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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 25, 2020

चर्चा प्लस | डाॅ. हरी सिंह गौर : उनके जैसा दूजा नहीं और | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
डाॅ. हरी सिंह गौर : उनके जैसा दूजा नहीं और
 - डाॅ शरद सिंह
 डॉ. हरी सिंह गौर एक प्रसिद्ध शिक्षाविद्, वकील, राजनेता, लेखक और समाज सुधारक थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले वाइस चांसलर, नागपुर नगरपालिका के मेयर और भारत की संविधान सभा के सम्मानित सदस्य थे। यह सारा परिचय उस समय छोटा पड़ जाता है जब उनका यह परिचय सामने आता है कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत संपत्ति दान दे कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की। अपना सब कुछ दे कर बुंदेलखंड के हर दृष्टि से पिछड़े इलाके में उच्चशिक्षा की गौरवशाली नींव रखी और दुनिया को दिखा दिया कि परहित और जनहित किसे कहते हैं   हरीसिंह गौर का जन्म 26 नवंबर 1870 को सागर में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके तीन भाई थे- ओंकार सिंह, गणपत सिंह और आधार सिंह। दो बहनें थीं- लीलावती और मोहनबाई। हरी सिंह ने अपनी प्राथमिक शिक्षा सागर से ही पूरी की और चूंकि वह पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। प्राइमरी के बाद उन्होनें दो वर्ष में ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण उन्हें सरकार से 2रुपये की छात्रवृति मिलने लगी, जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन मैट्रिक में ये फेल हो गये जिसका कारण था एक अनावश्यक मुकदमा। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया। डॉ. गौर फिर मैट्रिक की परीक्षा में बैठे। अपने विद्यालय का नाम रोशन करते हुए उन्होंने पूरे प्रान्त में प्रथम स्थान पाया। इस उपलब्धि पर उन्हें 50 रुपये नगद एक चांदी की घड़ी एवं बीस रूपये की छात्रवृति मिली। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें नागपुर जाना पड़ा। वहां हिलसप कॉलेज में दाखिला लिया। पूरे कॉलेज में अंग्रेजी एव इतिहास में ऑनर्स करने वाले वे एकमात्र छात्र थे। नागपुर के हिसलोप कॉलेज में वह इंटर की परीक्षा में अव्वल आए और पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें वजीफा मिल गया। 

हरी सिंह गौर की अध्ययन की प्यास अभी बुझी नहीं थी। वे लंदन जा कर उच्चशिक्षा ग्रहण करना चाहते थे। उन्होंने अपने इच्छा अपने भाइयों के सामने व्यक्त की। उनके भाइयों ने उन्हें लंदन जाने की अनुमति भी दी और सहयोग भी दिया। इसके बाद हरी सिंह गौर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने सन् 1891 में दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र में उपाधि प्राप्त की। इसके बाद कानून की शिक्षा ग्रहण की और कानून की उपाधि ले कर ही भारत लौटे। अपने देश लौट कर वे रायपुर में वकालत करने लगे। उन्होंने करीब चालीस साल तक वकालत की। शीघ्र ही वे एक योग्य वकील के रूप में विख्यात हो गए। उन्होंने प्रिवी कौंसिल के लिए कई महत्वपूर्ण मुकद्दमें लड़े। वह हाई कोर्ट बार कौंसिल के सदस्य थे और बाद में उन्हें हाई कोर्ट बार एसोसिएशन का अध्यक्ष भी चुना गया। उन्होंने महिलाओं को वकालत करने के लिए क़ानूनी लड़ाई भी लड़ी थी। सिविल मैरिज बिल 1923 तैयार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस दौरान उन्होंने एक किताब ‘‘पीनल लॉ ऑफ इंडिय’’ लिखी ।

डाॅ. हरी सिंह गौर 1920 से लेकर 1935 तक वह केंद्रीय विधान सभा के सदस्य रहे। सन् 1922 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तब डाॅ. हरि सिंह को उसका वाइस चांसलर नियुक्त किया गया। वे 1928 से 1936 तक नागपुर विश्वविद्यालय के भी वाइस चांसलर रहे। जब डॉ. आंबेडकर की अगुवाई में नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ तब हरि सिंह को इसका सदस्य बनाया गया और उन्होंने भारत के संविधान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई।

