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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, December 28, 2021

पुस्तक समीक्षा | बाल कविताओं का बालोपयोगी संग्रह | समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 28.12. 2021 को आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि वृंदावन राय 'सरल' के काव्य संग्रह "मैं भी कभी बच्चा था" की समीक्षा... 
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
बाल कविताओं का बालोपयोगी संग्रह
 समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - मैं भी कभी बच्चा था
कवि         - वृंदावन राय ‘सरल’
प्रकाशक      - मध्यप्रदेश लेखक संघ, इकाई सागर म.प्र.
मूल्य         - 60/-
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बाल साहित्य का अपना एक अलग महत्व है। बड़ों का साहित्य शिक्षाप्रद होने का स्पष्ट आग्रह नहीं रखता है किन्तु बाल साहित्य का मूल आधार ही शिक्षाप्रद होना है। ऐसा साहित्य जो रोचकता के साथ खेल-खेल में बच्चों को जीवन से जुड़ी शिक्षा दे डाले, वही सार्थक बालसाहित्य है। बाल साहित्य की भाषा ऐसी हो जो बच्चों को सुगमता से समझ में आ जाए। दृश्यात्मकता इतनी हो कि बच्चे कल्पनालोक में विचरण करने लगें। जैसे वह कविता है जिसे हम सभी ने अपने बचपन में सुनी है, पढ़ी है और अनेक बार सुनाई है-‘‘मछली जल की रानी है/जीवन उसका पानी है/हाथ लगाओ डर जाएगी/बाहर निकालो मर जाएगी।’’
यह छोटी-सी कविता मछली के अस्तित्व को बालमन में इस तरह बिठा देती है कि व्यक्ति जीवनपर्यंत उसे भूल नहीं पाता है। कुछ समय पहले कोल्डड्रिंक का एक जिंगल चला था जिसमें ‘‘ठंडा’’ शब्द आते ही पूरा जिंगल मस्तिष्क में ताज़ा हो उठता था। कहीं भी ‘‘ठंडा’’ शब्द चर्चा में आता तो आगे के शब्द स्वतः ज़बान पर आ जाते। यह जिंगल था- ‘‘ठंडा यानी कोेकाकोला’’। इस कामर्शियल जिंगल की तरह मछली शब्द बोलते ही ‘‘जल की रानी... जीवन जिसका पानी...’’ शब्द समूह मस्तिष्क में जाग उठते हैं। यही विशेषता होती है एक अच्छे, सटीक बाल साहित्य की। वह किसी कामर्शियल जिंगल की तरह उसे बालमन पर दस्तक देने और पैंठ जाने की क्षमता रखता हो। एक और कविता थी जो बचपन में कोर्स की किताब ‘‘बालभारती’’ में पढ़ी थी, जिसका शीर्षक था ‘‘नागपंचमी’’- 
इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी अजब ही शान है, अरे ये पहलवान है।
- इस कविता को पढ़ने के बाद पहलवानों की छाप दिमाग में ऐसी बैठी कि आज भी नागपंचमी आने पर अथवा पहलवानों की चर्चा होने पर इस कविता की प्रथम दो पंक्तियां स्वतः कौंध जाती हैं।
हिन्दी साहित्य में बाल कविताओं की दीर्घ परंपरा नहीं मिलती है। आधुनिककाल में अवश्य भरपूर बाल कविताएं लिखी गईं। नंदन, पराग, चंपक आदि बाल पत्रिकाओं के प्रकाशन ने भी इसे बढ़ावा दिया। साथ ही प्रत्येक पारिवारिक पत्रिका तथा समाचारपत्र में बच्चों के लिए पन्ना तथा कोना निर्धारित हो गया जिसने बाल साहित्य को बच्चों तक पहुंचाने की दिशा में सरल मार्ग बना दिया। बालमुकुन्द गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चैहान आदि सभी ने बड़ों के लिए साहित्य सृजन करने के साथ ही बच्चों के लिए भी कलम चलाई। ये बाल कविताएं बच्चों के भीतर कोमल भावनाओं का विकास करने में सक्षम थीं। इनका उद्देश्य देश के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक गौरव से परिचित कराने के साथ ही देश प्रेम की भावना जगाने तथा नैतिक शिक्षा देने का था। फिर भी ये कविताएं बोझिल नहीं थी वरन रोचक थीं। कवि प्रदीप का वह गीत जो फिल्म के लिए रिकाॅर्ड होने के बाद बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया-‘‘आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की/ इस मिट्टी से तिलक करो, ये मिट्टी है बलिदान की।’’ यह कविता बच्चों को संबोधित कर के लिखी गई लेकिन यह थी बच्चों के लिए ही। कहने का आशय यह है कि इससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है कि कविता बच्चों के लिए लिखी गई अथवा बच्चों को आधार बना कर लिखी गई। ‘‘मैंया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ कवि सूरदास ने बच्चों के लिए नहीं लिखा किन्तु बच्चों में इसकी सदा भरपूर लोकप्रियता रही है। क्योंकि यह कविता बालमन का एक ऐसा दर्पण प्रस्तुत करता है, जिसमें हर बच्चा अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। पुस्तक समीक्षा के अंतर्गत इस लम्बी भूमिका का औचित्य यह है कि इस बार जो पुस्तक समीक्ष्य है वह बालकविताओं का संग्रह है। इस पुस्तक का नाम है-‘‘मैं भी कभी बच्चा था’’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि इस संग्रह की कविताएं अपने बालपन के अनुभवों एवं संस्मरण के बहाने बच्चों से सीधा काव्यात्मक संवाद करने का प्रयास है। यह संग्रह है कवि वृंदावन राय ‘‘सरल’’ का जिन्होंने आरंभ में ही अपने विचार रखते हुए बताया है कि उन्होंने कवि दीनदयाल बालार्क जी से प्रेरणा ले कर बाल कविताएं लिखना शुरू कीं। कवि दीनदयाल बालार्क सागर नगर के वरिष्ठ कवियों में रहे हैं तथा उनके बालगीत बहुत चर्चित रहे हैं। 
‘‘मैं भी कभी बच्चा था’’ काव्य संग्रह में दो परिचयात्मक भूमिकाएं हैं। प्रथम भूमिका प्रो. सुरेश आचार्य की है जिन्होंने वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की सृजनात्मकता पर टिप्पणी करने हुए लिखा है कि ‘‘यदि बालगीतकार के रूप में इनकी अद्भुत प्रतिष्ठा है और देशव्यापी ख्याति है तो इसका मूल कारण उनकी रचनात्मकता है जो बाल जिज्ञासा को समझने के साथ-साथ उसे नए रास्ते सुझाने, नीति युक्त जीवन हेतु तैयार करने और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रेरित करते हुए एक अच्छे मनुष्य के रूप में एक श्रेष्ठ जीवन बिताने की शिक्षा देती है।’’
  दूसरी भूमिका कवि स्व. निर्मल चंद निर्मल की हैं। वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की कविताओं की विशेषता को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा है कि -‘‘ ‘‘आज का बालक प्रगतिशील हैं जो आठ पंक्तियों को कंठस्थ कर सकते हैं। मैं सरल जी के इन बाल गीतों की सराहना करता हूं। बाल रुचि को यह रचनाएं भाएंगी और विश्वास करता हूं कि इस ओर अन्य कवि भी अपने कदम बढ़ाएंगे। बाल बुद्धि के लिए बाल गीतों की आवश्यकता है।’’
वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की कविताओं में दृश्यात्मकता भी है, ज्ञान भी है और रोचकता भी है। उनकी यह कविता देखिए-
बारहसिंगा, तेंदुआ, 
है जंगल की जान।
दोनों की अद्भुत गति
जैसे हवा समान।
ख़तरनाक़ है भेड़िया
उस पर है चालाक।
खा जाए ख़रगोश को 
तोड़े उसकी नाक।

