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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, January 5, 2022

चर्चा प्लस | कारा में क़ैद किया जा रहा जेंडर | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
कारा में क़ैद किया जा रहा जेंडर  
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

          स्त्री के लिए ‘लेखिका’ शब्द है और पुरुषों के लिए ‘‘लेखक’’ शब्द। लेकिन फिसलन यह कि ‘‘महिला लेखिका’’ शब्द का प्रयोग भी कर दिया जाता है। अर्थात् एक स्त्री के लिए विशेषण का दोहरा जेंडर। वैसे इस दौरान एक विशेषण प्रत्यय प्रचलन में आया है ‘‘कारा’’। जैसे ‘‘ग़ज़लकारा’’। यहां तक कि मैंने स्वयं अपने लिए संबोधन सुना है ‘‘कहानीकारा’’, ‘‘उपन्यासकारा’’। देखा जाए तो भाषा और स्त्री दोनों को भाषाई दोष की काराओं में बांधा जा रहा है। यह बात हंसी में नहीं उड़ाई जा सकती है क्योंकि थर्ड जेंडर राईटर्स के रूप में रचनाकार-संसार का विस्तार हो रहा है। इस समय विशेषणयुक्त संबोधनों को ले कर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
वर्ष 2009 में नरेन्द्र कोहली की छः भागों की एक उपन्यास श्रृंखला आई थी जिसका नाम था ‘‘तोड़ो, कारा तोड़ो’’। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित थी। मेरी इस चर्चा का इस उपन्यास से मात्र इतना ही तारतम्य है कि इस उपन्यास के नाम में ‘‘कारा’’ शब्द आया है और कारा अर्थात् बंधन को तोड़ने का आह्वान किया गया है। स्त्री-जीवन से भी कारा शब्द का गहरा संबंध है। स्त्री-जीवन अनेक काराओं से अर्थात् बंधनों से जकड़ा हुआ है। इस बंधन की बुनियाद उसके बचपन में ही पड़ जाती है जब उसकी प्रत्येक चेष्टा पर ‘‘ऐ लड़की’’ कह कर अंकुश पर अंकुश लगाए जाते हैं। कृष्णा सोबती ने इसी संबंध में एक उपन्यास लिख डाला था जिसका नाम ही है-‘‘ऐ लड़की’’। स्त्री जीवन की काराओं का आरम्भिक रूप है कि ‘‘ऐ लड़की तू ये न कर’’, ‘‘ऐ लड़की तू वो न कर’’, ‘‘ऐ लड़की तू यहां मत जा’’, ‘‘ऐ लड़की तू वहां मत जा’’, ‘‘ऐ लड़की तू यह मत पहन’’, ‘‘ऐ लड़की तू वह मत पहन’’, ‘‘ऐ लड़की तू इससे बात मत कर’’,‘‘ऐ लड़की तू उससे बात मत कर’’ आदि-आदि अनेक बंधन। स्त्रियों ने इन अनावश्यक काराओं से मुक्त होने के लिए दुनिया भर में लंबा संघर्ष किया है। यह संघर्ष आज भी जारी है। किन्तु जिस अपनी पहचान और अस्तित्व की स्थापना के लिए अनेक स्त्रियां संघर्षरत हैं वहीं कथित प्रबुद्ध स्त्रियां अपने कार्य से जुड़े अस्तित्व की पहचान के साथ ‘‘कारा’’ जोड़े जाने पर कोई आपत्ति नहीं कर रही हैं।
चलिए बता दूं कि यह मुद्दा कहां से दिमाग़ में आया। वस्तुतः फेसबुक पर एक साहित्यिक कार्यक्रम का पोस्टर देखा। जिसमें कवियों के साथ कवयित्रियों, शायराओं की तस्वीरें थीं और उनके नाम के साथ उनकी विधा को स्पष्ट करते हुए ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द लिखा गया था। अब यह ‘‘ग़ज़लकारा’’ क्या होता है? ‘‘ग़ज़लगो’’, ‘‘शायरा’’, ‘‘कवयित्री’’ जैसे शब्द प्रचलन में रहे हैं लेकिन इधर कुछ समय से ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द वाया सोशल मीडिया तेजी से प्रचलन में आया है। अभी कुछ समय पहले एक कार्यक्रम में मेरा लेखकीय परिचय देते हुए एक संचालक महोदय ने मेरे लिए कहा था कि ‘‘ये चर्चित कहानीकारा हैं, उपन्यासकारा हैं, स्तम्भकारा हैं....।’’ अपने परिचय के साथ तीन-तीन ‘‘कारा’’ सुन कर मुझे लगा कि इसके बाद बस, कारागार ही शेष बचता है।

