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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, November 23, 2021

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं के कैनवास पर शब्दचित्र रचती कविताएं | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 23.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि नवीन कानगो के काव्य संग्रह "बादलों में उड़ती धूप" की  समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
भावनाओं के कैनवास पर शब्दचित्र रचती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - बादलों में उड़ती धूप
कवि        - नवीन कानगो
प्रकाशक     - सतलुज प्रकाशन, एस.सी.एफ.267 (द्वितीय तल), सेक्टर-16, पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य        - 350/-
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कविता एक ऐसी नदी है जो व्यथित मन की शिला पर कभी काई नहीं जमने देती है। व्यथा व्यक्तिगत हो या चाहे लोक की, कविता उससे स्वतः सरोकारित हो उठती है, बशर्ते कवि सजग हो, अपने परिवेश के प्रति चैतन्य हो और घटित-अघटित सबका सूक्ष्मता से अवलोकन कर रहा हो। जब हर व्यक्ति अपने-आप में सिमटा रहना चाहता हो, वह भी ग्लोबल होने का छद्म रचता हुआ, ऐसे दुरुह समय में कविकर्म की चुनौतियां बढ़ जाती हैं। एक साथ कई मोर्चे खुल जाते हैं। वह अपने मन की कहना चाहता है और जन के मन की भी, वह प्रकृति को शब्दों की छेनी (चीसेल) से उकेरना चाहता और बदरंग अव्यवस्था को भी कविता के कैनवास पर संवेदनाओं की कूची (ब्रश) से उतारना चाहता है। नवीन कानगो एक ऐसे युवा कवि हैं जो अपनी कविताओं में रंग, लोक, संवेदना, वेदना और चेतना सभी की एक साथ चर्चा करते हैं ठीक वैसे ही जैसे नारियल की रस्सी में अनेक रेशे एक साथ गुंथे होते हैं और एक मज़बूत रस्सी गढ़ते हैं। नवीन कानगो भी सशक्त कविताओं को रचते हैं और अपनी कविताओं के माध्यम से वे प्रकृति और जनजीवन को एक साथ सहेजते हैं। ‘‘बादलों में उड़ती धूप’’ नवीन कानगो का प्रथम काव्य संग्रह है। इसमें उनकी अतुकांत कविताएं और ग़ज़लें दोनों ही उपस्थित हैं। दो भिन्न शैलियों के काव्य को एक ही संग्रह में सहेजना कई बार जोखिम भरा होता है क्योंकि दो भिन्न शैलियां एक ऐसा कंट्रास्ट पैदा करती हैं जिससे पाठक के लिए तय करना कठिन हो जाता है कि कवि की किस शैली को वह तरज़ीह दे। लेकिन नवीन कानगो के साथ यह स्थिति निर्मित नहीं हुई है। उनकी दोनों शैलियां अर्थात् अतुकांत कविताएं और ग़ज़लें दोनों ही समान रूप से सधी हुई हैं, परिपक्व हैं।
नवीन कानगो की कविताओं में एक सुंदर, मनोहरी दृश्यात्मकता है जो पढ़ते ही उन रंगों से साक्षात्कार कराने लगती है जिन्हें इन्द्रधनुष ने उपेक्षा से अपने पीछे छुपा लिया है, क्योंकि ये चटख नहीं वरन जीवन के सच्चाई के धूसर रंग हैं। संग्रह की पहली कविता ‘‘चितेरा’’ में इस प्रभाव को बखूबी अनुभव किया जा सकता है-
कैनवास की परिधि और
रंगों के नामों से जूझते
रुके कांपते हाथ
बेमौसम बारिश का मोहताज़ चितेरा
खुरदुरे बंजर खेत में लोटता है
उसे अपनी देह से जोतता है
फिर बादलों की बाट जोहता है
स्वयं देह से खेत हो जाता है
गेंहूं की एक बाली के लिए
उसे चुगने वाली एक चिड़िया के लिए।

नवीन की इस कविता को पढ़ते हुए सहसा स्पेनिश कवि रेफाएल अल्बेर्ती की यह छोटी-सा कविता याद आ जाती है-‘‘ जब गेंहूं मेरे लिये नक्षत्रों की रहने की जगह था/और देवता तथा तुषार चिंकारा के जमे आंसू/किसी ने मेरे हृदय तथा छाया पर पलस्तर किया था/मुझे धोखा देने के लिए’’। अल्बेर्ती की यह लोकधर्मिता नवीन कानगो की कविताओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। इसी तारतम्य की एक और कविता है-‘‘आज’’। इस कविता में कवि व्यक्ति को तोड़ देने में सक्षम वर्तमान जीवनदशा की कठिनाइयों का सांकेतिक आख्यान सामने रखता है-
अख़बार छोड़ कर
खुद को पलट कर देखा तो
वक़्त की मार से ज़र्द पड़े सफ़्हे
बिफर पड़े
सर्द आहों और आंसुओं की लम्बी फ़ेहरिस्त में   
कहीं-कहीं तुम मुस्कुराए भी थे
यह भी ठीक ही है कि
हरदम रहती घबराहट कहीं दर्ज़ न थी
ज़रा ठहर कर चौंकाती है
पियाले के साथ रंग बदलती
रोज़ एक एहसान उतारती
एक और दिए काम को ख़त्म करती
ज़िन्दगी।