जहां कवि ‘‘सरल’’ अपनी कविता के माध्यम से वन्य पशुओं से परिचित कराते हैं, वहीं वृक्षों के महत्व को भी बालमन में स्थापित करने का सुंदर प्रयास करते हैं। यह बालगीत देखिए - 
वृक्ष हमारे देवता
नदियां देवी रूप
आओ इनको रोक लें
हम होने से कुरुप
वृक्षों को हम मान लें 
माता-पिता समान
इनके ही आशीष से 
मिलता जीवनदान।

वृक्ष पर्यावरण चक्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। उनसे हमें आॅक्सीजन मिलती है तथा छाया, फल, फूल, रुई, लकड़ी, औषधि आदि अनेक चीज मिलती हैं। ऐसे महत्वपूर्ण तत्व के प्रति बच्चों को जागरुक करने की दिशा में यह कविता विशेष महत्व रखती है। इसी तारतम्य में एक और छोटी-सी कविता है-
जंगल जीवन का आधार
करना होगा इससे प्यार
इसकी रक्षा बहुत ज़रूरी
खुशियां इससे मिलें अपार
जंगल जीवन का आधार।

वन और वन्य पशु-पक्षियों के प्रति जागरूकता जगाता एक छोटा-सा बालगीत है जिसमें वन्य पक्षियों तथा उनके साथ ग्रामीणजन का व्यवहार का वर्णन किया गया है। चूंकि आज मनुष्यों की रिहायशी बस्तियां फैल रही हैं और जंगल में मनुष्यों कर घुसपैंठ बढ़ गई है अतः वन्यजीवन और मनुष्यों के बीच मुटभेड़ होना तय है। इस प्रकार के टकराव में मनुष्य को ही धैर्य और मनुष्यता का परिचय देना होगा। यह बात इस गीत में स्पष्टरूप से देखा जा सकता है -
जंगल में देखे बहुत
तोता, मैंना  मोर
कानों को भाता बहुत
जिनका अद्भुत शोर
इनका भी अब गांव में
करते लोग शिकार
इनको मिलना चाहिए
जीने का अधिकार

कवि ‘‘सरल’’ ने भालू पर एक बहुत सुंदर कविता लिखी है जो इस संग्रह में मौज़ूद है। इस कविता में उन्होंने भालू की दिनचर्या और बंदर से उसकी दोस्ती का वर्णन किया है। इस कविता का महत्व यह है कि यदि बच्चे अपनी बालावस्था से ही वन्यप्राणियों स्नेह और अपनत्व रखेंगे तो बड़े होने पर वन्य पशुओं के संरक्षण पर पूरा ध्यान दे सकेंगे। कविता इस प्रकार है-
शहद ढूंढता वन में भालू
मगर नाम है उसका कालू
जंगल में बंदर भी लालू
दोनों अक्सर खाएं आलू
शहद ढूंढता वन में भालू
मगर नाम है उसका कालू

इस संग्रह में आपसी भाईचारे और कौमी एकता पर भी कविता है जिसमें बच्चों को सभी प्रकार के भेद-भाव से ऊपर उठ कर, मिलजुल कर रहने का संदेश दिया गया है-
प्रेम भाव से मिल कर रहना
लेकिन कोई जुल्म न सहना
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई
सबको अपना भाई कहना
सत्य और ईमान की दौलत
यही हमारा असली गहना
अपने घर को महल बनाने
निर्धन के घर कभी न ढहना
भारत के कल्याण की ख़ातिर
हिन्दू मुस्लिम मिल कर रहना

कवि वृंदावन राय ‘‘सरल’’ की बाल कविताओं का यह संग्रह इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि आज बच्चों के लिए साहित्य कम रचा जा रहा है। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह कथन आज एक कसौटी की तरह है कि -‘‘बच्चों के कोमल, निर्मल और साफ मस्तिष्क को वैसे ही सहज तथा स्वाभाविक बाल साहित्य की आवश्यकता होती है।’’ कवि टैगोर द्वारा दी गई इस कसौटी पर वृंदावन राय ‘‘सरल’’ बालकविताएं एवं गीत खरे उतरते हैं।
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