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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, November 30, 2021

पुस्तक समीक्षा | संवाद के विविध स्वर रचता काव्य संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 30.11. 2021 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि ईश्वर दयाल गोस्वामी के काव्य संग्रह "संवाद शीर्षक से" समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
संवाद के विविध स्वर रचता काव्य संग्रह  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - संवाद शीर्षक से
कवि        - ईश्वर दयाल गोस्वामी
प्रकाशक     - उत्कर्ष प्रकाशन, 142, शाक्यपुरी, कंकर खेड़ा, मेरठ कैण्ट (उप्र)
मूल्य        - 150/-
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कोरोना काल साहित्य जगत के समक्ष भी एक अवरोध बन कर सामने आया लेकिन साहित्य तो जल की धारा के समान है जो अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है। एक राह पर अवरोध उत्पन्न हो जाए तो दूसरी राह निकल ही आती है। यदि इतिहास के पन्नों को पलटें तो अंग्रेजों के जमाने में देशभक्ति के पक्ष में साहित्य लिखना प्रतिबंधित था। लेखक की पहचान हो जाने पर उसे कठोर दंड दिया जाता। अतः उस दौर में लेखकों, कवियों ने छद्म नाम से रचनाएं लिखीं। ताकि जब तक अंग्रेज सरकार असली सृजनकर्ता को ढूंढ पाए तब तक रचना में निहित संदेश जन-जन तक पहुंच जाए। कोरोना काल में जब रचनाकार परस्पर प्रत्यक्ष नहीं मिल पा रहे थे तब आॅनलाईन गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं कविसम्मेलनों का रास्ता निकाला गया। लेकिन साहित्य सृजन का एक पक्ष और भी है जिसे तात्कालिक क्षति पहुंची। वह पक्ष उन पुस्तकों का है जो कोरोना काल के ठीक पहले अथवा थोड़े पहले प्रकाशित हुई थीं। उनमें से कई पुस्तकें पर्याप्त चर्चा का विषय नहीं बन सकीं और कोरोना काल की गत्र्त में समा गईं। साहित्य जगत में अनेक साहित्यकार अभी भी ऐसे हैं जो इंटरनेट और आधुनिक तकनीक से भली-भांति परिचित नहीं हैं। ऐसे साहित्यकार भी अपनी कृतियों को सब के सामने नहीं ला सके। कुछ पुस्तकों की चर्चा हुई लेकिन उतनी नहीं जितनी कि उन पर चर्चा होनी चाहिए थी। ऐसी ही एक पुस्तक है ‘‘संवाद शीर्षक से’’। यह एक काव्य संग्रह है जिसमें कवि ईश्वर दयाल गोस्वामी ने अपनी समकालीन कविताएं, नवगीत, गीत तथा गीतिकाओं को संग्रहीत किया है। यह सन् 2017 में प्रकाशित हुई। सागर जिले की रहली तहसील के छिरारी गांव में निवासरत ईश्वर दयाल गोस्वामी के इस काव्य संग्रह की सन् 2018-19 में तनिक चर्चा हुई लेकिन 2020 आते-आते कोरोना काल ने परिदृश्य ही बदल दिया। साहित्य के सतत् संवाद में एक ठहराव-सा आ गया। परिदृश्य बदलते-बदलते नवीन कृतियों की बाढ़ में तनिक पुरानी कृतियां पीछे छूटने लगीं। किन्तु सच यही है कि साहित्य कभी पुराना नहीं होता है, उसकी समसामयिकता सदा बनी रहती है। ‘‘संवाद शीर्षक से’’ की समसामयिकता भी अक्षुण्ण है।
‘‘संवाद शीर्षक से’’ काव्य संग्रह में रचनाओं को शैलीगत विभाजन करते हुए कुल पांच खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। पहला खण्ड है समकालीन कविताओं का। जिसमें कवि ईश्वर दयाल गोस्वामी ने अपनी समकालीन कविताओं को प्रस्तुत किया है। ये कविताएं समाज, परिवार, परिवेश और प्रेम से सीधा संवाद करती हैं। ‘‘प्रेम’’ शीर्षक की ही कविता देखें जिसमें प्रेम का एक नितांत व्यवहारिक स्वरूप कवि ने शब्दबद्ध किया है-
तुम्हें पाना ही
सब कुछ नहीं है
जीवन सार्थक
भी नहीं होता
केवल तुम्हें /पा लेने से!
बल्कि बहुत 
कुछ त्यागना
सहना और 
खोना पड़ता है
तुम्हें पाने के बाद/तुम्हारे लिए।

