Dr ( Miss) Sharad Singh |
बुंदेलखंड और फिल्मी दुनिया
- डाॅ. शरद सिंह
( नवभारत, 28.12.2019 में प्रकाशित)
मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता-निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’
- डाॅ. शरद सिंह
( नवभारत, 28.12.2019 में प्रकाशित)
मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड के कलाकारों का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। बुंदेलखंड का फिल्मी दुनिया से नाता यूं तो काफी पुराना है, गीतकार विट्ठल भाई पटेल, कलागुरु विष्णु पाठक और निर्माता-निर्देशक शिवकुमार ने बुंदेलखंड को फिल्मी दुनिया में एक खास पहचान दिलाई। आशुतोष राणा, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी आदि अभिनेताओं ने बुंदेलखंड का परचम बाॅलीवुड में फहराने का काम किया। कला की सज़ीदगी और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध गोविंद नामदेव का कहना है कि ‘‘बुंदेली बोली को कई बार ट्राय किया और इंडस्ट्रीज में दिखाया, लेकिन अंत में प्रोड्यूसर की बात मानी जाती है। वो जो कहता है, वह होता है, क्योंकि पैसा वह लगा रहा है। उन्होंने कहा कि अब बुंदेलखंड की बोली को पहचान हप्पू सिंह के किरदार से मिल रही है। इसे हम रिफरेंस में दिखा सकते हैं।’’
Navbharat - Bundelkh Aur Filmi Duniya - Dr Sharad Singh, 28.12.2019 |
बेशक हप्पू सिंह
का पात्र बुंदेली और बुंदेलखंड के परिप्रेक्ष्य में एक मील का पत्थर है
जहां से मनोरंजन जगत में बुंदेली के लिए अनेक रास्ते खुलने लगे हैं। उत्तर
प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 20 जिलों में बुंदेली भाषा बोली और सुनी
जाती है। बुंदेली संस्कृति के विद्वान स्व. नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने अपनी
किताब बुंदेली संस्कृति और साहित्य में लिखा है कि ‘‘मध्य प्रदेश में
बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा और निमाड़ा, चार जिलों में बुंदेली का प्रवाह
ज्यादा है। भारतीय लोक परंपरा के विकास में बुंदेली का अहम योगदान है।’’ अब
बुंदेली का प्रभाव टीवी चैनल्स पर छाता जा रहा है। इससे पहले मंचों और
सीडी के माध्यम से बुंदेली लोकगीतों एवं नाटकों का बोलबाला रहा किन्तु
अपसंस्कृति की छाया ने इसमें फूहड़पन घोल दिया। जिससे बुंदेली एक बार फिर
तिरस्कार की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन टीवी चैनल्स ने बुंदेली के प्रसार में
एक नई जान फूंक दी। चूंकि टीवी चैनल्स परिवार के साथ देखे जा सकने वाले
कार्यक्रम दिखाने के अधिकारी होते हैं अतः इनमें बुंदेली के स्तर को चोट
पहुंचने की संभावना नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि हप्पू सिंह के किरदार
के रूप में बुंदेली को हास्य की भाषा के रूप में प्रोजेक्ट करने से नुकसान
हो सकता है किन्तु वस्तुतः यह भय निरापद है। हास्य-व्यंग्य के संवाद किसी
भी व्यक्ति के दिल को गुदगुदाते हैं और उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इससे
संबंधित भाषा को भी निकअता पाने का अवसर मिलता है। लोग आज बुंदेली के
संवादों को बहुत पसंद करने लगे हैं। हप्पू सिंह के किरदार में कलाकार योगेश
त्रिपाठी जब किसी भी मंच से अपने सीरियल के डाॅयलाॅग ‘‘काए कां गए थे’’
या ‘‘काय का हो रओ’’ बोलते हैं तो बुंदेलीखंड से बाहर के श्रोता ओर दर्शक
भी न केवल तालियां बजाते हैं बल्कि उनके डाॅयलाॅग दोहराने लगते हैं।
बुंदेली संवादों ने टीवी चैनल्स की टीआरपी पर भी अपनी धाक जमा ली है। एक और
टीवी सीरियल ‘‘गुडिया हमारी सब वे भारी’’ में बुंदेली संवाद और बुन्देली
पारिवारिक चुहलबाजी को बड़े खूबसूरत ढंग से प्रसतुत किया गया है। इसे भी
हिन्दी भाषी क्षेत्रों भरपूर लोकप्रियता मिल रही है। इसमें चुलबुली गुडिया
