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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, January 4, 2022

समीक्षा | कोरोनाकालीन चिंतन से ओतप्रोत पठनीय निबंध संग्रह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 04.0.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक डॉ.श्याम सुंदर दुबे के निबंध संग्रह "सन्नाटे का शोर" की समीक्षा...
आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
कोरोनाकालीन चिंतन से ओतप्रोत पठनीय निबंध संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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निबंध संग्रह   - सन्नाटे का शोर
लेखक        - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक      - के.एल.पचौरी प्रकाशन, डी-8, इन्द्रापुरी, लोनी, गाज़ियाबाद, उ.प्र.
मूल्य         - 300/-
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हिन्दी साहित्य में वर्तमान में जिस विधा में सबसे अधिक लिखा जा रहा है वह है काव्य। यहां काव्य से आशय है गीत, ग़ज़ल, नवगीत, छंदमुक्त कविताएं आदि। यदि किसी विधा में सबसे कम लिखा जा रहा है तो वह ललित निबंध। इसका सबसे बड़ा कारण जो मुझे समझ में आता है वह है धैर्य की कमी। ललित निबंध एक गद्यात्मक कविता की भांति होता है, इसलिए इसमें गद्य और पद्य दोनों के गुण होते हैं। ललित निबंध लिखने के लिए परिवेश को गहराई से समझने, उसका आकलन करने और पूर्व संदर्भों से तुलना एवं उद्धरण द्वारा व्याख्या किए जाने की आवश्यकता होती है। किन्तु शीघ्रातिशीघ्र रचनाकार बन जाने की धुन में अध्ययनशीलता के लिए कोई जगह ही नहीं रहती है। बिना पढ़े इतना ज्ञान नहीं हो सकता है कि उद्धरण दिए जा सकें। यह आवश्यक नहीं है कि जो निबंधकार हो वह कवि भी हो लेकिन यदि उसमें भावों को कोमलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता है तो वह गद्य में भी पद्य की सरसता की अनुभूति करा सकता है। किन्तु यदि वह कवि भी है तो सोने पे सुहागा। यदि परिभाषा की दृष्टि से देखा जाए तो ‘‘निबंध’’ शब्द ‘‘बंध’’ धातु से बना है जिसका अर्थ है बंधन। अर्थात् निबंध वह साहित्यिक लेखन कला है जो पाठक के मन को किसी विषय के साथ अच्छी तरह जोड़ने या बांधने का कार्य करती है। आज कल निबंध साहित्यिक क्षेत्र में वह विचार पूर्ण विवरणात्मक एवं विस्तृत लेख की भांति होता है जिसमें किसी विषय के सभी अंगों का मौलिक एवं स्वतंत्र रूप से विवेचन किया गया हो। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार-‘‘नए युग में जिन नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है वे व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज है। इस प्रकार निबंध में निबंधकार की स्वच्छंदता का विशेष महत्त्व है।’’