अपनी सारी उपलब्धियों को वे अपूर्ण मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘यदि हम कोई ऐसा क़दम नहीं उठाते हैं जो दूसरों का जीवन बदल सके, संवार सके, तो हमारा हर कदम व्यर्थ है।’’ उनकी यही सोच नींव थी उनके उस प्रयास की जो आगे चल कर सागर विश्वविद्यालय के रूप में सामने आई। सागर ही क्या समूचे बुंदेलखंड में उन दिनों उच्चशिक्षा का कोई केन्द्र नहीं था। डाॅ. हरी सिंह गौर यह भली-भांति जानते थे कि आर्थि दृष्टि से पिछड़ा हुआ बुंदेलखंड योग्य युवाओं से तो परिपूर्ण है लेकिन वे युवा असमर्थ हैं बाहर जा कर उच्चशिक्षा प्राप्त करने में। अतः उन्होंने सोचा कि क्यों न उच्चशिक्षा का केन्द्र ही उन युवाओं के पास ला दिया जाए। डाॅ. हरी सिंह गौर ने ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया कि सागर में उच्चशिक्षा का केन्द्र स्थापित किया जाए। लम्बी काग़ज़ी कार्यवाही और धन के संकट का हवाला देते हुए टालमटोल करती ब्रिटिश सरकार के आगे अपनी संपत्ति सामने रखते हुए डाॅ. हरी सिंह गौर ने कहा कि अब कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए। उन्होंने विश्विद्यालय के लिए बीस लाख रुपये दे दिए। उन्होंने अपनी वसीयत में अपनी संपत्ति का दो तिहाई हिस्सा (लगभग दो करोड़ रुपये) विश्विद्यालय के नाम कर दिया था। उन्होंने इस नए विश्वविद्यालय को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की भांति ‘‘सागर विश्वविद्यालय’’ नाम दिया। वे हर विभाग के लिए दुनिया भर से चुन-चुन कर शिक्षाविद् विद्वान सागर विश्वविद्यालय में लाए। अफ़सोस कि वे अपने द्वारा स्थापित सागर विश्वविद्यालय को फलता-फूलता अधिक दिनों तक नहीं देख सके। सन् 1949 की 25 दिसम्बर को उनका निधन हो गया। महान दानी डाॅ. हरी सिंह गौर को श्रद्धांजलि स्वरूप सन् 1983 में सागर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर ‘‘डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय’’ कर दिया गया ताकि दुनिया भर में उनकी यह देन उनके नाम से जानी जाए। 
डाॅ. हरी सिंह गौर समय के पाबंद और मितव्ययी थे। डाॅ. हरि सिंह गौर धन के अपव्यय के प्रबल विरोधी थे। उनके जीवन की अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनसे उनकी मितव्ययिता का पता चलता है। डाॅ. हरि सिंह गौर जब सागर के कुलपति निवास में रहते थे, उस समय की एक घटना है कि एक दिन जब उनका निज सहायक उनसे मिलने आया तो देखा की डाॅ. हरि सिंह गौर फर्श पर घुटनों के बल झुक कर कुछ ढूंढ रहे हैं। कुछ देर देखते रहने के बाद जब निज सहायक ने न रहा गया तो उसने पूछ ही लिया कि आप क्या ढूंढ रहे हैं? डाॅ. हरि सिंह गौर ने उत्तर दिया कि मैं अठन्नी ढूंढ रहा हूं जो यहीं कहीं गिर गई है। ‘‘एक अठन्नी के पीछे आप इतने परेशान हो रहे हैं, आप तो कुलपति हैं।’’ निज सहायक कह बैठा। इस पर डाॅ. हरि सिंह गौर ने उससे कहा,‘‘बात मेरे कुलपति होने और उसके अठन्नी होने की नहीं है, बात लापरवाही और पैसे की कीमत की है। रकम चाहे छोटी हो या बड़ी, मूल्यवान होती है।’’ यह सुन कर निज सहायक ािक अपनी गलती का अहसास हो गया और वह भी अठन्नी ढूंढने लगा। जल्दी ही वह अठन्नी मिल गई और निज सहायक को मितव्ययिता का सबक भी।

एक और रोचक घटना है कि एक बार डाॅ. हरि सिंह गौर जापान सरकार के आमंत्रण पर लेक्चर देने जापान गए। उनकी बेटी भी उनके साथ गई। डाॅ. हरि सिंह गौर अपनी बेटी को निश्चित अंतराल पर जेब खर्च दिया करते थे। जापान में बेटी को एक छाता पसंद आ गया। बेटी के पास जेबखर्च के पैसा खऋत्म हो गया था और अगला जेबखर्च मिलने में अभी दो दिन शेष थे। वे जानती थीं कि उनके पिता समय से पहले जेबखर्च नहीं देंगे। अतः उन्होंने अपने पिता से वह छाता खरीदने के लिए पैसे मांगे। इस पर डाॅ. हरि सिंह गौर कहा कि यदि तुम्हारे पास पैसे नहीं है तो छाता मत खरीदो। तब बेटी से अनुरोध किया कि उधार के रूप में ही दे दीजिए। अगले जेबखर्च से काट लीजिएगा। तब डाॅ. हरि सिंह गौर ने बेटी को समझाया कि यदि पैसे नहीं हैं तो मत खरीदो, और उधार में धन ले कर यानी कर्ज ले कर तो कभी मत खरीदो। इस तरह उन्होंने पैसे देने से साफ़ मना कर दिया। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अपनी बेटी को मितव्ययिता और कर्ज से बचने की शिक्षा देते हुए वे पिता के अपने कर्तव्य को भूल गए हों। दूसरे ही दिन उनकी बेटी को जापान में ही एक पार्सल मिला। जब उन्होंने पार्सल खोलकर देखा तो उसमें से जापानी छाता निकला एवं उस पर लिखा था ‘‘तुम्हारे पिता का स्नेह’’। वर्तमान आर्थिक संकट के दौर में उनकी यह सीख बहुत महत्व रखती है।

डाॅ. हरि सिंह गौर ने जिस मितव्ययिता और शैक्षिक योग्यता की जो दूसरों से अपेक्षा की उसे पहले स्वयं अमल में लाया। उनके नाम पर कौंसिल ऑफ साइंस एंड टैक्नॉलॉजी, भोपाल ने ‘डॉ. हरि सिंह गौर स्टेट अवार्ड’ शुरु किया। भारत सरकार ने 26 नवंबर 1976 में उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था। शिक्षा क्षेत्र में एक महानदानी के रूप में वे हमेशा याद रखे जाएंगे। वे अद्वितीय थे, अद्वितीय हैं और अद्वितीय रहेंगे।   
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(दैनिक सागर दिनकर में 25.11.2020 को प्रकाशित)
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1 comment:

  1. जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं शरद जी💐

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