रखा। इतना तो समझना ही चाहिए कि जलसंरक्षण के मात्र दिखावे से जल संरक्षित नहीं रहेगा। 
चर्चा प्लस ... सूखती नदियां, बदरंग तालाब और हमारा जलसंरक्षण
- डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Sukhati Nadiyan, Badarang Talab Aur Hamara Jal Sanrakshan   -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
       भविष्य का सबसे डरावना सच अगर आज कोई है तो वह है जल का अभाव। शहरी क्षेत्रों में दम तोड़ते जलस्तरों वाले जल स्रोतों के पास लम्बी कतारें और पानी के लिए आपस में झगड़ते लोगों को देखा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में दृश्य और अधिक भयावह होते हैं। वहां मिट्टी और रेत में गढ़े बना कर और गहरी खाइयों में उतर कर जान जोखिम में डाल कर जिन्दा रहने लायक पानी मिल पाता है। दुख तो यह है कि पानी और सूखे के जिस पारस्परिक संबंध के बारे में हम अपने बचपन से पढ़ते, सुनते और समझते आ रहे हैं, उसे ही भुला बैठे हैं। पानी नहीं रहेगा तो सूखा पड़ेगा और सूखा पड़ेगा तो पानी उपलब्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता। स्थिति भयावह है। मौसम विज्ञानी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि आगामी मानसून बहुत अच्छा रहेगा और अच्छी बारिश होगी लेकिन यदि हमने जल प्रबंधन पर समय रहते ध्यान नहीं दिया तो अच्छी बारिश का लाभ भी हम नहीं ले सकेंगे। ‘मन की बात’ के 19वें कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूखे के संकट पर अपने विचार रखे थे और कहा था कि जल संकट से निपटने के लिए सामूहिक प्रयत्नों की जरूरत है।
आज भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अनेक गांवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण और जल की खपत बढ़ने के कारण सब कुछ गड़बड़ा गया है। पर्यावरण की क्षति तथा जल प्रबंधन के प्रति लापरवाही के कारण देश के महाराष्ट्र, तेलंगाना और मध्यप्रदेश जैसे कई राज्य जल संकट की त्रासदी से गुज़र रहे हैं। उचित जल प्रबंधन न होने के कारण बारिश के जल को हम इस तरह नहीं सहेज पाए हैं कि वह आज हमारे काम आ पाता। हैण्डपंप, कुओं और बावड़ियों का रख-रखाव सही ढंग से न होने के कारण या तो वे सूख गई हैं या फिर उनका पानी इतना दूषित हो गया है कि हम उसे काम में ही नहीं ला पा रहे हैं।
वर्ष 2018 के लिए जल दिवस की थीम रखी गई है -‘नेचर फॉर वाटर’’ यानी ‘‘जल के लिए प्रकृति’’। यदि प्रकृति सुरक्षित रहेगी और प्राकृतिक तत्वों में संतुलन बना रहेगा तो जल भी बचा रहेगा। हमें याद रखना होगा कि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में आगामी अप्रैल माह से 4 लाख लोगों को नल बंद करने की योजना बना रहा है। और वह दिन होगा -‘जीरो डे’। मेरी पीढ़ी तक के वे लोग जिन्होंने हिन्दी माध्यम सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा पाई होगी उन्होंने ककहरा के अभ्यास में यह पाठ अवश्य पढ़ा होगा-‘घर चल, जल भर‘। हमें जल का महत्व हर कदम पर सिखाया और समझाया गया लेकिन मानो हमने अपने तमाम पाठ बहुत जल्दी भुला दिए। हमारी लापरवाहियों के कारण जल का संकट आज एक वैश्विक संकट का रूप लेता जा रहा है। इस संकट को महसूस करते ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने जल संरक्षण की ओर सारी दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने का निश्चय किया और वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के द्वारा प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को विश्व जल संरक्षण दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। जल का महत्व, आवश्यकता और संरक्षण के बारे में जागरुकता बढ़ाने के लिये इसे पहली बार वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में “पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन” की अनुसूची 21 में आधिकारिक रुप से जोड़ा गया था और वर्ष 1993 से इस उत्सव को मनाना शुरु किया। वर्ष 2017 के लिए थीम थी “अपशिष्ट जल प्रबंधन“। जिसे हम आत्मसात नहीं कर सके। सच तो यह है कि हमारी योजनाओं और उन योजनाओं के अमल होने में दो ध्रुवों जितनी दूरी होती है। केन्द्र, राज्य, निकाय आदि हर स्तर पर बड़ी-बड़ी बातें करते हुए हमने अपशिष्ट जल के प्रबंधन की योजनाओं पर हवाई मंथन किया। क्रियान्वयन के मामले में हमेशा की तरह फिसड्डी रहे। जबकि देश के लगभग हर शहर और हर गांव में पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। किसान नहरों और बांधों से, यहां तक कि पेयजल की सप्लाई लाईनों को तोड़ कर, पंक्चर कर के पानी चुराने को विवश हैं। जो पानी पीने के लिए काम में लाया जाना चाहिए उससे खेत सिंचते हैं या फिर उसका अपव्यय कर के उसे नालियों में बहा दिया जाता है। यह सारी अव्यवस्थाएं और अपव्यय इसलिए है कि हम जल प्रबंधन की बातें करना भर जानते हैं, जल प्रबंधन करना नहीं।

हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जल के अनेक स्रोत कुओं, बावड़ियों और तालाबों के रूप में हमारे लिए छोड़े लेकिन हम इतने लापरवाह निकले कि उन्हें ढंग से सहेज भी नहीं पा रहे हैं। देश भर में हज़ारों कुए, तालाब और बावड़ियां सूख गईं सिर्फ़ हमारी लापरवाही के कारण। आज भी अनेक कुए ऐसे हैं जो तिल-तिल कर मर रहे हैं। उनका पानी प्रदूषित हो चुका है। हम उस पानी का प्रदूषण दूर कर उसे उपयोगी बना सकें इसके बदले मानो प्रतीक्षा करते हैं कि कब वह कुआ मर जाए और उस ज़मीन पर कोई रिहाइशी बिल्डिंग या शॅापिंग काम्प्लेक्स बना सकें। दुख की बात है कि हम अपनी भावी पीढी के लिए कितने और कैसे जलस्रोत छोड़ जाएंगे, यह भी नहीं सोच रहे हैं। मुझे आज के इस हालात पर राजा मिडास की कहानी याद आती है। यूनानी राजा मिडास को धन-संपत्ति की इतनी अधिक भूख थी कि उसने देवताओं से यह वरदान मांग लिया कि वह जो भी छुए वह सोने में बदल जाए। मिडास वरदान पा कर बेहद खुश हुआ। उसका महल, उसका बिस्तर, उसकी सारी वस्तुएं उसके छूते ही सोने की बन गईं। लेकिन जल्दी ही उसे परेशानियों का सामना करना पड़ा। क्यों कि उसका भोजन-पानी भी उसके छूते ही सोने में बदल गया। यहां तक कि जब उसने अपनी बेटी को दुआ तो वह भी सोने की गुड़िया में बदल गई। तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह रो-रो कर देवताओं से माफी मांगने लगा। काल्पनिक कथाओं में देवता प्रसन्न हो कर माफ कर देते हैं लेकिन यदि हम जलस्रोतों को सुखा कर पर्यावरण से खिलवाड़ करते रहेंगे तो हम स्वयं को माफ करने के योग्य भी नहीं रहेंगे। आखिर प्रत्येक प्राणी के लिए जल का होना जरूरी है। पानी के बिना कोई भी प्राणी अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता है। अब तो इस बात की भी संभावना व्यक्त की जाने लगी है कि यदि तृतीय विश्वयुद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही होगा। दरअसल, पानी किसी भी प्राणधारी की बुनियादी आवयकता होती है।