आज की समीक्ष्य पुस्तक ललित निबंधों की पुस्तक है। इसका नाम है ‘‘सन्नाटे का शोर’’। इसके लेखक हैं श्यामसुंदर दुबे। वर्तमान हिन्दी साहित्य में यदि प्रतिष्ठित ललित निबंधकारों का नाम लिया जाए तो डाॅ. श्यामसुंदर दुबे एक अग्रणी नाम हैं। वैसे वे कथाकार, कवि, समीक्षक, लोकविद् और बहुत प्रभावी व्याख्यानकार है। 12 दिसंबर 1944 में दमोह जिले की हटा तहसील में जन्मे डाॅ. दुबे ने सागर विश्वविद्यालय से एम.ए., पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। लगभग 40 वर्ष तक उच्चशिक्षा विभाग में प्रोफेसर एवं प्राचार्य पद पर कार्यरत रहे। तदोपरांत डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में स्थित तत्कालीन मुक्तिबोध सृजनपीठ के निदेशक रहे। डाॅ. दुबे निरंतर लेखन में सक्रिय रहे हैं। उनकी 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे लोकसाहित्य के प्रखर व्याख्याकार हैं। डाॅ. दुबे के साहित्य से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वे प्रत्येक विषय को पूरी गंभीरता से लेते हैं और उनकी गहराई में पहुंच कर उसका विश्लेषण एवं विवेचन करते हैं। उनकी यह विशेषता उनके ललित निबंधों में भी स्पष्ट दिखाई देती है।
‘‘सन्नाटे का शोर’’ में कुल बीस ललित निबंध हैं। इनमें लगभग सभी निबंध कोरोनाकालीन अनुभूतियों पर आधारित हैं। संग्रह के नाम में ही उल्लेखित ‘‘सन्नाटा’’। यह लाॅकडाउन का सन्नाटा है। इस पहले बिन्दु पर ही निबंधकार डाॅ. श्यामसुंदर दुबे अपनी लेखनी का आंतरिक विस्तार सामने रख देते हैं। वस्तुतः यह सन्नाटा मात्र लाॅकडाउन का सन्नाटा नहीं है, यह समूची दुनिया में मानवीय जीवन के पहिए के थम जाने से उत्पन्न सन्नाटा है। यह सन्नाटा संवेदन और असंवेदन के मध्य उपजे द्वंद्व का सन्नाटा है। यह जीवन पर मृत्यु के तांडव का सन्नाटा है। मृत्यु का तांडव व्यवस्थाओं के साथ ध्वनियों को भी ध्वस्त कर देता है और सहमा हुआ परिदृश्य अवाक खड़ा रह जाता है। संग्रह के अधिकांश निबंध इसी सन्नाटे के अंतःस्थल को खंगालते हैं और साथ ही एक सजग लेखनी की भांति यह भी बताते चलते हैं कि व्यवस्थाओं में कहां चूक हुई। किन्तु ये निबंध कोई रुदनगान भी नहीं हैं, ये संवाद करते हैं और कुछेक निबंध वातावरण को हल्का करते हुए हास्य-व्यंग्य की चुटकियां भी लेते हैं।

संग्रह का पहला निबंध है ‘पृथ्वी क्रोध नहीं करती’’। इसे पढ़ते हुए सहसा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का निबंध ‘‘क्या लिखूं’’ याद आ जाता है। यद्यपि दोनों निबंधों का विषय अलग है किन्तु एक निबंधकार का किसी विषय को ले कर उहापोह और बालमन को अपने उत्तर से संतुष्ट कर पाने का संकट ‘‘क्या लिखूं’’ की याद दिला गया। लेखक की धेवती लेखक को एक पुस्तक ‘‘पृथ्वी क्रोध में है’’ दिखा कर प्रश्न करती है कि ‘‘नाना जी! ये तो बताइए कि पृथ्वी को कभी क्रोध आता है?’’ धेवती एक प्रश्न छोड़ कर चली जाती है और लेखक चिंतन में डूबता-उतराता रहता है कि क्या सचमुच पृथ्वी क्रोध में है? यदि है तो क्यों? गंभीरता से चिंतन-मनन के बाद लेखक को लगता है कि यदि किसी पुस्तक का ऐसा शीर्षक है तो उसका मूल कारण शताब्दी की भीषण महामारी है। मनुष्य द्वारा उत्पन्न किए गए ऐसे संकटों से पृथ्वी क्रोधित तो होगी ही, अन्यथा पृथ्वी कभी क्रोध नहीं करती।

