'नवभारत' में प्रकाशित मेरा लेख...
बुंदेलखंड में महिला पत्रकारिता का सच
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
यदि यह कहा जाए कि बुंदेलखंड की मानसिक भूमि आज भी महिला पत्रकारिता के लिए उर्वर नहीं है तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में फैले लम्बे-चौड़े भू-भाग में पुरुष पत्रकार तो अनेक हैं किन्तु महिला पत्रकारों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। यह अवश्य है कि निजी चैनल्स के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एंकर के रूप में बुंदेलखंड की युवतियों को रुपहले पर्दो पर अवश्य जगह दे दी है किंतु जहां तक बात ज़मीनी पत्रकारिता में महिलाओं के दखल की है तो आज भी बुंदेलखंड पिछड़ा हुआ है। इस तारतम्य में मुझे वह समय याद आता है जब स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद ही मैंने पन्ना जैसे छोटे से जिले में पत्रकारिता में कदम रखा था। उस समय पन्ना में ही एक और महिला पत्रकार हुआ करती थीं प्रभावती शर्मा जिनके पतिदेव एक टेबलाईड अखबार प्रकाशित किया करते थे। मेरा उनसे परिचय पत्रकारिता में कदम रखने के बाद हुआ। उन दिनों प्रिंट मीडिया में एक उत्साहजनक वातावरण था। उस दौर में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘नवीनदुनिया’ में ‘जोगलिखी’ कॉलम में पन्ना की समस्याओं पर मेरी रिपोर्ट्स प्रकाशित हुआ करती थीं। वहीं से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘ज्ञानयुग प्रभात’ में मैंने विशेष संवाददाता का कार्य किया। ‘जनसत्ता’ एवं ‘पांचजन्य’ के लिए रिपोर्टिंग की। उन दिनों पन्ना में बहुचर्चित ‘भदैंया कांड’ हुआ था जिसमें भदैंया नामक ग्रामीण की कुछ दबंगों ने आंखें छीन ली थीं। इस लोमहर्षक कांड पर मेरी कव्हरेज को ‘जनसत्ता’ ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था। पन्ना की खुली जेल में रह रहे दस्यु पूजा बब्बा से मैंने साक्षात्कार लिया था। डकैत चाली राजा के आत्मसमर्पण तथा कुछ डकैतों के इन्काउंटर पर भी मैंने रिपोर्टिंग की थी। अनुबंध के आधार पर रिपोर्टिंग में कलकत्ता (कोलकाता) से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘रविवार’ के लिए खजुराहो महोत्सव पर मेरे फीचर प्रकाशित हुए थे।
परिस्थितिवश मैं जमीनी पत्रकारिता से दूर होती गई। आज मैं पीछे मुड़ कर
देखती हूं तो तब से अब तक समूचे बुंदेलखंड में जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी
सक्रिय महिला पत्रकार गिनती की ही दिखाई देती हैं, उनमें भी अधिकांश
स्थानीय समाचारपत्रों से ही संबद्ध हैं। राष्ट्रीय स्तर के समाचारपत्रों
में अपनी रिपोर्ट देने का जज़्बा उनमें कम ही देखने को मिलता है।
बुंदेलखंड में महिला पत्रकारिता का सच - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... 'नवभारत' में प्रकाशित |
आज बुंदेलखंड में विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के उपाधि पाठ्यक्रम चल रहे हैं, कई निजी पत्रकारिता महाविद्यालय भी संचालित हैं लेकिन इनसे पढ़ कर निकलने वाली महिला पत्रकार बुंदेलखंड की जमीनी पत्रकारिता पर कम ही टिक रही हैं।