अतिदोहन के कारण भूजल स्तर जो वर्ष 1984 में 9 मीटर था, अब 17 मीटर हो चुका है। वहीं वर्ष 1984 में भूजल के मात्र 17 प्रतिशत दोहन की तुलना में आज हम 138 प्रतिशत दोहन कर रहे हैं। यदि यही स्थिति रही तो वर्ष 2020 तक भूजल भंडार रीत जाएंगे। इस स्थिति को उचित भूजल प्रबंधन के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। ये प्रबंधन घरेलू, कृषि, औद्योगिक और सामुदायिक स्तर पर किया जा सकता है। घरेलू क्षेत्र में वर्षा जल संचयन संरचना बनाकर, पेयजल के उचित प्रयोग एवं निष्कासित जल का अन्य कार्यों में प्रयोग कर, कृषि में बूंद बूंद सिंचाई, कम जल में होने वाली फसलें एवं उचित मात्रा में खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर, उद्योगों में जल को रिसाइकिल कर तथा भूजल पुनर्भरण संरचनाएं बनाकर एवं सामुदायिक स्तर पर जल संरक्षण के प्राचीन स्रोतों का जीर्णोद्धार कर इस गंभीर खतरे को टाला जा सकता है। इसके साथ ही कुछ आवश्यक कदम भी उठाने होंगे। जैसे- जल की शिक्षा अनिवार्य विषय के रूप में स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ी जाए, जल संवर्धन एवं संरक्षण कार्य को सामाजिक तथा धार्मिक संस्कारों से जोड़ा जाए, भूजल दोहन अनियंत्रित एवं असंतुलित ढंग से न हो, इसे सुनिश्चित किया जाए, तालाबों और अन्य जल संसाधनों पर समाज का सामूहिक अधिकार हो, जलस्रोतों को प्रदूषण से बचाने का हरसंभव प्रयास किया जाए तथा नदियों और नालों पर चौक डैम बना वर्षा जल को संग्रहीत किया जाए। इन सबके साथ जन संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए जन जागरूकता अभियान को नागरिक मुहिम के रूप में चलाया जाए, जिसमें प्रत्येक नागरिक की किसी न किसी स्तर पर सहभागिता हो। इससे नागरिकों में जन संरक्षण के प्रति अपने दायित्वों का बोध होगा तथा वे भविष्य के भयावह जल संकट के यथार्थ को भली-भांति समझ सकेंगे।
आज शहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्र दोनों ही जलस्रोतों की कमी से जूझना रहे है। जो आर्थिक रूप से समर्थ होते हैं, वे टैंकरों से पानी प्राप्त कर लेते हैं। और अधिक समर्थ मिनरल वाटर की बोतलों से प्यास बुझाते हैं। यह कोई स्थायी विकल्प नहीं है। जब तक जलस्रोतों में पानी है तभ्ी तक टैंकर और मिनरल वाटर की बोतले हैं। इसके साथ ही उन लोगों की पीड़ा को भी समझना जरूरी है जिन्हें एक घड़ा या एक बाल्टी पानी के लिए लम्बी कतारों में खड़े रह कर घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती है या फिर जिन्हें पानी के लिए मीलों की दूरी तय करनी पड़ती है। समाचारपत्रों में आए दिन यह समाचार पढ़ने को मिल जाता है कि फलां जगह पानी भरने के लिए मार-पीट हुई। यह संघर्ष केवल पानी का संषर्घ नहीं बल्कि ज़िन्दा रहने का संषर्घ है। भला पानी के बिना कोई जीवित रह सकता है? आज जब इस संघर्ष की चिंगारियां भड़कने लगी हैं तो अब हमारा चेतना जरूरी है। यह स्वीकार करना ही होगा कि तसला या तगाड़ी हाथों में ले कर तस्वीर खिंचवाने अथवा साल में एक बार जलसंरक्षण का एक नाटक की भांति मंचन करने से जलसंकट हमारे भावी जीवन को पूरी तरह बदरंग कर देगा।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 30.05.2019)
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