दूसरा निबंध है ‘‘भीड़ का एकांतिक सन्नाटा’’। लेखक ने इसमें लाॅेकडाउन के समय के एकाकीपन की बारीकी से व्याख्या की है। यह वाक्य देखिए-‘‘लाॅकडाउन ने हमें जो एकांत दिया है, वह भी कम भीड़-भाड़ वाला नहीं है। घर बंद है। दरवाज़े आवाजाही के लिए तरस रहे हैं। किवाड़ों की कुंडियां छूते जी कांप रहा है। कहीं कोरोना वायरस इसमें न चिपका हो। घर में घुसे-घुसे कलम घिसिए, किताब पढ़िए, शतरंज खेलिए, टीवी देखिए, लीड़ए, झगड़िए, रोइए, गाइए कुछ भी करिए पर घर से नहीं निकलिए। घर में ही स्मृति के गलियारों में भटकिए। यह भटकना ही एकांत में भीड़ जोड़ना है। बाहर की भीड़ से भी अभ्यंतर की भीड़ जितना सुख देती है, उससे अधिक दुख देती है।’’ निश्चितरूप से यह अनुभव लगभग हर व्यक्ति का रहा होगा। एक ऐसा अलगाव, एक ऐसा एकांत, एक ऐसा सन्नाटा जो व्याकुलता से भरा हुआ था।
‘‘धन्य सहबा जौन चलाइस रेल’’-तीसरा निबंध। हृदयविदारक घटना का स्मरण कराता निबंध। एक शोकगीत समान। पर एक शोकगीत यदि वह लोक का नहीं है तो वह प्रायः व्यक्तिगत हो कर रह जाता है। अंग्रेज कवि थाॅमस ग्रे (1716-71) का विश्वप्रसिद्ध शोकगीत ‘‘एन एलेजी रिटेन इन ए कंट्री चर्चयार्ड’’ भी वैयक्तिक अधिक है। किन्तु ‘‘धन्य सहबा जौन चलाइस रेल’’ शोकगीतात्मक ध्वनि लिए हुए जन की चर्चा करता है। यह याद दिलाता है उन श्रमिकों की जो लाॅकडाउन के दौरान महानगरों से अपने गांव-घर लौटने को विवश हो गए। उनमें से कुछ थके हुए श्रमिक रोटियां सिरहाने में रख कर रेल की पटरी पर सो गए। रेल आई और उन्हें क्षत-विक्षत करती हुई निकल गई। जिस रेल ने उन्हें उनकी रोजी-रोजगार के लिए महानगर तक पहुंचाया उसी रेल ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। एक गहरे कटाक्ष के साथ जिस प्रकार से डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने इस घटना को शब्दों में बंाधा है उसे निबंध में उतरा जन का शोकगीत कहा जा सकता है-‘‘देवदूत उतर चुके थे और सड़कों पर चलते तथाकथित जाहिल-जपाट अपने घरों की याद में डूबते-उतराते काले कोसों को अपने नंगे पांव से नाप रहे थे। घर की याद ही उन्हें हिम्मत बंधाए थी। गालिब याद आ गए, ‘कोई वीरानी-सी वीरानी है /दश्त को देख के घर याद आया।’ घर की याद में खोए मजदूर रेल की पटरी ऊपर रेल से चिथड़े-चिथड़े हो गए। रेल ने क्या-क्या सपने नहीं दिए। रेल का जादू भारतेंदु बाबू ने समझ लिया था-धन्य सहबा जौन चलाईस रेल, मानो जादू किहिस, दिखाई खेल।’’