समकालीन कविता अथवा अतुकांत कविता लिखना जितना सहज लगता है, वस्तुतः उतना होता नहीं है। गद्य की पंक्तियों को तोड़-तोड़ कर लिख देना मात्र नहीं है समकालीन कविता। इस प्रकार की कविताओं की अपनी एक अलग संवाद क्षमता होती है। एक अलग लयबद्ध शिल्प होता है और होती है शब्दों की मज़बूत पकड़। दृश्यात्मकता भी इस तरह की कविताओं की खूबी होती है। इसी संदर्भ में उदाहरण के लिए ‘‘भय’’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां पढ़ कर महसूस कीजिए इसमें निहित मर्म को-
ये केवल किवाड़ नहीं
ये जब बोलते हैं
तो सहम जाती है मां
ये जब हिलते हैं 
तो ठिठक से जाते हैं पिता
इनका बंद रहना अखरता है
हर किसी को / मित्रों को
रिश्तेदारों को।
ये हिलें या हिलाए जाएं
ये खुलें या खोले जाएं
तो एक अनचाहा-सा
अनजाना-सा
भय आ कर सिमट जाता है
सांकल और कुंदे के दरमियान।

संग्रह में दूसरा खंड है नवगीत का। नवगीत के संस्थापक कवियों में राजेन्द्र प्रसाद सिंह और शंभुनाथ सिंह का नाम लिया जाता है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ‘‘नई कविता’’ के समानांतर रचे जा रहे गीतों की भिन्न प्रकृति एवं रचना विधान को रेखांकित करने वाले नए गीतों के प्रथम संकलन ‘‘गीतांगिनी’’ (1958) का संपादन किया और उसकी भूमिका में ‘‘नवगीत’’ के रूप में नए गीतों का नामकरण एवं लक्षण निरूपित किया। इसके बाद डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित तीन खंडों में ‘‘नवगीत दशक’ शीर्षक पूरे भारत से चुने हुए तीस प्रमुख नवगीतकारों की दस-दस नवगीत रचनाओं के ऐतिहासिक समवेत संकलन का प्रकाशन हुआ। जिससे नवगीत को सुदृढ़ स्थापना मिली। नवगीत के पुरोधा कवियों में से एक देवेन्द्र शर्मा ‘‘इन्द्र’’ ने नवगीत का सटीक परिचय दिया है कि - ‘‘प्रत्येक नवगीत पहले गीत है, किन्तु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं है।’’ नवगीत के मूल चरित्र को आत्मसात करते हुए कवि ईश्वर दयाल गोस्वामी ने नवगीत को साधने का प्रयास किया। फिर संभवतः उनका स्वयं ही मोहभंग हो गया नवगीत से। उनके तीन नवगीत ही इस संग्रह में हैं। ‘‘आदमी’’ शीर्षक नवगीत की ये कुछ पंक्तियां बानगी स्वरूप प्रस्तुत हैं-
श्यामपट पर/ अक्षरों-सा
नहीं चमकता आदमी।
अक्षरों पर श्यामपट-सा
काला दिखता
ज़हर जमाने का 
है काग़ज़ पर लिखता
अंधकार में /जुगनू जैसा
नहीं चमकता आदमी।