सागर की प्रिंट पत्रकारिता जगत में यदि नाम लिया जाए तो दो महिला पत्रकार सक्रिय दिखाई देती हैं- वंदना तोमर और रेशू जैन। ये दोनों महिलाएं अपने-अपने दायित्वों में लगन से कार्य करती रहती हैं। दोनों का दायरा परस्पर अलग-अलग है किंतु कर्मठता लगभग एक-सी है। बात की जाए यदि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड की तो वहां कुछ समय पूर्व एक धमाका हुआ था जब ‘खबर लहरिया’ नाम का अखबार प्रकाशित होना शुरू हुआ। आकलनकर्त्ताओं ने इसे ‘वैकल्पिक मीडिया’ कहा। ‘खबर लहरिया’ ग्रामीण मीडिया नेटवर्क में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा क्योंकि कई जिलों में इसके लिए सिर्फ़ महिला रिपोटर्स रखी गईं। चालीस से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला ये अख़बार उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ‘ख़बर लहरिया’ को संयुक्त राष्ट्र के ’लिट्रेसी प्राइज़’ समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। ‘खबर लहरिया’ की पत्रकार सुश्री कविता चित्रकूट के कुंजनपुर्वा गांव के एक मध्यमवर्गीय दलित परिवार से आती हैं। बचपन में उनकी पढ़ाई नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो जिंदगी में कभी पत्रकार बनेंगी। वर्ष 2002 में उन्होंने ’खबर लहरिया’ में पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। वे कहती हैं कि ‘मेरे पिताजी ने बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं और कहा कि तुम पढ़कर क्या करोगी, तुम्हे कलेक्टर नहीं बनना है। मैने छुप-छुप कर पढ़ाई की। पहले था कि मैं किसी की बेटी हूं या फिर किसी की पत्नी हूं। आज मेरी खुद की पहचान है।’
इस अख़बार से पत्रकार के रूप में महिलाओं का जुड़ाव होने पर भी जो पुरुष-मानसिकता सामने आई वह चौंकाने वाली थी क्योंकि इन महिला पत्रकारों को अनजान नंबरों से लगातार अश्लील संदेश और धमकियां मिलने लगीं। इस तथ्य का पता चलने पर मुझे लगा कि जिन दिनों मैं जमीनी पत्रकारिता से जुड़ी हुई थी, उन दिनों बुंदेलखंड के लिए महिला पत्रकारिता अपवाद का विषय होते हुए भी सकारात्मक माहौल लिए हुए था। प्रशासन से ले कर समस्याग्रस्त क्षेत्र तक सम्मान और सहयोग मिलता था। या फिर मध्यप्रदेशीय बुंदेलखंड में आज भी वह माहौल है जहां महिला पत्रकारों को इस प्रकार की ओछी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है।
वैसे यहां प्रश्न क्षेत्र का नहीं मानसिकता का है क्योंकि उत्तरप्रदेशीय बुंदेलखंड में ही एक ऐसी महिला पत्रकार हुईं जिन्होंने अपने पति की बात को झुठलाते हुए दबंग पत्रकारिता की और जेल भी गईं। बांदा की पहली महिला पत्रकार के रूप में विख्यात मधुबाला श्रीवास्तव एक दबंग व्यक्तित्व की महिला रहीं। वे अपने संस्मरण सुनाते हुए अपने पत्रकार बनने के विषय में बताया करती थीं कि एक बार जब वे मंदिर गईं तो वहां यह चर्चा आई कि शहर में कोई महिला पत्रकार नहीं है। यह बात उनके पति ने इस भाव से कही थी कि गोया महिलाएं पत्रकारिता कर ही नहीं सकती हैं। तब वे आगे आ कर बोलीं कि ‘‘हम हैं महिला पत्रकार।’’ इस तरह उन्होंने पत्रकारिता जगत में कदम रखा। एक बार उन्होंने अपने पत्रकार पति के विरुद्ध भी भाषण दिया था। मधुबाला श्रीवास्तव ने ‘अमर नवीन’, ‘क्रांति कृष्णा’ तथा ‘पायोनियर’ के लिए भी पत्रकारिता की। मीसा एक्ट के तहत उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। किंतु उन्हें भी अश्लील संदेशों अथवा ऊटपटांग धमकियों का सामना नहीं करना पड़ा था। इसका अर्थ यही है कि बुंदेलखंड को जहां आज समय के साथ चलते हुए जमीनी पत्रकारिता में महिलाओं की बहुसंख्या दिखनी चाहिए थी वहां अल्पसंख्यक स्थिति है। यह बिगड़ा हुआ माहौल तभी सुधर पाएगा जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध में पड़ कर एंकरिंग से परे भी जमीनी पत्रकारिता की ओर सुशिक्षित, प्रशिक्षित और दबंग महिला पत्रकारों की नई खेप कदम रखेगी।
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(27 जून 2018)
मेरे इस लेख पर पत्रकार सुश्री वंदना तोमर की मेरे इस लेख पर फेसबुक पर प्रतिक्रिया (स्क्रीनशॉट)
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