रेल से कट कर मजदूरों के मरने की घटना पर एक और निबंध है-‘‘भूख और मौत के बीच रोटियां’’। यह भावुक कर देने वाला निबंध है। इस निबंध के बारे में और कुछ न कहते हुए मैं यहां इस निबंध का एक छोटा-सा पैरा दे रही हूं जो अपने आप में पूर्ण कथा कहने में सक्षम है-‘‘वे निश्चिंत थे कि ट्रेनंें डेढ़ महीने से ही स्थिर हैं। पटरियां सुरक्षित हैं। वे गहरी नींद में पता नहीं किन सपनों में खोए थे कि मालगाड़ी का भारी-भरकम इंजन उन्हें रौंदता हुआ समूची ट्रेन को लेकर गुजर गया। वे लघु निद्रा से चिरनिद्रा में जा चुके थे। जिन रेल पटरियों ने उन्हें सहारा दिया था, उन्हीं पर मौत आई। शरीर मांस के लोथडों में तब्दील हो गए थे। रोटियां बिखर गई थी- उन पर रक्त के छींटे थे। पटरियों के बीच बिखरी रोटियां कह रही थीं- आगि बड़वागि से बड़ी है आग पेट की।’’
इसी तारतम्य में एक और निबंध है-‘‘कोरोना-काल और पृथ्वी की निष्कलुष छवि’’। इसमें एक अन्य दृष्टिकोण से मजदूरों की घर वापसी की घटना को देखा गया है। इसमें मीडिया का पक्ष भी सामने रखा गया है। इस निबंध को अन्य निबंधों से जो बात अलग करती है वह है कि इसमें महात्मा गांधी की ग्राम्य-संकल्पना की याद दिलाई गई है। शहरी प्रगति यदि संहारक है तो गांव की प्रकृति से जुड़ी प्रगति उत्तम है। लेखक ने लिखा है कि -‘‘मजदूर लौट रहा है-गांव की ओर और विश्व को लौटना है गांधी की ओर। गांधी एक आश्वस्तिमय आस्था हैं। जिस आत्मनिर्भरता की बात उठाई जा रही है, वह आत्मनिर्भता गांधी ने अपने जीवन में उतारी थी और अपने देश में उन्होंने इसका आह्वान किया था।’’ सत्य है। यदि ग्रामीण आत्मनिर्भरता होती तो गांवों से लोगों को श्रमिक बनने महानगर नहीं जाना पड़ता और वहां से निराश्रित हो कर पदयात्रा करते, मृत्यु का साक्षात्कार करते नहीं लौटना पड़ता।

‘‘कोरोना की काली रात का सुनहरा प्रभात’’ निबंध में लाॅकडाउन और कोरोनाआपदा के परिप्रेक्ष्य में ऋषि मार्कण्डेय की कथा लेखक ने पिरोई है। ये ऋषि मार्कण्डेय वहीं हैं जो बाल्यावस्था से ही शिव के भक्त थे। उनकी अल्पायु में मृत्यु सुनिश्चित थी। किन्तु यमराज के आने पर घबरा कर शिवलिंग से लिपट गए थे जिस पर शिव ने उनके प्राणों की रक्षा करते हुए यमराज से कहा था कि ‘‘यह मेरी शरण में है अतः तुम इसे अपने साथ नहीं ले जा सकते हो।’’ लेखक ने ऋषि मार्कण्डेय के जीवन के उस प्रसंग की चर्चा की है जब ‘‘ऋषि मार्कण्डेय महाप्रलय में अपनी नौका में सृष्टि के बीज को सुरक्षित रखे रहे।’’ यह कथा ‘‘नोवा की नाव’’ (आर्क ऑफ नोवा) से मिलती-जुलती है। जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महाप्रलय हुआ था जिसमें जीवन के बचाए जाने को विभिन्न संस्कृतियों ने अपने-अपने ढंग से उद्धृत किया। कोरोना आपदा भी किसी महाप्रलय से कम नहीं रही। अतः ऋषि मार्कण्डेय की कथा का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। यह पौराणिक संदर्भों से जोड़ता वर्तमान पर महत्वपूर्ण निबंध है।