एक ओर स्त्रियों और पुरुषों की समानता के लिए आवाज़ उठाई जाती है। बुद्धिजीवी साहित्यिक वर्ग यहां तक कहता है कि ‘‘लेखक’’, ‘‘साहित्यकार’’ ‘‘कवि’’ आदि शब्दों को लिंगभेद से अलग कर के देखा जाना चाहिए और चाहे स्त्री रचनाकार हो अथवा पुरुष रचनाकार दोनों के लिए एक समान सम्बोधन होना चाहिए। जैसे अंग्रेजी में ‘‘राईटर’’, ऑथर’’ जैसे शब्द दोनों के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। जहां जेंडर स्पष्ट करने की आवश्यकता होती है वहां ‘‘मेल राईटर’’, ‘‘फीमेल राईटर’’ का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में भी स्त्री लेखक, पुरुष लेखक जैसे शब्द प्रचलन में आ चुके हैं। लेकिन मजे की बात है कि इन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी के प्राध्यापकों एवं शोधकर्ताओं तक को गलती करते पाया है। कई बार लिखा हुआ पढ़ने में आया ‘‘महिला लेखिका’’। बोलने में भी कई बार लोग ‘‘महिला लेखिका’’ बोल देते हैं किन्तु इसे ज़बान की फिसलन मान कर अनदेखा किया जा सकता है किन्तु लिखे हुए अथवा मुद्रित सामग्री में ‘‘महिला लेखिका’’ को कैसे फिसलन मान लेंगे? अब कोई ऐसी त्रुटि करने वाले से पूछे कि यदि आप ‘‘महिला लेखिका’’ शब्द ही प्रचलन में लाना चाहते हैं तो फिर साथ में ‘‘पुरुष लेखिका’’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं करते हैं? आखिर तय तो करना पड़ेगा कि आप महिला को ‘‘महिला’’ और ‘‘लेखिका’’ के दोहरे जेंडर सूचक शब्द में बांधना चाहते हैं या फिर सही और उचित संबोधन देना चाहते हैं?
यूं भी अब बात स्त्री या पुरुष सर्जकों की नहीं रह गई है। थर्ड जेंडर की कृतियां भी सामने आने लगी हैं। महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’’ मराठी, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। आर. रेवती दक्षिण भारत में रहने वाली ट्रांसजेंडर सर्जक है। उनकी प्रथम पुस्तक तमिल में प्रकाशित हुई थी जिसका अंग्रेजी अनुवाद का नाम था ‘‘अवर लाइव्स, अवर वर्ड्स’’। फिर 2010 में उनकी दूसरी पुस्तक आई ‘‘ दी ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाईफ स्टोरी’’। आर. रेवती से प्रभावित हो कर ट्रांसजेंडर प्रियाबाबू ने 2007 में ‘‘नान सर्वनान अल्ला’’ और ट्रांसजेंडर विद्या ने ‘‘आई एम विद्या’’ पुस्तक लिखी। तो प्रश्न यह उठता है कि थर्ड जेंडर के साहित्य सर्जकों के लिए किस तरह का संबोधन प्रयोग में लाया जाएगा? क्या बेहतर यही नहीं होगा कि साहित्य सर्जकों को जेंडर सूचक शब्दों की कारा से मुक्त रखा जाए। यदि ‘‘लेखक’’ शब्द सभी के लिए प्रयोग किया जाना है तो वह स्त्री, पुरुष और थर्ड जेंडर तीनों के लिए प्रयोग में आना चाहिए।