का किरदार सारिका बहरोलिया अपने बुन्देली के शब्दों से खूब वाहवाही पा रही
हैं।
सन् 1992 में आए प्रसिद्ध टीवी धरावाहिक ‘‘परिवर्तन’’ से अपनी पहचान बनाने वाले गोविंद नामदेव आज एक लोकप्रिय अभिनेता हैं। उनके अभिनय की विविधता दर्शकों को हमेशा प्रभावित करती है। सन् 1995 में महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सीरियल ‘‘स्वाभिमान’’ में आशुतोष राणा एक सादगी भरे ऐसे ग्रामीण युवा जो शहर के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ है, के रोल में छोटे पर्दे पर आए तो दर्शकों के दिलों पर ‘‘त्यागी’’ के रूप में अपनी छाप छोड़ गए। महेश भट्ट ने उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ाया और आशुतोष राणा को अपनी फिल्म ‘‘दुश्मन’’ में सायको किलर ‘‘गोकुल पंडित’’ के रोल के लिए चुना। सन् 1098 में फिल्म ‘‘चाईना गेट’’ में सागर में जन्में और सागर में ही पले-बढ़े मुकेश तिवार को ‘‘जगीरा’’ का रोल मिला तो उनका बोला यह संवाद बच्चे-बच्चे की जुबान पर छा गया था-‘‘मेरे मन को भाया, मैं कुत्ता काट के खाया।’’ अकसर यह हंसी मज़ाक में कहा जाता है कि बुंदेलखंड के अभिनेताओं को हीरो के बदले विलेन का ही रोल मिलता है। जब यही प्रश्न गोविंद नामदेव से पूछा गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘बुंदेलखंड के पानी में ठसक है, इसलिए यहां के विलेन सबसे ज्यादा सामने आ रहे हैं और कोई बड़ा हीरो अभी तक नहीं आया।’’ यह बहुत हद तक सच है कि बुंदेलखंड के किसी भी अभिनेता को हीरो का रोल नहीं मिल पाया है लेकिन यह भी सच है कि ललितपुर में जन्में अभिनेता राजा बुंदेला ने ‘‘विजेता’’ और ‘‘अर्जुन’’ जैसी फिल्मों में सकारात्मक रोल किए। स्वयं गोविंद नामदेव ने अनेक सकारात्मक रोल किए हैं। बेशक़ यह कमी जरूर रही है कि बुंदेलखंड से किसी अभिनेत्री ने अपनी जोरदार उपस्थिति बाॅलीवुड में अभी तक दर्ज़ नहीं कराई है। लेकिन संभावनाएं विपुल हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड में फिल्म फेस्टिवल्स के छोटे-बड़े कई आयोजन हो चुके हैं। खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में देशी विदेशी फिल्मों के साथ बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा बनाई गई टेली और शार्ट फिल्मों तथा वृत्त चित्रों का भी प्रदर्शन किया जाने लगा है। इससे मंनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं में उत्साह बढ़ा है। झांसी और ओरछा में भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं। अभिनेता गोविंद नामदेव सागर, दमोह आदि शहरों में अभिनय प्रशिक्षण शिविर लगा कर प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे बुंदेली कलाकारों को अपनी अभिनय क्षमता को निखारने का अवसर मिलता है तथा वे आत्मविश्वास के साथ फिल्म और टेलीविजन की ओर बढ़ने लगे हैं।
खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में कई बुंदेली शार्ट्स फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें कुछ फिल्में वाकई गंभीर विषयों पर थीं ओर उन्हें पूरी गंभीरता से बनाया गया था। बुंदेलखंड के युवा फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा कि वे ‘‘टिकटाॅक’’ की ज़मीन से ऊपर उठ कर फिल्म बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। माना कि बुंदेलखंड में आर्थिक साधनों की कमी है लेकिन यह बात याद रखने की है कि ‘चक्र’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘अंकुर’ जैसी कालजयी फिल्में सीमित साधनों में बनाई गई थीं। यदि अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वरिष्ठ अभिनेताओं, निर्देशकों एवं निर्माताओं से सीखते हुए बुंदेलखंड के युवा मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड का नाम रोशन करेंगे।