‘‘क्षेत्र संन्यास बनाम लाॅकडाउन’’ निबंध में लाॅकडाउन के परिप्रेक्ष्य में क्षेत्र सन्यास के बारे में रोचक ढंग से चर्चा की गई है। लेखक ने लिखा है कि -‘‘आज जो मैं यह लिख रहा हूं यह क्षेत्र सन्यास की व्याख्या का प्रयास नहीं है बल्कि उस स्तब्ध परिस्थिति की नियति का उल्लेख है जिसे कोरोना काल कहा जा सकता है। प्रकृति ने इस काल में क्षेत्र सन्यास का रहस्य खोल दिया है। घर में रहें, दूरी बना कर रहें। यह क्षेत्र सन्यास का नया संस्करण है। केवल इसमें परिवर्द्धन इतना हुआ है कि पूरा कुनबा ही क्षेत्र संयास ले रहा है।’’
संग्रह में एक निबंध है ‘‘पृथ्वी के जूड़े में सूर्य का मणिवलय’’। इस निबंध में सूर्यग्रहण की घटना और लोक तथा आख्यानों का सुंदर रूपक रचा है लेखक ने। किस प्रकार लोक खगोलीय घटनाओं और विज्ञान को अपने सांचे में ढाल लेता है, यह इस निबंध में सामने रखा गया है। एक प्रचलित लोकाचार है कि सूर्यग्रहण के बाद घर-घर से ग्रहण का दान मांगा जाता है। इसी प्रसंग को डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने इन शब्दों में लिखा है कि -‘‘सूर्य का नया जन्म हुआ है तो दाई का दान तो लगेगा ही। मेरे लोक ने कितने-कितने संबंध खोज निकाले हैं? सूर्य का यह संदर्भ मुझे महाकवि निराला की इस पंक्ति का स्मरण करा जाता है- ‘जीवन प्रसून का वह वृंतहीन, खुल गया उषा नभ में नवीन।’- खिलखिलाता हुआ सूर्य ग्रहण के बाद निकलता है-जीवन का संदेश देता हुआ।’’ 

संग्रह के निबंधों में लोक, लोकोत्तियां, मुहावरे और कहावतें हैं। ‘‘बाड़ी का कुम्हड़ा’’, केर बेर का संग’’, ‘‘बूझे-बूझे लाल बुझक्कड़’’, ‘‘घाट-घाट पर गंगा न्यारी’’, ‘‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’’ वे निबंध हैं जो लोक के वैचारिक समाजशास्त्र से परिचित कराते हैं। जैसे ‘‘बाड़ी का कुम्हड़ा’’ निबंध में ‘‘रामचरित मानस’’ और कवि बिहारी के उद्धरण दे कर बाड़ी में फले कुम्हड़े का महत्व निरुपित किया है। लोकजीवन में कुम्हड़े को पितृफल माना जाता है और भारतीय सामाजिक संस्कारों के अनुसार पिता अथवा अपने से बड़ों की ओर तर्जनी नहीं उठाई जाती है। साथ ही यह माना जाता है कि यदि कुम्हड़े के फल की ओर तर्जनी से संकेत कर दिया जाए तो वह फल नष्ट हो जाता है, सड़ जाता है। इन्हीं दोनों लोक पक्षों को एकसूत्र में पिरोते हुए लेखक ने लिखा है कि ‘‘कुम्हड़ा पितृफल है। हमें अपने पुरखों को उंगली दिखाने का अधिकार नहीं है।’’

इसमें कोई संदेह नहीं है कि डाॅ. श्यामसुंदर दुबे एक सिद्धहस्त निबंधकार हैं। उन्होंने अपने इस निबंध संग्रह ‘‘सन्नाटे का शोर’’ में अपने ऐसे ललित निबंधों को प्रस्तुत किया है जो प्रत्येक पाठक को उंगली पकड़ कर अपनी कहन के साथ उस सन्नाटे की ओर ले चलेंगे जहां मौन की अनेक ध्वनियां मुखर हैं और हर ध्वनि में क्षमता है हृदय को आलोड़ित करने की। डाॅ.दुबे का भाषिक सौंदर्य और शैलीगत प्रवाह इन निबंधों की शिल्पीय विशेषता है। यह हर दृष्टि से एक उत्कृष्ट, सरस और पठनीय निबंध संग्रह है।
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