संग्रह के तीसरे खंड में गीत रखे गए हैं। ईश्वर दयाल गोस्वामी के गीत नवगीत की अपेक्षा सशक्त हैं फिर भी उनके कुछ गीतों में नवगीत का द्वंद्व दिखाई देता है। वे गीत में नवगीत के शिल्प को आरुढ़ कर बैठते हैं। किन्तु उनके कुछ गीत बेहद सशक्त और मर्मस्पर्शी हैं। इन्हीं में से एक है ‘‘फिर से बचपन आ जाता’’ गीत। पंक्तियां देखिए-
जाने क्यों लगता है मुझको
फिर से बचपन आ जाता
खोई हुई खुशी जीवन की
और प्यार मैं पा जाता।

रोज बनाना नए घरौंदे
और मिटाना फिर उनको
बचपन की वो भोली सूरत
अच्छी लगती थी सबको
उसे याद कर अब भी मेरा
मन गुलाब-सा खिल जाता।

अरबी-फ़ारसी से उर्दू में और उर्दू से हिन्दी में ग़ज़ल कब और कैसे आई यह एक लम्बी चर्चा का विषय है। चूंकि समीक्ष्य संग्रह में कवि ईश्वर दयाल गोस्वामी ने अपनी ग़ज़लों को ‘‘गीतिका’’ नामक चौथे खंड में सहेजा है इसलिए यहां उल्लेख करना समीचीन होगा कि सबसे पहले कवि गोपाल दास ‘‘नीरज’’ ने हिन्दी गजल को ‘‘गीतिका’’ नाम दिया था। ‘‘फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन’’ - यह है उर्दू में बहरे-‘रमल’ अथवा हिन्दी में ‘गीतिका’ छंद। हिन्दी के गणों के अनुसार इस छन्द के गण होंगे- रगण, तगण, मगण, यगण और रगण। यानीकि उर्दू में इस छन्द या बहर को ‘रमल’ और हिन्दी में ‘गीतिका’ कहेंगे। यह विवाद भी हमेशा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल को गीतिका कहना उचित है या नहीं। बहरहाल, यदि ‘‘संवाद शीर्षक से’’ की गीतिकाओं को देखें तो वे निःसंदेह अपने शीर्षक से ही नहीं वरन् समूचे समाज से संवाद करती दिखाई पड़ती हैं। जैसे एक गीतिका है ‘‘बेटियां’’। इसके कुछ बंद देखें-
दो नदियों का मेल कराती हैं बेटियां
प्यार  की  धारा  बहाती  हैं बेटियां 
संजीदगी से करती हैं कठिनाइयों को पार
सहयोग का दस्तूर चलाती हैं बेटियां

इसी छंद में आबद्ध एक और गीतिका है ‘‘लेखनी’’। इसकी भी चंद पंक्तियां देखें-
कर्त्तव्य का  ही  बोध  कराती है लेखनी
इस देह  को  मनुष्य  बनाती है लेखनी
अंतर की वेदना न कवि क्यों मुखर करे
पथ-पथ पे नेह पुष्प  बिछाती है लेखनी 

संग्रह के पांचवे खंड में ‘‘विविध’’ के रूप में कुछ और रचनाएं हैं जिनके बारे में संभवतः स्वयं कवि गोस्वामी सुनिश्चित नहीं हो सके उन्हें वे किस विधा खंड में रखें। ईश्वर दयाल गोस्वामी में काव्यात्मक सृजन की विपुल संभावनाएं हैं। बस, उन्हें आवश्यकता है ठहर का विचार करने की कि वे काव्य के किस शिल्प को पूरी तरह पहले साधना चाहते हैं। वैसे, विविधता पूर्ण काव्यात्मक संवाद करता यह काव्य संग्रह पठनीय है, स्वागत योग्य है और कवि की भावी सृजनधर्मिता के प्रति विश्वास जगाता है।     
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