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सन् 1992 में आए प्रसिद्ध टीवी धरावाहिक ‘‘परिवर्तन’’ से अपनी पहचान बनाने वाले गोविंद नामदेव आज एक लोकप्रिय अभिनेता हैं। उनके अभिनय की विविधता दर्शकों को हमेशा प्रभावित करती है। सन् 1995 में महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सीरियल ‘‘स्वाभिमान’’ में आशुतोष राणा एक सादगी भरे ऐसे ग्रामीण युवा जो शहर के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ है, के रोल में छोटे पर्दे पर आए तो दर्शकों के दिलों पर ‘‘त्यागी’’ के रूप में अपनी छाप छोड़ गए। महेश भट्ट ने उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ाया और आशुतोष राणा को अपनी फिल्म ‘‘दुश्मन’’ में सायको किलर ‘‘गोकुल पंडित’’ के रोल के लिए चुना। सन् 1098 में फिल्म ‘‘चाईना गेट’’ में सागर में जन्में और सागर में ही पले-बढ़े मुकेश तिवार को ‘‘जगीरा’’ का रोल मिला तो उनका बोला यह संवाद बच्चे-बच्चे की जुबान पर छा गया था-‘‘मेरे मन को भाया, मैं कुत्ता काट के खाया।’’ अकसर यह हंसी मज़ाक में कहा जाता है कि बुंदेलखंड के अभिनेताओं को हीरो के बदले विलेन का ही रोल मिलता है। जब यही प्रश्न गोविंद नामदेव से पूछा गया तो उन्होंने साफ़ शब्दों में उत्तर दिया कि ‘‘बुंदेलखंड के पानी में ठसक है, इसलिए यहां के विलेन सबसे ज्यादा सामने आ रहे हैं और कोई बड़ा हीरो अभी तक नहीं आया।’’ यह बहुत हद तक सच है कि बुंदेलखंड के किसी भी अभिनेता को हीरो का रोल नहीं मिल पाया है लेकिन यह भी सच है कि ललितपुर में जन्में अभिनेता राजा बुंदेला ने ‘‘विजेता’’ और ‘‘अर्जुन’’ जैसी फिल्मों में सकारात्मक रोल किए। स्वयं गोविंद नामदेव ने अनेक सकारात्मक रोल किए हैं। बेशक़ यह कमी जरूर रही है कि बुंदेलखंड से किसी अभिनेत्री ने अपनी जोरदार उपस्थिति बाॅलीवुड में अभी तक दर्ज़ नहीं कराई है। लेकिन संभावनाएं विपुल हैं। पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड में फिल्म फेस्टिवल्स के छोटे-बड़े कई आयोजन हो चुके हैं। खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में देशी विदेशी फिल्मों के साथ बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा बनाई गई टेली और शार्ट फिल्मों तथा वृत्त चित्रों का भी प्रदर्शन किया जाने लगा है। इससे मंनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले युवाओं में उत्साह बढ़ा है। झांसी और ओरछा में भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जा चुके हैं। अभिनेता गोविंद नामदेव सागर, दमोह आदि शहरों में अभिनय प्रशिक्षण शिविर लगा कर प्रशिक्षण देते रहते हैं जिससे बुंदेली कलाकारों को अपनी अभिनय क्षमता को निखारने का अवसर मिलता है तथा वे आत्मविश्वास के साथ फिल्म और टेलीविजन की ओर बढ़ने लगे हैं।
खजुराहो इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल में कई बुंदेली शार्ट्स फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें कुछ फिल्में वाकई गंभीर विषयों पर थीं ओर उन्हें पूरी गंभीरता से बनाया गया था। बुंदेलखंड के युवा फिल्म निर्माताओं को यह ध्यान रखना होगा कि वे ‘‘टिकटाॅक’’ की ज़मीन से ऊपर उठ कर फिल्म बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। माना कि बुंदेलखंड में आर्थिक साधनों की कमी है लेकिन यह बात याद रखने की है कि ‘चक्र’, ‘पार’, ‘दामुल’, ‘अंकुर’ जैसी कालजयी फिल्में सीमित साधनों में बनाई गई थीं। यदि अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखें तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वरिष्ठ अभिनेताओं, निर्देशकों एवं निर्माताओं से सीखते हुए बुंदेलखंड के युवा मनोरंजन जगत में बुंदेली और बुंदेलखंड का नाम रोशन करेंगे।
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