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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, September 11, 2019

चर्चा प्लस ... सीख लेना चाहिए आज के नेताओं को पटेल और नेहरू के पारस्परिक संबंधों से - डाॅ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...

सीख लेना चाहिए आज के नेताओं को पटेल और नेहरू के पारस्परिक संबंधों से
- डाॅ. शरद सिंह

आज जब एक सांसद विरोधी दल पर आरोप लगाती हैं कि वह ‘मारकमंत्र’ का प्रयोग कर रहा है तो जरूरी हो जाता है वल्लभ भाई पटेल और नेहरू के पारस्परिक संबंधों को याद करना। क्योंकि दो परस्पर विरोधी विचारों की उपस्थिति से ही लोकतंत्र मजबूत बनता है। दोनों एक-दूसरे पर लगाम लगाए रखते हैं और परिमार्जन करते रहते हैं। डाॅ. बी. के. केसकर के अनुसार-‘‘नेहरू और पटेल दो विरोधी तत्वों का एक ऐसा मिश्रण थे, जो एक-दूसरे के पूरक थे।’’ फिर भी दोनों ने मिल कर राष्ट्र को आधुनिक स्वरूप दिया।
 
Charcha Plus - चर्चा प्लस ... सीख लेना चाहिए आज के नेताओं को पटेल और नेहरू के पारस्परिक संबंधों से - डाॅ. शरद सिंह
      वल्लभ भाई पटेल और नेहरू दोनों ही आधुनिक भारत के निर्माता माने जाते हैं। दोनों में अनेक समानता होने के बावजूद वैचारिक भिन्नता भी थी। दोनों के परिवेश भिन्न थे, विचार भिन्न थे, इसीलिए उनके मध्य सहज मतभेद समय-समय पर उभर कर सामने आते रहे।
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। बचपन से ही संषर्घमय जीवन व्यतीत करने के कारण उनके स्वभाव में कठोरता आ गई थी। उनके स्वभाव में गंभीरता थी और इच्छाशक्ति में लोहे जैसी मजबूती। वल्लभ भाई बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड जाना चाहते थे किन्तु उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इंग्लैण्ड जा सकें। उन्होंने वकालत कर के धन जोड़ा और जब इंग्लैण्ड जाने का समय आया तो उनके बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल ने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें पहले इंग्लैण्ड जाने दें। वल्लभ भाई मान गए और उन्हें इंग्लैण्ड जाने के लिए और प्रतीक्षा करना पड़ी।
इसके ठीक विपरीत जवाहरलाल नेहरू का जन्म एक अति सम्पन्न और रसूखदार परिवार में हुआ था। बचपन से ही इंग्लैण्ड में शिक्षा और पालन-पोषण के कारण उन पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ा था। लक्ष्य प्राप्ति के लिए उन्हें वैसे संषर्घ नहीं करने पड़े जैसे वल्लभ भाई पटेल को करने पड़े। राजनीतिक जीवन के प्रारम्भ से ही उन्हें अपने पिता मोतीलाल नेहरू और गांधी जी का सतत समर्थन मिलता रहा। नेहरू ने स्वयं को कांग्रेस पार्टी के संगठन के कार्यों से पृथक रख कर कार्य किया जबकि वल्लभ भाई पटेल एक संगठनकर्ता के रूप में कांग्रेस पार्टी के ‘सरदार’ बन कर कार्य करते रहे। इन विपरीत स्वभावों से जुड़ी इन दोनों धुरियों को महात्मा गांधी ने एक साथ बांधे रहने का कार्य किया था। गांधी के प्रति दोनों की आस्था समान थी। राष्ट्रीय संग्राम में वल्लभ भाई पटेल की सेवाए भी कम न थीं, पर गांधी जी के मंशा को समझकर उन्होंने नेहरू को प्रधानमंत्री और स्वयं उपप्रधानमंत्री रहना स्वीकार किया।
भारतीय कांग्रेस के इतिहास लेखक डाॅ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा था-‘‘इस बात पर प्रायः आश्चर्य प्रकट किया जाता है कि यदि इन दोनों विरोधियों का सहयोग इतना सुखदायक, इतना उपयुक्त और इतना एकाकार न होता तो दिल्ली की केंद्रीय सरकार की कैसी दशा होती? यदि दो मित्र एक- दूसरे की बात को हमेशा काटते रहें तो उनका सहयोग आदर्श नहीं हो सकता। यदि दो साथी एक-दूसरे के ऊपर सदा आक्रमण करते रहें तो वे कोई उन्नति नहीं कर सकते हैं और न कोई निर्णय कर सकते हैं। पर हमारे यह दोनों नेता बिल्कुल भिन्न प्रकार