इस विषय पर मेरा ध्यान हमेशा ही आकृष्ट हुआ है। सन् 2005 में मेरे उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था जिसकी भूमिका में मैंने हिन्दी व्याकरण में जेंडर की बात उठाते हुए लिखा था कि- ‘‘अंग्रेजी में व्यक्तिवाचक संज्ञा के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय के साथ पर्सन अर्थात व्यक्ति शब्द जुड़ा होता है। यह पर्सन पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी। किंतु हिंदी भाषा के व्याकरण में मानो स्त्री न तो कोई व्यक्ति है न व्यक्तिवाचक संज्ञा। प्रथम है तो पुरुष, द्वितीय है तो पुरुष और तृतीय है तो पुरुष। फिर स्त्री के लिए जगह कहां है? क्या स्त्री का अस्तित्व मात्र लिंग तक सीमित है? क्या स्त्री की पहचान मात्र लिंग तक सीमित है? मैं न तो व्याकरण की आधिकारिक ज्ञाता हूं और न ही आधिकारिक व्याख्याकार हूं, लेकिन एक औरत होने के नाते मुझे यह बात सदैव चुभती है।’’      

खैर, बात चल रही थी, ‘‘ग़ज़लकारा’’ की। इस शब्द ने मुझे इतना परेशान किया कि मैंने अपनी शंका-समाधान के लिए जाने-माने शायर अशोक मिजाज़ जी से इस बारे में पूछा कि उर्दू में ‘‘ ग़ज़लकारा’’ शब्द होता है क्या? वे उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान रूप से ग़ज़ल कहते हैं इसलिए मुझे उनसे अपना उत्तर मिलने की पूरी उम्मीद थी। उन्होंने भी वहीं उत्तर दिया जिसका मुझे पता था कि उर्दू में ऐसा कोई शब्द नहीं होता है। फिर उन्होंने विस्तार से समझाया कि ‘‘ग़ज़ल लिखी नहीं जाती बल्कि कहीं जाती है इसीलिए ग़ज़ल कहने वाले को ग़ज़लगो कहा जाता है। गजलकार शब्द हिंदी में प्रचलन में आ गया है जो उचित नहीं है। क्योंकि ग़ज़ल स्वतः बनती है, उसमें किसी प्रकार की कलाकारी नहीं की जाती है। जहां कलाकारी हो वही कार शब्द उचित लगता है जैसे अदाकार या अदाकारा।’’

इस बारे में मैंने डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर तथा संस्कृत विभागाध्यक्ष डाॅ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी जी से भी चर्चा कर डाली। उन्होंने भी ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द पर आपत्ति जताई कि ‘‘यह सर्वथा गलत है।’’ एक ग़ज़ल विधा के ज्ञाता और दूसरे भाषाशास्त्र के ज्ञाता, इन दोनों से चर्चा करने के उपरांत मुझे विश्वास हो गया कि मैं सही दिशा में चिंतन कर रही हूं। दरअसल प्रश्न मात्र ‘‘ग़ज़लकारा’’ शब्द का ही नहीं है, प्रश्न है भाषा और स्त्री दोनों की अस्मिता का, पहचान का। इस प्रकार के शब्द गढ़ने वाले स्वयं को साहित्य का विद्वान कहते हैं और उसे अनदेखा करने वाले उन्हें अनजाने में प्रोत्साहन देते हैं। यह तो हुई भाषा में दोषपूर्ण शब्दों के समावेश की। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है स्त्री की बौद्धिक विशेषता के लिए दिए जा रहे संबोधन की। स्त्री समाज जहां एक ओर अपनी काराओं को तोड़ कर स्वयं की क्षमता प्रमाणित करने में जुटा हुआ है, वहीं संबोधन में ‘कारा’ का विशेषण प्रफुल्लित हो कर स्वीकार किया जा रहा है। कवियों के लिए तो यूं भी प्रचलित है कि ‘‘जहां न जाए रवि, वहां जाए कवि’’, तो क्या कवि समुदाय इन काराओं तक पहुंच नहीं पा रहा है अथवा देख कर अनदेखा कर रहा है या फिर इस ओर सोचना ही व्यर्थ मानता है? बेशक़ प्रश्न अनेक हैं। क्या करूं, दिल है कि प्रश्न किए बिना मानता ही नहीं। वैसे, फिलहाल तो दिलयही कहना चाहता है (नरेन्द्र करेहली जी से क्षमायाचना सहित) कि ‘‘प्रिय रचनाकार बंधु-बांधवी, तोड़ो कारा तोड़ो और उचित शब्द जोड़ो’’।
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