‘‘रहगुज़र’’ शीर्षक की दो कविताएं हैं, एक तनिक लम्बी और दूसरी मात्र पांच पंक्तियों की। ‘‘रहगुज़र-1’’ की प्रथम पांच पंक्तियां देखिए-
कपड़ा मारना
समय-समय पर
समय की आलमारी में पड़े
स्मृतिचिन्हों, तस्वीरों और
औंधी पड़ी यादों पर

इसके बाद दृष्टिपात करिए ‘‘रहगुज़र-2’’ कविता पर -
इस तरह याद आते हो तुम कभी-कभी
जैसे एक राह
जिससे बस यों ही गुज़रे थे
मगर फिर भी वह
शहर की पहचान हो गई

दोनों कविताएं स्मिृतियों की थाती की बात करती हैं। प्रथम कविता अतीत पर से धूल झाड़ कर स्मृतियों को ताज़ा करने के प्रयास पर तो दूसरी कविता लोक स्मृति में समाहित हो जाने की अप्रयास घटित घटना पर है। दोनों कविताओं के बिम्ब एक सुंदर कोलाज़ बनाते हैं जिसमें किसी भी व्यक्ति की स्मृतियों का आकार उभर सकता है। यही खूबी इन दोनों कविताओं को सशक्त बनाती है।
सीख़चें सीमाओं का प्रतीक होते हैं। यह बंधनकारी स्थिति को जन्म देते हैं अतः यदि बंधन हो तो उसका अनुपस्थित होना ही श्रेयस्कर होता है। इसलिए कवि का कहना है कि ‘‘अनुपस्थिति’’ भी सुखकर हो सकती है। कविता देखिए-
मेरे झरोखे से
बहुत ख़ूबसूरत दिखते हैं
गुलों से लबरेज़ दरख़्त
बादलों में डूबता-उतराता चांद
मैं शुक्रगुज़ार हूं
उस हवा के झोंके का
जो अनायास ही इसे खोल
चला गया
मैं शुक्रगुज़ार हूं
उस सीख़चें का
जो नहीं है।

कविताओं के बाद नवीन कानगो की उन ग़ज़लों को पढ़ना जो इस संग्रह में संग्रहीत हैं, एक अलग ही ज़मीन पर ले जाता है किन्तु भावनात्मक संवाद यथावत बना मिलता है। जीवन की सच्चाइयों को कुरेदते शेर मन को आंदोलित कर देते हैं। ‘‘उम्र चेहरे पे’’ शीर्षक ग़ज़ल के चंद शेर देखें-
उम्र चेहरे पे दबे पांव इस तरह आई
थम  गया  वक़्त,  जम  गई  काई
वक़्त भी एक वक़्त तक गुज़रता था
अब न  मौसम है  और  न अंगड़ाई

‘‘जब उसका अक्स’’ भी एक खूबसूरत ग़ज़ल है जिसमें रूमानीयत की छटा देखी जा सकती है और संयमित भावनाओं के ज्वार को अनुभव किया जा सकता है-
जब उसका अक्स नज़र आता है
गुज़रता  वक़्त   ठहर  जाता है
वो  मुझसे  कभी बिछड़ा ही नहीं
रोज़  ख़्वाबों  में  नज़र आता है
उसकी  सोहबत की  रहनुमाई है
टूटा, उजड़ा भी  संवर  जाता है

ग़ज़ल और रूमानीयत का तो वैसे भी घनिष्ठ संबंध रहा है। बहुत ही कोमल-सी ग़ज़ल है ‘‘ईद का माहताब’’। इस ग़ज़ल में नफ़ासत भी है और नज़ाकत भी-
ईद  का  माहताब  हो  जैसे
उसका दिखना सवाब हो जैसे
इतनी  ख़मोशियां   समेटे है
उसका पैकर क़िताब हो जैसे
उसको देखा, मगर नहीं देखा
उसका चेहरा नक़ाब हो जैसे

सूक्ष्म जीवविज्ञान (माइक्रो बाॅयोलाॅजी) में पी.एच.डी., नवीन कानगो ने दक्षिण आफ्रिका और फिनलैंड में पोस्ट डाॅक्टोरल अध्ययन किया है तथा वर्तमान में डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में माइक्रो बाॅयोलाॅजी के विभागाध्यक्ष हैं। नवीन कानगो का सर्जनात्मक वैविध्य पाठक के मन को प्रभावित करने में सक्षम है। उनकी  कविताओं में युवादृष्टि के साथ वैचारिक प्रौढ़ता है। उनकी कई कविताएं साबित करती हैं कि उनमें कवि ने गहरे और असाधारण आत्ममंथन का निचोड़ प्रस्तुत किया है। ‘‘बादलों में उड़ती धूप’’ संग्रह की कविताओं में विसंगतियों, जड़ताओं, विवेकहीनता और कुव्यवस्था के प्रति रोष है तो प्रेम की ध्वनि तरंगे भी हैं। विश्वास है कि यह काव्य संग्रह हर पाठक वर्ग को रुचिकर लगेगा।
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