के हैं। अतएव हमको उनकी पृथक-पृथक विशेषताओं को समझना चाहिए, जिसके कारण वे एक-दूसरे को उपयोगी सहयोग देते रहें। यह कहना तो अतिशयोक्ति होगी कि सरदार पटेल और नेहरू जी का दृष्टिकोण एक था, किंतु वे भिन्नता में भी एकता के अद्भुत उदाहरण थे। एक हाथ की कोई भी दो उंगलियां एक जैसी नहीं होतीं। एक-दूसरे से मतभेद रखना और भिन्न-भिन्न मार्ग पर चलना स्वाभाविक है। इन दोनों नेताओं के मतभेद सरकार में अपने-अपने विभागों के कारण भी थे। गृहमंत्री को आंतरिक सुरक्षा तथा शांति की उच्चतम भावना को बनाये रखना पड़ता है, जबकि प्रधानमंत्री को किसी विशेष मामले या स्वीकृत नीति के संबंध में विदेशों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखना पड़ता है। पर हमारे सरदार और प्यारे नेहरू दोनों ने ही सहयोग कला में अपनी उच्च योग्यता का परिचय दिया।’’
इन दोनों नेताओं के पारस्परिक संबंधों के बारे में हरिभाऊ उपाध्याय ने लिखा है कि-‘‘ जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार के मिजाज में बहुत अंतर था। यहां तक कि उन दोनों की कार्यप्रणाली भी एक-दूसरे से भिन्न प्रकार की थी, किंतु भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात सरदार नेहरू जी को अपना नेता मानने लगे थे। इसके बदले नेहरू जी सरदार को अपना परिवार का सबसे वरिष्ठ पुरुष मानते थे। दोनों के मतभेद के विषय में प्रायः अफवाहें फैल जाती थीं और विभेदात्मक नीति वाले अत्यंत प्रसन्न होकर उनमें फूट पड़ जाने की आशा करने लगते थे, किंतु सरदार ने कभी पानी को सिर से ऊपर नहीं निकलने दिया। यदि कोई उन दोनों में से किसी की भी नीति पर आक्रमण करता तो उक्त आलोचक को वह दोनों फटकार देते।’’
यद्यपि कुछ ऐतिहासिक तथ्य सरदार पटेल के प्रति जवाहरलाल नेहरु के दुराव भरे व्यवहार की ओर भी संकेत करते हैं। विशेषरूप से कश्मीर और हैदराबाद के मामलों में। प्रधानमंत्री नेहरु ने एक केबिनेट मीटिंग के दौरान पटेल से दो टूक शब्दों में कह दिया था कि ”आप एक पूर्णतया साम्प्रदायिक हैं और मैं आपके सुझावों और प्रस्तावों के साथ कभी पार्टी नहीं बन सकता।’’
हतप्रभ सरदार पटेल ने मेज पर से अपने पेपर इकट्ठेे किए और धीरे-धीरे चलते हुऐ कैबिनेट कक्ष से बाहर चले गए। यह अंतिम अवसर था जब पटेल ने कैबिनेट बैठक में भाग लिया। 1947 बैच के आई.एस. अधिकारी एम. के. नायर ने अपने संस्मरण ”विद नो इल फीलिंग टू एनीबडी” में लिखा है कि ”उन्होंने तब से नेहरु से बोलना भी बंद कर दिया।”
जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल के पारस्परिक संबंध सामंजस्य और असामंजस्य दोनों से परिपूर्ण थे। उनके पर्याप्त एकता और सौहाद्र्य भी था और पर्याप्त मतभेद भी। फिर भी उन्होंने परस्पर अभद्र अथवा अव्यावहारिक बातें नहीं कहीं। इसीलिए ये दोनों विपरीत ध्रुवीय नक्षत्र भारतीय राजनीति के मंच पर ससम्मान एक साथ चमकते रहे। जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल जैसी नेतृत्व क्षमता का अभाव उस समय और अधिक खटकने लगता है जब मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक जैसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक पदों पर आसीन नेतागण अजीबो-गरीब आरोप-प्रत्यारोप करने लगते हैं। वस्तुतः आज के नेताओं को सीख लेने की जरूरत है जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल के परस्पर संबंधों एवं मिल कर किए गए राजनीतिक कार्यों से कि किस तरह दो विपरीत विचारों के व्यक्ति एक-दूसरे के पूरक बन कर देश का भला कर सकते हैं। यदि नेहरू और पटेल मिल कर कार्य नहीं करते तो जितने राज्यों के विलय हुए, वे भी नहीं हो पाते और न ही देश आधुनिक स्वरूप में ढल पाता।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 28.08.2019)
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